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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जैन-हिन्दू एक सामाजिक दृष्टिकोण
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सैद्धान्तिक पक्ष हम लें तो हमें हिन्दू ग्रन्यों में वे सबै बातें मिलती हैं, जो जैनत्व के मूल तत्व में हैं, लेकिन उनका विकास जो जैन-दर्शन में है, वह अन्यत्र नहीं है। अहिंसा का सूक्ष्म विवेचन जैन-दर्शन में पराकाष्ठा पर पहुंच गया । कर्मवाद जैनत्व का मूल आधार है। ईश्वरवाद को वहां स्थान नहीं, यह नई विचारधारा नहीं, लेकिन हिन्दुत्व विचारधारा का विकास ही है। इसलिए जैन-दर्शन व हिन्दू-दर्शन एक गुलदस्ता है, विविधता में भी "सत्यं शिवं सुन्दरम्" के दर्शन हैं।..
-मुनि श्री सुशील कुमार जी
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जैन-हिन्दू एक सामाजिक दृष्टिकोण
लेखक :
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श्री रतन चन्द मेहता
© प्रकाशक : कमला पाकेट बुक्स, १२, शहीद भगत सिंह मार्ग, नई दिल्ली
मूल्य : चार रुपये
मुद्रक :
दुप्यन्त प्रिंटिंग प्रेस, जत्तीवाड़ा, मेरठ-२
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जैन-हिन्दू
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एक सामाजिक दृष्टिकोण
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तुनि श्री सुशील कुमार जी महाराज
-रतन चन्द मेहता
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कमला पाकेट बुक्स
द्वारा
विश्व धर्म सम्मेलन के लिए प्रकाशित साहित्य :
अहिंसा परिव्राजकः मुनि श्री सुशीलकुमार जी महाराज : /
एक जीवन करोड़ तत्व
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जियो और जीने दो
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• आत्म संयम
• अभय दान
© जैन धर्म
• वीतराग सन्देश
विश्व धर्म की पत्रिकायें :
सुशील समाचार विश्व धर्म
कास्मिक साइस
(साप्ताहिक) (मासिक)
(अंग्र ेजी)
विस्तृत जानकारियों के लिए लिखें :--
नरेश चन्द जैन
१२, शहीद भगत सिंह मार्ग, नई दिल्ली- ११०००१. फोन : ३४५४८७
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परम आदरणीय प्रातः स्मरणीय मुनि श्री सुशील कुमार जी को आज समूचा विश्व भगवान् महावीर के रूप में सम्बोधित कर रहा है । और सच तो यह है कि मुनि श्री सुशील कुमार जी ने धर्म की रूढ़िवादता को तोड़कर अहिंसा और जैन धर्म को विश्वधर्म का रूप देने के लिए अपने सभी सुखों, स्वार्थों
और निजी महत्व को वलिदान कर दिया। उनके गरिमामान जीवन चरित्र में जहां विश्वधर्म सम्मेलनों की घटनायें जुड़ी हुई हैं, वहां भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव पर उनके विश्वव्यापी वीतराग प्रचार से विदेशों के लोग लाभान्वित हुए हैं । उनकी धारणा हमेशा समन्वय ही रही है और भारत माता के तो वे सच्चे सपूत हैं । ऐसी स्थिति में जैन धर्म को किसी भारतीय धर्म से अलग देखना उन्हें जरा भी नहीं सुहाता । अपनी इस पाशीर्वाद में धारणा के सुफल से उन्होंने प्रस्तुत पुस्तक को आशीर्वाद दिया है और ऐसी आशा व्यक्त की है कि इस पुस्तक द्वारा जैन और वैष्णव धर्म के बीच होने वाले मतभेद सदा के लिए समाप्त कर दिये जायें।
ऐसी महत्वपूर्ण प्रति का प्रकाशन करते हुए हमें गर्व अनुभव हो रहा है और हम महसूस कर रहे हैं कि मुनि श्री जी का जो वरदहस्त हमारे ऊपर है, उसकी छत्रछाया में हम यह महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं ।
आशा है, आपको भी यह प्रयास रचेगा और आप निरन्तर कृपा बनाये रखेंगे।
प्रकाशक : नरेश चन्द जैन सरकाा पाकेट बुक्स १२, शहीद भगत सिंह मार्ग, नई दिल्ली--११०००१. फोन : ३४५४८७
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'जैन दर्शन--हिन्द दर्शन
एक गुलदस्ता विश्व धर्म प्रेरक मुनि श्री सुशील कुमार जी महाराज
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__ 'निव्वाण सेटठा जह सब धम्मा।' अर्थात सभी धर्मों का ध्येय मुक्ति है। भगवान् महावीर ।।
हिन्दुस्तान में पनपे सव धर्मों को हिन्दू धर्म कहना अधिक उपयुक्त है । धर्म के तीन प्रमुख तत्व होते हैं । एक उसका श्राराध्य भगवान, दूसरा उसका दर्शन, एवं तीसरा उसके आचरण के नियमादि। इन तीनों पर हिन्दुस्तान में पनपे हर धर्म या दर्शन पर उस काल के समय का प्रभाव है, हां दर्शन की उपलब्धि प्रात्म-साधना द्वारा ज्ञान के प्रकाश से सम्बन्धित है । फिर भी उस नवीन दर्शन में पुरातन की पुनरावृत्ति है और मागे विकास है। भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे । वे सब वेदों के प्रकाण्ड विद्वान थे । जव उन्होंने भगवान महावीर के दर्शन का विकास किया तो उसमें वेदों का निचोड़ भी निश्चित रूप से आया है, यह मेरी मान्यता है। इसलिए हम ऐसा मानते हैं कि जव-जव नये महात्मा अपना चिन्तन देते हैं तो उनका लक्ष्य उसमें कुछ जोड़ने से है और उनका लक्ष्य कामा नया धर्म या सम्प्रदाय चलाने का नहीं होता । जन धर्म की भी यही मूल बात है। किसी सम्प्रदाय विशेप में नहीं समाया है। कोई भी वीतराग वाणी में अास्था रखने वाला जैन हो सकता
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सैध्दान्तिक पक्ष हम लें तो हमें हिन्दू ग्रन्थों में वे सब बातें मिलती हैं जो जैनत्व के मूल तत्व में हैं, लेकिन उनका विकास जो जैन दर्शन में है, वह ग्रन्यत्र नहीं है । ग्रहिसा का सूक्ष्म विवेचन जैन दर्शन में पराकाष्ठा पर पहुँच गया । कर्मवाद जैनत्व का मूल आधार है । ईश्वरवाद को वहां स्थान नहीं, यह नई विचारधारा नहीं लेकिन हिन्दुत्व विचाराधारा का विकास ही है । इसलिए जैन दर्शन व हिन्दू दर्शन एक गुलदस्ता है, विविधता में भी 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' के दर्शन हैं ।
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का भागवत् गीता में ग्रादीश्वर के रूप में उल्लेख है । ग्रतः दोनों का श्राराध्य देव एक है, अतः दोनों प्रणालियां इस देश के श्रात्म-वल को जगाने में अपने-अपने ढंग से कार्य कर रही हैं । लेकिन यह दोनों दर्शन इस देश की निधि हैं और इसलिए हिन्दुत्व से पृथक नहीं की जा सकतीं ।
प्रसिद्ध भागवत् पुराण में विष्णु के चौबीस अवतारों का उल्लेख करते समय उनमें ऋषभदेव भगवान् को विष्णु का पांचवां अवतार माना गया है । प्रथम भल्यावतार, द्वितीय कच्छप, तृतीय वराह और चौथा नृसिंह अवतार मानकर पांचवां अवतार ऋषभदेव को माना गया है । विष्णु के अवतारों में भगवान् ऋषभदेव मनुष्य अवतारों में सर्वप्रथम थे ।
भगवान् ऋषभदेव का चरित्र भगवत् पुराण के पंचम स्कन्ध में विस्तारपूर्वक उपलब्ध होता है । भागवत् पुराण में यह भी उल्लेख है कि उन्हीं के चरित्र की नकल करके बाद में जैनधर्म चला । भागवत् में उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती को एक बहुत प्रभावशाली महात्मा वतलाया गया है । कतिपय लेखक भागवत् पुराण को हजार बारह सौ वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं मानते, किन्तु श्रन्वेषकों का मत है कि यह महाभारत कालीन महर्षि
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बादरायण व्यास की सबसे अन्तिम कृति है। वाल्मिसीय रामायण तथा योगवासिष्ठ को भी राम का समकालीन नथ मान कर उनको भागवत् पुराण से भी अधिक प्राचीन माना
वाल्मिकीय रामायण के आदि काण्ड, दशम सर्ग, अष्टम श्लोक में दशरथ द्वारा किये गये अश्वमेघ यज्ञ का विवेचन करते हुए कहा है कि
अनाथा मुन्जते नित्यं नाथ पन्तश्च भुन्जते । तापस भुन्जते चापि, भुन्जते श्रमण अपि ।।
दशरथ के यज्ञ में अनाथ, सनाथ, तापस और श्रमण जैन मुनि सभी पाहार लेते थे । ग्रहण करते थे। इस श्लोक में । स्पष्टोल्लेख है कि राजा दशरथ ने अन्य साधुनों की भांति श्रमणों को भी पाहार दान दिया। श्रमण का शाब्दिक अर्थ जैन तथा वौद्ध साधु ही होता है । वौद्ध लोग रामायण काल में बौद्ध साधुनों का इतना विशेष अस्तित्व नहीं मानते, अतः बालिगकीय रामायण के 'श्रमण' शब्द का अर्थ केवल जन-साधु ही युक्ति संगत हो सकता है। अत: भगवान राम के समय में भी जैन धर्म का अस्तित्व पूर्णरूपेण स्वतः ही सिद्ध है। इससे निविदाद यह माना जा सकता है कि हिन्द विचारधारा और जन विचारघारा एक सरिता से निकलने वाले दो निझर हैं। - वासिष्ट के वैराग्य प्रकारग में तो भगवान राम स्पष्ट रूपेण जैनधर्म का वर्णन निम्नलिखित श्लोक में करते हैं---
नाहं रामो न मे वान्या, विषयेषु न च मे मनः । शान्तमास्थातुमिच्छामि, वीतरागां जिनो यथा ।।
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अर्थात् मैं राम नहीं हूँ, मेरे अन्दर कोई इच्छा नहीं है। विषयों में भी मेरा मन नहीं है। अब तो मैं वीतराग जिन के समान शान्त बन जाना चाहता हूँ। भगवान् राम के समय से . जैनधर्म के अस्तित्व को प्रस्तुत करने वाला कितना सवल और सुन्दर निदर्शन है।
इसके अतिरिक्त वेदों के अनेक मंत्रों में भी जैन तीर्थंकरों का नामोल्लेख स्पष्ट रूपेण उपलब्ध होता है। यजुर्वेद में भी भगवान् अरिष्ट नेमी को देव रूप में मानकर उनसे निज कल्याण की कामना की है।
स्वस्ति नः इन्द्रो वृद्धाश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो वृहस्पतिर्दधातु ॥
यजुर्वेद, अध्याय २५ अध्याय १६ । यहां पर (वृद्धश्रवाः) कीर्तित या प्रतिज्ञाधारक जैन श्रावक हो सकता है। इन्द्रदेव (नः) हमारे लिए कल्याण को (दधातु) स्थापित करें और (पूपा) पुष्टि करता सूर्य देव (विश्ववेदाः) सर्वज्ञाता (नः) हमारे लिए कल्याण को धारण करें। (तायः) तेजस्वी (अरिष्टनेमिः) भगवान् अरिष्टनेमि हमारे लिए कल्याण करें आदि अर्थ हैं । आधुनिक अर्थकर्ता इस शब्द का यौगिक : अर्थ अरिष्टों का नियमन करने वाला करते हैं जो कि युक्ति संगत नहीं बैठता । इन समस्त उदाहरणों से हिन्दुत्व और जैनत्व क्षीर दुग्ध एकता का प्रवल रूप हमारे सामने है।
प्रस्तुत पुस्तक "जैन हिन्दू एक सामाजिक दृष्टिकोण" में यशस्वी लेखक श्री रतन चन्द मेहता का यह प्रयास प्रशंसनीय है । पुस्तक का अर्थ इति अवलोकन करने से सृजनशीलता
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उभर कर आती है, जो अनेक दृष्टियों से सुन्दर है । भावात्मक और कलात्मक रूप दृष्टि से पुस्तक छोटी होते हुए भी हिन्दुत्व और जैनत्व के एकता के विषय में महान है । प्रत्येक मनुष्य अपनी उदात्त एवं मौलिक अन्तरदृष्टि के कारण स्वत: ही अपने कीर्तिमान स्थापित करने में सफल हो जाता है। ऐसी मेरी मान्यता है कि वास्तव में उदार और मौलिक दृष्टि से अवलोकन किया जाये तो जैन धर्म और वैष्णव धर्म भारतीय समाज की अटूट कड़ियां मानी जा सकती हैं । मूलत: इनमें कुछ भी भेद नहीं है, भेद का क्षेत्र सदैव सीमित होता है और अभेद
का क्षेत्र अपरिमित होकर विराट् जन-मानस को सम्मोहित कर लेता है। यही रहस्य पुस्तक में उद्घाटित करने का उपक्रम लेखक ने किया है।
--मुनि सुशील कुमार
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( ११ ) वैद्य विष्णु कुमार शास्त्री
बड़नगर आयुर्वेद रत्न दिनांक २७/७/७४ आयुर्वेदभूपण, न्यायभूषण
हिन्दू, यह कोई धर्म या सम्प्रदाय नहीं है, यह तो भौगोलिक दृष्टि से अर्वाचीन नाम है, प्राचीन नाम भारत है।
भारतीय धरातल पर शैव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध, सिक्ल आदि धर्म फले फूले हैं और इन सबको हिन्दुत्व अपनी वाह में समेटे है।
दृश्य के चिन्तवन से विज्ञान व अदृष्य के चिन्तवन से दर्शन की उत्पत्ति होती है और विकास होता है । भारतीय दर्शन या हिन्दू दर्शन में पदार्थों का अनेक प्रकार से विचार या ऊहापोह किया है, किन्तु इन सब चिन्तन को छः दर्शनों में समावेश कर दिया गया है । छः दर्शनों में जैन दर्शन भी है।
विविध दृष्टिकोण से विविध अपेक्षा से दर्शन शास्त्रों में पदार्थों का विचार किया और जैन दर्शन में उन सबका समन्वय किया, दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सब दर्शनों को यदि इकट्ठा कर दिया जाये तो यह जैन दर्शन ही कहलाएगा। अतः जैन दर्शन या जैन धर्म हिन्दुत्व से पृथक नहीं है ।
वैद्य विष्णुकुमार
बड़नगर
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( १२ )
* स्वामी रामतीर्थ
श्रीमद्भगवद्गीता, ऐसे विश्वमान्य ग्रन्थ पर श्रास्था रखने वाले सभी मानव यह जानते हैं कि जब-जब वौद्धिक सिद्धान्त अर्थात् धर्म की अवहेलना मनुष्य करने लगता है, और सिद्धान्त विहीन, धर्म-विमुख जीवन व्यतीत करने लगता है तब-तब सर्व व्यापक चेतन सत्ता जिसे भक्त हृदय भगवान् कहता है, तत्कालीन परिस्थिति एवं मानव मनः स्थिति के अनुसार अनेकों रूपों में प्रकट होकर लोगों का पथ प्रदर्शन करती है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, भ्युत्थामवस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम् । परित्राणाय साधूनां विनाशायद दुष्कृताम् धर्मसंस्थापनवार्य संभवामि युगे युगे ।
जव जव होई धर्म की हानी, वाह प्रसुर महा श्रभिमानी ।
तव तव प्रभु धरि विविध सरोरा, हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा ।
गीता
- रामायण
मनीषियों का अनुभव एवं शास्त्र की सहमति है कि सत्व, रज और तम के व्यापार का ही नाम संसार है । इन्हीं तीनों गुणों की after र न्यूनता पर ही सत, प्रेता, द्वापर और कलियुग का अस्तित्व है । सत्वगुण के विकास से वृद्धि में प्रकाश बढ़ता है । प्रकाशart बुद्धि ही सत्यन्यसत्य का विशुद्ध निर्णय देती है । ऐसी वुद्धि वाला मनुष्य ग्रसत् का त्याग कर सत् को और गतिशील रहता है। समष्टि में जब ऐसी परिस्थिति और व्यष्टि में जब ऐसी मनः स्थिति होती है तब सत्ययुग की प्रवृत्ति
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मानी जाती है । रजोगुण और सत्य की कमी से कर्म का आव.पण तीन हो जाता है । परन्तु सत्त्व के अंश की विद्यमानता से कर्मलिप्सा होते हुए भी प्रत्येक क्रिया का समन्वय भगवान के साथ हो जाता है, जिससे कर्म-कर्म न रह कर यश हो जाता है। बस यही त्रता का स्वरूप है । जव रंजोगुण से सत्वगुण विल्कुल निकल जाता है और तमोगुण भी कुछ-कुछ पा जाता है, तव द्वापर का समय कहलाता है। रजोगुण भी जब विशेषतः समाप्त होकर तमोगुण ही जव मानव-हृदय को पूर्णतया आक्रान्त कर लेता है तब कलियुग का शासन हो जाता है। चारों ओर विरोध की भावना का साम्राज्य बन जाता है ।
शुद्ध सत्त्व समता विज्ञाना, कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना । सत्त्व बहुत रज कछु रति करमा, सब विधि नेता कर धरमा । सत्त्व स्वरूप रज वहु कछु तामस द्वापर धरम हरण भय मानस । तामस बहुत रजोगुण धीरा, कति प्रभाव विरोध चहुं ओरा ।
कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्यों की मनः स्थिति तथा जगत की परिस्थिति के अनुसार ही युग का स्वरूप बनता है और युग स्वरूप के अनुसार ही निराकार साकार बन कर तत्कालीन गतिविधि में परिवर्तन कर समधीन बनाता है ।
अतः अवतारों के स्वरूपों में विभिन्नता और उनके द्वारा प्रकट किये गये समयानुकूल सिद्धान्तों के अनेकता भेदभावना की. · उत्पत्ति के लिए नहीं, अपितु विकास-क्रम से अनन्यत्व एवं अभेद
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की स्थिति पैदा करने के लिए होती है।
जगद्गुरू शंकराचार्य का अद्वैत, श्री रामानुजाचार्य का विशिष्ठा त आदि सिद्धान्त देखने में एक दूसरे से भिल प्रतीत होते हैं और उनके अनुयायी परस्पर भेद की कल्पना कर सिद्धान्तों की पृथक-पृथक सत्ता स्वीकार कर लेते हैं, परन्तु यथार्थ के दर्शन से भेद-भावना की निवृत्ति हो जाती है और सभी सिद्धान्त एक ही भगवान् द्वारा प्रकट होने के दृष्टिकोण का निर्माण हो जाता है। त्रेता के राम, द्वापर के कृष्ण और कलियुग के बुद्ध एवं महावीर स्वामी एक ही भगवान् के समयानुकूल रूप हैं।
बड़ी ही प्रसन्नता की बात है कि जैन धर्मावलम्बी श्री रतनचंद जी मेहता, गंजबासौदा निवाती ने व्यापार-बहुल-जीवन व्यतीत करते हुए भी इस सर्वहित पिणी समन्वयात्मक दृष्टिकोण के साथ "जैन-हिन्दू एक सामाजिक दृष्टिकोण" नामक मंथमें वड़ी ही खोजपूर्ण प्रभा के साथ हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म की मान्यताओं पर विद्वतापूर्ण विवेचन कार इन धर्मों के बीन उत्पन्न हुई भेद की खायी को भरने का स्तुत्य प्रयास किया है।
दर्शन-शास्त्र एवं धर्म विषयक ग्रंथों के अध्येताओं के लिए एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण देने वाले इस अनुमम ग्रंथ के प्रचार-प्रसार की शुभकामना मैं भी करता हूँ। सत्संग भवन सरसैया घाट
स्वामी रामनाथ कानपुर।
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- एक प्रगतिशील व्यक्तित्व "श्री रतनचंद मेहता"
प्रोफेसर कंचन कुंवर सिंह परिचय के अपने विशाल दायरे में सम्मान और श्रद्धा की दृष्टि से देखे जाने वाले श्री रतनचंद जी मेहता, निःसन्देह उन कर्मठ, प्रखर बुद्धि और सृजनशील व्यक्तियों में से हैं, जिन्होंने अपनी मौलिक अन्तरदृष्टि से अपने कीर्तिमान स्वयं ही स्थापित किये हैं।
आपके दादा जी श्रीमन्त सेठ गुलावचन्द जी मेहता, सागर के जिले के प्रमुख रईस थे, जिनकी जमीदारी कई गांवों में थी। साहूकारी के अतिरिक्त एक कुशल काश्तकार के रूप में विख्यात आपके दादा जी संगीत, राग-रागनियों, खेल-तमाशों के प्रति एक और गहरी अभिरुचि रखते थे, दूसरी ओर अपने क्षेत्र की सभी रियाया के सुख-दुःख में पूरी तरह साथ निभाने की संकल्प शक्ति भी इनमें विद्यमान थी। सं० १६५६ का अकाल.' 'देश की जनता जिस समय मुत्यु के दर्दनाक दौर से गुजर रही थी, उस समय सेठ गुलाबचन्द जी ने जनता को दिये गये अपने ७५ हजार रुपये न केवल माफ कर दिये, वल्कि उन भूखे हजारों लोगों के लिए निःशुल्क भोजन की व्यवस्था भी की, जिसे आज तक वह पूरा क्षेत्र याद करता है । अंग्रेजों ने उनके इस सराहनीय कार्य पर उन्हें सम्मानित भी किया था। क्षेत्र . के गरीब लोगों के लिए सदैव एक वैद्य इनके साथ रहा करता था । इनके तीन पुत्र थे। सर्व श्री मिलापचंद जी मेहता, अनूपचंद जी मेहता और सुगनचंद जी मेहता । ..
