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________________ कषाय के भेद को प्रभु-पूजा के समय राजा भी जिनालय से बाहर नहीं बुला सकते थे । मन्त्री पद ही इस शर्त के साथ पेथड़शाह ने स्वीकार किया था। संज्वलन मान -संज्वलन मान के उदय से बाहुबलि मुनि को केवलज्ञान उपलब्धि के पश्चात् समवसरण में जाने का भाव बना था। ४७ अनन्तानुबन्धी माया-शरीर के प्रति 'मैं' का भाव अनन्तानुबन्धी माया है। सत्य है कुछ तथा समझ है कुछ। वेदान्त में जगत को माया कहा गया है, क्योंकि जगत सत्य प्रतीत होता है, सत्य है नहीं। वह परिवर्तनशील है । अप्रत्याख्यानी माया - सत्य स्वरूप का ज्ञान होने पर तत्त्व - बोध हो जाता है; किन्तु कभी-कभी न्याय-नीति हेतु, अन्याय को समाप्त करने के भाव से असत्य का आश्रय लिया जाता है। महाभारत युद्ध में क्षायिक सम्यक्त्वी श्रीकृष्ण ने द्रोणाचार्य को परास्त करने के लिए असत्य - भाषा का आश्रय युधिष्ठिर को दिलाया। 'अश्वत्थामा हतः' शब्द स्पष्ट उच्चारण करके अस्पष्ट रूप से 'नरो वा कुंजरो वा' बोला । द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र की मृत्यु समझ कर शस्त्र त्याग दिया । प्रत्याख्यानी माया - स्वयं साधना-पद्धति से जुड़ने के पश्चात् अन्य व्यक्तियों को साधना से जोड़ने का भाव प्रायः रहता है। ऐसे कार्य में इच्छित फल प्राप्ति न होने पर साधक कई बार माया का आश्रय लेता है। महामन्त्री पेथड़शाह से देवपुरी के श्रावकों ने निवेदन किया, 'हे मांडवगढ़ शृंगार ! आपने अपनी नगरी Sant forest से मण्डित किया है; किन्तु एक प्रभु मन्दिर हमारी नगरी में भी बनवाइए । ' क्या बाधा है? प्रश्न होने पर स्पष्ट किया, 'हमारे नगर में अन्य धर्मावलम्बी हमारा जिनालय बनने में रुकावट देते हैं तथा पृथ्वीपति राजा उन्हीं की सलाह अनुसार निर्णय देता है ।' महामन्त्री पेथड़शाह ने देवपुर के मंत्री के साथ मैत्री-सम्बन्ध बाँधने के लिए मांडवगढ़ और देवपुर के मध्य एक अतिथिगृह, भोजनशाला, बावड़ी आदि का निर्माण करवाया। उसका निर्माता देवपुर के मंत्री हेमू को घोषित किया गया। मंत्री हेमू की यश, कीर्ति दिग्दिगन्त में व्याप्त होने लगी। वे आश्चर्य विमुग्ध हुए । खोजबीन करने पर सारा रहस्य स्पष्ट हुआ। दोनों नगर के मंत्रियों के मध्य मित्रता सम्बन्ध स्थापित हुआ। मंत्री हेमू के माध्यम से पेथड़शाह ने देवपुर में एक देव - विमान सःदृश जिनालय का निर्माण करवाया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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