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कषाय का स्वरूप
क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति में निमित्त बनने वाला चारित्र-मोहनीय कर्म तथा क्रोधादि भावों से बँधने वाला कर्म - ये दोनों कर्मद्रव्य कषाय हैं।
कपाय भाव का उदय होने पर शरीर में होने वाले परिवर्तन : जैसे क्रोधावस्था में मुख तमतमाना, आँखें लाल होना, भृकुटि तनना, नथूने फूलना, होंठ फड़फड़ाना, मान-कषाय में खिलखिलाकर हँसना, इतराना आदि क्रियाएँ सहज होती हैं, ये नो कर्मद्रव्य कषाय हैं।
कसायपाहुडसूत्र में सर्ज और शरीष नामक वृक्षों के कसैले रस को द्रव्य कषाय कहा है। १३
विशेषावश्यक भाष्यकार ने द्रव्य कषाय की परिभाषा देते हुए द्रव्यनिक्षेप के स्वरूप को ध्यान में रखा है; किन्तु कषायपाहुड चूर्णिसूत्र में द्रव्य का अर्थ पदार्थ करते हुए व्याख्या की गई है।
४. उत्पत्ति कषाय- विशेषावश्यक भाष्यानुसार" - जिस द्रव्य अथवा जिस क्षेत्र, काल आदि से कषाय की उत्पत्ति (उदय) होती है; वह द्रव्य अथवा क्षेत्रादि ही उत्पत्ति कषाय है। उदाहरणार्थ, पाँव में काँटा चुभने पर काँटे के प्रति क्रोध आया। क्षेत्र की परिस्थिति के अनुसार भी कषाय भाव उत्पन्न होते हैं- जैसे गर्म प्रदेश में शीतल पेय प्राप्त होने पर राग, शीत प्रदेश में उष्ण पदार्थ मिलने पर प्रसन्नता, दलदली रास्ता होने पर भय, कंटकाकीर्ण पथ में क्षुब्धता, सुन्दर उद्यान-दर्शन में लुब्धता प्रकट होती है। कालानुसार भाव बनते हैं, रात्रि में विश्राम का लोभ, चाँदनी रात में भ्रमण की लालसा उत्पन्न हो जाती है।
इन काषायिक वृत्तियों के उदय में निमित्तभूत पदार्थ, क्षेत्र अथवा कालादि उत्पत्ति कषाय हैं।
सामान्य मानस निमित्ताधीन होता है। निमित्तानुसार वृत्तियाँ उभरती हैं। वीतरागी अकषायी आत्मा की समता भयंकर उपसर्गों/परीषहों में भी अखण्डित रहती है, किन्तु कषाय संस्कारग्रस्त व्यक्ति में सामान्य-सामान्य निमित्तों, छोटीछोटी बातों में कषायोत्पत्ति हो जाती है। कषायोत्पत्ति में निमित्त रूप आठ विकल्प कसायपाहुड चूर्णिसूत्र में बताए हैं-१५
१३. दव्वकसाओ जहा सज्जकसाओ सिरिसकसाओ (क.पा./चू.सू./अ.१/सा.१३-१४/सू. ४४) १४ खेत्ताइ समुघत्ती जप्तोधमवो कसायाणं ... (विशेषा./ गा. २९८२) १५. एवं जं पडुच्च कोहो समुप्पज्जदि...
(क. पा.) चू. सू. / अ. १ / गा. १३-१४ / सू. ५७)
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