सागर जिले के ग्राम आगासौद में संवत् १९७० में इसी
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( १६ } उच्चकुल में जन्मे श्री रतनचंद जी मेहता ने इकलोती सन्तान के रूप में सभी पत्रिकगुण विरासत में पाये । पिता श्री अनूपचंद जी मेहता जितने उदार हृदय-सौम्य, कानून थोर कास्त के मर्मज्ञ, दूरदृष्टा और भावुक थे, वे सारी की सारी विशेषतायें प्राज भी श्री मेहता में देखी जा सकती हैं ।
शैशव का सीमान्त लांघते ही परिदेशानुकूल व्यायाम की तरफ इनकी गहरी रुचि उभर कर सामने आई, जिसे आने वाले २५ वर्षों तक इन्होंने विविध रूपों में संवारा-संजोया । किशोरावस्था के दौरान सन् १९३१ में इन्होंने ग्रागासौद में ही नवयुवक सेवा मण्डल की स्थापना की और जीव दया प्रचारिणी सभा के समन्वय से गांव के विकास और समाज की प्रगति के लिए थाने वाले लम्बे समय तक उन्होंने उसका संचालन किया ।
अध्ययन के प्रति अपनी स्वाभाविक और गहरी रुचि के कारण बचपन से ही विभिन्न पुस्तकों का घर पर पठन-पाठन इन्होंने प्रारम्भ कर दिया था तथा कुछ अन्तराल से इनका ध्यान अध्ययन की एक सुनियोजित व्यवस्थानिर्माण के प्रति गया और गांव में इसकी कमी तथा साक्षरता की आवश्यकता को ध्यान में रखकर इन्होंने एक सुव्यवस्थित पुस्तकालय की स्थापना की एवं प्रौढ़ शिक्षा के विकास के लिये रात्रि पाठशाला भी प्रारम्भ की जिसे एक प्रभुतपूर्व शुरूप्रात माना गया, लोगों की सामायिक चेतना और शिक्षा को विकसित करने के क्षेत्र में...
देश जब भी क्रान्ति की अनिवार्य भूमिका से गुजरता है, तो एक दायित्वपूर्ण, भावुक चेतनशील और आस्थावान व्यक्ति उससे सहजता उससे आन्दोलित हो उठता है। तत्कालीन
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१७ ) आव्हान की अपनी भूमिका को इन्होंने भी क्रान्ति के प्रति समपित माना और नवयुवक सेवा मण्डल के माध्यम से कांग्रेस की क्रान्तिकारी नीतियों में गहरी आस्था होने का प्रमाण जीवन के आने वाले तमाम वर्षों में प्रस्तुत करते रहे।
गांव के चिन्ताजनूय पिछड़ेपन से प्रायः चिन्तित श्री मेहता ने वहां के जन-जीवन के विकास के लिये दो अन्य संगठनों का . निर्माण किया 'जीव दया प्रचारिणी सभा' जिसके अन्तर्गत दूसरों के हितसम्वन्धी रचनात्मक कार्यक्रम अपनाये गये तथा 'व्यापारिक शिक्षा संस्थान' जिसके अन्तर्गत वहां के युवकों के भावी जीवन में व्यापारिक स्तर पर विकास की दिशा में सफल बनने के लक्ष्य से इन्होंने व्यापार के अनिवार्य लक्षणों तथा उसमें प्रगति की अपनी अभूतपूर्व व्याख्या प्रस्तुत की, जिसके साक्ष्य स्वरूप इनके इन्हीं सिद्धान्तों द्वारा निर्देशित कई युवक, जिन्होंने उस समय व्यापार की दिशा ग्रहण की थी, आज निःसन्देह एक सफल व्यापारी बन सके। .
अांदोलन के देशव्यापी अनुक्रम में स्वयं समर्पित श्री मेहता ने पूरी तरह गांधीवादी विचारधारा को अपने जीवन में ग्राह्य माना और बीस वर्ष की आयु से आज तक वे उसी श्रद्धा के सहज क्रम में शुद्ध खादी का प्रयोग करते चले आ रहे हैं। स्वतन्त्रता संग्राम इनके लिये भी एक चुनौती था और उसमें सक्रिय भाग लेने का उत्साह वे रोक न सके ; तथा कांग्रेस विचारधारा के समर्थन-पालन में कई बार विभिन्न कठिनाइयों और यातनाओं को सहने के बाद भी अपनी प्रोजस्वली लेखनी से जन जीवन में व्यापक क्रान्ति चेतना भरने की अपनी अथक चेष्टा जारी रखी। काव्यप्रतिमा प्रायोगिक को इन्होंने शोपण और
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“देश की स्वतन्त्रता के समानान्तर संपूर्ण सार्थकता दी और कई वारे तो इनकी रचनायें सिर्फ इसलिये जप्त की गई कि उनमें अंग्रेजों के प्रति तीव्र विरोध शित था।
आर्थिक रख-रखाव से दूर इन्होंने सदैव ही दायित्व की क्रियात्मक भूमिका को ही अपनाया और कहते रहे 'मैं कर्म के प्रति निष्ठावान हूँ, कार्य भर कर सकता है-अर्थ (पैसे) से हाथ नहीं लगाता।' और वस्तुत: आज भी इनमें एक दु:ख, इस बात का निरंतर मुखरित होता है कि आज कुछ कांग्रेस-जन अपने सिद्धान्तों की प्रामाणिक-सार्थकता के प्रति पूरी तरह ईमानदार नहीं रहे। __इसी के समानान्तर आगासौद के अपने जीवन क्रम में इन्होंने तारण तरण समाज के विकास के लिये एक सक्रिय कार्यकर्ता की भूमिका भी निभायी और इसके प्रारम्भिक पत्रतारण बन्धु, के प्रकाशन की शुरूयात का सुझाव दिया और काफी समय तक तारण समाज के लिये लिखते रहे।
राष्ट्रीयता के प्रति गहरी आस्था और त्याग की निःश्चल भावना इनमें सदैव संचरित रही। प्रत्येक विपय और समस्या पर इनका सामयिक, विशिष्ठ और मौलिक चिन्तन क्रमशः निखरता गया और छूटता गया वह सब कुछ -जो अव्यावहारिक असैद्धान्तिक और अनुपयोगी इन्हें लगा ; ये कांग्रेस के सक्रिय सदस्य वने तो सिर्फ गांधीवादी सिद्धान्तों तक स्वयं को सीनित रखा और उसको वाह्य स्वार्थपरक अभिसंधियों से सदैव दूर रहे
'चाह नहीं चार आने देकर, अपना नाम लिखाऊ मैं ।
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( १६ ) चाह नहीं खादी अपनाकर, देश भक्ति जतलाऊं मैं। चाह यही स्वीकार करो, . गांधी मुझको चरणों का दास । अपना जीवन सफल बनाने, पड़ा रहूँ मैं तेरे पास ।'
(लेखक की १९४१ की रचना) अचानक इसी दौरान पिता की मृत्यु इन्हें व्यापक दायित्वों से और जोड़ गई तथा २८ वर्ष की आयु में पारिवारिक समस्त जिम्मेदारियों के प्रति उन्हें सचेष्ट होना पड़ा।
एक नये जीवन-क्रम का प्रारम्भ गांव से शहर की पोर... इनकी विकासशीलता इन्हें प्रयोग के अपेक्षाकृत विस्तृत दायरे में ले आयी और छोटा-सा शहर वीना, पाने वाले कई वो तक इनके जीवन का महत्वपूर्ण कर्मक्षेत्र बन गया ।
इनकी कार्यकुशलता तथा विविध क्षेत्रों में इनकी सक्रिय रुचि के कारण धीरे-धीरे लोग इन्हें महत्व देने लगे और सन् १९५४ में इन्हें नगरपालिका बीना का उपाध्यक्ष चुना । इससे पूर्व इन्होंने नगरपालिका के अवैतनिक कोपाध्यक्ष का दायित्व निर्वाह सफलतापूर्वक किया। इसके समानान्तर ही लोगों का विश्वास इनके प्रति बढ़ता गया । सहयोगी और निर्देशक दोनों के बीच निर्माण कार्य की गति इनमें क्रमशः तीन हुई और कई संस्थानों के संचालन दायित्व का भार थोड़े ही अन्तराल से इन्हें स्वीकरना पड़ा।
१६५४ से १९५८ के ५ वर्षों के दौरान भारत सेवक
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( २० ) समाज वीना' के अध्यक्ष के रूप में इन्होंने एक संगठन को जहां व्यवस्थित, सक्रिय और सार्थक बनाने का प्रयत्न किया, वहीं 'सर्वोदय प्रचारक संघ तथा सर्वोदय भवन पुस्तकालय एवं वाचनालय' वीना के संस्थापक संचालन में भी तन-मन और धन से उपाध्यक्ष के नाते अपना श्रविस्मरणीय सहयोग प्रदान किया । सर्योदय की विचारधारा से ये काफी प्रभावित हुए तथा थाने वाले जीवन में समाज की प्रगति का नया दृष्टिकोण लेकर उत्तरोत्तर कार्य करते रहे. एक निःस्वार्थ कर्मयोगी की भांति ।
जनवरी १९५६ इनकी इन्हीं सारी समकक्ष विशेषतात्रों के कारण सिटी कन्ट्रोल वीना का एक ओर तो इन्हें सदस्य नियुक्त किया गया, दूसरी ओर नगरपालिका के कार्यों तथा उसके . आन्तरिक ढांचे को काफी हद तक सुदृढ़ बनाने की क्षमता के कारण ८ मई ५८ को ये नगर पालिका के कार्यवाहक अध्यक्ष बनाये गये जिसके दौरान दो वर्षों तक किये गये कार्य आज भी इनकी याद दिलाते हैं ।
व्यापार कुशल, विनम्र और पूंजी को व्यापारिक प्रगति के लिये सर्वथा अनिवार्य न मानने वाले श्री मेहता की दक्षता बौद्धिक श्रम के सन्दर्भ में अब तक कई रूपों में प्रमाणित हो चुकी थी, साथ ही समयसमय पर इन्हें सर्व श्री मेहता नन्द -- किशोर, चिरागउद्दीन मौलवी, लोकरस साहव, डा० वी० वी० राय, रामनारायण लाल जी, आनन्द मंगल मिश्र, ज्वालाप्रसाद जोशी और अव्दुल गनीम आदि तत्कालीन प्रसिद्ध व्यक्तियों एवं कार्यकर्तायों का पूर्ण सहयोग मिला और एक सजन कार्यकर्त्ता की भांति ये निरन्तर लक्ष्य की दिशा में बढ़ते गये । याद ग्राता
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( २१ )
है वह अंश जो प्रमुख पत्र 'कर्तव्य दान' ने इनके बारे में लिखा --
'मेहता जी पुराने कार्यकर्ता हैं, श्राप सन् १९३२ से कार्य कर रहे हैं । आपकी लगातार भाषण शैली अत्यन्त प्रभावशाली और सबसे बड़ी विशेषता श्राप में यह है कि इन्होंने स्वतः के बौद्धिक परिश्रम से पूजी एकत्र की है ।'
इतके अनन्य साथियों में से इनके समय नगर पालिका अध्यक्ष श्री प्रसाद पाठक भी थे जिन्होंने इनकी क्षमता पर पूरा विश्वास सदैव व्यक्त किया । ग्रक्टूबर १९५८ में ग्रेन मर्चेन्ट एसोसिएशन, वीना के अध्यक्ष बनाये गये तथा इस जिम्मेदारी को भी बड़े ही सूझ बूझ से इन्होंने अन्त तक निभाया । शिक्षा और धर्म के प्रति भी इन्होंने जब-जब समय मिला अपना प्रयत्न जारी रखा और इसी क्रम में कई सनातन मन्दिरों का भी जीर्णोद्धार इन्होंने कराया जिसमें इटावा के हनुमान मन्दिर तथा मारुति मन्दिर आदि कहे जा सकते हैं । तारण तरण ममाज के प्रायोजनों में प्रारम्भ से ही इनका विशेष सेवा कार्य आज भी लोग याद करते हैं तथा इन मौकों पर इन्होंने बहुत सी सम्बन्धित रचनाओं का भी समय समय पर निर्माण किया ।
एक कांग्रेसी कार्यकर्ता के रूप में कई वर्षों तक अपनी निष्ठा प्रमाणित करने के फलस्वरूप इन्हें मण्डल कांग्रेस को सुदृढ़ और संगठित करने की जिम्मेदारी भी सौंपी गई तथा १९५८ में इन्हें मण्डल कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया । लगभग डेढ़ वर्षों तक वीना क्षेत्र में अपनी सेवायें अर्पित करने के पश्चात् यह स्थान इन्हें छोड़ना पड़ा क्योंकि पूरा सागर क्षेत्र ही
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।
२२ )
तब तक डाकुओं के आतंक से असुरक्षित हो गया था और एक नया अध्याय शुरू हुआ- श्री मेहता का तथा शहर था गंजबासौदा..
जीवन की असुरक्षा से चिन्तित होकर लौटे श्री मेहता ने इस नये क्षेत्र में ३ वर्षों तक किसी भी वाह्य गतिविधियों का सूत्रपात नहीं किया । पूरी तरह यहां व्यवस्थित होने के उपरान्त इन्होंने विविध व्यापार क्षेत्रों, अनाज एवं दाल मील आदि में अपना विशेष स्थान बनाया और इनके यहां आगमन तथा विकास के सूत्राधार थे सर्वश्री मान्यवर उदयचन्द जी ओसवाल (कंबर सा०), अपनी उदार एवं मानवतावादी प्रवृत्तियों के लिये विख्यात रतनचन्द जी प्रोसवाल (मिट जी) तथा मदनसिंह जी एडवोकेट जिन्होंने यहां श्री मेहता की मार्गप्रसारित का सम्पूर्ण दायित्व निर्वाह किया।
बासौदा का तारण तरण समाज, जिसका एक बड़ा ट्रस्ट यहां काफी पहले से शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में प्रसिद्ध था, एक कार्यकर्ता के रूप में पहले से ही श्री मेहता को जानता था और इसी कारण उन्होंने तारण तरण ट्रस्ट में इन्हें १० वर्ष पूर्व ट्रस्टी बनाया।
धार्मिक अभिरुचियों में विशेष सक्रिय श्री मेहता ने १४ जून १६६६ को जैन श्वेताम्बर श्री संघ के तत्वाधान में पाननाथ भगवान की प्रतिष्ठा के महोत्सव का संचालन एक अध्यक्ष के रूप में किया और श्वेताम्बर समाज को संगठित करने की पहल की।
दमके साथ ही प्रारम्भ से रामायण मण्डल में अपना पूर्ण
पूर्ण
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१९६० को किये गये अखिल भारतीय मानस ज्ञान यज्ञ महोत्सव के आयोजन के श्री मेहता अध्यक्ष रहे। इस यज्ञ में अनन्द श्री विभूपित जगत्गुरू शंकराचार्य जी, श्री कृष्ण बोधाश्रम जी महाराज तथा श्री कुशल जी आदि प्रकाण्ड विद्वानों की ज्ञानगंगा का रसास्वादन इन्होंने असंख्य नर-नारियों को कराया।
दूसरा प्रमुख कर्मक्षेत्र था शिक्षा...। बासौदा जैसे शहर में लम्बे समय से अनुभव की जा रही उच्च शिक्षा की कमी से प्रभावित होकर श्री मेहता ने जनता के सहयोग से एक महाविद्यालय की स्थापना की और उसका नाम रखा गया "श्री तारण तरण दिगम्बर जैन महा विद्यालय।" १९६४ में स्थापित इस महाविद्यालय को कुछ समय पश्चात जब शासन द्वारा अपने नियंत्रण में लेने का प्रश्न आया तो अन्य कुछ लोगों की राय के विपरीत श्री मेहता ने इस बात पर बल दिया कि यदि महा विद्यालय को हम सबसे अधिक व्यवस्थित और नियमित रूप से शासन चला सकती है तो हमें शासन को इसे सौंप देना चाहिए क्योंकि हमारा मूल लक्ष्य इस क्षेत्र में उच्च शिक्षा को सुचारु रूप से संचालित करने का है, इसमें किसी के निजी श्रेय का कोई विशिष्ट अर्थ नहीं। और इस प्रकार यह संस्था विधिवत शासन को सौंप दी गई।
सन् १९६६ में विधि अध्ययन को लेकर नापने एक नये महाविद्यालय की पुनः नींव रखी और उसका वड़ाही भावात्मक कारण रहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व० लाल बहादुर शास्त्री की अकस्मात मृत्यु का दुखद समाचार जब यहां प्राप्त हुया तो उनके कनिष्ट पुत्र भी कवि सम्मेलन के सन्दर्भ में बासौदा में उपस्थित थे और इसी सन्दर्भ में बाद में यह निर्णय लिया गया
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कि स्वर्गीय श्री शास्त्री जी की स्मृति में एक महाविद्यालय की स्थापना की जाये।
इस समय तक शासन की जिले एवं नगर वन्दी की अनाज बन्दी की आक्रामक की नीतियों के कारण विवशत. अपना समस्त अनाज व्यापार एवं दाल मील को भी मेहता बन्द कर चुके थे और इसी कारण माननीय श्री तखतमल जी और श्री रतनचन्द जी प्रोसवाल तथा उ.- के अन्तरंग साथियों द्वारा जब महाविद्यालय के प्रारम्भ की चर्चा पाई तो व्यापार से सुरक्षित बचे २५ हजार रुपये सहर्ष इस सदुपयोग के लिये श्री मेहता ने स्थायी सुरक्षानिधि के रूप में प्रदान किये, जिसे विश्वविद्यालय में जमा किया गया और परिणामस्वरूप वासौदा शिक्षा समिति के तत्वा- . वधान में श्री लाल बहादुर शास्त्री महाविद्यालय का विधिवत् शुभारम्भ जुलाई १९६६ से हो सका। इसी सत्र से नन्हे-मुन्हे बच्चों की प्रायोगिक शिक्षा की व्यवस्था भी शुरू की गयी और इसके निमित्त शिशु मन्दिर की स्थापना हुई, जो तब से निरन्तर प्रगति के पथ पर है। श्राज शिशु मन्दिर का एक विशाल भवन श्री मेहता के ही अथक प्रयासों का ही परिणाम है । जहां बहुत से नन्हे-मुन्हे वालक नई शिक्षा प्रणाली के अनुसार पढ़ाए जाते
सभी धर्मों के प्रति उदार हृदय श्री मेहता साम्प्रदायिकता से दूर-दूर तक अप्रभावित हैं । बासौदा में मुसलमानों का एक ऐसा मकबरा जिसे श्री मेहता ने बासौदा का ताजमहल कहा, काफी दिनों से तटस्थ पड़ा हुआ था। उसके विकास के लिए भी
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( २५ ) प्रतिवर्ष उसे लगा करता है । उनकी यह भावना उनके द्वितीय
पुत्र डा० महेन्द्र प्रतापं मेहता के विवाह के गवसर पर प्रकाशित भावनांजलि के अन्तर्गत उस पृष्ठ पर देखी जा सकती है, जहां इन्होंने वैष्णव तथा जैन मन्दिरों के साथ उस मकबरे का भी चित्र संकलित किया है |
सम्भवतः सभी वर्गों के प्रति उनके इसी समन्वित उदार चिन्तन क्रम का ही परिणाम है । यह पुस्तक जिसके अन्तर्गत उन्होंने भारतीय संस्कृति की सम्पूर्ण अर्थवत्ता में जैन और वैष्णव दोनों ही धर्मों की विशिष्ट परिकल्पनात्रों को समाहित करने की मौलिक व्याख्या प्रस्तुत की है ।
निःसन्देह उनके इस प्रयास के अन्तर्गत निहित चिन्तन को समस्त भारतीय चेतना और विद्वत समाज के प्रति इस अपेक्षाके साथ कि उनकी यह समन्वयात्मक कृति निश्चित ही अपना एक विशिष्ट स्थान प्राप्त करेगी। मैं अपनी समस्त अनुशंसा इस विशिष्ट योगदान के प्रति अर्पित करता हूँ ।
कंचन कुंवर सिंह
१६ अक्टूबर १९७४ गंज- वासौदा ( म०प्र०)
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प्राक्कथन
प्रस्तुत पुस्तक "जैन-हिन्दू एक सामाजिक दृष्टिकोण" के समर्थन में एक स्पष्ट एवं संक्षिप्त परिचयात्मक प्रयास है। . वस्तुतः जैन व वैष्णव भारतीय समाज के अभिन्न अंग हैं, चाहे देश-काल प्रादि की अपेक्षा से इनमें भेद प्रतीत होता हो, किन्तु मौलिक दृष्टि से निष्कर्षतः इनमें एकरूपता अधिक है। भेद का क्षेत्र सीमित है, जबकि अभेद एवं एकरूपता की परिधि बड़ी व्यापक और विस्तृत है। इसी परिपेक्ष्य में समन्वय के आधारभूत कारणों को जैन और हिन्दू इन दोनों ही परस्पर भिन्न शब्दों की सार्थक एकात्मकता की खोज के सन्दर्भ में मैंने "जैनहिन्दू एक सामाजिक दृष्टिकोण" की व्याख्या की आवश्यकता अनुभव की । एक अन्य कारण यह भी रहा कि आज जैन स्वयं को हिन्दू नहीं मानता और वैदिक धर्मावलम्बी भी यह स्वीकार नहीं करना चाहता कि जैन हिन्दू हैं, जबकि ऐसी धारणा कुछ नासमझ लोगों की ही कही जा सकती है। फिर भी यह एक ज्वलन्त प्रश्न था मेरे सामने कि क्या दोनों ही सम्प्रदाय वस्तुतः एक नहीं हैं और यह पुस्तक इसी संदर्भ-शोध-क्रम का परिणाम
वैसे भारतीय संस्कृति एक होते हए भी तीन धाराओं में प्रवाहित हुई है, जिसे जैन, वैदिक और वौद्ध धारा कहा
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जैन तथा वैदिक धर्मावलम्बी की समाज व्यवस्था में कम काण्डों, प्राचार-विचार, रहन-सहन, वेषभूषा, कुटुम्ब, स्त्रियों का परिवार में स्थान, विवाह-पद्धति एवं गुरु तथा पुरोहित की मान्यतायों, धार्मिक विश्वासों के अन्तर्गत दान-पुण्य, व्रत-उपवास. धर्म-कर्म, कर्म-फल, ब्रह्मचर्य, गौभक्ति, पुर्नजन्म आदि सभी गुण भारतीय संस्कृति के हैं और इनकी मान्यता दोनों ही पक्षों में समान रूप से पाई जाती है । अतः भारतीय संस्कृति के स्वरूप स्वभाव और विकास की अत्यन्त प्राचीन काल से चली याने वाली धारावाहिकी जीवित परम्परा को ठीक-ठीक समझने के लिए उसके इतिहास को व्यापक रूप से जानने की प्रावश्यकता है।
वाहरी जातियों के आक्रमणकाल में हिन्दुस्तान की प्रभुसत्ता वैदिक धर्मावलम्बियों के हाथ में थी । इसलिये 'हिन्दू' शब्द इन्हीं के अर्थ में रूढ़ हो गया । आज इसी 'हिन्दू' शब्द के सही अर्थ को समझने और उसके व्यवहारिक प्रयोग की अधिक आवश्यकता है।
