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कषाय और कर्म
है। बाह्य-तप यदि अशुभ- भाव संयुक्त होगा तो पाप-बन्ध, शुभ भाव सहित होगा तो पुण्य-बन्ध तथा शुद्ध आत्मभाव रूप होगा तो निर्जरा का निमित्त बनेगा । "
मोक्ष तत्त्व का अन्यथा रूप - तीव्र कषायोदय से युक्त मिथ्यात्वी मोक्ष का अस्तित्व ही नहीं स्वीकार करता । मोक्ष की चर्चा करने वाले का उपहास करता है । मन्द- कषायी जीव मोक्ष सुख और स्वर्ग-सुख में भेद नहीं कर पाता। वह यह नहीं समझ पाता कि स्वर्ग में विषय-जनित सुख एवं मोक्ष में सहज स्वतन्त्र आत्मिक सुख है ।
मिथ्यादृष्टि तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता नहीं होता । तीव्र कषाय की स्थिति में तत्त्व-ज्ञान सम्पादन की रुचि नहीं होती । मन्द- कषाय की अवस्था में इन्द्रिय-विषयों के प्रति वैराग्य, कषाय का उपशम भाव, आत्मानुभव की तीव्र अभिलाषा, सत्समागम और तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो तो जीव सम्यग्दर्शन योग्य पात्र बनता है। सम्यग्दर्शन से पूर्व तीन प्रकार के करण होते हैं
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यथाप्रवृत्तिकरण (मन्द कषाय की स्थिति ) - पहाड़ी नदी के प्रवाह में लुढ़कता पाषाण- खण्ड गोल और चिकना हो जाता है; ' वैसे ही कष्टों के थपेड़े खाती हुई आत्मा कर्म-निर्जरा करके कषाय- मन्दता और आत्म-विशुद्धि को प्राप्त करती है। कर्म-परमाणुओं की स्थिति अन्तः कोटाकोटी सागरोपम रह जाती है–' इस अवस्था को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । दिगम्बर परम्परा में इसे अद्यःकरण कहा गया है। अद्यःकरण से पूर्व जीव चार लब्धि प्राप्त करता है, जो निम्न हैं- "
श्रवण
( १ ) क्षयोपशम ( चिन्तन की शक्ति ), ( २ ) देशना ( सम्यक् उपदेश का मनन ), (३) विशुद्धि ( कषाय-मन्दता) : ( ४ ) प्रायोग्य ( अन्तः कोटाकोटी सागरोपम स्थिति), (५) करण- ( ( अ ) अद्य:करण ( ब ) अपूर्वकरण ( स ) अनिवृत्तिकरण ।
अपूर्वकरण ( अनन्तानुबन्धी कषाय-ग्रन्थि का छेदन) - विशेषावश्यकभाष्य में एक उदाहरण दिया गया है - " किसी भयंकर अटवी (जंगल) में तीन मोक्षमार्ग प्रकाशक / अधि. ७ / पृ. २३३
८. विशेषा. / गा. १२०७
९.
विशेषा. / गा. ११९४
१०.
गो. जी. / गा. ४८
११. विशेषा / गा. १२११
७.
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