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तृतीय अध्याय कषाय और कर्म
ज्ञानावरणीय
दर्शनावरणीय
अन्तराय
गोत्र
जीव
वेदनीय
नाम
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भव-भ्रमण का कारण कर्म और कर्म का कारण कषाय है। राग-द्वेष रूपी भावों से युक्त होने के कारण जीव कर्मबन्ध करता है। कर्म-संयोग के कारण चतुर्गति में जन्म लेना पड़ता है, जन्म लेने से शरीर का संयोग होता है। शरीर में इन्द्रियों की व्यवस्था होती है। इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण होता है। विषयभोग में जीव राग-द्वेष रूप कषाय करता है। राग-द्वेष से पुनः कर्मबन्ध होता हैयह क्रम सतत चलता है।' संसार की यही व्यवस्था है।
कर्म आठ बताए गए हैं, जो निम्नोक्त हैं- १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयुष्य ६. नाम ७. गोत्र ८. अन्तराय। इन कर्मों के बन्ध में कषाय की क्या भूमिका है? अब हम इस विषय की विवेचना करेंगे।
(१) ज्ञानावरणीय कर्म और कषाय ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध में कषाय भाव किस प्रकार कार्य करता है - यह कुछ प्रवृत्तियों के विश्लेषण से जाना जा सकता है, यथा१. पंचास्तिकाय | गा. १२८-१२९ २. (अ) ठाणं | स्थान ८ (ब) गो. क. / गा. ८ ३. तत्त्वार्थसूत्र | अ. ६ / सू.११
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