हिन्दू संस्कृति सनातन है, जिसकी अनेकानेक शाखाप्रशाखायें वटवृक्ष के समान विभिन्न सम्प्रदायों और पन्थों के रूप में विश्व में चारों तरफ फैलती गयीं, जबकि समस्त हिन्दुओं की संस्कृति प्रत्यक्ष रूप से एक ही है। इसी कारण हिन्दू संज्ञा से विशेपित जैनियों को 'हिन्द' कहने में गर्व का अनुभव करना चाहिए। जैन धर्म पर किसी एक जाति, समाज व संघ का अधिकार नहीं है, यह सबका है, इसे पौषित करने वाली जातियाँ और संघ अनेक हैं । जिस व्यक्ति ने जैन सिद्धान्त के अनुरूप
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( २८ ) है | भगवान महावीर के शासनकाल में 'हरिकेशी' जैसे चाण्डल मुनि वने और अपनी साधना के उत्कर्ष से देवताओं के पूज्य कहलाए | जैन मत बहुत प्राचीन है । अनुऋति के अनुसार इस मत के आदि प्रवर्तक ऋषभदेव थे । उनका उल्लेख ऋग्वेद, यजुवेद, विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवत यादि प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलता है | इन्हें ग्रादिनाथ स्वामी भी कहते हैं ।
राजा भीमसेन का पौत्र और श्री गुन्ज का पुत्र उत्पल कुमार ने अपने बाहुबल और ग्रतुल पराक्रम से प्रोसियानगर (जोधपुर) में अपना राज्य स्थापित किया । यह पूर्व में वंश पर - म्परानुसार वाममार्गी था । अन्त में यह जैनाचार्य के उपदेश से जैन धर्मी हुग्रा, इसके साथ ही ३६ कुल के ( सवालाख ) राजपूतों ने जैन धर्म स्वीकार किया ।
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एक राष्ट्रीयता के अन्तर्गत किसी विभिन्न [ संस्कृति के अविच्छन्न स्रोत के रूप में निवास करने वाले समस्त जनसमुदाय का एक सार्थक सम्बोधन राष्ट्रीयता सूचक भौगोलिक ऐसे शब्द भी हुआ करते हैं, जो उनकी समस्त विशिष्टता को विश्व की ग्रन्थ नितान्त भिन्न संस्कृतियों से अलग कर सके । इसी संदर्भ में चूंकि हम एक विशाल भारत या हिन्दुस्तान के नागरिक हैं, उनकी समग्र संस्कृति हमारी संस्कृति है, इसलिए हम हिन्दू हैं ।
'हिन्दू' किसी जाति या धर्म का वाचक कभी नहीं रहा, संस्कृति के समग्र भौगोलिक परिवेशा के वाचक इस शब्द 'हिन्दू' को, ग्रतः किसी निश्चित साम्प्रदायिक से जोड़ना नितान्त पपूर्ण और भ्रामक है । साम्प्रदायिक कट्टरता भारत का जितना ग्रहित हुआ चोर हो रहा है, वह किसी से
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( २६ ) छिपा नहीं है । इस विषैले वातावरण को समाप्त करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। वैदिक, जैन, बौद्ध और सिक्ख संस्कृति के समन्वय बिना ग्रार्य परम्परा का इतिहास किन्हीं अर्थो में पूर्ण नहीं माना जा सकता ।
इस स्वीकारोक्ति के उपरान्त भी कि कोई प्रयास ग्रुपने आप में पूर्ण नहीं होता, इस पुस्तक को सार्थक एवं उद्देश्यपूर्ण बनाने का भरसक प्रयास मैंने किया । पुस्तक में कई ऐसे प्रसंग थाए हैं, जहां ग्रास्था से परे बौद्धिक तर्क वितर्क के द्वारा सन्देह उत्पन्न किए जा सकते हैं या सम्भव है कई सन्दर्भों में मुझसे भी त्रुटियां वन पड़ी हों, किन्तु अन्ततः सभी बातें सबको समझ में श्री जावें, यह भी तो सम्भव नहीं है ।
यदि जैन व वैष्णव समाज के विद्वान इस पुस्तक के निष्पक्ष एवं प्राग्रहरहित अध्ययन के फलस्वरूप मेरे प्रयासों को दोनों ही सम्प्रदायों की एकरूपता के संदर्भ में अपनी थोड़ी बहुत भी स्वीकृति प्रदान कर सकें तो मैं "जैन- हिन्दू एक सामाजिक दृष्टिकोण" इस दिशा में अपने इस प्रयत्न को सफल मानू ंगा | मुझे सन्तोष है कि वैष्णव विद्वान द्वारा जैनियों को हिन्दू हो माना गया है, साथ ही यह विश्वास भी है कि जैन व वैष्णव समाज के पाठकों द्वारा हार्दिक सहयोग प्राप्त होगा । कुछ लोग अवश्य मेरी इस विचारधारा से रुष्ट होंगे, उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि जैन वस्तुतः हिन्दू समाज के ही अभिन्न अंग हैं, ऐसा निश्चिय कर लेने के पश्चात ही समाज समर्थ, सुखी, प्रगतिशील, सुदृढ़ और समृद्ध बन सकेगा ।
मैं उन प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वानों तथा चिन्तकों का हृदय से अभिनन्दन करता हूँ, जिनके ग्रन्थों, गन्वेपणापूर्ण निवन्धों
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प्रादि के आधार पर "जैन-हिन्द एक सामाजिक दृष्टिकोण" यह प्रमाणित कर सका हूँ।
अपने आपको समझाने के क्रम में प्रायः यह अनुभव करता - हूँ कि इस प्रयास में त्रुटियों का होना असम्भव है। वैसे
भी मनुष्य में दोष और त्रुटियां होती ही हैं। मैं केवल इतना विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि किसी पूर्वाग्रह या पक्षपात से प्रभावित होकर इस पुस्तक के लिखने का प्रयास मैंने नहीं किया, अपनी सामान्य बुद्धि और विवेक से जो कुछ मुझे उचित और विपय-सामग्री के प्रमाण में तथ्यपूर्ण जान पड़ा, उसे ही लिखा है।
सभी विद्वत्-समाज से पुनः विनम्र निवेदन करते हुए मैं यह विश्वास करता हूँ कि यह पुस्तक जैन और वैष्णव की एकरूपता और उनके समन्वयात्मक मूल्यों की स्थापना में सहायक हो सकेगी। वासौदा दाल मिल,
-रतन चन्द मेहता गंज-बासौदा (म० प्र०)
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अनुक्रम
१ : सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य और जैन तथा हिन्दू धर्म का समन्वयात्मक विश्लेषण
० भारतीय संस्कृति और जैन धर्म ० हिन्दू : एक अन्तरंग विश्लेषण ० जैन-हिन्दू एक सामाजिक दृष्टिकोण ० हिन्दू राष्ट्रीयता का प्रतीक है, जाति
और धर्म का नहीं २ : धार्मिक परिप्रेक्ष्य और जैन तथा हिन्दु धर्म
० जैन साहित्य में राम और कृष्ण ० जैनियों में गणेश पूजन ० जैन साहित्य में सती सीता ० जैन धर्म में श्री हनुमान ० स्वास्तिक और प्रोम ० जैन से वैष्णव : वैष्णव से जैन ० वैष्णव राजवंशों द्वारा जैन धर्म को
संरक्षण ० जैन धर्म के चौबीस तीर्थकर . ० जैनेतर साहित्य में जैन तीर्थंकर
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ગ્
• जैन आचार्य : जो पहले वैष्णव थे
• जैन वीर : जो पहले वैष्णव थे • जैन व वैष्णव मूर्तियों की एक मन्दिर में स्थापना
● भारत में जैन तीर्थ
० भारतीय संस्कृति गीर गाय के प्रति जैनियों की श्रद्धा
• कर्म मोक्ष और पुर्नजन्म
३ : सामाजिक परिप्रेक्ष्य और जैन तथा वैष्णव धर्म का
समन्वयात्मक विश्लेषण
.४ : निष्कर्षतः
● जैनियों में हिन्दू वेषभूषा, भाषा
और साहित्य
०
हिन्दू विधि
• जैन और यज्ञोपवीत
विवाह सम्वन्ध
०
• जैन और वैष्णव समाज में स्त्री का
स्थान
० त्यौहार और पर्व
• जैन और वैष्णव में मृत्यु संस्कार
• संदर्भ ग्रन्थ
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'सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य
और जैन तथा हिन्दू धर्म का लमन्वयात्मक विश्लेषण
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जिज्ञासा
• आपकी संस्कृति कौन-सी है...?
~~~-भारतीय • आप हिन्दू हैं...?
• क्या प्रमाण है उसका...? --मैं हिन्दुस्तान को अपनी मातृभूमि मानता हूँ... ---मेरी मातृभाषा हिन्दी है... ---में देवमूर्ति का सम्मान करता हूँ." -~~-मैं पुर्नजन्म को स्वीकार करता हूँ."उससे मुक्त
होने के प्रति सचेष्ट हूँ... -~~सब जीवों के अनुकूल बर्ताव को ग्रहण करता हूँ... -~-अहिंसा को धर्म मूल मैं मानता हूँ... -~-गौ सेवा में निष्ठा रखता है...
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भारतीय संस्कृति और जैन-धर्म
संस्कार सम्पन्न जीवन का नाम ही संस्कृति है। जहां मानसिक, वाचिक और कायिक विकृतियां स्वतः परिष्कृत होकर सामने आती हैं। मानव जीवन के तीन पक्ष ज्ञान, भाव और कर्म जो क्रमशः बुद्धि, हृदय और व्यवहार से सम्बद्ध हैं, के पूर्ण सामन्जस्य से संस्कृति का निर्माण होता है । वस्तुतः संस्कृति किसी एक व्यक्ति के प्रयत्नों का परिणाम न होकर अनेक 'व्यक्तियों द्वारा वौद्धिक दिशा में किये गये सम्पूर्ण प्रयत्नों की अन्विति है ।
.
तत्वज्ञान, नीति, विज्ञान और कला, ये चार संस्कृति के विभिन्न तत्व हैं, जिसके अन्तर्गत मनुष्य ग्रपनी बुद्धि से विचार और कर्म के क्षेत्र में जो सृजन करता है वह संस्कृति कहलाती है । मैथ्यु ग्रार्नल्ड के अनुसार विश्व के सर्वोच्च कथनों और विचारों का ज्ञान ही सच्ची संस्कृति है । पंडित देवेन्द्र, मुनि शास्त्री भी इसे स्वीकार करते हैं कि संस्कृति यद्यपि श्रदृश्य जीवन तत्वों की भांति कुछ रहस्यमय और दुर्बोध है तथा ठीकठीक शब्दों की पकड़ में नहीं ग्राती तथापि इतना कहा जा सकता है कि संस्कृति किसी जाति या देश की आत्मा है । इससे उसके सब संस्कारों का बोध हो जाता है, जिसके सहारे वह सामूहिक या सामाजिक जीवन का निर्माण करता है ।
संस्कृति एक अविरोधी तत्व है जो विरोध को नष्ट कर
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प्रेम का सुनहरा वातावरण निर्माण करता है । नाना प्रकार की . धर्मसाधना, कलात्मक प्रयत्न, योग मूलक अनुभूति और तर्क मूलक कल्पना शक्ति से मानव जिस विराट सत्य को अधिगत करता है, वह संस्कृति है । संस्कृति एक प्रकार से विजय यात्रा है, असत् से सत् की मोर, अंधकार से प्रकाश की पोर, मृत्यु से अमृत की ओर बढ़ने का उपक्रम है।'
इस प्रकार कहा जा सकता है कि संस्कृति में धर्म, दर्शन, विज्ञान, कला एवं सम्पूर्ण जीवन का सार तत्व सन्निहित है । इसी क्रम में अब हम हिन्दूत्व शब्द पर भी विचार करना चाहेंगे । हिन्दूत्व मूलतः हिन्दूपन को कहा जाता है। हिन्दूपन के भीतर हिन्दू धर्म, हिन्दू मर्यादा, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू सभ्यता, हिन्दू परम्परा, हिन्दू कला आदि सभी कुछ प्रा जाते हैं । हिन्दूत्व का स्वरूप इतना व्यापक है कि इसकी रक्षा के लिए वे भी प्राण देने को तैयार हैं जो हिन्दत्व की दो ही एक वा मानते हैं । दक्षिण के अनार्य कहलाने वाले ब्राह्मण (आदि द्रविड़) भी अपने को हिन्दू कहने में गर्न का अनुभव करते हैं। आर्य समाजी, सिक्ख, जैन, बौद्ध आदि सभी हिन्दू महासभा में सम्मिलित हैं।
दोनों जैन सम्प्रदायों के अन्तर्गत कई पंथ और कई टोले हो जाने के उपरान्त भी जैन लोग हिन्दू देव-देवियों की अभी भी पूजा करते हैं तथा उन पर पूर्ण श्रद्धा रखते हैं। वे बहुत से हिन्दू त्यौहार उसी श्रद्धा के साथ मानते हैं तथा हिन्दु देव स्थानों पर जाकर अपने बच्चों के मुंडन संस्कार एवं विवाह १. साहित्य और संस्कृति-लेखक पं० देवेन्द्र मुनि शास्त्री,
पृष्ठ १८४ २. हिन्दुत्व का व्यापक स्वरूप-हिन्दू संस्कृति अंक-कल्याण .. पृष्ठ ३३६ .
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के बाद दूल्हा दुल्हिन को अपनी मान्यता के अनुसार घोक दिलवाते हैं।
पं० श्री सूरजचंद जी सत्य प्रेमी डांगी जी ने भी लिखा है कि हिन्दू संस्कृति समस्त संसार को परम कल्याण का संदेश सुनाती रही है। सनातन धर्म हिन्दू संस्कृति की प्रात्मा है, जैन धर्म हृदय है, बौद्ध धर्म बुद्धि है, सिक्ख धर्म बाहु है, वैष्णव धर्म मुख है। शैव धर्म मस्तक है। शास्त धर्म वीर्य, गाण पत्य. धर्म पेट है। सौर धर्म तेज है और इसी प्रकार अन्य-अन्य धर्मों को भी उसके भिन्न-भिन्न अंग प्रत्यंग मान लेना चाहिए। इस प्रकार जो संस्कृति अपने भिन्न-भिन्न साधनों से दुर्वितियों को हनन करने की चेष्टा करती है, वही हिन्दू संस्कृति है।'
जैन और बौद्ध हिन्दुओं का धार्मिक साहित्य विशाल है और अधिकांश में पाली-प्राकत में लिखा गया है । जैन हिन्दयों के श्वेताम्बर और दिगम्बर नामक दो भेद हैं और स्याद्वाद नामक दार्शनिक सिद्धान्त बड़ा प्रसिद्ध है । 'कल्याण' के हिंदू संस्कृति अंक में कुछ प्राचार्य और भक्त शीर्षक की शृंखला में पेज ८६४ पर श्री भगवान महावीर के जीवन चरित्र पर प्रकाश डालते हुए लिखा गया है कि सभी वर्ग, सभी जाति के लिए उनके धर्म का द्वार उन्मुक्त था। उनके शिष्यों में चारों वर्गों के मुख महापुरुप हुए हैं। पेज ८०८ पर भगवान् ऋपभदेव के जीवन, उनके त्याग तपस्या पर प्रकाश डाला गमा है ।
भारतीय संस्कृति मिली-जुली संस्कृति है । वहुत प्राचीन काल से हमारा देश अनेक जातियों का संगम स्थल रहा है। प्राचीन काल में भारतीयों को प्रार्य सम्बोधित किया जाता था और भारतीय संस्कृति मूलतः पार्यो की ही संस्कृति है। १-हिन्दू संस्कृति का स्वरूप : हिन्दू संस्कृति . अंक-कल्याण
पृ० ३६०
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आर्य का अर्थ है सत्पुरुष । जिस भूभाग में दीक्षा, संयम, नियम, उपवास, त्याग और निष्ठा आदि हैं वह पूरा क्षेत्र पार्य क्षेत्र है। आर्यों को ही बाद में हिन्द कहने लगे।।
रामायण एवं महाभारत की घटनायें प्रकारान्तर से ब्राह्मण एवं जैन दोनों ही परम्पराओं में प्राय: एक सी पाई जाती हैं और समान रूप से लोकप्रिय हैं । वस्तुतः दोनों धाराओं के कथानक एक दूसरे के पूरक हैं और नियमित इतिहास के प्रारंभ से पूर्व के अनुश्रुतिगम्यकाल के लिए ब्राह्मण परम्परा के वैदिक साहित्य रामायण एवं महाभारत काव्य तथा . पुराण ग्रंथ जितने उपयोगी हैं, उतने ही जैन पुराण साहित्य तथा धार्मिक अनुश्र तियां भी हैं। जैसा कि प्रो० जयचन्द्र विद्यालंकार का कथन है, भारत का प्राचीन इतिहास जितना वेदों को मान्य करने वाला है उतना ही वेद विरोधी जैनों का है। जैनों के प्राचीन तीर्थान्कर भी वैसे ही वास्तविक ऐतिहासिक पुरुष हैं जैसे कि वेदों के रचियेता हैं । श्रपिगण तथा ब्राह्मण परम्परा के अन्य प्राचीन महापुरुष । वस्तुतः जैन पुराण कथानकों के उस काल संबंधी चित्रण कहीं अधिक बुद्धिगम्य, युक्तियुक्त एवं वास्तविकता के निकट हैं । श्रमण संस्कृति भी शुद्ध भारतीय मानव संस्कृति है, जो वैदिक धर्म और ब्राह्मण संस्कृति के उदय के संभवतः कुछ पूर्व ही अस्तित्व में आ चुकी थी और विकसित हो चुकी थी । ब्राह्मण वैदिक संस्कृति के उदय के उपरान्त वह उसके साथ संघर्ष करती, समन्वय करती, आदान प्रदान करती तथा अपनी पृथक सत्ता भी बनाये रखती हुई फलती-फूलती और विकसित होती रही।' १-भारतीय इतिहास : एक दृप्टि-डा० ज्योतिप्रसाद जैनपृ० ३३
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( ३६ ) जब विभिन्न संस्कृतियां एक क्षेत्र व एक काल में अनुकूल व प्रतिकूल घनिष्टतम सम्पर्क में आती हैं तो उनमें परस्पर न्यूनाधिक प्रभाव पड़ता ही है एवं उनमें परस्पर बहुत कुछ आदान प्रदान भी होता ही है । जैन धर्म और संस्कृति ने भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में अन्य भारतीय संस्कृतियों को प्रभावित किया है तथा वह भी उनके प्रभावों से अछूती नहीं रही। जैनियों के अल्प संख्यक होने के कारण उन पर यह प्रभाव विशेष देखने में आता है । भट्टारक युग में व्यापक समाज के साथ अपना तालमेल बैठाने के लिए उन्होंने शैव और वैष्णव क्रियाओं का अनुकरण किया। राजस्थान के इतिहास में इस प्रकार के कई उदाहरण मिल जायेंगे कि एक ही कुल में जैन और शैव साधना चलती थी । विशेषकर वैदिक सम्प्रदायों का अद्भुत प्रभाव श्रमण संस्कृति पर पड़ा। इससे जैन समाज का ढांचा विल्कुज वदल गया ।
वस्तुतः परस्पर प्रभाव ग्रहण की यह प्रक्रिया किसी मूल संस्कृति के अलगाव का संकेत नहीं बल्कि उसके विभिन्न दिशागत विकास की सूचक है।
इसी के समानान्तर महावीर स्वामी से पूर्व जैन धर्म 'निग्नथ मत' नाम से प्रचलित था और वैदिक धर्म का विरोधी नहीं था। वैदिक धर्म के समान ही जैन धर्म आत्मा की सर्वव्यापकता मानता है। दोनों का पूर्नजन्म में विश्वास है।
शुभाशुभ कर्मों के फलों में दोनों की समान धारणा है। नैदिक धर्म की भांति यम-नियम एवं तपस्या के महत्व को जैन धर्म ने भी प्रधानता दी है। जैन त्रिरत्न व पंचमहाव्रत का नैदिक धर्म में भी समान महत्व है।।
जैन धर्म भागवत धर्म की भांति मूर्ति-पूजा, उपवास आदि १-५० टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तव्य-डा० हुकमचन्द भारित्य-पृ० १३
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( ४० ) विधानों को मानते हैं। दोनों ही सदाचार पर बल देते है।'
भारतवर्ष के इतिहास का अवलोकन करने पर संस्कृति की विभिन्न धारायें हमें दिखाई पड़ती हैं। स्मरणीय है कि ये धारायें, धारायें हैं.दीवारें नहीं। दो पड़ोसी जैसे आपस में एक दूसरे से प्रभावित होते हैं उसी प्रकार पड़ोसी धर्म या संस्कृतियों भी एक दूसरे से प्रभावित हुए बिना नहीं रहती। अलबत्ता एक की दूसरे के द्वारा रक्षा और पोषण का कार्य होना चाहिए । भारतवर्ष के मुख्य धर्म तीन थे । वैदिक, जैन और बौद्ध । इन तीनों के जो भी संदेश हैं वे आपको मिलते-जुलते से मिलेंगे। कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता होगा कि जीवन की समस्याओं को हल करने में वे एक दूसरे के पोषक हैं।२।।
भारतीय संस्कृति का स्वरूप दर्शन करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि भारतवर्ष में प्रचलित और प्रतिष्ठित विभिन्न संस्कृतियों का समन्वयात्मक दृष्टि से अध्ययन हो । भारतवर्ष की प्रत्येक संस्कृति की अपनी एक विशिष्ट धारा है। वह उसी संस्कृति के विशिष्ट रूप का प्रकाशक है। यह बात सत्य है, परन्तु यह बात तमीसत्य है कि उन संस्कृतियों का एक समन्यात्मक रूप भी है। जिसको उन सब विशिष्ठ संस्कृतियों का समान्वित रूप माना जा सकता है, वही यथाथ भारतीय संस्कृति है। प्रत्येक क्षेत्र में जो समन्यात्मक रूप है, उसका अनुशीलन ही भारतीय संस्कृति का अनुशीलन है। गंगा-जमुना तथा सरस्वती इन तीनों नदियों की पृथक सत्ता
और महात्म रहने पर भी इनके परस्पर संयोग से जो त्रिवेणी संगम की अभिव्यक्ति होती है उसका महत्व और भी अधिक है। १-प्राचीन भारतीय इतिहास -हेतसिंह बघेला -पृ० १५६ २-जीवन दर्शन लेखक अमर मुनि-पृ० २२० ३-सूक्ति त्रिवेणी : अमरमुनि-प्राक्कथन : पं० गोपीनाथ कविराज
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"हिन्दू": एक अन्तरन्ग विश्लेषण
भारत हिन्दुओं का देश है । उसको संस्कृति भारतीय संस्कृति है जिसे हिन्दू संस्कृति भी माना गया है। हिन्दू कौम ? इस सन्दर्भ में विनोबा भावे ने लिखा है - . 'योवर्णाश्रम निष्ठावान गोमत, श्रतिमातृकः ।
मूर्तिचनाव जानाति सर्व धर्म समादरः ।। उत्प्रेक्षते पुर्नजन्म तस्मान्योक्षणमी हते ।.
