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________________ ४० अनन्तानुबन्धी कषाय अनन्तकाल से अनुबन्धित, ११ अनन्त भवों तक संस्कार रूप से संयुक्त अनन्त पदार्थों में इष्टानिष्ट धारणाजनित, अनन्त संसार का कारणरूप १२३, सम्यग्दर्शन का विघातक १४ - अनन्तानुबन्धी कषाय है । संसार में अनन्त पौद्गलिक सुखों की अतृप्त कामना अनन्तानुबन्धी कषाय है। आत्मभ्रान्ति रूप मिथ्यात्व दशा में समुपस्थित कषाय अनन्तानुबन्धी कहलाता है। अज्ञानावस्था में जीव पर - पदार्थों, संयोगों, प्राप्त निमित्तों को अपने सुख-दुःख का कारण मानकर उन पर राग-द्वेष करता है। अनुकूल निमित्तों को पाकर गर्व करता है। मनोज्ञ पदार्थों के अधिकार के लिए माया का आश्रय लेता है । प्रिय वस्तु और प्रिय व्यक्ति के संयोग की लालसा रखता है। किसी संयोग को प्रतिकूल मानकर क्रोध करता है। मिथ्या मान्यताओं, गलत धारणाओं के वशीभूत होकर कषायों के जाल में फँसा रहता है। वस्तुतः तथ्य यह है कि पर पदार्थ अथवा अन्य जीव हमें सुख-दुःख दे नहीं सकते; अपितु हम अपने ही अज्ञान से सुख-दुःख का अहसास करते हैं। 'भावदीपिका' में व्यावहारिक स्तर पर इस कषाय का स्वरूप बताया है २५ – क्रूर, हिंसक, निम्नतम, लोकाचार का उल्लंघन करने वाला, सत्यासत्य के विवेक से शून्य, देव-गुरु-धर्म पर अश्रद्धा रखने वाला व्यक्ति अनन्तानुबन्धी कषायुक्त है। क्षत्रियकुण्ड के राजकुमार, त्रिशला महारानी के दुलारे, सिद्धार्थ महाराजा के प्यारे - पुत्र वर्धमान कुमार ने यौवन की रंगीन बेला में श्रमण जीवन अंगीकार किया। महलों में पलने वाले, अनेक सेवक-सेविकाओं से सेवित वे राजपुत्र एकाकी - विचरण करने लगे। बीहड़ जंगल, कण्टकाकीर्ण झाड़ियाँ, उत्तुंग पर्वत की पहाड़ियाँ, अन्धेरी गुफाएँ कैसे-कैसे भयजनक स्थानों पर उन्होंने साधना की अलख जगाई। कितने उपसर्गों, संकटों, परीषहों को समत्व से सहन किया । प्रभु की समता की प्रशंसा इन्द्र महाराज ने देवसभा में की। सर्व देवों ने कषाय: एक तुलनात्मक अध्ययन ... १२१. अनन्तान् भवाननुबद्धं (घ. / पु. ६ / अ. १ / सू. २३ ) १२२. अनंतेसु भवेसु अणुबंध .... ( वही ) Jain Education International १२३. (अ) अणंतानुबंधो संसारा.... ( वही ) (ब) अनन्तसंसार कारणत्वा.... ( सर्वार्थसिद्धि / अ. ८ / सू. ९ ) १२४. पढमो दंसणघाई.... (गो.जी./ गा. २८३ ) १२५. भावदीपिका / पृ. ५१ For Private & Personal Use Only १२२ 1 www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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