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कषाय के भेद
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प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय पूर्ण रूप से विषय कषाय, भोग-उपभोग से विरत नहीं होने देता। जम्बू स्वामी दो जन्म पहले शिवकुमार के भव में मुनि सागरदत्त के दर्शन कर प्रव्रज्या हेतु उत्सुक बने । शिवकुमार ने मन में श्रमण बनने हेतु संकल्प लिया और पिता राजा पद्मरथ के समीप पहुँचे। दीक्षा हेतु स्वीकृति की प्रार्थना की। नृपति का पितृ-हृदय दहल उठा । पिता का वात्सल्य से भरा हृदय वियोग की कल्पना करके भी कम्पित हो गया। नेत्र भींग गये । क्षण भर मौन का साम्राज्य स्थापित हो गया। तत्पश्चात् काँपती आवाज में राजा पद्मरथ ने मौन भंग किया- 'शिव! तुम जानते हो तुम्हारा विरह हमारे लिए असह्य है । हम मरणपर्यन्त तुम्हें संन्यास की स्वीकृति नहीं दे सकेंगे - ऐसा हमारा मन कहता है । '
इतिहास कहता है शिवकुमार ने आठ दिन अन्न-जल का त्याग कर दिया; किन्तु राजा का निर्णय नहीं बदला। अन्त में दृढ़धर्मा श्रावक के निवेदन पर शिवकुमार ने बारह वर्ष तक बेले- बेले - पारणा आयम्बिल का तप किया किन्तु प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय उन्हें संयम जीवन, पूर्ण विरतिमय जीवन स्वीकार करने में बाधक बना रहा ।
इस प्रत्याख्यानावरण कषाय की अधिकतम काल मर्यादा श्वेताम्बर परम्परानुसार१३२ चार मास एवं दिगम्बर परम्परानुसार ३३ पन्द्रह दिन बताई गई है। यह कषाय चार महीने से अधिक उदय नहीं रह सकती । इस काल में साधक अपने दोष का प्रायश्चित एवं अन्य के अपराध को क्षमादान देता है। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण का उद्देश्य यही है कि अविरति रूप अप्रत्याख्यानी कषाय का उदय न हो।
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संज्वलन कषाय
संज्वलन कषाय के उदय से कषायभाव की मन्दतम परिणति, हिंसादि पापों से पूर्ण विरति, पदार्थों में अल्पतम रति- अरति तथा साधना के मार्ग पर प्रगति होते हुए भी वीतरागता की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती। यह कषाय वीतरागता में बाधक है।
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भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य गौतम गणधर चौदह पूर्वों के ज्ञाता, चार ज्ञान के धारी थे । चौदह हजार श्रमण एवं छत्तीस हजार श्रमणियों के संचालक
१३१. विशेषा. / गा. २९९२
१३२. चउमास. (आचा. / अ. २ / उ. १ / सू. १९० ) १३३. अद्धमासादी... (क. चू. / अ. ८ / गा. ८५ / सू. २२ )
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