SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन (४) मोहनीय-कर्म और कषाय मोहनीय-कर्म के दो भेद हैं - दर्शन-मोहनीय एवं चारित्र-मोहनीय। (अ) दर्शन-मोहनीय-अभिमान वश परमात्मा सर्वज्ञ की पूर्णता में अविश्वास करना, शाश्वत सुख के हेतुभूत धर्म सिद्धान्तों का उपहास करना, सत्यमार्ग प्रकाशक सत्शास्त्रों का अविनय करना इत्यादि दर्शन-मोहनीय बन्ध के हेतु हैं। इस कर्म के उदय से जीव ज्ञानादि गुणों को स्वभाव न मानकर रागद्वेषादि को अपना स्वरूप मानने लगता है। (ब) चारित्र-मोहनीय-कषाय एवं नोकषाय का उदय इस कर्म के कारण होता है। कषाय मोहनीय बन्ध के हेतु निम्नलिखित हैं : स्वयं कषाय करना एवं दूसरों को कषाय का निमित्त देना। द्वेषवश तपस्वियों पर चारित्रदोष लगाना। कषाय उद्दीप्त करने वाला वेश या व्रत स्वीकार करना। नौ नोकषायमोहनीय १. हास्य मोहनीय : हँसना एक क्रिया है। इस क्रिया में भाव अनेक होते हैं। व्यक्ति कभी मानवश किसी का उपहास करता है, कभी किसी को हँसाने के लोभ में स्वयं को मजाक बनाता है। द्रौपदी को हँसी आई थी – दुर्योधन पर। जब जल को स्थल समझकर दुर्योधन फिसल गया था। सत्यधर्म का उपहास एवं कुत्सित हँसी-मजाक से हास्य मोहनीय का बन्ध होता है। २. रति मोहनीय : अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं में राग, व्रत शीलपालन में रुचि का अभाव रति मोहनीय है। ११ महाशतक की पत्नी रेवती ने पौषध व्रत धारक पति को रीझाने के लिए कितनी क्रीड़ाएँ की किन्तु सफल नहीं हुई। राग की तीव्रता से रति मोहनीय का बन्ध होता है। ३. अरति मोहनीय : अरुचि या उपेक्षा भाव होना। कण्डरिक मुनि की रस लोलुपता इतनी अधिक हो गई थी कि संयमी जीवन से अरति हो गई। पाप में रुचि एवं संयम में अरति उत्पन्न ८. तत्त्वार्थ | अ. ६ / सू. १३ १०. सर्वार्थसिद्धि | अ. ६ / सू. १४ ९. मोक्षशास्त्र/अ. ६ / सू. १४ का हिन्दी अनुवाद ११. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy