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कषाय के भेद
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स्वरूप वर्णित किया है- क्रोध शरीर और मन को सन्ताप देता है, क्रोध वैर का कारण है, क्रोध दुर्गति की पगडण्डी है, क्रोध मोक्ष सुख में अर्गला के समान है।
क्रोध की भयंकरता उपमाओं के माध्यम से धर्मामृत (अनगार) २५ में बताई गयी है- क्रोध कोई एक अपूर्व अग्नि है; क्योंकि अग्नि तो मात्र देह को जलाती है, पर क्रोध शरीर और मन दोनों को जलाता है। क्रोध कोई एक अपूर्व अन्धकार है; क्योंकि अन्धकार मात्र बाह्य पदार्थों को देखने में बाधक है, किन्तु क्रोध तो बाह्य और विवेक दोनों चक्षुओं को बन्द कर देता है। क्रोध कोई एक अपूर्व ग्रह या भूत है; क्योकि भूत तो एक जन्म में अनिष्ट करता है; लेकिन क्रोध जन्म-जन्मान्तर में अनिष्ट करता है।
क्रोध से हानि बताते हुए, उसके अनिष्ट परिणाम ज्ञानार्णव' में इस प्रकार वर्णित किए गए हैं- क्रोध में सर्वप्रथम स्वयं का चित्त अशान्त होता है, भावों में कलुषता छा जाती है, विवेक-दीपक बुझ जाता है। क्रोधी दूसरे को अशान्त कर पाए या नहीं, पर स्वयं तो झुलसता ही है; जैसे दिया-सलाई दूसरे को जलाए या नहीं, स्वयं तो जल ही जाती है।
क्रोध मनोविकार से सम्बन्धित वर्णन जैन-शास्त्रों में तो यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देता ही है; किन्तु जैनेतर ग्रन्थों में भी क्रोध कषाय से सम्बन्धित विवेचन बहुतायत रूप में प्राप्त होता है।
गीता में श्रीकृष्ण ने काम, क्रोध तथा लोभ को आत्मा के मूल स्वभाव का नाश करने वाला नरक का द्वार बताया है। क्रोध-वृत्ति से होने वाली हानि की चर्चा करते हुए कहा गया है२८– क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मरण-शक्ति या सजगता नष्ट हो जाती है; स्मृति के अभाव में बुद्धि अर्थात् विवेक नष्ट हो जाता है और बुद्धि के नाश से सर्वनाश हो जाता है।
आसुरी वृत्ति रूप क्रोध उत्पत्ति का कारण बताते हुए गीता में कृष्ण ने कहा है- विषयों का चिन्तन करने से विषयों में आसक्ति उत्पन्न हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की प्राप्ति की कामना पैदा होती है और उन विषयों की प्राप्ति में विघ्न उपस्थित होने पर क्रोध उत्पन्न होता है।
जैनागमों में भी कषायोत्पत्ति का कारण विषय-कामना बताई गई है। २५. धर्मामृत अणगार| अ. ६/ श्लो. ४ २६. ज्ञानार्णव सर्ग १९/ गा. ६ २७. गीता/ अ. १६/ श्लो. २१ २८. गीता/ अ. २/ एलो. ६३
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