भूतानुकूल्यं भजते सर्वे हिन्दूरीति स्मृतः ।। हिंसयात दूयतेचित्तं तेनहिंदूरितीरितः ।। १. .
जो वर्णी और आश्रमों की व्यवस्था में निष्ठा रखने वाला, गोसेवक, श्रुतियों को माता की भांति पूज्य मानने वाला तथा सव धर्मों का आदर करने वाला है, देवमूर्ति की जो अवज्ञा नहीं करता, पुर्नजन्म को स्वीकार करता है तथा उससे मुक्त होने की दिशा में सचेष्ट है, जो सदा सब जीवों के अनुकूल वर्ताव को अपनाता है, वही हिन्दू माना जा सकता है। हिंसा से . उसका चित्त दुखी होता है, इसलिये उसे हिन्दू कहा गया है।
हिन्दू शब्द और उसके सम्बोधन की भौगोलिक पृष्ठभूमि पर इससे पूर्व भी चर्चा की जा चुकी है तथापि यहां पुनः ये । संकेत देना अप्रासांगिक नहीं है कि सिन्धु नदी के इस तट पर पूरे क्षेत्र में रहने वाले लोगों को क्रमशः सिन्ध और हिन्दू जैसा १-कल्याण-हिंदू संस्कृति अंक-पृ० ६२
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सम्वोधन मिला । निश्चित ही इस सम्बोधन के पीछे एक मूलभूत संस्कृति का अलगाव प्रारम्भ में रहा होगा, किन्तु जिन मारे धर्मों और एक ही भारतीय संस्कृति से अपना अलगाव दर्शित करने के लिए विदेशी अाक्रमणकारियों द्वारा हिन्दू जैसा सम्बोधन आर्य संस्कृति और उसे स्वीकार करने वाले पार्यों के लिए प्रयोग किया गया, उसमें जैन, बौद्ध, वैदिक आदि अलगअलग धर्मों की परिकल्पना सम्मिलित नहीं थी। .
आज भी सिन्धु नदी से लेकर दक्षिण सागर तक की भूमि को एक हिन्दू अपनी पुण्य भूमि मानता है । पुण्य भूमि का अर्थ है, ऐसे तीर्थ स्थान और संबंधित तीर्थकर जो इस भूमि में ही उत्पन्न हुये हों और यहीं निर्वाण प्राप्त किया हो। .
मनुस्मृति में हिन्दू की परिभाषा इन शब्दों में की गई है-. 'हिंसया दूयतेयस्मात् हिन्दू रित्यामिघीयते'
अर्थात हिन्दू वह है जो हिंसात्मक कर्मों से घृणा करता है अथवा जिसे (हिं) हिंसात्मक कर्म से (दु) दुःख होता है।
मेरु तंत्र के अनुसार-हीनं च दूषयत्येष हिन्दूरित्यमिधीयते ।' हिन्दू वह है जिसे हीन कर्म अर्थात नीच कर्म से द्वप हो । ___ उल्लेखनीय है कि जिसे वस्तुतः हम हिन्दू कहते हैं वह कोई धर्म नहीं है। धर्म की पहली शर्त है, उसमें किसी एक विशेष उपास्य का होना और संबंधित उपासना की एक निश्चित पद्धति के प्रति आत्मिक निष्ठा । ।
भारत में उत्पन्न प्राध्यात्मिक और नैतिक सिद्धान्तों पर विश्वास रखने वाले अथवा उनके प्रति श्रद्धा रखने वाले तथा उनका अनुसरण करने वाले सभी व्यक्ति हिन्दू हैं।
- हिन्दू विश्व विशेषांक का प्रथम श्लोक इस सन्दर्भ में ___ उल्लिखित हैं
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( ४३ ) यशवः समपासते शिवइति वहूति वेदान्ति नौ
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कतेति नैयायिकाः ।
अर्हनित्यथ जैनशासनरताः
कर्मेति मीमांसकाः
सौ यं नौ विध्धातु वान्छितफलं त्रैलोक्य नाथो हरिः ॥
( हनुमन्नाटक १1३ ) अर्थात शैव, वेदान्ती, बौद्ध, जैन आदि शिव, ब्रह्म, बुद्ध, अर्हन् आदि के रूप में एक ही तत्व की उपासना करते हैं । यह था सही अर्थों में प्राचीनकाल की संपूर्ण सांस्कृतिक समन्वय को बनाये रखने का अभूतपूर्व प्रयास ।
अव ग्राइये इसी संदर्भ में हिन्दू धर्म की भी विवेचना कर ली जाये । यह तो स्पष्ट ही है कि सिन्धु नदी के पास बसने वाले लोगों को पश्चिम के लोगों ने हिन्दू कहा और उनके धर्म को हिन्दू कहा गया । प्राचीन शास्त्रों में हिन्दू धर्म का उल्लेख 'धर्म' शब्द से ही किया है। इससे जान पड़ता है कि प्राचीन युग में हिन्दू धर्म के सिवा दूसरा कोई धर्म नहीं रहा होगा । कहीं-कहीं इस धर्म को सनातन धर्म भी कहा जाता है । 'एक धर्मः सनातनः' वह सनातन धर्म है ।
सनातन धर्म शब्द से हिन्दू धर्म केवल एक गुण का उल्लेख होता है । सनातन का अर्थ हैनित्य स्थायी अर्थात इसकी उत्पत्ति नहीं है ।
इस लेख से साफ जाहिर होता है कि सिन्धू के इस पार
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रहने वाले हिन्दू कहलाये, जिनमें वैष्णंव, सिव्यूव, जन आदि सभी सम्मिलित थे और उनके धर्मों को भी हिन्दू धर्म के नाम से ही पुकारा जाता था । वर्तमान काल में अगर वैष्णव धर्मी अपने को हिन्दू कहते हैं तो जैनों को भी हिन्दू कहने में संकोच नहीं होना चाहिए।
साप्ताहिक हिन्दुस्तान २१ मई . १९७२ में स्वामी रामचन्द्रवीर अपने लेख में लिखते हैं कि हिं-(हिंसा) दू-(दूर) हिंसा से जो दर रहे वह हिन्दू है। अपना धर्म हिंदू धर्म है। वह सम्प्रदाय नहीं है हिन्दू राष्ट्र है ।
इसी पत्र में प्रो० . बलराज मधोक लिखते हैं कि जो भारतीय है वो हिंदू हैं। '
. इस शब्द का उद्गम सिन्धु नदी से है। ईरानी लोगों ने सिन्धु नदी के देश को सिन्धु स्थान-हिन्दुस्तान (फारसी में संस्कृत का स-ह हो जाता है) कहा और हिन्दुस्तान के लोगों को हिंदू कहा । हिंदू कोई सम्प्रदाय या पंथ नहीं है, बल्कि . भारतीय जन का -एक राष्ट्र है और · हिन्दू धर्म उनकी जीवन पद्धति है। हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन के अनुसार हिंदूइज्म कोई मजहब नहीं है। यह मजहबों और पंथों की 'कामनवेल्थ' है।
अव हम हिन्दू शब्द के प्रथम अर्थ को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर विचार करें-हिन्दुस्तान का प्राचीत नाम भारतवर्ष था। भगवान् ऋपभ के पुत्र भरत के नाम से इस भूखण्ड का नाम भारतवर्प पड़ा था। इसके साक्ष्य में श्री मद्भागवत अन्य अनेक सुराण तथा जैन साहित्य का उल्लेख किया जा सकता है। भारतवर्ष के निवासी लोगों का व्योपारिक, राजनयिक,
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सांस्कृतिक व धार्मिक सम्बंध विदेशों के साथ बहुत प्राचीनकाल से था। भारतवर्ष की सीमा पश्चिम में सिन्धु नदी, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी, उत्तर में हिमालय की दक्षिण श्रोणी और दक्षिण में समुद्र कर रहा था । सिन्धु नदी से परवर्ती पारसीक, यवन आदि देशों में रहने वाले लोग सिन्धुनद. मैं.. उल्लक्षित. इस भूखण्ड (भारतवर्ष) को हिन्दू कहते थे। हिन्दू मा हिन्दू सिन्धू का रूपान्तर है जो उनकी स्वदेशोच्चारण शैली में हुअा है।
कालकाचार्य जब पारसीक देश में गये थे, तब उन्होंने शाही लोगों से यही कहा-'चलो, हम हिंदुग देश में चलें-एहि. हिंदुग देसं बच्चाभी। इस घटना का उल्लेख जिनदास महत्तर ने 'निशीथचूणि' में किया है। वह विक्रम की सातवीं शताब्दी की रचना है। इससे स्पष्ट है कि उस समय तक 'हिंदुग' का प्रयोग देश के लिये होता था । अभिघात राजेन्द्र (७।१२८) में हिन्दु शब्द के अर्थ-परिवर्तन का क्रम बतलाया गया है। उसके अनुसार पहले 'हिन्दू' शब्द देशवाची था फिर आधार-प्राधेय के सम्बंधोपचार से वह 'हिन्दू' देशवासी आर्य लोगों का वाचक हुआ और तीसरी अवस्था में वह वैदिक धर्म के अनुयायियोंका. वाचक हो गया
___ 'हिन्दुरिती व्यवहार तो जनपद परोचिंतात् स्त्यात् आर्य मनुष्य परो पयात ।
क्रमादेतद्देश प्रसिद्ध वेद मूलक लोकायमानु सारिष्वपि वौध कोजात वैदिक काल में सिन्धु और पंजाव को सप्तसिन्धुं कहा जाता था। ऋग्वेद (११३२।१२,२।१२।१२ आदि). में सप्तसिन्धु का प्रयोग मिलता है। पारसियों के धार्मिक ग्रंथ अवेस्ता में सप्तसिन्धु के लिए 'हप्तहिन्धु' का प्रयोग मिलता.
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है । ऋग्वेद (४१२७११) में केवल सिन्धु का प्रयोग मिलता है। हिंदू उसी सिंधु का पार्शीयन रूपान्तर है।
प्राचीन तथा अर्वाचीन, हिंदू तथा अहिंदू आस्तिक तथा नास्तिक जितने प्रकार के भारतीय हैं, सबों के दार्शनिक विचारों को भारतीय दर्शन कहते हैं। कुछ लोग भारतीय दर्शन को हिन्दू दर्शन का पर्याय मानते हैं। किन्तु यदि 'हिंदू' शब्द का अर्थ वैदिक धमविलम्बी हो तो 'भारतीय दर्शन' का अर्थ केवल हिंदुओं का दर्शन समझना अनुचित होगा। इस सम्बंध में हम माध वाचार्य के 'सर्वदर्शन-संग्रह' का उल्लेख कर सकते हैं। माधवाचार्य स्वयं वेदानुयायी हिंद थे। उन्होंने उपर्युक्त ग्रंथ में चार्वाक, बौद्ध तथा जैन मतों को भी दर्शन में स्थान दिया है। इन मतों के प्रवर्तक वैदिक धर्मानुयायी हिंदू नहीं थे। फिर भी इन मतों को भारतीय दर्शन में वही स्थान प्राप्त है जो वैदिक हिंदुओं के द्वारा प्रवर्तित दर्शनों को है।२।।
यह हिंदू धर्म है । हिंदू धर्म शब्द भारत के किसी महान् मथ में कहीं नहीं प्राप्त होता, इसी से उसका विश्वत्व स्पष्ट हो जाता है। हिंदू धर्म का प्रयोग हम अपनी सुविधा एवं एवं सीमा के कारण करते हैं । इस शब्द की उपयोगिता यहीं तक माननी चाहिये।
बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिखपंथ के सदृश ही हिंदू १-समस्या का पत्थर-अध्यात्म की छैनी: मुनिनथमल जी
पृष्ठ १२८ २-भारतीय दर्शन-श्री सतीशचंद चट्टोपाध्याय एवं श्री धीरेन्द्र
मोहन दत्त-पृ०१ ३-हिंदू धर्म-रामप्रसाद मिश्र-प्रस्तावना पृ० ३
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धर्म की एक शाखा है । हिंदू धर्म इस तथ्य पर गर्न कर सकता है और करता है। ___वर्तमान शिक्षा प्रणाली हिंदू समुदाय की भावनाओं एवं मान्यताओं के विपरीत घड़ी गई थी, अतः इस सम्पूर्ण सामर्थ्य हिंदूससुदाय के स्वरूप को विकृत कर इसे विश्व में निकृष्ट सिद्ध करने में लग रहा है।
इस कुशिक्षा के कुकृत्यों का उल्लेख तो इस स्थान पर नहीं किया जा सकता, परन्तु कुछ एक ऐसे प्रयासों को, जो प्रसंग में नितांत उपयुक्त है, प्रकट करना हम आवश्यक समझते
शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा होने से अनेकानेक अंग्रेजी के ऐसे शब्दों का हठपूर्वक संस्कृत के प्रचलित शब्दों का पर्याय मान लिया गया है, जिनसे भयंकर परिणाम निकल रहे हैं। यहां हम ऐसे दो एक शब्दों के विषय में ही लिखेंगे।
उदाहरण के रूप में 'धर्म' शब्द का अंग्रेजी में अनुवाद 'रिलीजन' किया गया है। इक्के-दुक्के वैदिक भाषा को समझने वाले कहते हैं कि हिंदू धर्म के अर्थ 'रिलीजन' नहीं और हिंदू धर्म से वे सब बातें नहीं जोड़ी जा सकतीं, जिनका संबंध रिलीजन से है। परन्तु प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षित, स्कूलों कालेजों से निकलने वाले विद्यार्थी तो धर्म को रिलीजन ही मानेंगे और फिर हिंदू को एक मजहब ही कहते जायेंगे।
यह वात केवल कहने मात्र की ही नहीं है वरन् इस एक शब्द के मिथ्या अर्थ करने से सहस्त्रों नहीं, लाखों स्थानों पर हिन्दू शास्त्रों में धर्म शब्द के अर्थ विकत किये जा रहे हैं।
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४६. )
आज प्रशासकीय क्षेत्र में हिन्दू का नाम भी इसी कारण घृणित माना जा रहा है, क्योंकि हिन्दू एक धर्म - व्यवस्था है प्रोर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित लोग धर्म को मजहब ही समझते हैं । इस कारण हिन्दू एक सम्प्रदाय माना जाने लगा है तथा हिन्दू का पक्ष लेना साम्प्रदायिकता हो गया है और साम्प्रदायिकता को प्रोपसमिक रोग माना जाने लगा है ।
इस प्रकार एक अन्य शब्द है 'नेशन' नेशन का पर्याय संस्कृत अथवा हिन्दी में जाति तथा राष्ट्र किया जाता है । हिन्दू एक राष्ट्र है और उसे नेशन मान लिया जाता है। कारण यह कि अंग्र ेजी के 'नेशन' शब्द को जाति मोर राष्ट्र दोनों माना जाता है ।
वास्तव में 'नेशन' के अर्थ न तो जाति हैं और न ही राष्ट्र | परिणाम यह हो रहा है कि यदि यह कहा जाता है कि भारत में हिन्दू राष्ट्र है तो उसके श्रनेक शब्दों में राष्ट्र का अभिप्राय 'नेशन' होने से उसे हिन्दू नेशन मान लिया जाता है और इस देश में 'नेशन' तो देश के नागरिक बनाते हैं । नागरिक केवल हिन्दू ही नहीं । हिंदू: एक मजहब है और इस देश में कई
• मजहवों के लोग रहते हैं । श्रव तो हिंदू को एक पृथक मजहब मान सिक्ख, वौद्ध सबको अहिंदू घोषित किया जा रहा है तथा
कथित अछूतों को भी
है |
フ
हिंदू न मानने का प्रयास किया जा रहा
श्री वेदकर का छूतों को वौद्ध हो जाने की सम्मति देने का अभिप्राय यही था कि वे इस प्रकार हिंदू की मुख्य धारा से पृथक हो जायेंगे, क्योंकि वह अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त वकील हिंदू को एक मत मानना था और बोद्ध मत को हिंदू
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( ४६ मत से पृथक समझता था । ___यह विकृति भी अंग्रेजी भाषा के शब्दों को 'हिंदू' की। व्याख्या के लिए प्रयोग करने के कारण हुई है। .
हम देखते हैं कि आजकल लोग हिन्दू (आर्य) का लक्षण अनेक प्रकार से करते हैं, पर बिना आर्य इतिहास के समझे वे हिन्दू का ठीक-ठीक लक्षण ही नहीं कर सकते, पर वैदिक जानते हैं कि शिखा सूत्रधारी को आर्य (हिंदू) कहते हैं। शिक्षा में सिक्ख, बौद्ध, जैन, शूद्र और कौल-मील समा जाते हैं।२
हिंदू कौन है ? विनोबा भावे लिखते हैं कि जो वर्णों और आश्रमों की व्यवस्था में निष्ठा रखने वाला, गो-सेवक, श्रुतियों को माता की भांति पूज्य मानने वाला तथा सव धर्मों का आदर करने वाला है, देवमूर्ति की जो अवज्ञा नहीं करता, पुनर्जन्म को मानता और उससे मुक्त होने की चेष्टा करता है तथा जो सदा सब जीवों के अनुकूल वरताव को अपनाता है, वही हिंदू माना गया है । हिंसा से उसका चित्त दुःखी होता है, इसलिए उसे 'हिंदू' कहा गया है।
डा० हेडगेवार और वीर सावरकर जी के दृष्टि विन्दुओं में पूर्णतः साम्य उपस्थित है। इसके अनुसार हिंद के निम्नलिखित धर्म होने चाहियें :-- (१) वह आसिन्धु सिन्धु पर्यन्त भूमि को भारतभूमि
माने। (२) इस भूमि को वह अपनी पुण्यभूमि माने ।
(३) इसी को वह अपनी पितृभूमि माने । १-हिन्दू का स्वरूप-गुरुदत्त-पृ०६ २-वैदिक आर्य सभ्यता-स्व० श्री पं० रघुनन्दनजी शर्मा
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( ५० }
इन तीनों मान्यताओं पर आचरण करने वाला हिंदू
है । "
सिद्धान्त और व्यवहार का समन्वय डा० हेडगेवार वीर सावरकर की तरह ही हिन्दू की व्यापक और सर्वप्रिय परिभाषा यहीं मानते थे कि भारत भूमि को जो व्यक्ति अपनी जन्मभूमि, कर्मभूमि और पितृभूमि मानता है वह राष्ट्र नहीं है । उसे इस भूखण्ड को पितृभू और पुण्यभू मानना श्रावश्यक है और यह भाव हिंदू ही धारण कर सकता है। वह इस देश को अपनी जन्म-भूमि मानता है । इसलिए यह मातृभूमि हुई । उसके सभी पूर्वज इसी भूमि पर उत्पन्न हुए हैं और यही उनकी शाश्वत कर्मभूमि रही है, इसलिये यह हिंदुओं की पितृ-भू हुई । सम्पूर्ण वेद-शास्त्रों और दर्शन-ग्रंथों का आविर्भाव इसी खण्ड पर हुआ है |
यह देश हिंदू राष्ट्र है और इसी राष्ट्र का राष्ट्रीय हिंदू
है | 2
ܘ
हिंदू शब्द की परिभाषा - हिंदू इस राष्ट्र में जाति रूप में वह प्रवहमान धारा है जो वैदिक ऋषियों, रामायण और महाभारत काल के राजन्य तथा ब्राह्मण्य के पुरोधात्रों, परवर्ती अस्तिक दर्शनों के आचार्यों, वौद्ध और जैन धर्माचार्यो, सन्तों एवं शिष्य गुरुओं को श्रद्धा भाव अर्पित करते हुए यूनान, (ग्रीक) शुंग, हूण-सं मुस्लिम एवं ईसाई आक्रांताओं के आघातों को सहन करती हुई तथा उनका निराकरण करती हुई इस भारत
१ - हिन्दुत्व का अनुशीलन - तनसुख राम गुप्ता पृ० १७ २- हिन्दुत्व का अनुशीलन - तनसुख राम गुप्त - पृ० ४६
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राष्ट्र को पुण्यभूमि, मातृभूमि एवं प्राध्यात्म-अनध्यात्म की कर्मभूमि स्वीकार करती आई है।'
भोपाल हिंदू महासभा के अध्यक्ष श्री कोमलप्रसाद श्रीवास्तव ने 'हिंदू' शब्द किसी अर्थ में सम्प्रदायिक नहीं, हिंद शब्द की व्याख्या करते हुए उसे साम्प्रदायिकता से परे राष्ट्रीय भावना का सूचक निरूपित किया है ।२।।
इसी प्रकार सनातन धर्म के मान्य नेता स्वामी करपात्री जी ने हिंद की परिभाषा इस प्रकार की है
गोपु भक्तिर्मवेथस्य प्रणवे चढ़ामतिः ।। पुनर्जन्मानि विश्वासः सर्वे हिंदुरितिस्मृतः ।।
अर्थात गौमाता एवं ओंकार में जिसकी भक्ति हो तथा पुनर्जन्म में जिसका विश्वास हो, वह हिंदू है।
स्वामी जी की परिभाषा विस्तृत है, क्योंकि जाति की पांचों शाखायें सनातन धर्मा, आर्य सामाजी, जैनी, बौद्ध एवं . सिक्ख, गौमाता, ओंकार एवं पुनर्जन्म में समान भक्ति व . विश्वास रखती है।
हिंदू महासभा के महान नेता स्वातंत्रवीर सावरकर आस्तिकों के अतिरिक्त नास्तिकों को भी अलग नहीं करना चाहते । अतः उन्होंने विस्तृत परिभाषा की है।
श्रासिन्धु सिन्धु पर्यन्ता यस्य भारत भूमिका । पितृभूः पुण्यभूश्चैव सर्वे हिन्दुरितिस्मृतः ॥ .
