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________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन ९ का विषय बना हुआ है। एक ओर पू. कानजी स्वामी के समर्थक विद्वानों का कहना है कि बन्धन का मूलभूत कारण मिथ्यात्व है और कषाय अकिंचित्कर है, क्योंकि कषायों का जन्म भी मिथ्यात्व से होता है। दूसरी ओर आचार्य विद्यासागरजी के समर्थक विद्वानों का कहना है कि कषाय ही बन्धन का प्रमुख कारण है, मिथ्यात्व अकिंचित्कर है। क्योंकि मिथ्यात्व का जन्म और सत्ता दोनों ही अनन्तानुबन्धी कषायों की उपस्थिति में ही संभव है। अनन्तानुबन्धी कषायों के अभाव में मिथ्यात्व की सत्ता नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों ही पक्ष अपने-अपने आग्रहों पर खड़े हुए हैं। वस्तुतः मिथ्यात्व और कषाय ये दोनों ही परस्पर आश्रित हैं और यह भी सत्य है कि तीव्रतम कषायों की उपस्थिति में ही मिथ्यात्व की सत्ता सम्भव होती है। वस्तुतः मिथ्यात्व और कषाय दोनों ही परोपजीवी हैं, मिथ्यात्व के अभाव में कषाय नहीं होती है और कषाय के अभाव में मिथ्यात्व भी नहीं होता है। वस्तुतः चिन्तन की अपेक्षा से ही कषाय और मिथ्यात्व को अलग-अलग किया जा सकता है। सत्ता में तो वे एक-दूसरे के अनुस्यूत होकर ही रहते हैं। व्यक्ति में कषायों के आवेग तभी उत्पन्न होते हैं, जब वह मोहग्रस्त या अज्ञान से घिरा होता है, किन्तु जैसे ही वह अज्ञान या मिथ्यात्व का घेरा तोड़ता है, उसके कषाय समाप्त हो जाते हैं। वस्तुतः मिथ्यात्व के बिना कषाय-भाव नहीं होते हैं और कषाय के बिना मिथ्यात्व भी नहीं होता है। एक ही सत्ता पर दूसरे की सत्ता आधारित है, इनमें से कोई भी न तो अकिंचित्कर है और न दूसरे से निरपेक्ष ही। उत्तराध्ययनसूत्र में इसी समस्या का समाधान किंचित् भिन्न शब्दों में किया गया है। जिस प्रकार अण्डा और मुर्गी में कौन प्रथम, इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार मिथ्यात्व और कषाय में भी कौन प्रथम या महत्त्वपूर्ण है और कौन गौण या कम महत्त्वपूर्ण है, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता है। जिस प्रकार अण्डे के बिना मुर्गी और मुर्गी के बिना अण्डा सम्भव नहीं है, उसी प्रकार मिथ्यात्व के बिना कषाय और कषाय के बिना मिथ्यात्व सम्भव नहीं है। इनमें से किसी की भी पूर्व कोटि निर्धारित नहीं की जा सकती है, क्योंकि दोनों परोपजीवी या परस्पराश्रित हैं। कषाय और कर्म-बन्ध जैन दर्शन निरीश्वरवादी दर्शन है, अत: उसमें कर्म-सिद्धान्त को ही सर्वोपरिता दी गई है। व्यक्ति का संसार में परिभ्रमण ईश्वर के अधीन न होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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