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________________ कषाय और कर्म गुणस्थानक होता है। चतुर्थ गुणस्थानकवर्ती जीव भी कभी-कभी तीसरे गुणस्थानक का स्पर्श कर पुनः चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है। (४) अविरत सम्यग्दृष्टि (अप्रत्याख्यानादि कषाय का उदय)सम्यग्दर्शन एक अनुपम उपलब्धि है। ज्यों घने अंधकार में बिजली कौंधने पर आसपास का सम्पूर्ण दृश्य दिखाई दे जाता है, त्योंहि आत्मानुभव का प्रकाश होने पर देह और आत्मा की भिन्नता का स्पष्ट बोध हो जाता है; देह में आत्मभ्रान्ति समाप्त हो जाती है। इस भूमिका में बोध हो जाने पर भी भोगों अथवा हिंसा आदि पापों के प्रति विरक्त भाव जागृत नहीं हो पाता। बोध हो जाता है, एक दृष्टि मिल जाती है। ठीक-ठीक समझ में आ जाता है, क्या करने योग्य है, क्या न करने योग्य है। दिखता है कि सत्य क्या है? लेकिन जो समझा है, वह आचरण नहीं बन पाता। स्पष्ट प्रतीति होती है कि सत्य बोलें। सत्य ही शुभ है। लेकिन असत्य का त्याग कर दें, इतना साहस नहीं जुट पाता। सत्य जानना अलग है और सत्यमय हो जाना अलग है। सही रास्ते का ज्ञान होना और उस पर चल पड़ना - दोनों अलग-अलग अवस्थाएँ हैं। सम्यग्दृष्टि समझता है कषाय उपादेय नहीं है; किन्तु कषाय विनष्ट नहीं होता। सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का कहा गया है-१५ (अ) औपशमिक- अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क एवं दर्शनमोह का उपशम। (ब) क्षायोपशमिक- अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व एवं मिश्र मोहनीय का उपशम तथा सम्यक्त्व मोहनीय का उदय। (स) क्षायिक- अनन्तानुबन्धी कषाय एवं दर्शन-मोह का क्षय। (५) देशविरति सम्यग्दृष्टि (प्रत्याख्यान कषायोदय)- देशविरत! इस गुणस्थान से संयम का क्षेत्र प्रारम्भ होता है। अब सत्य का आंशिक आचरण होने लगता है। देशविरत वह है, जिसने अपने जीवन में सीमा बनानी शुरू कर दी। अपने जीवन को परिधि देनी प्रारम्भ की। दिशा तय हुई, देश तय हुआ, सीमा बाँधी, संयम में उतरे। अपने जीवन को संयत करने पर साधना में गहराई आने लगती है। आज आत्मिक कर्तव्य में रस होता है, अकर्तव्य में धीरे-धीरे विरसता आती है। ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण होने लगता है। अप्रत्याख्यानी कषाय १५. सर्वार्थसिद्धि/ अ. १ /सू. ७ की टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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