अर्थात इस भारत भूमि में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिंदू १-हिन्दुत्व का अनुशीलन -तनसुख राम गुप्त-पृ० ६५ २-नवभारत-भोपाल-१४ जनवरी १६७४
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( ५२ ) है जो इसे पितृभूमि व पुण्यभूमि मानता है।'
वस्तुतः वर्ण व्यवस्था के पूर्व सब एक ही जाति के थे जो आर्य कहलाये। मूल वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर एक गुणात्मक विभाजन का परिणाम थी, जिसमें परिस्थितियों के समानान्तर अन्य धर्मों का बाद में चल कर समावेश होता गया और अनेक प्राचार्यों ने भारतीय संस्कृति के समसामयिक मोलिक चिन्तन के अनुरूप अनेक पन्थों की स्थापना की। यही कारण था कि इस संस्कृति में विभिन्न धार्मिक मतों और उसकी व्यवहारिक स्वीकृतियों में किसी तरह का आन्तरिक विरोध या प्रायोगिक असहिष्णुता हमें नहीं मिलती और निःसन्देह एक स्वस्थ भारतीय समाज की संरचना इस बात का प्रमाण है कि आज भी यदि कोई व्यक्ति वैष्णव वर्म छोड़ कर जैन धर्म स्वीकार कर लेता है तो वह किसी प्रकार की कुदृष्टि का शिकार नहीं होता और न उसके प्रति किसी प्रकार के द्वेष की उत्पत्ति होती है। आज भी जैन व वैष्णवों के ऐने सैकड़ों कुटुम्ब मिल सकते हैं जो एक संगठन के अन्र्तगत भी अलगअलग जैन व वणव धर्म का पालन करते हैं। कुछ सदस्य परिवार के जैन धर्म मानते हैं और कुछ वैष्णव धर्म, किन्तु उनकी प्रास्थायें किसी भी स्तर पर एक दूसरे से न तो टकराती हैं, न ही परिवार के संवेदनात्मक तथा भावात्मक संबंधों में किसी प्रकार का अलगाव महसूस करती हैं।
उदयपुर मेवाड़ में हजारों घर जैन श्वेताम्बर के हैं, जो आज भी वैष्णव धर्म ही मानते हैं।
जैन धर्म हो या नैष्णव धर्म, जातियों के घर में इन्हें नहीं
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१-हिन्दुत्व का अनुशीलन-तनसुख राम गुप्त सम्पा०-०८४
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५३ )
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बांधा जा सकता | धर्म केवल ईश्वर ग्राराधना की शैली मात्र है | अतः स्पष्ट है कि धर्म के नाम पर गुट या संप्रदाय न बने हैं और न इनमें जाति भेद रहा है ।
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वस्तुतः हिंदू संकृति का साध्य त्याग है, भोग नहीं । हिंदू संस्कृति में स्वाभाविक है, भोगी की अपेक्षा त्यागी का स्थान ऊंचा है । चक्रवर्ती सम्राट भी त्यागी महात्माओं के सामने नतमस्तक होते हैं, यह महान परम्परा जैनों में भी विद्यमान हैं ।
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जिस प्रकार वेद नामक ग्रंथ के कारण उसके अनुयायियों को वैदिक, गुरु नानक जी के धर्म शिष्यों को सिक्ख, विष्णु देवता के उपासकों को वैष्णव, लिंग पूजकों को लिंगायत के नाम प्राप्त होते हैं । वैसे 'हिंदू' यह नाम किसी भी धर्म ग्रंथ से या धर्म-संस्थापक सेवा धर्म-मत से प्रमुखतः या मूलत: निर्मित नहीं हुआ है । वह तो ग्रासिंधु सिंधु प्रतृत देश का एवं उसमें निवास करने वाले राष्ट्र का ही प्रमुख रूप से निर्देश करता है और फिर इसी सन्दर्भ में उसको घम ग्रंथ से या धर्म मत से वन्धित करने वाले प्रयास दिशा भ्रम उत्पन्न करने वाले हैं। हिंदू शब्द की परिभाषा का मूल ऐतिहासिक आधार
सिंधु सिंधु भारत भूमि का ही होना चाहिये । वह देश तथा • उसमें उत्पन्न धर्म एवं संस्कृति के बंधनों से अनुप्रमाणित राष्ट्र ये ही हिंदुत्व के दो प्रमुख घटक हैं । श्रतएव हिदुत्व के इतिहास से यथासम्भव सम्बंधित होने वाली परिभाषा इसी प्रकार की होगी कि "यह ग्रासिंधु सिंधु भारत भूमिका, जिसकी पितृभू एवं पुण्यभू है, वही हिंदू है ।"
१ - हिन्दूत्व के पंचप्राण - विनायक दामोदर सावरकर
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जैन-हिन्द एक सामाजिक दृष्टिकोण
जैन धर्म एक सिद्धांत है। हमारा देश जगतगुरु माना जाता रहा है। इसका कारण है, यहां सैंकड़ों सिद्धान्तों और हजारों पन्यों के मानने वाले रहे और आज भी हैं ।
अगर कोई जैन साधु व जैन पण्डित समाज के अन्दर यह प्रचार करते हैं कि जैन हिन्दू नहीं हैं तो समाज को भ्रम में डालते हैं। अपनी विशालता को संकीर्णता की ओर ले जाना चाहते हैं । यह अपनी पूजा व प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए एक पॉलसी है। ___मैं आपसे पूछना चाहूँगा कि जैन धर्म के जो चोवीस तीभन्कर हुए हैं. वे क्या राजपूत नहीं थे, उन्होंने अपना राजपाठ त्याग कर जैन गुरुयों से दीक्षा ली और अपने त्याग और तपस्या द्वारा तीर्थकर पद तक पहुंचे, जो जैन भगवान् के नाम से पूजे जा रहे हैं।
जव हमारे देश के क्षत्रिय यथार्थ क्षत्रिय थे। इसलिए उन दिनों भारतीय इतिहास में जो धार्मिक और सामाजिक क्रांति हुई, वह क्षत्रियों द्वारा हुई । यह स्मरण रखना होगा कि बुद्ध और महावीर दोनों क्षत्रिय थे।'
जैन धर्म में श्री राम और श्री कृष्ण को अवतार माना १-भारतीय समाज जीवन और आदर्श-प्रथम भाग-रवीन्द्रनाथ
ठाकुर-पृ० ६०
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( ५५ ) गया है । तथा एक आदर्श पुरुष के रूप में पहले के प्राचार्यों ने जैन ग्रंथों में इन पर काफी विस्तार से विवेचना की है।
मेरे विचार से तो जैन कोई जाति नहीं थी। जैन एक सिद्धान्त था, जिसको मानने वाले जैन कहलाते हैं, वो हिन्दुओं व भारतीयों में से ही होते थे, वैसे अध्ययन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि जैन सिद्धांत भी सनातन प्राचीन समय से ही चला आ रहा है जो इस देश की एक विशेष विचारधारा
__ जैन तीर्थकरों की जन्मभूमि और कल्याण भूमि का सौभाग्य इसी देश को रहा और विशेष विचारणीय वात है कि जैन जितने भी तीर्थ हैं वे सभी इस क्षेत्र के अन्तर्गत हैं, जिनकी विशालता सर्वविदित है।
प्रोसिया नगर जो जोधपुर राज्य में है, वहां प्रोसिया माता का मन्दिर है, जिसकी मान्यता प्रोसवाल जैन तथा राजपूत दोनों में समान रूप से है। इतिहास बताता है कि प्रोसिया एक राजपूत रियासत थी। राजा मय प्रजा के जैन धर्म में दीक्षित हो गये, जब से ही प्रोसवाल जैन कहलाने लगे। ___राजस्थान में जाकर अध्ययन कीजिये । वहां जैन व वैष्णव में कोई फर्क नहीं मालूम पड़ता । सव एक दूसरे के पूरक हैं । हर त्यौहार मिले-जुले माने जाते हैं। राजस्थान के जैनियों के जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे संस्कार ब्राह्मणों द्वारा कराये जाते हैं, वो भी वैष्णव पद्धति द्वारा, यहां तक कि जैन मन्दिरों में भगवान की पूजा के लिए ब्राह्मण ही पुजारी रखा जाता
उदयपुर मेवाड़ में जाकर देखिये, जहां हजारों घर जैन
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होते हुये भी वैष्णव धर्म को ही मानते हैं, यह उनका राज्य धर्म रहा है। उनके घरों में जैन धर्म मानने वाली वहुयें हैं, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता । बहुत से सनातन हिन्दू कहे जाने वाले कुटुम्बों में जैन धर्म को माना जाता है।
जैनियों के विवाह के कार्यों के पहले श्री गणेश जी की स्थापना की जाती है, जिन्हें वैष्णव प्रादि भगवान् मानते हैं । विवाह वेदी कुन्ड के समक्ष ब्राह्मण द्वारा वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ हिन्दू पद्धति के माफिक ही विवाह संस्कार किया जाता है।
जैन बच्चों की जन्म कुण्डली तथा लग्नपत्रिका हिन्दू पद्धति से ही लिखी व भेजी जाती है।
राजस्थानी जैनियों के गोत्रों पर अगर आप ध्यान देंगे तो राजपूत और इनके गोत्र आपको प्रायः एक ही समान मिलेंगे। इतना ही नहीं औरतों व मर्दो के नाम भी मिलते-जुलते ही रहेंगे।
और भी अगर देश के दूसरे प्रान्तों के जैनियों के नामों की लिस्ट की तरफ ध्यान दिया जाये तो अधिक नाम वैष्णव अवतारों के नाम पर ही रखे हुए मिलेंगे । नाम के साथ सिंह भी जोड़ा जाता है । सिंह शब्द राजपूतों के नाम के साथ भी रहता है। ___जैनियों में चोटी रखना और तिलक लगाना भी तो हिन्दू विधि विधान का ही पूरक है। दोनों पक्ष पूर्व दिशा को ही मान्यता देते हैं। गंगा को पवित्र मानते हैं। ___ जैन मन्दिर व हिन्दू मन्दिरों की बनावट भी एक-सी ही होती है, मन्दिर के ऊपर गुमठ भिन्न कलाओं के साथ एक ही श्राकार वाली बनाई जाती है। उसके शिखर पर सोना, तांता
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( ५७ } व पत्थर के कलस चढ़ाये जाते हैं, ध्वज लहराया जाता है | अन्दर भगवान् के स्वरूप की मूर्ति को ऊंचे सिंहासन पर विराजमान किया जाता है । भगवान् को वस्त्र व सोने चांदी के श्राभूषण भी पहनाये जाते हैं, स्नान करने के बाद ही पूजन की जाती हैं | फल, फूल, मेवा, अक्षादि सामग्री पूजन में उपयोग की जाती है, मिष्ठान का प्रसाद वांटा जाता है । मन्दिरों में भी पूजन विधि एक ही समान होती है। घंटा घड़ियाल दोनों जगह बजाये जाते हैं, भारती करने की विधि एक है ।
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भगवान् के समक्ष नतमस्तक होने की विधि एक सी है । जैन व हिन्दू मालाओं में १०८ ही मणिकों की डालने की प्रथा है । कुछ विशेष मंत्रों को दोनों पक्षों में १०८ बार जपने का भी विधान है ।
पूजा
में सबसे पहले जल से मूर्ति का अभिशेष (स्नान ) किया जाता है । कहीं-कहीं दूध, दही, घी, इक्षुरस व मिश्रण पदार्थों से स्नान कराया जाता है । वाद में जल चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवैद्य, दीप, धूप और फल श्रादि इनका उपयोग पूजन में किया जाता है ।
पूजा के दो भेद माने गये हैं । पहला द्रव्य पूजा, दूसरा भाव पूजा । यह दोनों प्रकार की पूजा विधियां जैन व वैष्णव में आज भी प्रचलित हैं ।
जैनियों में प्रचलित 'जुहार' शब्द का भारत में व्यापक प्रचार जैन संस्कृति के प्रभाव को स्पष्ट करता है । युगादि पुरुष भगवान् वृपभदेव के प्रणाम का द्योतक है । 'हा' का अर्थ है जिनके द्वारा सर्व संकटों का हरण होता है और 'र' का भाव है जो सर्व जीवधारियों के रक्षक हैं, इस प्रकार जिनेन्द्र गुण
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वर्णन रूप 'जुहार' शब्द का भाव है । 'जुहार' शब्द का व्यवहार ।। जैन वधु परस्पर अभिवादन में करते हैं। तुलसीदास जी की ।।
रामायण में 'जुहार' शब्द का अनेक बार उपयोग किया गया है । , अयोध्याकाण्ड में लिखा है कि चित्रकूट की ओर जब रामचन्द्र जी गये, तब योग्य निवास भूमि को तजते समय पुरवासियों ने रघुनाथ जी से जुहार की है। 'लै रघुनाथहिं ठाउ देखावा, कहेउ राम सव भांति सुहावा । पुरजन करि जुहार घर पाये, रघुवर संध्या करन सिधाये।'
भीलों ने भी रामचन्द्र जी से जुहार की है और अपनी भेंट अर्पित की है। करहिं जुहार भेंट धरि आगे, प्रभुहिं विलोकहिं अति अनुरागे। प्रभुहिं जोहारि बहौरि-वहौरि, वचन विनीत कहहीं कर जोरी ॥
अयोध्यावासियों ने राम-वनवास के पश्चात् भरत जी के अयोध्या आगमन पर भी इस शब्द का प्रयोग किया है।
पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गंवहिं जोहारहिं जाहिं । भरत कुशल पूछि न सकहिं, भय विपाद मन माहिं ।। .
पुरवासियों के द्वारा इस शब्द का प्रयोग जैन व वैदिक धर्मावलम्बियों के समन्वय का सूचक है।
विस्तृत और विशाल हिन्दू धर्म में अनेक सम्प्रदाय और मत हैं । शैव, शाक्त, वैष्णव, गाणपत्य, लिंगायत, बौद्ध, जैन, कवीरपन्थी और सिक्ख आदि खरवूज की कलियों की भांति बाहर से भिन्न-भिन्न दिखाई देते हुए भी भीतर से एक हैं।'
कुछ दिन हुए मध्यप्रान्त के अत्यल्प संख्यक जैनियों ने धारा सभाओं में प्रवेश करने के क्षुद्र स्वार्थ को लेकर अपने को १-विजयययपता का स्वामी श्रीरामचन्द्र वीरमहाराज-पृ० १८१
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अहिन्दू सिद्ध करने का प्रचार किया था, किन्तु उनको सफलता नहीं मिली और नागपुर तथा जबलपुर में जव हिन्दू मुस्लिम दंगे होने लगे, तव उन्होंने अपने धन-जन की रक्षा के लिए स्वयं को हिन्दू होने की घोषणा कर दी। इसी प्रकार कुछ ब्राह्मणों ने भी जैनियों को नास्तिक कहकर अपनी विवेकहीनता का परिचय दिया था । वस्तुतः जैन धर्म हमारे वैदिक धर्म की एक शाखा है । जैनियों के आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव जी (आदिनाथ) वैदिक सनातनियों के अवतार माने गये हैं। तब जैन धर्म और वैदिक धर्म मूलतः दो कैसे हो सकते हैं। वेद के मूल मन्त्र ॐ का जैन धर्म में वही आदर और सम्मान है जो एक ब्राह्मण के हृदय में । जैन मतावलम्बी भी शिखां और सूत्र धारण करते हैं तथा पुर्नजन्म और धर्म के दस लक्षणों को मानते हुए आर्य संस्कृति का स्वयं को. एक अभिन्न अंग स्वीकार करते हैं।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैन धर्म हिन्दू धर्म की एक स्वतंत्र चिन्तन धारा है, जो इस देस के लाखों लोगों के लिए श्रद्धा का स्तंभ बनी हुई है।'
स्यीय पं जवाहरलाल नेहरू ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि जैन धर्म हिन्दू धर्म की एक शाखा है तथा जैन भर्म का एक बुनियादी सिद्धांत है कि सत्य हमारे विचारों से सापेक्ष है । यह एक कटोर नीतिवादी और अपरोक्षवादी विचार पद्धति है तथा इस धर्म में जीवन और विचार में तपस्या के
१-राष्ट्र धर्म-लखनऊ-तीर्थकर-महावीर विशेषांक-श्री कृष्ण
वल्लभ द्विवेदी-पृ० १
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पहल पर जोर दिया गया है। जैन धर्म जो स्थापित धर्म से विद्रोह करके उठा था और बहुत तरह से उससे भिन्न था, जाति की ओर सहिष्णुता दिखाता था और स्वयं उससे मिल-जुल . गया था, यही कारण है कि यह आज भी जीवित है और हिन्दुस्तान में जारी है।'
आज हम विश्व हिन्दू धर्म के माध्यम से हिन्दू धर्म तथा संस्कृति पर चिन्तन करने के लिए एकत्र हुए हैं। आचार्य तुलसी ने इस मौके पर व्याख्यान देते हुए इससे आगे कहा था कि हम जो एकत्र हैं, उनमें वैदिक, जैन, यौद्ध, सिक्ख आदि अनेक धर्मों के प्रवक्ता हैं। सब प्रवक्ता हिन्दू धर्म के बारे में अपने विचार प्रस्तुन करेंगे। इस विषय में मुझे कई वार चिन्तन का अवसर मिला है। मेरे सम्मुख अनेक वार यह प्रश्न उपस्थित हुमा है कि जैन लोग हिन्दू हैं या नहीं? ___मैंने इस प्रश्न पर गहराई से चिन्तन किया। चिन्तन के पश्चात मैं जिस निष्कर्ष पर पहुंचा, वह मैंने प्रश्नकर्ताओं को बताया । आज मैं आप सबके सामने अपना विचार प्रस्तुत करता हूँ । मेरे चिन्तन का मुख्य विषय है, हिन्दू शब्द का अर्थ क्या है ? वैदिक का अर्थ स्पष्ट है जो वेदों का प्रामाण्य स्वीकार करता है, वह वैदिक है। जिन अर्थात तीर्थकर की वाणी को जो प्रमाण मानता है, वह जैन है । बुद्ध का अनुगमन करने वाला वौद्ध है । पर हिन्दु न तो कोई शास्त्र है और न कोई व्यक्ति। १-राष्ट्र धर्म-लउनऊ-तीर्थकर महावीर विशेषांक-पं० जवाहर
लाल नेहरू-पृ० २७
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प्रारम्भ में हिन्दू शब्द किसी जाति या धर्म का वाचक नहीं रहा है। मेरे अभिमत में उसका सम्वन्ध भौगोलिक स्थिति से था। इसका उद्गम सिन्धु नदी से है । सिन्धु नदी के इस पार. रहने वाले लोगों को उस पार के लोगों ने हिन्दू, नाम दिया। यह सिन्धु का ही उपचारण भेद है । इस शब्द का उत्कर्ष हुमा और यह बहुत व्यापक बन गया । आज यह धर्म और संस्कृति के साथ भी सम्बद्ध है। किन्तु इस शताब्दी में हिन्दू शब्द की जो परिभायें लिखी गयी हैं, उनमें से कुछ परिभापायें ऐसी हैं जो हिन्दू शब्द की व्यापकता को संकीर्ण बनाती हैं। वेद या अन्य किसी शास्त्र के साथ हिन्दू शब्द को जोड़ने का अर्थ है, उसे संकुचित बनाना । सब भारतीय धर्म किसी एक ही शास्त्र का प्रामाण्य स्वीकार नहीं करते हैं। इस स्थिति में उसे शास्त्र के साथ जोड़ना कैसे उपयुक्त हो सकता है ?
