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कषाय के भेद
'प्रशमरति' में द्वेष के आठ भेद बताए हैं - १. दोष-चित्तवृत्ति का दूषित होना। २. असूया-अन्य के गुणों को सहन न करना। ३. प्रचण्डन-दुस्सह क्रोध।
४. मत्सर-द्वेष के कारण यथार्थ को स्वीकार न करना, अन्य की योग्यता को यथोचित सम्मान नीच देना।
५. परिवाद-दूसरों के दोष देखना व बताना। सामान्यतः इस वृत्ति को निन्दा कहते हैं। निन्दा में अपनी शक्तियों के प्रति अहंकार एवं दूसरों के प्रति तिरस्कार की भावना होती है।
६. रोष-जब अभिमान को ठेस लगती है, तब रोष का जन्म होता है। रोष क्रोध का रूपान्तरण है।
७. ईर्ष्या-किसी की सम्पत्ति, सम्मान तथा सुविधा को देख जलना तथा उनके नाश हेतु दुर्भावना रखना। ईर्ष्यालु, जो उसके पास नहीं है उससे उतना दुःखी नहीं होता; बल्कि वह इसलिए दुःखी होता है कि दूसरों के पास वह सब क्यों है? आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ईर्ष्या का विवेचन किया है -ईर्ष्या में कई भावों का मिश्रण होता है। ईर्ष्या एक संकर भाव है, जिसकी सम्प्राप्ति आलस्य, अभिमान और नैराश्य के योग से होती है। जब दो बच्चे किसी खिलौने के लिए झगड़ते हैं, तब कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि एक बच्चा उस खिलौने को लेकर तोड़ देता है, जिससे वह किसी के काम नहीं आता। इससे अनुमान होता है कि उस लड़के के मन में यह भाव होता है कि चाहे यह खिलौना मुझे मिले या न मिले किन्तु दूसरे को भी न मिले। इस प्रकार ईर्ष्या द्वेष का ही एक रूप है। ईर्ष्या में मान एवं क्रोध दोनों की युति (समन्वय) है।
उदाहरण प्राप्त होता है कि रथमर्दन नगर के राजकुमार कनकरथ ने कावेरी नगर की राजकुमारी रुक्मिणी से विवाह हेतु प्रयाण किया। जंगल में नैसर्गिक सौन्दर्यशालिनी ऋषिदत्ता से भेंट होने पर मुग्ध हो कर विवाह-बंधन में बँध गया। रुक्मिणी को कुमार के लौटने का समाचार सम्प्राप्त हुआ। क्रोध से शरीर काँपने लगा- ईर्ष्या से तन-बदन में ज्वाला दहकने लगी। एक षड्यन्त्र रचा। विद्यासिद्ध योगिनी को धन से वश करके रथमर्दन नगर भेज दिया।
८. प्रशमरति गा. १९ ९. चिन्तामणि/ भाग-२/पृ. १०७ १०. नैन बहे दिन रैन आचार्य भद्रगुप्त सूरीश्वर
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