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कषाय और कर्म
(२) संयमासंयम- सम्यग्दृष्टि गृहस्थ साधक श्रावक के बारह व्रतों को स्वीकार कर पाप से विरत होता है।
(३) बालतप- आत्मशुद्धि के लक्ष्य के बिना विषय-कषाय का निग्रह करना अथवा तप-त्याग में संलग्न होना बालतप है।
(४) अकाम निर्जरा- पराधीनतापूर्वक कष्ट सहन कर कर्मों को भोगकर समाप्त करना - अकाम निर्जरा है।।
'स्थानांगसूत्र' में कषायों की तीव्रता-मन्दता की अपेक्षा गति निर्धारण प्रतिपादित है-३३ __अनन्तानुबन्धी अर्थात् तीव्रतम कषाय से नरक गति, अप्रत्याख्यानावरण अर्थात् तीव्र कषाय से तिर्यंचगति, प्रत्याख्यानी अर्थात् मन्द कषाय से मनुष्यगति एवं संज्वलन कषाय अर्थात् मन्दतम कषाय से देवगति का बन्ध होता है। शुभभाव पुण्य का कारण है।
जंगल में बलदेव मुनि का वस्त्र मुँह में दबा कर एक मृग खींचता हआ वहाँ ले गया, जहाँ एक लकड़हारा भोजन करने के लिए बैठा ही था। मुनि को देखते ही हर्षोल्लास से वह लकड़हारा आहार देने लगा। मुनि सहज निर्विकार चित्त से ग्रहण करने लगे और वह मृग आनन्द-विभोर होने लगा। उसी क्षण वृक्ष की डाल टूटी और तीनों पर गिरी। तीनों की मृत्यु हुई और शुभ-परिणामों के कारण पंचम देवलोक में उत्पन्न हुए।
६. नामकर्म बन्ध हेतु माया-कषाय की प्रमुखता नामकर्म से शरीर, इन्द्रिय, गति, संहनन, आदर, यश, सुस्वर आदि प्राप्त होता है। यह दो प्रकार का है- (१) अशुभ ; और (२) शुभ।
मन-वचन-काय (त्रिकरण-योग) में कपट-वृत्ति रखना एवं अन्य को भी कुटिल विचार, वचन और व्यवहार के लिए प्रेरित करत अशुभ नामकर्म का बन्ध हेतु है। कौआ किसी को अच्छा नहीं लगता। उसकी दुःस्वर नामकर्म के कारण कर्कश आवाज में काँव-काँव सुन कर उसको उड़ा दिया जाता है।
शुभ नामकर्म के बन्ध-हेतु इसके विपरीत है। हृदय की ऋजुता, सरलता, स्वच्छता से शुभ नामकर्म बन्धता है। इस कर्म के प्रभाव से वह आदर पाता है, सुस्वर मिलता है। कोयल भी कौए के समान काली है; किन्तु उसकी कुहु-कुहु की टहुकार हृदय को आह्लादित कर देती है।
३३. ठाणं स्था. ४/ उ. ४ ३४. तत्त्वार्थसूत्र/ अ. ६/ सू. २२
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