इस चिन्तन के आधार पर मैंने प्रश्नकत्तयों से कहा-हिन्दू का अर्थ यदि किसी अमुक शास्त्र को मानने वाला हो तो जैन हिन्दू नहीं हैं और यदि उसका अर्थ भारतीय सन्तति हो तो जैन हिन्दू हैं। भारतीय होना किसी सिद्धान्त या मान्यता पर आश्रित नहीं है । जो व्यक्ति भारत को अपनी मातृ-भूमि माने, वह भारताय और शेप अभारतीय-यह परिभापा मुझे तथ्य पर आधारित नहीं लगी। कोई व्यक्ति क्या मानता है इस आधार पर उसकी राष्ट्रीयता मान्य नहीं होती, किन्तु वैधानिक दृष्टि से
वह जिस देश का नागरिक होता है, वही उसकी राष्ट्रीयता होती - है। भारत की राष्ट्रीयता जिते प्राप्त है, वह भारतीय है। इसी • प्रकार हिन्दुस्तानी होने के कारण वह हिन्दू है।'
१-मेरा धर्म-केन्द्र और परिधि-प्राचार्य तुलसी पृष्ठ ५
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जैन-दर्शन अथवा बौद्ध-दर्शन हिन्दू-दर्शन से भिन्न है, ऐसा मानकर साम्प्रदायिक आचरण करना एक बहुत भयंकर भूल व घृणित दुराग्रह है। भारतीय समाज और दर्शन में जव तमाम कमजोरियां आ गयी थीं तो ऐसे समय में भगवान महावीर ने बहुप्रचलित दर्शन में विभिन्न प्रकार के सुधार किये तथा एक परिष्कृत विचारधारा समाज को दी। यही कारण है कि हिन्दुदर्शन से जैन-दर्शन को भिन्न नहीं माना जा सकता।'
यह असम्भव नहीं कि जैन प्राचार्यों के विश्लेषण को वैष्णव अस्वीकार करें। उसी तरह वैष्णव मान्यताओं को भी जैन आचार्य स्वीकार न करें। लेकिन यह विचार भेद जैनों को हिन्दुओं से अलग नहीं कर सकता। दोनों एक ही नदी की दो धारायें हैं, वे उसी तरह दो नजर आती हैं, जैसे समुद्र से मिलने से पूर्व गंगा सहस्त्र धाराओं में बहती है। प्रादि और अन्त दोनों स्थितियों में वे धारायें एक हैं, नाम भेद तो क्षणिक है। जैनियों को हिन्दू विरोधी बताना उसी प्रकार है, जिस प्रकार सूर्य पर कीचड़ उछालना । जैन धर्म हिन्दु धर्म का सहोदर अंग नाना जाता है, जैन धर्म की प्रगति को हिन्दु धर्म की प्रगति से अलग नहीं समझा जा सकता।
इतिहास के अवलोकन से यह पता चलता है कि प्राचीन काल में जैन जाति नहीं थी, पर इस प्रकार का धर्म अवश्य था। जितने तीर्थकर हुये हैं सभी इसी हिन्दू जाति में उत्पन्न १-अग्नि परीक्षा ? चिन्तन का आव्हान-पृ० ३०-दैनिक जागरण
कानपुर ६-११-७० २-नवभारत टाइम्स, दिल्ली (अ० परि० चि० का प्रा० पृष्ठ
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हुए हैं । एक उपासना काण्ड के अतिरिक्त जैनों के सारे. रीतिरिवाज, जीवन-मरण, शादी-विवाह, हिन्दू विधि विधानों के अनुसार ही होते हैं । ये लोग भी आदि अनादि कालों से भारतीय ही हैं।'
भारतवर्ष जैनों की जन्म-भूमि है । जन्म-भूमि को स्वर्ग से भी अधिक मान्यता की जाती है। चक्रवर्ती भरत के नाम से इस देश का भारत नामकरण हुआ है । जैन परम्परा में सर्वप्रथम आता है । वैदिक परम्परा में वे आठवें अवतार भगवान् ऋषभदेव के पुत्र थे। ऐसी दोनों ही परम्पराओं की मान्यता है । पुराण साहित्य में तो इस विषय के अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनमें ऋषभ देव पुत्र भरत के नाम से ही इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।
इसमें सन्हेह नहीं कि न केवल भारतीय दर्शन के विकास का अनुगमन करने के लिए अपितु भारतीय संस्कृति के स्वरूप के उत्तरात्तर विकास को समझने के लिये भी जैन दर्शन का अत्यन्त महत्व है । भारतीय विचारधारा में अहिंसावाद के रूप में अथवा परमत सहिष्णुता के रूप अथवा समन्वयात्मक भावना के रूप में जैन-दर्शन और जैन विचारधारा की देन जो है उसको समझे बिना वास्तव में भारतीय संस्कृति के विकास को नहीं समझा जा सकता ।
उपाध्याय अमर मुनि ने लिखा है कि वस्तु सत्य के सम्पूर्ण स्वरूप को न हम एक साथ पूर्ण रूप से देख सकते हैं न व्यक्त १-अग्नि परीक्षा-एक समीक्षात्मक अध्ययन (संकलन) पृष्ठ ७ । २-राष्ट्र धर्म मासिक : डा० मंगलदेव शास्त्री, डी० पी०
प्रांक्सन पृ० ३३.
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कर सकते हैं। फिर अपने दर्शन को एकान्तरूप से पूर्ण यया. और अपने कथन को एकान्त सत्य करार देकर दूसरों के दर्शन और कथन को घोषित असत्य करता क्या सत्य के साथ अन्याय नहीं है ?
इस तथ्य को हम एक अन्य उदाहरण से भी समझ सकते हैं । एक विशाल एवं उचुग सुरम्य पर्वत है, समझ लीजिये हिमालय है। अनेक पर्वतारोही विभिन्न मार्गों से उस पर चढ़ते हैं और भिन्न-भिन्न दिशाओं की ओर से उसके चित्र लेते हैं। कोई पूरब से तो कोई पश्चिम से, कोई उत्तर से तो कोई दक्षिण से। यह तो निश्चित है कि विभिन्न दिशाओं से लिए गए ये चित्रं परस्पर एक दूसरे से कुछ भिन्न ही होंगे। फलस्वरूप देखने में एक दूसरे से विपरीत ही दिखाई देंगे। इस पर यदि कोई हिमालय की एक दिशा के चित्र को सही बताकर अन्य दिशाओं के चित्रों को झूठा बताये या उन्हें हिमालय के चित्र मानने से ही इन्कार कर दे तो उसे पाप क्या कहेंगे?
वस्तुतः सभी चित्र एक पक्षीय हैं। हिमालय की एक देशीय प्रतिछवि ही उनमें अंकित है, किन्तु हम उन्हें असत्य और अवास्तविक तो नहीं कह सकते । सव चित्रों को ययाका मिलाइए तो हिमालय का पूर्ण रूप आपके सामने उपस्थित हो जाएगा। खण्ड-खण्ड हिमालय का एक अखण्ड आकृति ले लेगा और इसके साथ हिमालय को दृश्यों का खण्ड-खण्ड सत्य एक अखण्ड सत्य की अनुभूति को अभिव्यक्ति देगा।
यह बात विश्व के समग्र सत्यों के सम्बन्ध में। कोई भी सत्य हो, उसके एक पक्षीय दृष्टिकोणों को लेकर अन्य दृष्टिकोणों का अपलाप या विरोध नहीं होना चाहिए, किन्तु उन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दृष्टिकोणों के यथार्थ समन्वय का प्रयत्न
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होना चाहिए।'
इसी संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि जनवरी १९६६ में विश्व हिन्दू परिपद का सम्मेलन प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम पर हुया था, जिसमें व्यापक स्तर पर हिन्दुओं ने अभूतपूर्व इंग से अपना योगदान दिया। इस तरह का सम्मेलन निकटभूत या माधुनिक काल में देखने को नहीं मिलता। इस सम्मेलन में 'हिन्दू' शब्द वैदिक, वौद्ध, जैन, सिक्ख, लिंगायत आदि सव पन्थों का समावेश करने वाले 'समाज' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। लगभग २००० वर्ष पूर्व बौद्धों के ऐसे सम्मेलन (संगीतिका) हुना करते थे। हिन्दुओं की विद्वत सभायें इसके पहले भी होती थीं, अव भी होती हैं, परन्तु समस्त हिन्दुओं का इस ढंग का यह पहला ही सम्मेलन हुआ और इसलिए इसका असाधारण महत्व भी है।
विश्व में ज्ञान परम्परा की रक्षा, प्रचार तथा उसके आदर्श स्थापना के लिए वैष्णव धर्म दशज्ञानावतार माने गए हैं, जिनमें छटवें स्थान पर 'ऋपभदेव' को माना है (जिन्हें जैन धर्म में प्रथम तीर्थकर आहिनाथ स्वामी माना गया है)। ___इनके १०० पुत्र थे, जिनमें ज्येष्ठ पुत्र (क्षत्रिय) भारत का. अधिपति हुआ । उससे कनिष्ः ८१ पुत्र महाश्रोलीय (ब्राह्मण) १-राष्ट्र धर्म मासिक : डा० मंगलदेव शास्त्री, डी०पी० आक्सन
पृ० ७२ २-हिन्दू समाज संघटन और विघटन-लेखक डा० पुषोत्तम
गणेश सहस्त्रबुद्ध पृ०-१ ३-हिन्दू धर्म का क ख : तनसुखराय गुप्त-पृ० २५
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हुए।
जैन धर्म के अनुयायी केवल भारत में हैं । अनेक जैन अत्यन्त सम्पन्न हैं और इनमें निर्धत शायद ही कोई हो । निहित स्वार्थ रखने वाले व्यक्तियों के यत्नों के बावजूद जैन व हिन्दू धर्म अत्यन्त निकट हैं । जैनों में नास्तिकता समाप्तप्रायः है। जैन व हिन्दू (अग्रवाल) परस्पर विवाह सम्बन्ध भी स्थापित करते रहते हैं।२
जैन धर्म के प्रसिद्ध तीर्थंकर ऋषभदेव भी उसके धर्म में एक अवतार हैं । वस्तुत: एवं तत्वतः ऋषभदेव तथा उनके पुत्र भरत को जैन धर्म में प्रावद्ध नहीं किया जा सकता । पुराणों, विशेषत: भागवत के अनुशीलन से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है । ऋषभदेव हिन्दू धर्म से जैन धर्म में लाये गये या जैन धर्म से हिन्दू धर्म में, इसका निश्चित उत्तर देना कठिन है।
ऐसी परिस्थिति में यह मान लेना उचित ठहरता है कि ऋषभदेव हिन्दू थे, कारण दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी मान्यता दे रखी है।
आधुनिक काल-वेद हिन्दू धर्म के इतिहास का सहज काल था, आदि काल था। पुराण-काल में जैन एवं बौद्ध धर्मों से संघर्ष हुग्रा, किन्तु उदारता एवं शालीनता के साथ, क्योंकि ये दोनों धर्म मूलतः भारतीय थे, सारतः हिन्दू धर्म के विकाससोपान थे । तत्वतः शान्ति अहिंसा-मय चिन्तन मनन के परिणाम १-हिन्दू समाज संघटन और विघटन : डा० पुरुषोत्तम गणेश ___ सहस्त्रबुद्ध-पृ० ५६
२-हिन्दू धर्म : राम प्रसाद मिश्र-पृ० १० ....... ३-हिन्दू धर्म : राम प्रसाद मिश्र-पृ० २१
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. . ( ६७ ) थे। यह पारस्परिक संघर्ष सहोदरों का संघर्ष था ।'.
स्वयं वैष्णव होता हुआ भी महाराज कृष्ण देवराय, हिन्दुनों को सभी सम्प्रदायों (बहुसंख्यक वैदिक पक्ष और अल्प संख्यक जैन, लिंगायत महानुभाव आदि विविध पन्थों) के साथ सहिष्णुता एवं परस्पर के विरोधों को यथा सम्भव टालकर सामन्जस्य कृति से ही बरतता और इस तरह समग्न हिन्दुओं के बीच एकात्मक की भावना को भली-भांति संजोता रहता। विजयनगर राज्य की संस्थापना के साथ शंकराचार्य श्री विद्याचरण्ड स्वामी, सायणाचार्य आदि धुरन्धर नेताओं ने समता और सहिस्णता की ऐसी नैर्वन्थिक राजनीति अपनायी कि हिन्दुओं के सभी पन्थों में सहसा परस्पर किसी भी तरह का कलह उपस्थित न हो सके । जन-साधारण में धर्म प्रचार द्वारा भी स्वधर्माभिमान और स्वराष्ट्राभिमान की यही एक भावना सुदृढ़ की जाती थी कि 'हम सभी एक हिन्दू हैं ।२।
गुप्तवंशीय सम्राट विक्रमादित्य जिनकी राजधानी उज्जिगिनी थी, अपने पराक्रम को गौरवान्वित करने हेतु संवत् प्रारम्भ किया जो विक्रम संवत् के नाम से आज भी वैष्णव व जनों के यहां अपने प्राधिक, पार्मिक व सामाजिक कार्यों में विक्रम संवत लिखा जाता है।
हमें पूरी आशा है कि अब सांस्कृतिक क्षेत्र में भी, अपनीअपनी स्वतन्त्र सत्ता या पृथक संस्कृति का अभिनिवेश या दुरभिमान रखने वाले, हमारे विभिन्न सम्प्रदाय अपने को एक ही । व्यापक समन्वयात्मक भारतीय संस्कृति का अंग समझने
१-हिन्दू धर्म : राम प्रसाद मिश्र-पृ० ७६ २-भारतीय इतिहास के छ: पणिम पृ०-तृतीय भाग-पृ० १०१
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( ६८ )
लगेंगे ।
व्यापक भारतीय संस्कृति के साथ विभिन्न सम्प्रदायों का वास्तव में ऐसा ही सम्बन्ध है । इसी भावना की वास्तविक अभिव्यक्ति और स्पष्ट अनुभूति ही भारतीय संस्कृति की विचारधारा का अभिप्राय है ।
भारतीय एक राष्ट्रीयता की पुष्टि के लिए यह परमावश्यक है कि हमारे विभिन्न सम्प्रदायों में समष्टि-दृष्टि-मूलक व्यापक भारतीय संस्कृति के आधार पर पारस्परिक सच्ची सद्भावना और सामंजस्य की प्रवृत्ति बढ़ायी जाए । इसके लिए ग्रावश्यक है कि प्रथम तो हमारे विभिन्न सम्प्रदायों में एक दूसरे के प्रति समादर और सहिष्णुता की भावना हो और दूसरे हम उन सम्प्रदायों को भगवती गंगा की तरह प्रगतिशील समन्वयात्मक भारतीय संस्कृति का पूरक ही समझें । इस भावना को स्थापित करने की आवश्यकता है । विभिन्न सम्प्रदायों के उत्कृष्ट साहित्य को भारतीय संस्कृति की अविच्छिन्न धारा से सम्बद्ध मानते हुए उसे अपनी राष्ट्रीय सम्पत्ति और अपना दाय समझें और उससे लाभ उठायें |
उनके अपने-अपने महापुरुषों को सबका पूज्य और मान्य समझें | अपने विचारों को साम्प्रदायिक परिभाषिकता से निकाल कर उनके वास्तविक अभिप्राय और लक्ष्य को समझने का यत्न करें । दूसरे शब्दों में प्राचीन ग्रंथों के वचनों के शब्दानुवाद के स्थान में भावानुवाद की यकता है |
जैन मत तथा ब्राह्मण धर्म - इस्लाम या ईसाइ धर्म के समान. जैन मत को वैदिक धर्म से पूर्णतः भिन्न मानना गलत है। उसने पुराने धर्म के दोषों को सुधारने की कोशिश की । जैन मत ब्राह्मण धर्म के यज्ञ तथा पशु बलि के विरुद्ध एक आन्दोलन था ।
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(६६ ) उसका प्राचीन धर्म से नाता टूटा न था । फर्क सिर्फ इतना ही है कि हिन्दू धर्म के कुछ सिद्धान्त, जैसे कि ईश्वर को जगत का निर्माण करने वाला मानना, वेदों को सर्वश्रेष्ठ समझना और यज्ञ तथा पशु बलि में विश्वास रखना, आदि का जैन मत ने समर्थन नहीं किया और ब्राह्मणों की प्रधानता मानने से इन्कार कर दिया। परन्तु इस मतभेद के अतिरिक्त दोनों मतों में बहुत समानता है। दोनों कम, पुनर्जन्म तथा मोक्ष के सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं।'
'जैन हिन्दू कैसे ? प्राचीन वैदिक काल से ही जैनियों के पितरों की परम्परागत पितृभू भारत भूमि ही है तथा उनके तीर्थकर आदि धर्म गुल्यों ने उनके जैन धर्म की स्थापना इसी भारत भूमि में की होने से यह भारत भूमि उनकी पुण्यभू भी है । इस अर्थ में तथा केवल इसी अर्थ में हमारे बहुसंख्यक जैन वन्धु स्वेच्छा से स्वतः को हिन्दू मानेंगे। क्योंकि यह ऐतिहासिक सत्य है एवं उनमें से जिन लोगों का ऐसा विश्वास है कि उनका धर्म वैदिक धर्म की शाखा न होकर पूर्णतः स्वतन्त्र या अवैदिक धर्म है, उनकी इस धारणा को भी प्रस्तुत परिभाषा से तनिक भी ठेस नहीं पहुंचती । जिस काल में हिन्दू अर्थात् वैदिक, ऐसा हिन्दू शब्द का भ्रान्तिपूर्ण अर्थ माना जाता था, तव भी ऐसे स्वतन्त्र धर्ममतवादी जैनियों को उस विशिष्ट अर्थ में स्वयं को हिन्दू कहलाने में विपमना का अनुभव होना स्वाभाविक ही था।
हिन्दू समाज में व्यवहार के विषय में युछेक नियम स्वीकार किये जाते रहे हैं । उदाहरण के रूप में नित्य स्नान करना, पूजा,
. १-हिन्दुत्व के पंचप्राणः विनायक दामोदर सावरकर-पृ० २०
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( ७० } उपासनादि नित्य कर्म करना, भोजन करते समय हाथ-मुख धोकर बैठना, भोजन के पूर्व और अन्त में कुल्ला करना, वैठकर भोजन करना, वे सब बातें जैनों में भी विद्धमान हैं । वस्त्र, आभूषण, खान-पान व वैवाहिक संस्कार, पूजा-पाठ की विधियां, परिवार तथा परिवार के बाहर के व्यक्तियों से अभिवादन, आदि के सभी नियम तथा उनके मूलभूत लक्षण हिन्दुओं और जैनियों में हमेशा से समान रहे हैं ।
भारत में जैन धर्म कोई नया मार्ग नहीं है । हिन्दू संस्कृति के प्रतीक स्वरूप वहुत सी समानता इसमें देखी जा सकती हैं ।
पुष्प प्रतीक : -- कमल को पुष्पों में सर्वोपरि माना गया है । जैन धर्म आगमों में कमल पुष्प की कई स्थानों पर उपमा दी गई है । कहीं-कहीं मन्दिरों में जैन मूर्तियों का आसन कमल पर ही दिखाया गया है । मन्दिरों के शिखर पर कलश लगाने के पूर्व कमल पुष्प का आकार बनाया जाता है |
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शस्त्र प्रतीक : - भारतीय शस्त्रों में तलवार, कटार का भी अपना प्रमुख स्थान है । जैनों के दुल्हे (वींद) जब व्याहने जाते हैं तो हर समय शरीर पर लटकाए रहते हैं और वधू पक्ष के द्वार पर पहुँचकर तो रन मारने का दश्तूर तलवार से ही करते हैं । वैसे दशहरे पर शस्त्रों की पूजा भी की जाती है । छड़ी भी एक प्रकार का शस्त्र ही है, जिसे कुछ जैन साधु हाथ में रखते हैं । चांदी की छड़ी का उपयोग भी धार्मिक जलूस के साथ किया जाता है ।
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वाद्य प्रतीक : - वाद्यों की ध्वनि (सुर) को मंगल सूचक माना जाता है । जैनों के प्रत्येक धार्मिक तथा सामाजिक कार्यों में वाद्यों को मान्यता तो प्रदान की ही गई है, मन्दिरों में भी घन्टा, झांजें, हारमोनियम, ढोल आदि वाद्यों का उपयोग किया
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जाता है।
वृक्ष प्रतीक :--आम, केला, तुलसी, वट, पीपल, नीम आदि : वृक्षों को जैनों में भी विभिन्न अवसरों पर पूजा के समय प्रयुक्त किया जाता है। मंगल कार्यों में तथा तीज-त्योहारों पर ग्राम के पत्तों का वन्दनवार वांधा जाता है।
वेश प्रतीक :-शिखा (चोटी) यज्ञोपवीत, तिलक, माला, केसरिया वस्त्र प्रादि वेश-प्रतीक समान रूप से जैनों में भी पाये जाते हैं । शिखा तो पहले सभी जैन रखते थे, यज्ञोपवीत अब भी दिगम्बर जैनों में कुछ लोग पहिनते हैं। पूजन के बाद तिलक लगाया जाता है । १०८ मणियों से युक्त माला द्वारा जाप किया जाता है। पूजन के समय केसरिया रंग से रंगे हुए वस्त्र पहने जाते हैं।
संकेत प्रतीक :---जैन समाज में भी मुद्राओं का महत्व है। मूर्ति के समक्ष, वन्दना के समय, सामायक के समय, शस्त्र स्वध्याय के समय, पारती के समय, गुरु के समक्ष एवं प्रार्थना आदि के समय भिन्न-भिन्न मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है। इन्हीं मुद्राओं को संकेत प्रतीक कहा गया है।
उपरोक्त सभी प्रतीक हिन्दू संस्कृति और उसकी समन्वित अर्थवत्ता को प्रमाणित करते हैं । जवकि अहिन्दू लोगों में इन प्रतीकों का कोई महत्व नहीं है।
भारतीय संस्कृति का दूसरा नाम हिन्दू संस्कृति है। अक्सर यह प्रश्न उठता है कि क्या भारतीय संस्कृति और हिन्दू संस्कृति मूलतः एक ही है । ध्यान से देखा जाए तो भारतीय संस्कृति का ताना वही है, जिसे मार्य या हिन्दू नाम से उपलक्षित किया जाता है, वाने के सूत इधर-उधर से आए हैं, पर वे सब ताने
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पर ही आश्रित हैं । जिस प्रकार गंगा में बहुत सी छोटी-बड़ी नदियां मिलती हैं, किन्तु मिलने पर जो पयस्विनी बनती है वह गंगा ही कही जाती है। उसी प्रकार भारतीय संस्कृति को हिन्दू सस्कृति कहा जाता है। जिस प्रकार भारतीय दर्शन का नाम . लेने से वैदिक, वौद्ध, जैन, हिन्दू इत्यादि दर्शनों का बोध होता है, उसी प्रकार भारतीय संस्कृति कहने से वैदिक, बौद्ध, जैन इत्यादि विचार-धाराओं का समावेश हो जाता है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति व हिन्दू संस्कृति के सम्बन्ध में किसी प्रकार का भ्रम नहीं खड़ा करना चाहिये । वह एक दूषित मनोवृत्ति का परिचायक होगा । भारतीय संस्कृति और हिन्दू संस्कृति दोनों समानार्थ सूचक हैं ।'
अतः सांस्कृतिक उद्भव और कालक्रम के उत्तरोत्तर विकास के परिणाम स्वरूप आज ये स्वीकार किया जाता है कि हिन्दू जैसे व्यापक और भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत जैन भर्म के । अनुयायियों को उससे पृथक मानना न्यायोचित नहीं ।
१-कल्पाण-अक्टूबर १९५४-पृ० १३५४-लेखक डा० परमानन्द
मिश्र प्रानन्दराज
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हिन्द राष्ट्रीयता का प्रतिनिधि है.
