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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
राग-द्वेष एवं क्रोधादि कषाय अपने स्वरूप का अज्ञान, स्वयं की शरीर रूप मान्यता की भूल ही संसार की जड़ है। शरीर को 'मैं' रूप मान कर जीव परिवार, सम्बन्धी आदि के प्रति 'मेरा' भाव बना लेता है। व्यक्ति जगत के साथ-साथ वस्तु-जगत के प्रति अधिकार स्थापित करता है। इष्ट, मनोनुकूल, वांछित संयोगों को प्राप्त कर अभिमान करता है। प्राप्त में प्रसन्नता राग भाव है, अत: मान राग का एक रूप है।
यह अज्ञानी जीव अपने आपको सर्वश्रेष्ठ, विलक्षण दिखाने हेतु अनेकविध कपटाचरण करता है। मायावी रूप से अन्य को छल कर हर्षित होता है, अत: माया राग स्वरूप है।
परमात्म-तुल्य यह आत्मा, जो अनन्त शक्तियों का भंडार है; किन्तु स्वयं की शक्तियों से अनभिज्ञ बन कर भौतिक-सम्पदा की कामना करता है। सांसारिक सुखों की चाहना, संग्रह में आसक्ति होने के कारण लोभ राग की एक परिणति है।
अपनी मानी हुई प्रतिष्ठा को धक्का लगने पर, छल-कपट प्रकट होने पर अथवा स्वार्थ को ठेस लगने पर क्रोधोत्पत्ति होती है, वह क्रोध द्वेष-रूप है।
आचारांग में विषय को संसार कहा गया है। पाँच इन्द्रियों के विषय कषायों के उत्पत्ति स्थान हैं। विषयों के कारण आत्मा अशुभ भाव परिणमन करता है। विषय सामग्री के आधार पर अभिमान, उसे प्राप्त करने के लिए माया, उसी को पाने की चाहना रूप लोभ तथा विषय-प्राप्ति न होने पर क्रोध करता है।
नय-दृष्टि से राग-द्वेष में क्रोधादि कषायों का अन्तर्भाव निम्न प्रकारेण है
नैगम एवं संग्रह नय-इन दोनों नयों की अपेक्षा क्रोध-मान द्वेष-रूप तथा माया-लोभ राग-रूप हैं। १३
क्रोध-परिताप देता है, वैर को जन्म देता है, दुर्गति में ले जाता है, अनर्थ की जड़ है, अतः द्वेष-रूप है।
___ मान-अभिमानी अपने मदोन्मत्त व्यवहार के कारण दूसरों को अपना शत्रु बना लेता है, अतः द्वेष-रूप है। १३. विशेषा./गा. २९६९ १४. प्रशमरति/ गा. २६
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