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________________ - सप्तम अध्याय कषाय-जय कषाय बीज है, कर्म का। कर्म हेतु है, संसार भ्रमण का। संसार मूल है, समस्त दुःखों का। दुःख मुक्ति के लिए कषायरूपी दोषमुक्ति चाहिये। 'उत्तराध्ययन' में कषाय को अग्नि कहा गया है। अग्नि पदार्थ को भस्म करती है, कषाय आत्मगुणों का घात करता है। कषायाग्नि से दहकती आत्मा अशान्त होती है। सामान्यतया क्रोध अग्निरूप प्रतीत होता है, क्योंकि उससे प्रत्यक्षतः आत्मा की व्याकुलता प्रकट होती है, किन्तु मान, माया एवं लोभ भी अग्नि स्वरूप हैं। सम्मान प्राप्ति की अभीप्सा में, कामना-पूर्ति के लोभ में एवं माया प्रकट होने के भय में सतत आकुलता बनी रहती है। राग और द्वेष- दोनों में आकुलता है। निराकुलता के लिए कषाय-क्षय अनिवार्य है। १. २. उत्तराध्ययनसूत्र/ रागो य दोसो य कम्मवीयं उत्तराध्ययनसूत्र/ अ. २३/ गा. ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001719
Book TitleKashay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHempragyashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Kashaya
File Size11 MB
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