जाति और धर्म नहीं
एक वार, एक वर्ष पूर्व प्राचार्य श्री चुलसी ने कहा था-वे हिन्दू हैं जो हिन्दुस्तान के नागरिक हैं । हिन्दू शब्द का अर्थ राष्ट्रीयता के संदर्भ में किया गया है। कुछ विद्वानों ने इसका अर्थ जाति और धर्म के संदर्भ में किया है । राष्ट्रीयता के संदर्भ में किया जाने वाला अर्थ मूल भावना का स्पर्श करता है और प्राचीन है । जाति और धर्म के संदर्भ में किया जाने वाला अर्थ पल्लवग्राही और अर्वाचीन है।
इन दोनों की ऐतिहासिक पृष्ठ-भूमि का अध्ययन करना प्रावश्यक है । पहले हम दूसरे अर्थ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर विचार करें, हिन्दुस्तान में हजारों वर्षों से चार वर्ण और अनेक जातियां रही हैं । मनुष्य जाति एक है । इस अभेदात्मक सत्ता के उपरान्त भी उसकी भेदात्मक सत्ता जीवित रही है। फलतः मनुष्य अनेक जातियों में विभक्त रहे हैं। सारी जातियों का समाहार ब्राहाण, क्षत्रीय, वंध्य और शूद्र चारों वर्गों में होता
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( ७४ ) था। उनका विस्तार हजारों-हजारों जातियों में हुआ । उनमें हिन्दू नाम की कोई जाति नहीं थी । जाति के साथ-साथ हिन्दू शब्द का योग विदेशी आक्रमणों की मध्यावधि में हुआ । हिन्दुस्तान धर्मों का समाहार है, वैदिक, जैन और बौद्ध इन तीन धाराग्रों में होता हुआ उसका विस्तार सैंकड़ों शाखाओं, प्रशाखात्रों में हुआ । उनमें हिन्दू नाम का कोई धर्म नहीं है । धर्म के साथ हिन्द शब्द का योग बहुत ही अर्वाचीन है । "
१- समस्या का पत्थर अध्यात्म को छेनी - रचेता मुनि नथमल जी
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धार्मिक परिप्रेक्ष्य श्रौर
जैन तथा हिन्दू धर्म
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जिज्ञासा
• आप किस धर्म को मानते हैं...?
-जैन धर्म को • जैन की जाति क्या है...? -~-~अनेक हैं. 'पोसवाल, अग्रवाल, पोपवाल, परवार
श्रादि...
• क्या धर्म परिवर्तन की स्वीकृति है आपको...? —हां 'जैन से वैष्णव और वैष्णव से जैन की दीक्षा मान्य है । हमारे तीर्थकर भी तो पूर्वत: वैष्णव
धर्मानुयायी थे...
● क्या आपके सन्तों में दूसरी जाति के भी सन्त
७ क्या आपके मन्दिरों में जैन ही पुजारी होता
----ऐसा अनिवार्य नहीं है, ब्राह्मण भी पुजारी होते
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( ७७ ) 9 अापकी माला में कितनी मणियां होती हैं...?
--कुल १०८ तथा ३ सुमेर की मणियां... ● आपके प्राचीन मन्दिरों की समन्व-कला कैसी
-जन व वैष्णव मूर्तियों की एक ही मन्दिर में
स्थापना... ॐ जैन शिल्ल में श्री कृष्ण-अंकन का समावेश...
-जैन मूर्तियों और मन्दिरों की वैष्णवों द्वारा , पूजा... ७ प्रापकी अन्य व्यावहारिक मान्यताये...? -प्रत्येक शुभ कार्य में गणेश पूजन, स्वास्तिक, प्रोम
का माहात्मय... --राम और कृष्ण को अवतार मानना, सीता को सती
स्वीकारना... -~~~-पूजन विधि वैष्णवों के समान -~कर्म और फल के सिद्धान्तों में विश्वास...
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जैन साहित्य में श्री राम और कृष्ण
जैन साहित्य में राम और कृष्ण की कथा रूपान्तर से मान्य रही है। राम की कथावस्तु को जैन विद्वानों ने भी पुराणों, काव्यों एवं नाटकों आदि के रूप में प्रावद्ध किया है।
विक्रम संवत् ६० के लगभग विमल हरि ने प्राकृत में 'पउम चरिउ' लिखा । इसका सम्पादन जर्मन विद्वान डा० याकोबी ने किया था । श्री नाध्रराम प्रेमी के अनुसार यह ग्रन्थ श्वेताम्बर
और दिगम्बर सम्प्रदायों की उत्पत्ति से भी पूर्व का है, क्योंकि इनकी उत्पत्ति विक्रम संवत् १३६ है । किसी विद्वान ने चौंतीस हजार वाले श्लोकों का 'सीया चरिय' भी प्राकृत में लिखा है, जो प्राचीन माना गया है।
अपभ्रश भाषा में महाकवि स्वयं ने वारह हजार श्लाका का 'पउम चरिउ' रचा। उसका रचना-काल विक्रम संवत् ७३४ माना है। राम कथा पर प्रकाश डालने वाला प्राकृत भाषा का दूसरा ग्रन्थ 'तिस टिमहापुरिस गुणालंकारू' है। यह प्रादि पुराण और उत्तर पुराण, दो खण्डों में विभाजित है। उत्तर-पुराण पद्म-पुराण में 'रामायण' का प्रमुख स्थान है। इसके रचयिता कविवर पुष्पदन्त हैं । इसकी रचना सम्बत् १०३ में हुई । कविवर रविषेण ने इसका अवतरण संस्कृत भाषा में किया
१-आशा विवेकी : अग्नि परीक्षा कृति और कसोटी-पृष्ठ ३०-३१
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( ७९ ) हिन्दू और बौद्ध साहित्य में राम कथा तीन रूपों में उपलब्ध हो सकी है । वाल्मीकि रामायण, अद्भुत रामायण और बौद्ध जातक, जबकि जैन साहित्य में इसके दो रूप मिलते हैं । पहला पउम चरिउ और पद्मचरित तथा दूसरा गुणभद्राचार्य का उत्तर-पुराण | जैन रामायण के रूप में पउमचरित की प्रसिद्धि हमें ज्ञात ही है, जबकि उत्तर-पुराण की राम - कथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित नहीं है, तथापि उत्तर-पुराण की कथा गुरु परम्परा के भेद से स्वतन्त्र रूप में विकसित हुयी तथा अनेक कवियों ने इसे भी आदर्श मानकर महाकवि पुष्पदन्त की भांति काव्य रचना की ।
वस्तुतः राम कथा भारतवर्ष की सर्वाधिक लोकप्रिय कथा है श्रीर इसकी अन्य दो तीन परम्पराम्रों की भांति जैन साहित्य में भी इसे देखा जा सकता है। आचार्यो की इस परम्परा का संकेत 'पउमचरिय' के लेखक ने भी दिया है ।
राम कथा एशिया के सभी देशों में देखने को मिलती है, पर श्रीराम की महानता इसलिए नहीं है कि उन्होंने कोई युद्ध जीता, पर वे तो जितेन्द्रिय होने से अपने गुणों के कारण महान् थे। जिस प्रकार उनका बाहरी श्राचरण सादगी का था, वे अन्तरंग से भी उतने ही निर्मल थे। जिस समय श्रीराम को उनके पिताजी ने वनवास दिया तो उन्होंने कहा कि पिताजी द्वारा दण्डकारण्य का मुझे राज्य दिया गया है । यह कहकर उन्होंने अपने पिता की प्राशा को शिरोधार्य किया । श्री राम जन्म से क्षणिक सम्यक दृष्टि थे । १
वैदिक धर्म की तरह जैन धर्म में भी राम और सीता पूज्य
१ - विद्यानन्द मुनि : मंगल प्रवचन- पृष्ठ २२०
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[ Τ ) स्थानीय हैं । भगवान् राम को जहां मर्यादा पुरुषोत्तम, अहेत, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी माना गया है, वहां सीता को सोलह महासतियों में प्रमुख पतिव्रता, दृढ़ धर्मा और सत्य और शील के लिए प्राणों को बलिदान करने वाली माना गया है । '
इसके अतिरिक्त हेमचन्द्राचार्य का त्रिषष्टि शलाका चरितासंगत रामचरित, स्वयं का अपभ्रंश पउमचरिय और मुनि केशराज का रामरास आदि अनेक जैन रामायण हैं, जिनमें राम का उदात्त चरित्र वर्णन है ।
सभी रामायणकारों ने श्रद्धा भरे शब्दों में राम का गुणगान किया है। रविषेणाचार्य राम को उर्जित चरित्र, अनन्तबली, नन्त गुणगेह, गतविकृति, त्रिभुवन, परमेश्वर आदि भक्ति भरित पाब्दों में श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहते हैं --- जिनका उज्ज्वल यश तीन लोक में फैला हुआ है, जो निर्मल चरित्र थे, उन राम को प्रणाम करो ।
ग्रतः यह निर्विवाद है कि जैन साहित्य में प्रकारान्तर से राम कथा की एक प्राचीन परम्परा उसी रूप में विद्यमान रही है, जिस रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम राम को अन्यत्र मान्यता मिली |
इसी भांति आत्मा के ग्रनन्त ज्ञान दर्शन और आनन्द को प्राप्त कर प्राणीमात्र के कल्याण के लिए श्राध्यात्म तथा धर्म का संदेश प्रचारित करने वाले महापुरुषों में जैन तीर्थकर भगवान् महावीर अरिष्टनेमि और पुरुषोत्तम श्री कृष्ण का १- मुनि श्री रूपचन्द्र : ग्रग्नि परीक्षा : एक समीक्षा-पृष्ठ
२७-३०
२ - उपा० अमर मुनि अग्नि परीक्षा कृति और कसौटी-पृष्ठ-३
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। ८१ )
भी विशेष महत्व है।
राजा समुद्रविजय के पुत्र भगवान् अरिष्टनेमि थे और समुद्रविजय के लघु भ्राता वासुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण थे। जैन श्रागमों में इन दोनों के घनिष्ठ सम्बन्ध के अनेकों उल्लेख प्राप्त
श्री देवेन्द्र मुनि के अनुसार भगवान् अरिष्ठनेमि और कर्म- योगी श्रीकृष्ण ये दोनों ही भारतीय संस्कृति के जाज्वल्यमान सितारे हैं। दोनों संस्कृति के सजग प्रहरी ही नहीं अपितु संस्कृति और सभ्यता के निर्माता हैं । जैन संस्कृति में जिस प्रकार भगवान् अरिष्ठनेमि की गौरव गाथायें मुक्त कण्ठ से गायी गयी हैं, उसी प्रकार स्नेह की स्याही से डुवो कर श्रीकृष्ण के अनलोद्धत व्यक्तित्व को भी उदंकित किया गया है। अन्तकृतदशांग समवायांग, णायाश्रम्मकहानो, स्थानांग, निरियापलिका, प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन आदि में उनके 'श्री कृष्ण' महान व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं । वे अनेक गुण सम्पन्न और सदाचारनिष्ठ थे। अत्यन्त प्रोजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी और यशस्वी महापुरुप थे। उन्हें मोघवली, अतिवली, महावली, अप्रतिहत और अपराजित कहा गया है। उनके शरीर में अपार वल था। वे महारत्न बज्र को भी चुटकी में पीस डालते थे। वसुदेव हिण्डी, देवकी लम्बक, चउपन्न महापुरिय चरियं, भवभावना, कण्हचरित, हरिवंश पुराण, उत्तर-पुराण, विपण्ठिशलाका पुरुष चरित्र, त्रिपष्ठि शलाका पंचाशिका, विपष्ठिशलाका पुरुप विचार, शत्रजय माहात्म, प्रादि ग्रन्यों में हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, कन्नड़
१-अमर चन्द नाहटा : भगवान् अरिष्ठनेमि और कर्मयोगी
कृष्ण : एक अनुशीलन भूमि
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(८२) आदि प्रान्तीय भाषाओं के माध्यम से जैन लेखकों द्वारा श्रीकृष्ण के जीवन प्रसंगों पर विपुल साहित्य लिखा गया है। साथ ही उल्लेखनीय है द्विसंधान या राघवपाण्डवीय महाकाव्य, जिसके रचयिता धनन्जय हैं । इसमें १८ सर्ग हैं, इसके प्रत्येक सर्ग के प्रत्येक पद से दो अर्थ निकलते हैं, जिनसे एक अर्थ में रामायण और दूसरे अर्थ में महाभारत की कथा कुशलता से लिखी गई है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो एक अर्थ में राम तथा दूसरे अर्थ में कृष्ण कथा का सृजन होता है।'
कर्मयोग और लोक धर्म की मौलिक जीवन दृष्टि को आधयात्म की सार्थक सचेतना से अनुप्रेरित कर भारतीय संस्कृति को एक सर्वथा नयी दिशा प्रदान करने वाले श्री कृष्ण का स्थान जैन साहित्य में भी सर्वोच्च है। इसी कारण जैन साहित्य में उन्हें भावी तीथन्कर की महिमा का प्रतीक माना गया। उनके व्यक्तित्व की सर्वांगीणता ही वैदिक परम्परा के अनुसार उनके ईश्वर के पूर्णावतार और आज भी उनके प्रति जन मानस की अपार श्रद्धा का मूल है। ___'श्री कृष्ण का जीवन जितना महान् है, उतना ही उज्ज्वल है। उनके सामने जीवन एक उल्लास भरा खेल है। सर्वत्र विशुद्ध प्रेम । उनका जीवन दर्शन समझना हो तो जैन साहित्य में
देखिए, महाभारत और गीता में देखिए, कितना विराट और . दिव्य रूप वहां अंकित है । विशुद्ध प्रेम और निष्काम कर्म का
विचित्र सामन्जस्य जैसा भारतीय संस्कृत के इस महान जीवन में उजागर हुअा है, वह बहुत ही गौरवमय एवं प्रेरणास्पद है।'२ १-श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री : भगवान् अरिष्ठनेमि और कर्मयोगी _श्रीकृष्ण : एक अनुशीलन-पृ० १७, १६२, १६६ २-श्री अमर मुनि : जीवन दर्शन-पृ० २८१
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इसके अतिरिक्त कुछ जैन स्थान अन्य देव-स्थानों के रूपों में आज भी पूजे जाते हैं। पी० वी० देसाई के अनुसार बावनकोर प्रदेश के सिरुचारटुमैल नामक स्थान में भगवती का मंदिर है. उसमें महावीर की मूति भगवती के नाम से पूजी जाती है।
मथुरा जिले से कुप्यालनट्टम के निकट पोयइमले पहाड़ी पर प्राकृतिक गुफा में चट्टान काटकर बनायी गई : जैन : मूर्तियां भी अन्य देवता के नाम पर पूजी जाती हैं।। ____ दौलवाण्डी पुरम् में पद्मावती की मूर्ति कालियममा के रूप में पूजी जाती है।
केशरिया जी, श्री ऋपभदेव: उदयपुर, मेवाड़ से करीव ४० मील दूर है, यहां इतनी केशर चढ़ाई जाती है कि सारी मूर्ति केशर से ढक जाती है, यहां भगवान ऋपभदेव जी की प्रतिमा के सामने दुर्गा पूजा तथा श्री मद्भागवत की कथा की पूजा और प्रारती होती है ।
इसी प्रकार कोयम्बटूर जिले में अन्नमल पहाड़ी की उपत्यका में त्रिमूर्ति या टिनिटी का मन्दिर है । यह टिनिटी एक पाषाण पर अंकित जिन प्रतिमा है, जिसके दोनों पोर यक्ष दो हैं, जिसे हिंदू जनता बड़े प्रेम से पूजती है।
कनकगिरी पहाड़ी पर आदिनाथ तीर्थकर का विशाल जिनालय है जो आज भी पूजा जाता है। इसमें जैन तीर्थकों तथा अन्य देवतायों की मूर्तियां हैं। उनमें एक मूर्ति ज्वालामालिनी की है, जिसके पाठ हाथ हैं। अनेक दृष्टियों से इसकी
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१ : जैन साहित्य का इतिहास : पृष्ठ-८१
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. ( ८४ ) आकृति हिन्दुओं की. : वैष्णवों : महाकाली से मिलती है।'
बाकूड़ा जिले में वर्दमान और आसनसौल के बीच प्राचीन जैन स्तूपों के छत्र पर निर्मित ईंटों के बने एक सुन्दर प्राचीन मन्दिर, जिसमें शिव के साथ तीर्थकर पार्श्व की प्राचीन मूर्ति आज भी विद्यमान है। छोटा नागपुर में दुलभी, देवली, सुइया, पकवीरा, आदि स्थानों में और उनके पास पास भी अनेक प्राचीन जैन मन्दिर, तीर्थंकर प्रतिमायें, यक्ष-यक्षणियों की मूर्तियां
आदि अनेक जैन अवशेष मिले हैं।२ ___ सामन्त निम्नदेव द्वारा कोल्हापुर में सुप्रसिद्ध महालक्ष्मी मन्दिर के निकट ही अत्यन्त सुन्दर एवं कलापूर्ण नेमि जिनालय बनवाया था। इस मन्दिर शिखर की कणिका पर तीर्थकरों की ७२ खड्गासन मूर्तियां अंकित हैं। वर्तमान में यह मन्दिर वैष्णवों के हाथ में है और नेमिनाथ की मूर्ति के स्थान पर विष्णु की मूर्ति स्थापित कर दी गई है।
१ : दक्षिण भारत में जैन धर्म : पृ०-४७ २ : डा. ज्योति प्रसाद जैन : भारतीय इतिहास एक
दृष्टि : पृष्ठ : २१ ३ : जैन शासत : ५०-३२९
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जैनों में गणेश पूजन
हिन्दुस्तान को अपनी भूमि मानने वाला हिन्दू भले ही किसी भी जाति व धर्म का अनुयायी हो, अपनी पृथक-पृथक मान्यताओं के उपरान्त भी किसी न किसी रूप में गणेश पूजन किया करता है । गणानाम् अथवा (गणस्य) अर्थात साधुगण-जन गण के ईश (नियामक या नेता) को गणेश कहते हैं । गणेश शब्दगत प्रथम अक्षर ग जानार्थवाचक है, द्वितीय अक्षर 'ण' निर्माणवाचक है तथा अंतिम शब्द 'ईश' स्वाभिमानवाचक है। इस प्रकार गणेश संपूर्ण शब्द का अर्थ हुआ-ज्ञान तथा निर्वाण का स्वामी ब्रह्म, परमात्मा, परमेश्वर, या परमतत्व आदि ।
जैन धर्म में ज्ञान का संकलन करने वाले. 'गणेश' · अति गणधर की मान्यता है । केवल ज्ञान (सर्वज्ञता) को उपलब्ध कर ने पर अरहन्त (तीर्थकरों) का उद्देश्य प्रायः गणधर के निमित्त से ही होता है । गणधर ही उसका मुख्य पात्र है और वे ही उस मान का बारह अंगों और चौदह पूर्वा में संकलन करते हैं। चे मतिः श्रत, अवधि (परोक्षा बातों का सीमा सहित प्रत्यक्ष शान) और दयरों की बातों को प्रत्यक्ष जानने वाला मन-पर्यय -मान इन चार प्रकार के गान वाले होते हैं। तीर्थकर तो किसी को गिप्य बनाते नहीं, किसी को दीक्षा देते नहीं। तीर्थकरों के साथ जो साधुओं के संग रहता है, उसके नियामक गणधर होते हैं, क्योंकि तीर्घकर अनादिकाल से होते याये हैं,
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और अनन्तकाल तक होते रहेंगे। इसलिए गणधर भी अनाद है और अनन्तकाल तक होते रहेंगे ।।
पं० कैलाशचन्द जी शास्त्री की सूचना के अनुसार डा० संम्पूर्णा नन्द की पुस्तक 'गणेश' के नवें अध्याय में यह उल्लेख किया गया है कि जैन धर्म में जिनेन्द्र भगवान को ही 'गणेश' और 'विनायक' कहते हैं । इसके अतिरिक्त उस नाम के किसी पृथक देव का नाम नहीं मिलता। विवाह के समय विनायक यन्त्र की पूजा की जाती है । उस अवसर पर जो श्लोक पढ़े जाते हैं, उनमें से दो श्लोक नीचे दिए जा रहे हैं - गणानां मुनीनामधीशस्त्वतस्ते गणेशाख्यया ये भवन्तं स्तु
वन्ति । सदा विघ्नसंदोहशान्तिर्जनानां करे संलुठत्यावतोवसानाम् ।।
यतस्त्वमेवासि विनायको मे दृष्टेप्टयोगानवरुद्धभावः । त्वन्नामाणपराभवन्ति विघ्नारयस्तहि किमत्र चित्रम् ॥
श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में गणेश जी के समान ही राजमुख वाले पार्श्वययक्ष की कई प्रतिमाएं जैन-मन्दिरों में प्रतिष्ठित हैं । इससे कई बार लोगों को भ्रम भी हो जाता है कि गणेशजी की मूर्ति जैन मन्दिरों में कैसे ? पर वास्तव में २३वे तीर्थकर पार्श्वनाथ का अधिष्ठायक शासनदेव श्वेताम्बर-ग्रन्थानुसार वे पार्श्वयक्ष ही हैं। . यद्यपि श्वेताम्बर विद्वान् और कवियों ने अपनी रचनाओं के मंगलाचरण में प्रायः तीर्थंकरों, गौतमगणवर एवं विशेपतः सरस्वती आदि का ही स्मरण किया है पर कई कवि ऐसे भी १-कल्याण-गणेश अंक-पृष्ठ ३७४-जैन मत में गणेश का
स्वरूप-तारा चन्द पांड्या २-कल्याण-गणेश अंक-पृष्ठ ३७२-लेखक भंवर लाल जी नाटा
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८७ }
हुए हैं, जिन्होंने विघ्नविनाशक गणेशजी की लोक- प्रसिद्धि के कारण अपनी रचनाओं के मंगलाचरण में श्री गणेशजी को नमस्कार और उनका स्मरण किया है । ऐसे कुछ कवियों के मंगलाचरण के श्री गणेश सम्वन्धी पद्य नीचे सद्धृत किये जा रहे हैं जिससे श्वेताम्वर कवियों की उदार भावना और समन्वयवृत्ति का परिचय मिल जाता है ।
१ - सं० १५६५ में उदयभानुरचित 'विक्रमसेन रास' के प्रारम्भ में......
