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________________ कषाय और कर्म १२३ १४६ ११ लाख वर्ष तक मासक्षमण के पारणे के पश्चात् पुनः मासक्षमण का तप किया था । कुल ११, ८०, ६४५ मासक्षमण हुए थे । महावीर के भव में साढ़े बारह वर्ष पन्द्रह दिन की साधना अवधि में मात्र तीन सौ उनपचास पारणे किए। गृहस्थ वर्ग की दीर्घकालीन तपस्या के उल्लेख प्राप्त नहीं होते; किन्तु पौषधोपवास की परम्परा श्रावकों में प्रचलित थी । 19 १४७ १४८ (२) अवमौदर्य : कषाय की न्यूनता ऊनोदरी अर्थात् उदर / भूख से न्यून ग्रहण करना। जब चित्त आहार में रस ले रहा हो, तब उसे वहाँ से खींच लेना, पदार्थ को हटा देना ऊनोदरी है। भोग में आकण्ठ मग्न मन को भोगविरत करना सहज नहीं है। तीव्र आसक्ति में पदार्थ-वियोग होने पर दुःख, शोक अथवा क्रोधावेग उभर आता है। अभिलषित वस्तु प्राप्ति में अज्ञानी अपनी थाली को चाटता है एवं दूसरों की थाली में झांकता है। अपनी थाली को चाटना एवं दूसरे की थाली में झांकना अर्थात् अतृप्ति, भोग- लालसा, इष्ट संयोग की आकांक्षा । साधक प्राप्त कामभोगों में तल्लीन न होकर अनासक्त भाव से साधना करता है। अवमौदर्य तीन प्रकार का बताया गया है - १४९ (१) भक्तपान, (२) उपकरण; एवं ( ३ ) कषाय । अल्प आहार लेना, अल्प उपकरण रखना, अल्प कषाय करना– अवमौदर्य तप है । 'कसाए पयणुएकिच्च अप्पाहारो तितिक्खए १५ अथवा 'आहारं संवट्टेज्जा, आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेत्ता कसाय १५१ सूत्र के द्वारा आचारांगसूत्र में भाव - अवमौदर्य एवं आहार अवमौदर्य को स्पष्ट किया गया है । यदि कोई व्यक्ति अपने क्रोधादि कषायों को अल्प / न्यून करने में प्रयत्नशील है; तो वह निश्चित ही अवमौदर्य तपस्वी है। सामान्यतया कषाय अल्प नहीं होता अपितु भाव-परिवर्तन, पात्र - परिवर्तन हो जाता है। राग का परिवर्तन द्वेष में, द्वेष का परिवर्तन राग में होता है। कभी क्रोध, कभी लोभ, कभी मान और कभी माया का उदय चलता रहता है। अनन्त आसक्तियों में जब एक आसक्ति जागृत होती है; तब अन्य आसक्तियाँ तत्समय लुप्तप्रायः रहती हैं। एक विद्यार्थी को जब अधिकतम अंक-प्राप्ति की लालसा होती है; तब अन्य कार्यक्रमों के प्रति उदासीनता आ जाती है। अवमौदर्य तप में कषाय का पात्र नहीं बदलता; अपितु कषाय की अल्पता होती है। १४६. कल्पसूत्र/महावीर चरित्र १४७. योगशास्त्र / श्रावक के बारह व्रत १४८. आचारांग /१/५/४ Jain Education International १४९. तत्त्वार्थाधिगमः भाष्य / अ. ८ / सू. १४ १५०. आचारांगसूत्र / १/८/८ १५१ . वही / १/८/६-७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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