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________________ कपाय और कर्म १०७ (११-१२) कलह और अभ्याख्यान-क्रोध जब वादविवाद का रूप धारण कर लेता है, तब कलह कहलाता है। कलह में कषायों के आश्रय से लेश्याएँ अशुभ बनती हैं, अध्यवसायों की धारा मलिन बनती है, आर्तध्यान और रौद्रध्यान होता है। जैसे ईंधन डालने से अग्नि भड़कती है, वैसे ही क्रोध में प्रतिक्रिया रूप शब्द बोलते जाने से कलह हो जाता है। कलहप्रिय व्यक्तियों का स्वभाव सामान्य-सामान्य विषयों में झगड़ा करने का होता है। ऐसे व्यक्ति अपने अपराध को स्वीकार न कर दूसरों पर दोषारोपण करते हैं, असत्य और अनर्गल बोलते हैं।" ज्ञानपंचमी तप में कथा है-५ पाठशाला में मार खाकर आए बच्चों को देख सुन्दरी नामक स्त्री इतनी क्रोधित हो गई कि बच्चों का शाला जाना बन्द करा दिया। पति ने कहा- 'अरी सुन्दरी! बच्चे अनपढ़ रह जायेंगे तो समाज में सम्मान कौन देगा? अपनी कन्या इन्हें कौन देगा।' सेठानी ने तुनक कर कहा'मैं किसी हालत में इन्हें पाठशाला भेजने वाली नहीं।' सेठ ने कहा- 'क्यों मूर्खता करती हो? इन बच्चों का भविष्य बिगड़ जायेगा।' सुन्दरी चीख पड़ी- 'मैं मूर्ख किसलिए? तुम हो मूर्ख, तुम्हारा बाप मूर्ख।' पत्नी के शब्द सुन सेठ आपे से बाहर हो गया और पत्थर फेंक कर सिर फोड़ दिया। कलह में वाक्युद्ध का दुष्परिणाम कई रूपों में दिखाई देता है, आत्म-मलिनता बढ़ती है, सम्मान की हानि होती है, वातावरण दूषित होता है एवं पाप बन्ध होता है। अभि उपसर्गपूर्वक आख्यान करना अर्थात् भाषण करना, अभ्याख्यान है। श्री भगवतीसूत्र में 'अभिमुखेन आख्यानं दोषाविष्करणमभ्याख्यानम्'७६ में अभिमुख/सामने होकर दोषों को प्रकट करने वाली कथन- अभ्याख्यान है। स्थानांगसूत्र में इसका अर्थ झूठे दोषों का आरोपण, कलंक लगाना, दोष देना, आक्षेप करना आदि अर्थ में दिया गया है। ईर्ष्या वृत्ति से युक्त जीव परसुख-असहिष्णु होता है अतः वह किसी के उत्कर्ष, प्रतिष्ठा को सहन नहीं कर पाता है। ऐसा व्यक्ति ऐसी बात बनाता है कि दोष न होने पर भी उसका अपयश हो। वह अफवाह आकाश में उड़ते गुब्बारे की तरह दिशाहीन स्थिति में उड़ती जाती है। ___ अभ्याख्यानी क्रोधी, कुटिल, ईर्ष्यालु होता है। अतः तीव्र पाप का बन्ध करता है। ७४. स्थानांग/स्था. १८ की वृत्ति ७६. भगवती सूत्र श. ५/उ. ६ ७५. बारहपर्व सूत्र ज्ञानपंचमी कथा ७७. स्थानांग सूत्र/अ. १/सू. ४८-४९ की वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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