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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
१६. परिकुंचनता-किसी के सहज उच्चारित शब्दों का खण्डन करना, विपरीत अर्थ लगाना या अनर्थ करना। १०२
१७. सातियोग-उत्तम पदार्थ में हीन पदार्थ का संयोग करना। जिसे आजकल मिलावट कहा जाता है। १०३
'कसायपाहुड'०४ में दिये माया के ग्यारह पर्यायों में से इनमें से कुछ समान हैं व कुछ भिन्न हैं। भिन्न पर्याय ये हैं
(१) अनृजुता-यह वलय का समानार्थक है। (२) ग्रहण-अन्य के मनोनुकूल पदार्थों को स्वयं ग्रहण कर लेना। (३) मनोज्ञमार्गण-किसी की गुप्त अभिप्राय जानने की चेष्टा। (४) कुहक-उपर्युक्त वर्णित 'कुरूक' शब्द से इसकी साम्यता है। (५) छन्न-गुप्त प्रयोग अथवा विश्वासघात।
माया के विभिन्न रूपों के दर्शन इन पर्यायों में होते हैं। मुख्यतः हृदय की वक्रता का नाम माया है। जिस आत्मा में माया/वक्रता है; उस आत्मा में धर्म टिक नहीं सकता। जैसे बंजरभूमि में बोया बीज निष्फल जाता है, मलिन चादर पर चढ़ाया केसरिया रंग व्यर्थ हो जाता है, नमक लगे बर्तन में दूध विकृत हो जाता है, ऊबड़-खाबड़ दीवार पर चित्र के रंग व तूलिका का कार्य रूप चित्र नहीं बन पाता है; ठीक वैसे ही मायावी का किया गया धर्म-कार्य भी सफल नहीं हो पाता है।
शास्त्रों में लक्ष्मणा साध्वी एवं रुक्मी साध्वी का उदाहरण प्राप्त होता है। सामान्य-सी माया भी अनन्तकालीन भवभ्रमण का हेतु बन गई।
लक्ष्मणा'५ साध्वी ने एक बार चक्रवाक एवं चक्रवाकी की प्रणय-क्रिया को कुछ क्षणों तक ध्यान से देखा। हृदय में वासना के सुप्त संस्कार जागृत हो गए। विकार-भावों में मन बहता रहा। कुछ देर में विचारों से उबरने के बाद मन को एक झटका लगा-'अहो! मैं कहाँ खो गई थी। संयमी जीवन में ऐसे विचार क्या शोभास्पद हैं? मुझसे कितना जघन्य अपराध हुआ है। अब इसका क्या परिणाम मुझे भोगना होगा? क्यों न मैं प्रायश्चित की अग्नि से आत्मदेव को पवित्र कर लूँ।'
१०२. से १०३. भगवतीसूत्र | श. १२ / उ. ५ / सू. ४ १०४. से १०५. क. चू./ अ. ९/ गा. ८८
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