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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन
वाली चित्तवृत्ति कषाय है । जिनभद्रगणि श्रमाश्रमण के अनुसार- ' 'जिससे दुःखों की प्राप्ति होती है, वह कषाय है ।' आचार्य नेमिचन्द्र ( ११वीं शती) ने 'कषाय ' शब्द की व्युत्पत्ति हिंसार्थक 'कष' धातु से एवं जोतनार्थक 'कृष विलेखने' धातु से बनाई है। हिंसार्थक 'कष' धातु की अपेक्षा से जो आत्म-साक्षात्कार, व्रतपालन (अंशतः तथा सर्वतः ) तथा वीतरागता प्रकट होने रूप भावों का हनन करे, वह कषाय है। इसी का समर्थन राजवार्तिककार ने किया है, 'जो आत्मा का हनन करे, कुगति में ले जाए; वह कषाय है ।' जोतने के अर्थ में कषाय की परिभाषा है. -' 'कर्मरूपी खेत को जोतकर जो सुख - दुःख रूपी धान्य को उत्पन्न करती है, वह कषाय है । '
निक्षेप - अपेक्षा कषाय
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सामान्यतः ग्रन्थों में निक्षेप के चार भेद निर्दिष्ट हैं; किन्तु आचारांगसूत्र', विशेषावश्यकभाष्य" एवं कसायपाहुड चूर्णिसूत्र में निक्षेप की अपेक्षा 'कषाय' के आठ प्रकार बताये गये हैं- ( १ ) नाम ( २ ) स्थापना ( ३ ) द्रव्य ( ४ ) उत्पत्ति ( ५ ) प्रत्यय ( ६ ) आदेश (७) रस (८) भाव ।
( १ ) नाम कषाय - किसी भी वस्तु या व्यक्ति का नाम 'कषाय' रख देना, नाम कषाय है ।
( २ ) स्थापना कषाय- - ऐसे चित्र अथवा प्रतिमा की स्थापना करना जिसकी आकृति में कषाय का भाव झलक रहा हो, स्थापना कषाय है।
( ३ ) द्रव्य कषाय - विशेषावश्यक भाष्यकार ने द्रव्य - कषाय दो प्रकार का बताया है" - कर्मद्रव्य कषाय, नो कर्मद्रव्य कषाय ।
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'कम्मं कस भवो वा कसमाओ सिं जओ कसाया ता .. ( विशेषावश्यक भाष्य / गा. २९७८ )
'सम्यक्त्वदेश··· घातयन्ति वा कषायाः । । ' (गोम्मटसार / जी. का. / अधि. ६ / गा. २८३ ) कपायवेदनीयस्यो‘कषाय' इत्युच्यते । । ' ( राजवार्तिक / अ. २ / सू. ६ )
सुख दुःखसुबहसस्यं कर्मक्षेत्र कृषति कषाय इतीमं बुवन्ति । ।
( गो. सा. / जी. का. / अधि. ६ / गा. २८२ )
'णामंठवणा.. कोहाइया चउसे ।' (आचारांग सूत्र / अ. २ /उ. १ / सू. १९० की शीलांकाचार्यकृत निर्युक्ति )
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नामंठवणा... तेसिमा होइ । । ' ( विशेषा. भाष्य / गा. २९८० )
११. कसाओ ताव णिक्खिवियव्वो णामकसाओ, ठवणकसाओ, दव्वकसाओ, पच्चयकसाओ··· (कषायपाहुड / चूर्णिसूत्र / अ. १ / गा. १३-१४ / सू. ३९ ) १२. दुविहो दव्वकसाओ ( विशेषा / गा. २९८१ )
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