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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
चतुर्गति में कषाय-चतुष्क की काल तरतमता प्रत्येक संसारी आत्मा कषायसहित होती है। एक समय में एक कषाय का उदय रहता है, अन्य तीन कषायें उस समय सत्ता में स्थित रहती हैं। प्रत्येक कषाय अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक उदय रह सकती है ; उसके पश्चात् भाव-परिवर्तन अवश्य हो जाता है। २३
__ आगम-साहित्य में गति की अपेक्षा कषाय की तीव्रता के विषय में प्रतिपादन है
(१) देवगति में लोभ की अधिकता, (२) मनुष्यगति में मान की बहुलता, (३) तिर्यंचगति में माया की प्रमुखता; तथा (४) नरकगति में क्रोध की तीव्रता होती है।
देवगति में भोगों की बहुलता, यौवन की मादकता, पुण्य की प्रखरता के कारण अनुकूलता बनी रहती है; अतः भोगेच्छा रूप लोभ-भाव का उदय अधिक रहता है। मान, माया एवं क्रोध की अल्पता रहती है।
मनुष्य सम्मान-प्रिय होता है। यश, प्रतिष्ठा के लिए परिश्रम से कमाए धन का लोभ त्याग कर देता है। अपयश की संभावना में आत्मघात कर लेता है। शक्ति के मद में व्यक्ति स्वयं को महत्त्वपूर्ण समझता है और अन्य से महत्त्व पाना चाहता है। अपमानित होकर सुस्वादु व्यंजन की अपेक्षा वह ससम्मान प्राप्त सादा भोजन को अधिक पसन्द करता है। यद्यपि लोभ, माया एवं क्रोध कषाय सभी का उदय होता रहता है; किन्तु मान का उदय विशेष रहता है।
तिर्यंच गति में माया-कषाय विशेष होती है। माया तिर्यंच गति के बन्ध का कारण है। पशु-पक्षियों के जीवन में क्षुधा-पूर्ति के लिए माया विशेष दिखाई देती है। बगुला मछली पकड़ने के लिए स्थिर खड़ा रहता है। बिल्ली दूध पीने का अवसर ताकती रहती है और मौका पा कर रसोईघर में घुस जाती है। माया के साथ-साथ लोभ, मान एवं क्रोध का भी उदय होता है।
नरक गति में क्षेत्रजन्य वेदना, परमाधामी देवों द्वारा प्रदत्त वेदना, क्षुधा तुषा, रोगादि की भयंकर पीड़ा तथा अवधिज्ञान विभंगज्ञान से अपने पूर्वजन्म के शत्रुओं को पहचानकर द्वेष भावना से क्रोधाग्नि विशेष प्रज्ज्वलित रहती है। लोभ, मान एवं माया कषाय की अल्पता रहती है।
छह अनुयोगद्वारों में अन्तिम द्वार कषाय के भेदों का विवेचन अगले अध्याय में होगा। २३. क. चू. / अ. २ / गा. २५ / सू. ३४-३५ का विशेषार्थ
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