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________________ ७२ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन का क्षयोपशम हो कर भोगोपभोग से आंशिक रूप में विरत हो जाता है।६ प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय सर्वविरति में बाधक रहता है। (६) प्रमत्तसंयत (संज्वलन कषाय का उदय)- प्रमत्तविरत। संयम के साथ-साथ मंद रागादि के रूप में प्रमाद रहता है। संयम है, अनुशासन है, लेकिन जन्म-जन्मान्तर के कषाय संस्कारों की मन्द छाया है। कषाय उदित होता है; किन्तु शीघ्र समाप्त हो जाता है। भ्रम, स्मृति-भ्रंश, शुभ-रागादि प्रमाद से साधक ग्रस्त रहता है। इस अवस्था में साधक बाह्य शुभ-प्रवृत्तियों में व्यस्त होता है। हिंसादि पापों का सम्पूर्णतया त्याग हो जाता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम एवं संज्वलन कषाय का उदय होने पर प्रमत्तसंयत गुणस्थान होता है। १७ (७) अप्रमत्तसंयत (मन्द संज्वलन कषाय)- इस गुणस्थान में किसी प्रकार का भी प्रमाद प्रगट नहीं होता। किसी तरह की अभिव्यक्ति नहीं होती। अब कोई स्थिति नहीं होती प्रकट राग की। भीतर अचेतन मन में कषाय-तरंगे उठती हैं और वहीं विलीन हो जाती हैं। चेतन मन द्रव्य गुण-पर्याय के चिन्तन में तल्लीन होता है। स्वरूपाचरण में आनन्दानुभव की ऊर्मियों उठती रहती हैं। इस गुणस्थान का समय अन्तर्मुहर्त से अधिक न होने के कारण साधक कभीप्रमत्त कभी अप्रमत्तावस्था का झूला झूलता है। अप्रमत्तता की स्थिति बढ़ने पर साधक श्रेणी प्रारम्भ करता है। संज्वलन कषायोदय रहता है। (८) अपूर्वकरण (मन्दतर संज्वलन कषाय)- साधना की इस भूमिका में प्रवेश होने पर जीवों के परिणाम प्रति समय अपूर्व-अपूर्व होते हैं। सातवें गुणस्थान में भूमिका निर्माण और आठवें से श्रेणी आरोहण प्रारम्भ होता है। प्रतिपल अपूर्व-अपूर्व अनुभव होते हैं, जैसे कभी न हए थे। चौदह गुणस्थानों की आधी यात्रा पूर्ण हो चुकी, मुक्ति की ओर, भवसागर के किनारे की तरफ यात्रा प्रारम्भ हो गई। अपूर्व करण निम्न हैं १. अपूर्व स्थितिघात, (२) अपूर्व रसघात (३) अपूर्व गुणश्रेणी (४) अपूर्व गुणसंक्रमण (५) अपूर्व स्थितिबंध। संज्वलन कषाय का मन्दतर उदय होता है। अपूर्वकरण में समाधि की स्थिति होती है। अनुभव के स्रोत खुलते चले जाते हैं। भीतर कषाय-संस्कार उपशमित अथवा क्षय होते चले जाते हैं। १६. विशेषा./ गा. १२३१ १७. विशेषा/गा. १२३४ १८. विशेषा. / गा. १२४७ - १२४८ १९. जैनधर्म ना कर्म सिद्धांत नुं विज्ञान/ जयशेखर सूरि | पृ. २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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