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________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन १० कर्मव्यवस्था के अधीन माना गया है, फलतः जैन दार्शनिकों ने कर्म के बन्धन और विपाक की तलस्पर्शी गम्भीर विवेचना की है। इसी क्रम में कर्म-बन्ध क्यों और कैसे होता है? इसकी चर्चा करते हुए उन्होंने कर्म-बन्ध के निम्न पाँच कारणों का उल्लेख किया है :- (१) मिथ्यात्व, (२) अविरति (असंयम), (३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) योग। ज्ञातव्य है कि यहाँ 'योग' से तात्पर्य मन, वचन एवं शरीर की गतिविधियाँ हैं। यदि इन पाँच कारणों का विश्लेषण करें तो हम यह पाते हैं कि मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद मूलतः कषाय के कारण ही होते हैं। कषायों की अनन्तानुबन्धी चौकड़ी मिथ्यात्व का कारण है क्योंकि कषायों की इस अनन्तानुबन्धी चौकड़ी की उपस्थिति में ही मिथ्यात्व सम्भव होता है। जैसे ही कषायों की यह अनन्तानुबन्धी चौकड़ी समाप्त होती है, मिथ्यात्व भी समाप्त हो जाता है और सम्यग्दर्शन प्रकट हो जाता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि मिथ्यात्व का कारण कषाय है। इसी प्रकार अविरति अर्थात् असंयम का कारण भी अनन्तानुबन्धी अथवा अप्रत्याख्यानी कषाय ही होते हैं। कषाय की अप्रत्याख्यानी चौकड़ी के समाप्त होने पर विरति या संयम का प्रकटन होता है। जब तक अप्रत्याख्यानी कषाय का उदय है, तब तक संयम या विरति संभव नहीं है। इसी प्रकार अविरति का कारण भी कषाय ही है। जब हम बन्ध के तीसरे हेतु प्रमाद पर विचार करते हैं, तो भी हमें स्पष्ट लगता है कि प्रमाद की सत्ता भी कषाय के कारण ही है। जब तक प्रत्याख्यानी कषायों की चौकड़ी सत्ता में है तब तक प्रमाद की भी सत्ता है। गुणस्थान सिद्धान्त में भी स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि प्रत्याख्यानी कषाय-चतुष्क के उदय में रहते हुए अप्रमत्त-सँयत्त गुणस्थान की उपलब्धि सम्भव नहीं होती है। मात्र इतना ही नहीं, प्रबुद्ध जैनाचार्यों ने कषायों को प्रमाद का ही एक प्रकार माना है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद- तीनों का हेतु कषाय ही है। अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क के क्षय के साथ ही मिथ्यात्व का क्षय होता है। अप्रत्याख्यानी कषाय-चतुष्क के क्षय से असंयम या अविरति का क्षय होता है। प्रत्याख्यानी कषाय-चतुष्क के क्षय या क्षयोपशम से प्रमाद समाप्त होता है अत: मिथ्यात्व, अविरत और प्रमाद के मूल में कषाय ही रहे हए हैं। कषायों के अभाव में इनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती है, अतः बन्धन के प्रथम चार कारणों में कषाय ही प्रमुख कारण है, शेष मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद तो उसके आनुषंगिक ही है, कषाय की सत्ता में ही उनकी सत्ता है। निष्कर्ष यह है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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