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द्वितीय अध्याय कषाय के भेद
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क्रोध
राग ।
लोभ
मान
माया
_ 'प्रशमरति' ग्रन्थ में राग एवं द्वेष कषाय के दो भेद बताए हैं' ; किन्तु 'स्थानांगसूत्र' में राग-द्वेष की उत्पत्ति आसक्ति से बताई गई है। राग-द्वेष शब्दों का प्रयोग आगम साहित्य, आध्यात्मिक एवं दार्शनिक साहित्य में भी दिखाई देता है।
___ अनुकूल, इष्ट और प्रिय पदार्थों के संयोग से राग की उत्पत्ति होती है। जिस समय जो संयोग इष्ट प्रतीत होता है, उस समय उस संयोग के प्रति रागभाव उदित होता है, वही संयोग यदि किसी समय अनिष्ट प्रतीत होने लगे तो उसी के प्रति द्वेष-भाव आने लगता है। राग-भाव में तरतमता आती है तो राग के पात्रों में परिवर्तन होता है। इसीलिए राग के अनेक रूप होते हैं- 'प्रशमरति' में राग के आठ पर्याय वर्णित हैं :
१. इच्छा-इष्ट संयोग की चाहना।
२. काम-प्रिय-मिलन की विशेष भावना। १. प्रशमरति/ गा. ३१ २. दुविहा मुच्छा पन्नता... (ठाणं/ स्थान २/सूत्र ४३२ ३. इच्छामूर्छाकामः .... (प्रशमरति/ गा. १८)
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