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________________ ८८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन और उत्सर्पिणी काल के जितने समय हो सकते हैं, उतने ही स्थान लेश्याओं के हो सकते हैं। २४ असंख्यात् लोकाकाश प्रदेशों के समान स्थान लेश्याओं के हैं। भावों के आधार से एक जीव लेश्या के अनेक स्थानों का स्पर्श कर सकता है। मिथ्यादृष्टि जीव छहों लेश्याओं में रह सकता है, वीतरागी (सयोगी केवली) के मात्र शुक्ललेश्या होती है। अयोगी अवस्था में जीव लेश्या रहित होता है। लेश्या के आधार पर गति-निर्धारण उत्तराध्ययन में कृष्ण, नील व कापोतलेश्या को दुर्गति का कारण, नरकतिर्यञ्च गति का हेतु बताया गया है तथा तेजो, पद्म व शुक्ललेश्या को मनुष्य तथा देवगति बन्ध का कारण बताया है। २५ यह उल्लेख भी प्राप्त होता है कि कृष्णलेश्या से नरकगति, नीललेश्या से स्थावर, कापोतलेश्या से पशु-पक्षी रूप तिर्यञ्चगति, तेजोलेश्या से मनुष्यगति, पद्मलेश्या से देवगति तथा शुक्ललेश्या से देवगति या सिद्धगति प्राप्त होती है। यह भी अपेक्षा से कथन है। भावों के आधार से एक जीव लेश्या के अनेक स्थानों का स्पर्श कर सकता है। मिथ्यादृष्टि जीव छहों लेश्याओं में रह सकता है, वीतरागी (सयोगी केवली) के मात्र शुक्ललेश्या होती है। अयोगी अवस्था में जीव लेश्या रहित होता है। २४. उत्तराध्ययन/ अ. ३४/ गा. २० २५. उत्तराध्ययन/ अ. ३४/ गा. ४१ से ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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