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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
___ रुक्मी ने सहज होने का प्रयास करते हुए कहा- 'भगवन् ! वह कटाक्ष मात्र आपकी परीक्षा हेतु था।' आचार्य मौन हो गए। पर शास्त्र कहते हैं- रुक्मी साध्वी का पाप माफ नहीं हुआ। माया ने उस पाप की जड़ों को इतना गहरा कर दिया कि जन्म-जन्मान्तर में उखाड़ना कठिन हो गया। ऐसा है यह मायाकषाय।
(४) लोभ ___लोभ एक ऐसी मनोवृत्ति है, जिसके वशीभूत हो पापों की दलदल में पाँव धरने के लिए भी व्यक्ति तैयार हो जाता है।
स्थानांगसूत्र में लोभ को आमिषावर्त कहा गया है। १० जिस प्रकार मांस के लिए गिद्ध आदि पक्षी चक्कर काटते हैं, उसी प्रकार लोभी मनुष्य इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए उद्यमशील रहता
है। लेकिन उसके बाद भी प्राप्ति क्या? आचारांगसूत्र में वर्णन है-१०८ सुख की कामना करने वाला लोभी बारबार दुःख को प्राप्त करता है।
योगशास्त्र में लोभ कषाय को ज्ञानादि गुणों का क्षय करने वाला, दुःख रूपी बेल की जड़ रूप तथा काम धर्म-मोक्ष पुरुषार्थ में बाधक प्रतिपादित किया
प्रशमरति में लोभ को सब विनाशों का आधार, सब व्यसनों का राजमार्ग
बताया है। ११०
ज्ञानार्णव में लोभ को अनर्थ का मूल, पाप का बाप कहा है। ११
धर्मामृत (अनगार) में बताया है- ११२ इस कषाय से पीड़ित व्यक्ति अपने स्वामी, गुरु, परिजनों, असहायों को भी निःशंक मौत के घाट उतार देता है।
१०७. आमिसावतसमाणे लोभे (ठाणं/स्थान ४/उ. ४/ सू. ६५३) १०८. सुहट्ठी लालप्पभाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति... (आयारो/ अ. २/ उ. ६/
सू. १५१) १०९. आकर : सर्वदोषाणां (यो. शा./प्र. ४/ गा. १८) ११०. सर्व विनाशाश्रयिणः... (प्र. र./ गा. २९) १११. स्वामिगुरुबन्धुवृद्धान (ज्ञा./ सर्ग. १९/ गा. ७०) ११२. तावत्कीय. (अ.ध./ अ. ६/ गा. २७)
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