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________________ ६८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन शरीर में 'मैं (अहं) बुद्धि', परिवार में 'मम बुद्धि', इष्ट संयोगों में 'सुखबुद्धि', शाता सम्मान में 'उपादेय-बुद्धि' बनी रहती है। मिथ्यादृष्टि को कर्तव्य-अकर्तव्य, श्रेय-अशेय, पुण्य-पाप, तत्त्व-अतत्त्व, धर्मअधर्म के यथार्थ स्वरूप का निश्चय नहीं होता है। वह नव-तत्त्व के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से नहीं जानता है। यथा __ जीव को अजीव मानना- जीव अनामी है, पर शरीर के आधार पर नामी मानता है। चेतन अरूपी है, पर देह के कारण अपने को रूपी जानता है। मूलतः आत्मा वीतराग स्वभावी है, किन्तु राग-द्वेष को अपना स्वभाव समझता है। आत्मा अजर-अमर है, लेकिन शरीर की उत्पत्ति और विनाश के आधार पर स्वयं के जन्म-मरण की धारणा बनाता है। अजीव (पुद्गल) के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श लक्षणों से अपना अस्तित्व मानता है, यह कि मैं काला हूँ, मैं गोरा हूँ, मैं भारी हूँ, मैं हल्का हूँ, मैं लम्बा हूँ, मैं बौना हूँ, इत्यादि। पुण्य-पाप के स्वरूप के प्रति मिथ्याभाव- शुभ भावों से पुण्य एवं अशुभ भावों से पाप-बन्ध होता है। यद्यपि अशुभ की अपेक्षा शुभ-भाव श्रेयस्कर है ; तथापि शुद्धता की अपेक्षा पुण्य एवं पाप दोनों हेय हैं। तीव्र अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय में तो जीव पाप को भी उपादेय मान लेता है; जैसे- क्रोध करने से सब अनुशासित रहते हैं, झूठ बोलने से लोकप्रिय बना जा सकता है। मिलावट से, कम तौलने से धनवान् बनते हैं, आदि गलत धारणाएँ रहती हैं। मन्द कषाययुक्त मिथ्यात्वी पाप को हेय तथा पुण्य को सम्पूर्णतया उपादेय समझता है। आत्म-ज्ञानी पाप को हेय, पुण्य को मोक्ष की अपेक्षा हेय और पाप की अपेक्षा उपादेय मानता है। आस्रव-संवर का अन्यथा रूप- शुभ-भाव शुभास्रव एवं शुद्ध-भाव का कारण है। मिथ्यात्व दशा में शुभ-भाव में जीव संवर की कल्पना कर लेता है। सामायिक, स्वाध्याय काल में यदि मात्र जप, शास्त्र-वाचन आदि प्रवृत्ति है तो पुण्यास्रव एवं आत्म-रमणता की स्थिति हो तो संवर का निमित्त बनती है। बन्ध-निर्जरा का अन्यथा रूप- तत्त्वार्थसूत्र में 'तपसा निर्जरा च' सूत्र उल्लिखित है। तप से निर्जरा होती है; पर कब? जब बाल-तप नहीं; अपितु सम्यक् तप हो। तृतीय अध्याय में देवायुबन्ध में बाल-तप को कारण बताया गया ४. ५. ६. रयणसार गा. ४० तत्त्वार्थसूत्र / अ. ६ /सू. ३ मोक्षमार्ग प्रकाशक/ अधि. ७/ पृ. २५५-२५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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