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________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन ३. अभिलाषा-इच्छित संयोग की तीव्रतम कामना। ४. अभिनन्द-मनोवांछित पूर्ण होने पर अति हर्ष। । ५. स्नेह-व्यक्ति विशेष के प्रति अनुराग। ६. ममत्व-वस्तु या व्यक्ति के प्रति स्वामित्व। ७. गृद्धता-प्राप्त विषयों में सघन लिप्सा। ८. मूर्छा-मन पसन्द विषयों में गहन आसक्ति। Sunny जैसे एक ही रंग में हल्के गहरे रूप कई छवियाँ संभव हैं, ठीक वैसे ही राग-भाव में भी राग की अनेक छवियाँ (रंगतें) हैं। मुख्यतः वे दो प्रकार की हैं- (१) अशुभ-राग; और (२) शुभ-राग।" __ अशुभ-राग (अशुभोपयोग)-इन्द्रिय-विषय तथा क्रोधादिक कषायों में तल्लीनता, सुख-सुविधा के साधनों में, सत्ता सम्पत्ति सौन्दर्य के प्रसाधनों में रमणता, काया, कामिनी, कुटुम्ब में मुग्धता इत्यादि ये अशुभ-राग की ही परिणतियाँ हैं।" अशुभ-राग पाप बन्ध का कारण है, अतः सर्वथा त्याज्य है। यथासंभव अशुभ-राग से बचना श्रेयस्कर है। शुभ-राग (शुभोपयोग)-शुद्धता के प्रति अनुराग, शुद्धात्म प्राप्ति हेतु त्याग, तप, सेवा, व्रतपालन, प्रभु-पूजन आदि शुभ क्रियाओं के प्रति रुचि शुभराग है।' इन्द्रिय-विषयों से पराङ्मुख होकर मन जब-जब शुभ प्रवृत्तियों में तल्लीन बनता है, तब-तब पुण्य-बन्ध होता है। वृत्ति एवं प्रवृत्ति- दोनों की शुभता में पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है। यह बन्ध हेय नहीं उपादेय है, यह सोने की बेड़ी नहीं मोक्ष की सीढ़ी है। राग-भाव जब प्रभु परमात्मा में निष्काम रूप से केन्द्रित होता है; तो भक्ति कहलाता है। इसे प्रशस्त-राग भी कहा है। इस तथ्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि अशुभ (इन्द्रिय विषय, व्यसनादि) में रहने की अपेक्षा शुभ (प्रभु भक्ति, सेवा, ज्ञानार्जन आदि) में रहना श्रेयस्कर है। शुद्ध की अपेक्षा शुभ एवं अशुभ दोनों हेय हैं। द्वेष-प्रीति का अभाव एवं अप्रिय व्यक्ति, स्थिति या वस्तु के प्रति अन्तरंग में आक्रोश का नाम द्वेष है। - ४. प्रवचनसार/ गा. ६६-६९ ५. विसयकसाओगाढ़ो (प्रवचनसार/गा. ६६) ६. देवदजदिगुरुपूजासु (प्रवचनसार/गा. ६९) ७. समयसार अधि. ३/गा. १४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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