________________
कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १४
.
होती है, परन्तु जब स्वाभिमान की वृत्ति दम्भ या प्रदर्शन का रूप ले लेती है, तब मनुष्य अपने गुणों एवं योग्यताओं का बढ़े-चढ़े रूप में प्रदर्शन करता है और इस प्रकार उसके अन्तःकरण में मानवृत्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। अभिमानी मनुष्य अपनी अहंवृत्ति का पोषण करता रहता है। उसे अपने से बढ़कर या अपनी बराबरी का गुणी व्यक्ति कोई दिखता ही नहीं।
जैन परम्परा में प्रकारान्तर से मान के आठ भेद मान्य हैं- १. जाति मद, २. कुल मद, ३. बल (शक्ति) मद ४. ऐश्वर्य मद, ५. तप मद, ६. ज्ञान मद (सूत्रों का ज्ञान), ७. सौन्दर्य मद और ८. अधिकार (प्रभुता)। मान को मद भी कहा गया है।
___ मान निम्न बारह रूपों में प्रकट होता है - १. मान-अपने किसी गुण पर अहंवृत्ति, २. मद-अहंभाव में तन्मयता, ३. दर्प-उत्तेजना पूर्ण अहंभाव, ४. स्तम्भ-अविनम्रता ५. गर्व-अहंकार, ६. अत्युक्रोश-अपने को दूसरे से श्रेष्ठ कहना, ७. परपरिवाद-परनिन्दा, ८. उत्कर्ष-अपना ऐश्वर्य प्रकट करना, ९. अपकर्ष-दूसरों को तुच्छ समझना, १०. उन्नतनाम-गुणी के सामने भी न झुकना, ११. उन्नत-दूसरों को तुच्छ समझना; और १२. पुर्नाम-यथोचित रूप से न झुकना।
अहंभाव की तीव्रता और मन्दता के अनुसार मान के भी चार भेद हैं
१. अनंतानुबन्धी मान-पत्थर के खम्बे के समान जो झुकता नहीं, अर्थात् जिसमें विनयगुण नाममात्र को भी नहीं है।
२. अप्रत्याख्यानी मान-हड्डी के समान कठिनता से झुकने वाला अर्थात् जो विशेष परिस्थितियों में बाह्य दबाव के कारण विनम्र हो जाता है।
३. प्रत्याख्यानी मान-लकड़ी के समान प्रयत्न से झुक जाने वाला अर्थात् जिसके अन्तर में विनम्रता तो होती है, लेकिन जिसका प्रकटन विशेष स्थिति में ही होता है।
४. संज्वलन मान-बेंत के समान अत्यन्त सरलता से झुक जानेवाला अर्थात् जो आत्म-गौरव को रखते हुए भी विनम्र बना रहता है।
माया
कपटाचार माया कषाय है। भगवतीसूत्र के अनुसार इसके पन्द्रह नाम हैं। २- १. माया-कपटाचार, २. उपाधि--ठगने के उद्देश्य से व्यक्ति के पास जाना, ३. निकृति-ठगने के अभिप्राय से अधिक सम्मान देना, ४. वलय-वक्रता १. भगवतीसूत्र, १२/४३
२. वही, १२/२४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org