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________________ १२८ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १. आर्तध्यान ७२ : शोकावस्था (अ) इष्ट वियोग- प्रिय व्यक्ति अथवा पदार्थ का संयोग विच्छेद होने पर कल्पान्त करना, आर्तनाद एवं करुण क्रन्दन करना। कल्पसूत्र में आख्यान है, ललितांगदेव स्वयंप्रभादेवी के वियोग पर ऐसा आघात लगा कि मित्रदेवता ने मनुष्यलोक में अनशनधारिणी धर्मिणी को ललितांगदेव का दिव्यरूप दिखाकर स्वयंप्रभादेवी बनने का संकल्प करवाया। (ब) अनिष्ट संयोग- अप्रिय व्यक्ति अथवा पदार्थ का संयोग असह्य प्रतीत होना, उसके वियोग की चिन्ता करना-आर्तध्यान है। (स) रोग चिन्ता- शरीर में वेदना उदय होने पर उसके निवारण हेतु सतत चिन्तन करना। (द) निदान- भोगाकांक्षा अथवा अन्य किसी प्रयोजन से भविष्य के लिए संकल्प करना। २. रौद्रध्यान'७३ : तीव्रतम कषाय (अ) हिंसानुबन्धी- द्वेषभाव से प्रतिशोध लेने के पश्चात् प्रसन्नता। (ब) मृषानुबन्धी- क्रोध, मान, माया, लोभ से असत्य भाषण के पश्चात् हर्षाभिव्यक्ति। (स) स्तेनानुबन्धी- लोभ कषाय के वशीभूत हो चौर्यकर्म करने के उपरान्त आनन्द विभोर अवस्था। (द) संरक्षणानुबन्धी- संग्रह-लालसा के परिणामरूप परिग्रह में गाढ़ आसक्ति। ३. धर्मध्यान : कषाय से अकषाय अपना अकषाय धर्म जब ध्यान में आता है, तब धर्मध्यान होता है। चिन्तनधारा स्वभाव-सम्मुख प्रवाहित होती है। यह भी चार प्रकार का होता है। १७४ (अ) आज्ञाविचय- वीतराग प्ररूपित वाणी का चिन्तन। प्रभु की आज्ञा है, न राग करो, न द्वेष करो। स्वयं के वीतराग स्वभाव को पहचानो - अकषाय समता-भाव में रहो, यह चिन्तनधारा प्रवाहित होती है। (ब) अपायविचय- स्वयं के कषायादि दोषों का अवलोकन एवं दोषमुक्ति के उपायों का चिन्तन। चिन्तन यह नहीं होता कि दूसरे मुझे दुःख देते हैं अथवा १७२. (अ) तत्त्वार्थ/९/३१-३४ (ब) स्थानांगसूत्र/४/६० १७३. स्थानांगसूत्र/४/६३ १७४. (अ) वही/४/६४ (ब) तत्त्वार्थ०/९/३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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