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कषाय-जय
१४. आस्रव, संवर एवं निर्जरा भावना की अनुप्रेक्षा करना।२ नदी या समुद्र की अथाह जल-राशि पर तैरती नौका या जहाज में छिद्र होने पर पानी उस में प्रविष्ट होने लगता है ; वैसे ही कषाय-छिद्र से आत्मा में कर्म-प्रवेश होता है। नौका में हुए छिद्र को भर देने से जल-आगमन अवरुद्ध हो जाता है; उसी प्रकार क्षमा-भावपूरित आत्मा में कर्म-निरोध होता है। जिस प्रकार नाव में भरे जल को किसी पात्र से बाहर फेंक देने से नाव हल्की हो जाती है, उसी प्रकार क्षमायतिधर्म का पालन करने से कर्म-निर्जरा कर आत्मा शुद्ध बनती है।
क्रोध-उपशमन हेतु विविध-विचारणाएँ संभवित हैं। सम्यक् विचारणा हेतु एक प्रेरक उदाहरण है- तथागत बुद्ध से एक भिक्षु ने निवेदन किया, 'भगवन्! मैं धर्म प्रचार हेतु अनार्य देश में विचरण की भावना रखता हूँ।' बुद्ध ने कहा, 'यदि वहाँ तुम्हें कोई गाली देगा?' वह मुस्कुराया, 'भन्ते! गालियाँ सुनना बड़ी बात नहीं है। विवाह-प्रसंग पर अक्सर गालियाँ दी जाती है।'
तथागत ने पुनः कहा, 'यदि किसी ने हस्तप्रहार किया?' वह आनन्दित होकर बोला, 'प्रभो! माता-पिता के हाथ से मैंने कई बार मार खाई है, अतः कठिन कार्य नहीं है।' पुन: प्रश्न हुआ, 'वहाँ किसी ने लाठी से पीटा तो?' गंभीर स्वर में वह बोल उठा, 'महात्मन्! पशु-जीवन में मैंने लाठी की मार सहन की है, उसका मुझे अभ्यास है।' बुद्ध ने अंतिम बार उसका मानस टटोला, 'यदि किसी ने वध कर दिया?' भिक्षु के मुख पर हर्ष की रेखाएँ दौड़ गई, 'भगवन्! धर्म प्रचार के लिए यदि मेरा यह विनश्वर शरीर काम आ जाए, तो मेरा सौभाग्य होगा।' तथागत बुद्ध मुस्कुराए, 'भिक्षु! तुम अनार्य क्षेत्र में धर्म प्रचार हेतु पूर्ण योग्य हो।' यह है सकारात्मक दृष्टिकोण। ऐसी विचारणा होने पर क्रोधोत्पत्ति असंभवप्राय है।
पूर्ण क्षमा वीतराग अवस्था में प्रकट होती है। आंशिक क्षमा सम्यग्दृष्टि, उससे अधिक देशविरत श्रावक एवं श्रावक से अधिक सर्वविरति साधु में क्षमा भावना विकसित होती है। सम्यग्दृष्टि अन्याय के विरोध में, धर्म-सुरक्षा के लिए, पदानुरूप प्रसंग में शस्त्र उठाता है; किन्तु शीघ्र क्षमा दान दे देता है। श्रावक का जीवन सीमाबद्ध होता है; समता विशेष होती है। सर्वविरति संयमी अपराधी के प्रति भी क्षमावान होता है। मेतार्य मुनि को स्वर्णकार ने गीले चमड़े से बाँधकर कड़कती धूप में खड़ा कर दिया; किन्तु वे क्षमाभाव में स्थित रहे। १३ १२. बारह भावना
१३. योगशास्त्र
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