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कषाय के भेद
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७. अतीत, आज या अनागत में मनोनुकूल संयोगों का अपहरण जिसके द्वारा- उसके प्रति क्रोध।
८. भूत, वर्तमान या भविष्य में जिससे अमनोज्ञ संयोगों की प्राप्ति की संभावना- उसके प्रति क्रोध।
९. भूत, वर्तमान या भविष्य में मन पसन्द विषयों का अपहरण एवं नापसन्द विषयों की प्राप्ति में जो कारणभूत- उसके प्रति क्रोध।
१०. आचार्य, उपाध्याय के प्रति सम्यक्/उचित व्यवहार होने पर भी उनसे प्रतिकूलता प्राप्त होने पर क्रोध।
क्रोध एक कार्य है, उसके कारण हैं- मान, माया और लोभ। अभिमान को ठेस लगने पर, माया प्रकट होने पर अथवा लोभ आकांक्षा पूर्ण न होने पर क्रोध-ज्वालाएँ भभकने लगती हैं। निमित्त रूप कोई भी पदार्थ या प्राणी हो; पर मूल कारण स्वयं आत्मा की अशुद्ध परिणति है।
(२) मान मान एक ऐसा मनोविकार है, जो स्वयं को उच्च एवं दूसरों को निम्न समझने से उत्पन्न होता
सूत्रकृतांग में कहा गया है ६० 'अभिमानी अहं में चूर होकर दूसरों को परछाईं के समान तुच्छ मानता
ज्ञानार्णव में शुभचन्द्राचार्य का कथन है - ६१ 'अभिमानी विनय का उल्लंघन करता है और स्वेच्छाचार में प्रवर्तन करता है।'
योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने मानजनित हानियाँ बताई हैं-६२ 'मान बिनय, श्रुत और सदाचार का हनन करने वाला है। धर्म, अर्थ और काम का घातक है। विवेकरूपी चक्षु को नष्ट करने वाला है।
धर्मामृत (अनगार) में उपमा के माध्यम से मान के विषय में कहा गया है-६३ 'जैसे सूर्य के अस्त होने पर अन्धकार व्याप्त हो जाता है और निशाचर
६०. "अण्णं जणं पस्सति बिंबभूयं (सू. कृ. / अ. १३ / गा.८) ६१. करोत्युद्धतधीर्मानाद्विनयाचारलघनम् (ज्ञानार्णव | सर्ग १९ / गा. ५३) ६२. विनय श्रुतशीलानां त्रिवर्गस्य च घातकः (योगशास्त्र | प्र. ४ | गा. १२) ६३. धर्मामृत अनगार / अ. ६ / श्लो. १०
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