शंभु शक्ति मनिधरी, करिस कवि नव नवइ छंहि । सिद्धि बुद्धिवर विधनहर, गुण निधान गणपति प्रसादि ॥
२ - सं० १५७५ में मृतकलशरचित 'हमारे प्रवन्ध' के प्रारम्भ #...
गवरीपुत्र गजवदन विशाल, सिद्धि बुद्धिवर वचन रसाल । सुर-नर- किंनर सारइ सेव, घुरि प्रणम् लम्बोदर देव ॥ ३ - सं० १६६५ कवि हेमरत्नरचित 'गोरा वादल चोपाई' के प्रारम्भ में...
सकल सुखदायक सदा सिद्धि बुद्धि सहित गणेश । विघन विडारणरिध करण, पहिली तुझ प्रण मेश ॥
४- सं १७७२ मेंदन पति विजयरचित 'सुन्माण रासो' के प्रथम
में......
शिव सुत सुं ढालो सजल, सेवे सकल सुरेश ।
विन विडारण वरदीयण, गवरी - पुत्र गणेश ॥
५- सं० १७७६ में केशर कविरचित 'चंदनमलियागिरी' चो०, के
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( ८८ ) प्रारम्भ में... ..
विधन विडारण सुख करन आनन्द अंग उल्लास । . गवरी-सुत पूणमुधवर प्र यक्षा पूरो आस ।। ६- सं० १६०५ ५० मतिसारके 'कपूर मज्जरी रास के प्रारम्भ में.... प्रथम गणपति वर्णवऊ गवरी पुत्र उदार। . लक्ष लाभ जै पूरवह, देव सविहुँ प्रतिमार || सेवंजस मुगट भर, सींदूर सोहि सिरीरि ।
सिद्ध बुद्धि नउ भरतार, जे 'बुद्धि दातार वड वीर ।। ७-सं० १६३० में महेश्वरसूरि-शिष्यरचित 'चंपक सेनरास' के प्रारम्भ में...
गणपति गुन निधि विनऊ, सरस्वति करोपसाद । ८-सं० १७३६ में कवि लालचन्द रचित 'लीलावती' (गणत) भाषा में बीकानेर में रचित... गणपति देव मनाइ के, सुमरि देवि सरसति । भापा लीलावती करूं चतुर सुनो इक चित्त ।। सोभित सन्दूर पूर, गज सीस नीके नूर, एकदंत सुन्दर विराज भालचन्द जू । सुर कोरि कर जोरि, अभिमान दूर छोरि । प्रणमत जाके पद पंकज अर्मन जू ॥ गौरीपूत सेवे जेउ सोउ मन चिंत्यो पावे, ऋद्धि वृद्धि सिद्धि बुद्धि होत अानन्द जू। विघन निवारे संत लोककू सुधारे जैसे, गणपति देव जय जय सुखकंद जू ।।
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८६ ) -सं० १७२० में कवि रमचन्द्र रचित 'राम विनोद' के प्रारम्भ में... सिद्धि बुद्धिदायक सलहीये, गवरी-पुत्र. गणेश ।
विधन विडारण सुख करण, हरशधरी प्रणमेश ।। १०-सं० १७२५ के लगभग लक्ष्मी वल्लभरचित 'कालज्ञान के प्रारम्भ में... सकति शंघु-सुतन, धर तीनों का ध्यान
सुन्दर भाषा वंध करि, करिहं कालज्ञान । ११-सं० १७६४ में समरथ कवि० वि० 'रसमज्जरी' भाषा के प्रारम्भ में सवैया.. गणेश को रूप अनूप विराजति गंडौ-स्थल मद वारि झरै । ते पान किये अति मत्त भए भर गुजित भौंर अनेक फिरै ।। ते गुजत ही मुख की छवि देखि, मनों मनि नील की संक
सो देव विनायक सदा सुखदायक, तुमको नित ही सौख्य
करै ॥ इस प्रकार.१६वीं से १८वीं शताब्दि के श्वेताम्बर कवियों के हिन्दी और राजस्थानी दोनों भापायों के ग्रन्थों के प्रारंभ में गणेश जी का स्मरण किया जाता है।
इनमें से कई ग्रन्थ तो वैद्यकएवं गणित के हैं। वैद्य - कादि ग्रन्थ तो सार्वजनिक है ही, अन्य कई संस्कृत एवं चरित्र काव्य भी हैं, जिनकी कथायें ऐतिहासिक एवं सार्वजनोपयोगी हैं । श्री गणेश जी के भक्त भी इन रचनाओं से लाभ उठा सकेंइस विशाल दृष्टि से गणेश जी की प्रति प्रसिद्धि के कारण ही जैन विद्वानों ने इनका स्मरण ग्रन्थ के प्रारम्भ में किया है ।'
१-कल्याण-गणेश अंक-पृ० ३७२-श्री भंवर लाल जी नाहटा
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'वैसे भी गणेश जी को आद्य देव कहा गया है। जैनियों में बिनायक जी के नाम से मंगल कार्य में सबसे पहले गणेश जी की ही पूजा होती है। ये रिद्धि सिद्ध के दाता माने जाते हैं। .
जैन व वैष्णवों की प्राचीन इमारतों के मुख्य द्वार पर दहरी के ऊपर गणेश जी की मूर्ति अंकित रहती है । कमरों के अन्दर तथा दरवाजों, दीवारों पर भी गणेश जी के रंगीन चित्र भी बने हुए आज भी देखे जा सकते हैं।
"ये मंगलकामी देवता केवल हिन्दुओं के ही उपास्यन रहे, वरन् बौद्धों और जैनों के भी पूज्य हुए"।' ___ श्वेताम्बर जैनों में विवाह के अवसर पर तो एक छोटे बालक को जो वर का छोटा भाई, भतीजा, भानजा रिश्ते में लगता हो उसे वर के साथ रहने वाला विनायक' बनाने की प्रथा भी चली आ रही है। ऐसे बच्चे को वर के माफिक ही कंकन बांधा जाता है। माथे पर चमकता केशर चन्दन से तिलक लगा, अच्छे वस्त्र पहना अलग से अथवा वर के साथ ही घोड़े पर बैठाया जाता है।
इस प्रकार सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक पक्षों में जैन मतावलम्बियों के बीच गणेश जी की मान्यता निर्विवाद है । वैष्णव धर्म के अन्तर्गत जो परिकल्पना गणेशजी की की गई है जैन धर्म में भी बहुत कुछ उसकी आधार भूमि समान दिखाई पड़ती है । अन्ततः यह कहना अप्रसांगिक न होगा कि आदि और मंगल कार्यों के प्रतीक गणेश जी दोनों ही धर्मों में हिन्दू संस्कृति का समान रूप से प्रतिनिधित्व करते हैं । -नवनीत-गणपति गाथा-पृ० ५०-श्री जैनेन्द्र वात्स्थान
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जैन साहित्य में सती सीता
जीवन तो सभी जीवों का होता है परन्तु उनसे, जिनमें लोकहित की विशेषतायें होती हैं उन्हीं का महापुरुष अवलोकन करते हैं तथा उन्हें विश्व के समक्ष प्रस्तुत करते हैं । जैनाचार्य महासनसूरि ने 'सिया-चरिउ' नामक ग्रन्थ में ऐसी ही एक महासती सीता के जीवन चरित्र पर लिखा।
देश में असंख्यात सतियां हुयीं, पर महासती सीता की अलग ही बात है। उनका एक अपना स्वतन्त्र चिन्तन है। आज भी यदि देश में सतियाँ हैं तो वे ऐसी ही महासतियों की कृपा से हैं। श्रीराम के कहने पर सीता जी ने अग्निपरीक्षा देकर भारत का ही नहीं, विश्व के स्त्री समाज का सिर ऊंचा किया।
महासन सूरि ने लिखा है कि सीता जी कहती हैं कि सम्यकत्व से ही स्त्री पर्याय को छेदा जा सकता है और मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है । अहिंसा, सत्य, अशौर्य, अपरिगृह और ब्रह्मचर्य को पाल कर ही हम अपनी आत्मा को परमात्मा बना सकते हैं।
आचार्य तुलसी ने भी अपने खण्ड काव्य अग्नि-परीक्षा की प्राथमिकी में लिखा है कि जैन परम्परा में राम और सीता का वही महत्वपूर्ण स्थान है जो अन्य धार्मिक परम्पराओं में है । जैन कवियों ने विभिन्न युगों में, विभिन्न भाषाओं में विरिचित काव्यों
१-विद्यानन्द मुनि : मंगल प्रवचन-पृष्ठ २२६
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के माध्यम से राम और सीता की वन्दना की है। उन्हें भारतीय संस्कृति के उन्नायक और प्रेरक व्यक्तित्व के रूप में चित्रित किया है। राम आदर्श राजा हैं और सीता आदर्श नारी !
इसी पुस्तक में प्राचार्य तुलसी ने सती सीता के प्रति अपने मनोभावों को इस प्रकार प्रस्तुत किया (पृष्ठ १६६) ।
ओम जय सीता माता, तेरे बिना न कोई जगदम्वे । त्राता। ॐ जय सीता माता।
इस सम्बन्ध में सातवें सर्ग में प्राचार्य तुलसी ने सीता को जगदम्बा मां, महासती, कूलकमला, अचला, सन्नारी आदि सम्बोधनों से अमिहित किया है ।
हमारा देश प्राचीन काल से ही धर्म प्रधान देश रहा है। यहां भक्ति की धारायें सदा प्रवाहित रही हैं । इन धाराओं के साथ जिन महान विभूतियों के नाम अटूट रूप से जुड़े हुए हैं, उनमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम और महासती सीता के नाम अग्रणी हैं । भारतीय साहित्य और लोक जीवन में उनके अप्रतिम स्थान हैं । राम और सीता किसी एक परम्परा से प्रतीक नहीं है, अपितु उनकी सार्वभौम व्याकपता निविवाद है, इसलिए महर्षि वाल्मीकि ने श्री विमल सूरि, महाकवि स्वयम्मू, कविवर रविपेण, प्राचार्य जिनसेन, प्राचार्य हेमचन्द्र, महाकवि पन्नि, गोस्वामी तुलसीदास
आदि अनेक विद्वानों ने अपने-अपने प्रकार से राम और सीता की गाथायें लिखी हैं।'
प्राचार्य तुलसी ने सीता जी को 'महासती' के रूप में प्रस्तुत किया है और उनके शील तथा पवित्र चरित्र को आदर्श मान १-यशपाल जैन :अग्नि परीक्षा और विवाद-पृष्ठ १
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कर चलने की सलाह दी है।'
'वे (आचार्य तुलसी) सीता को नारी-रत्न अमूल्य, शारदातुल्य सयानी गृहलक्ष्मी, माधुर्य मूर्तिसी, सद्गुण-गौरव-गीता के रूप में महासती ही चित्रित करते हैं । तथा इसी रूप में शील और पवित्र जीवन बिताने की शिक्षा देते हैं।
'जिसमें सीता का शौर्य भरा जीवन देता संदेश नया । आदेश नया उपदेश नया नारि-जागृति उन्मेष नया ॥ महिला के, माता के मिलते, इसमें सीता के युगल रूप । अपने ही सत्य, शील, वल से निखरा जग में उसका स्वरूप ।३
अन्ततः यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि आज जैन सम्प्रदाय राम तथा सीता के प्रति उतनी ही श्रद्धा एवं सम्मान रखता है जितना अन्य सम्प्रदाय ।
१-अटल बिहारी वाजपेयी :
पृष्ठ १५ २-रत्नसिंह शाण्डिल्य :अग्नि परीक्षा : चिन्तन का आव्हान-पृष्ठ २ ३-आचार्य तलसी :अग्नि परीक्षा-पृष्ठ
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जैन धर्म में श्री हनुमान
भारतीय दर्शन शास्त्रों में विविध संस्कृतियों के अन्तर्गत अनेक कथायें आचार्यों ने विभिन्न भाषाओं में लिखीं, उनमें श्रमण संस्कृति के प्राचार्यों का कथन काफी कुछ वैज्ञानिक है।
'गुण भद्राचार्य' उत्तरपुराण में कहते हैं कि शक्ति और विधि के अनुकूल मोक्ष मार्ग पर चल कर ही राम व हनुमान दोनों श्रुतकेवली हुए और तपस्या करके मांगीतुगी पर्वत से मुक्त हुए। श्री हनुमान साक्षात् कामदेव थे तथा कर्तव्यनिष्ठ थे। वे श्री राम के अनन्य भक्त थे । जहां वे मुक्त हुए, उन सिद्ध क्षेत्रों की वन्दना करके हम अपना जीवन भी सफल बना सकते हैं।'
जैन अन्थों तथा विद्वानों द्वारा लिखी गई अनेक पुस्तकों में श्री हनुमान का स्वरूप उनकी विशिष्ट मर्यादा तथा उनके प्रति व्यक्त किये गये सम्मानभाव बहुत कुछ हिन्दु धर्म ग्रन्थों के अनुरुप एवं समान ही हैं। ____ कविवर श्रीमान् सूर्यमुनि जी महाराज द्वारा रचित जैन रामायण के अन्तर्गत भी हनुमान को सुख सम्पत्ति के दाता, राम के भक्त, महाबली योद्धा और अंजली तथा पवन के पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है।
'योद्धा वीरबली हनुमान, राम के भक्त कहाते हैं
भक्त कहाते हैं, अंजली पुत्र कहाते हैं। १-मुनि विद्यानन्द : मंगल प्रवचन, पृष्ठ : २३० २-जैन रामायण : कविवर्यसूर्यमुनि जी महाराज : पृष्ठ२३
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इसी पुस्तक में कविवर ने हनुमान की वन्दना करते हुए सिद्धियों और नवनिधियों के दाता के रूप में उस महाबली हनुमान के गुण का गान किया है । ऐसे हनुमान जिन्होंने राम के भक्त के रूप में सीता की सुधि ली, राम के कार्य को पूर्ण किया, ऐसे अजर और विकार से रहित हनुमान के गुण का प्रतिदिन गान करने से बुद्धि निर्मल हो जाती है । हनुमान का यह दर्शन में अपना विशिष्ट स्थान है और वस्तुतः राम के समान राजा और हनुमान जैसा भक्त न तो अब तक भूतल पर हुए और न होंगे।
सुगुरू नन्द नवनिधि के दायक, प्रणभू बार हजार । गुण गाता मैं वीर बली का, परमा पूरणःहार । काज सुधारे भक्त राम के, ली सीता की सुध । करे गान गुण प्रतिदिन उनकी, निर्मल होवे बुद्ध । सिद्ध नाम प्रख्यात हनु का, षट दर्शन में मान । हुए न होंगे राम भूम से, सेवक हनुमान ॥'
इस प्रकार निष्कर्षतः यह स्पष्ट है कि हिन्दू ग्रन्थों में वर्णित हनुमान के चरित्र और जैन ग्रन्थों में उल्लिखित हनुमान मूलतः धर्म और संस्कृति के समन्यात्मक धरातल पर समान है । दोनों ही ग्रन्थों में हनुमान की वही मर्यादा और विशिष्ट गुणों, कर्त्तव्यनिष्ठा, भक्ति, ब्रह्मचर्य और शक्ति आदि का प्रतीक माना गया है जो इस बात की पुष्टि करता है कि जैन और हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के कई धरातल पर अभिन्न हैं।
१-जैन रामायण : श्रीमान कविवर्य सूर्यमुनि जी महाराजःपृ० २३
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स्वास्तिक कोम
स्वास्तिक धार्मिक सिद्धान्तों का प्रतीक है, इसका उद्भव' भारतीय संस्कृति के साथ ही हुआ था । स्वास्तिक कुशलता और कल्याण का सूचक है, मंगलकारी है। इसी प्रकार ॐ भी धार्मिक विशेषताओं का सूचक है । अंकित करने की कला भले ही भिन्न हो।
स्वास्तिक व प्रोम चिन्ह वैष्णवों ने तो माना ही है, जैनियों ने भी अपने धार्मिक कार्यों में स्वस्तिक तथा धार्मिक ग्रन्थों में प्रोम को जगह-जगह अपनाया है। सामायक के समय प्रोम का कई बार उच्चारण भी करते हैं, प्रोम के उच्चारण के साथ ही दोनों समाज के व्यक्ति ध्यानस्थ हो जाते हैं, शान्ति का आनन्द लेने लगते हैं।
जैन तीर्थकर भी स्वास्तिक चिन्ह को मान्यता देते हैं । जिससे दोनों पक्षों की सांस्कृतिक व धार्मिक एकरूपता स्पष्ट होती हैं । भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है।
नोमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन देहं स याति परमांगतिम् ।। अर्थात 'त्रों' इस प्रकार एक अक्षर रूपी ब्रह्म का ध्यान करता हुआ जो जीव पार्थिव शरीर को छोड़ता है वह परम गति को प्राप्त होता है।
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विजय पताका लेखक श्री रामचन्द्र शर्मा वीर अपनी पुस्तिका के पेज १८१ पर भी लिखते हैं कि जैन धर्म और वैदिक धर्म दो होकर भी एक ही हैं । वेद के मूल मन्त्र ॐ का जैन धर्म में वही आदर व सम्मान है, जो एक ब्राह्मण के हृदय में है ।
ओंकार ऐसा चिन्तामणि है जिसके द्वारा मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर सकता है । छान्दोग्य उपनिपद्, माण्डूक्य - उपनिषद् कठउपनिषद्, श्वेताश्वतर - उपनिषद्, भगवत् गीता, मनुस्मृति आदि में अनेकानेक स्थलों में नकार का वर्णन है ।
ग्रोंकार के जप और अर्थ के चिन्तन से श्रध्यात्म मार्ग पर चलने वाला सरलता से एकाग्रता तथा अन्मुखता को प्राप्त कर . सकता है ।
क्रमशः .
कार ही ग्रात्मचिन्तन की प्रथम सीढ़ी है । इसके द्वारा ही मनुष्यपूर्ण ब्रह्म की ओर बढ़ सकता है । प्रकार के जप से, श्रध्यात्मिक उन्नति करता हुआ निश्चिय ही आनन्दमय परमपद को प्राप्त कर सकता है ।
कल्याण दिसम्बर १६५३ अंक १२ पृष्ठ १४६३ पर ओंकार माहात्नय' लेखक डा० मंगलदेव जी शास्त्री अपने लेख में लिखते हैं कि कहने की आवश्यकता नहीं कि वैदिक मार्ग की तरह जैनबौद्ध आदि सम्प्रदाय भी प्रकार के माहात्म्य को मानते हैं ।
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जैन से वैष्णव : वैष्णव से जैन
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पूर्णवतः इस बात को स्पष्ट किया जा चुका है कि जैन धर्म में प्रास्थावश दीक्षित होने वाले बहुत से क्षत्रीय राजाओं ने इस के विकास और सम्बर्धन में जीवन भर यथाशक्ति प्रयास किया । धर्म अपने आप में मूलतः एक ऐसा विश्वास है जो आस्था, संयम, आचरण आदि की सर्वथा सहवर्तीय और अनुकूल जीवन दृष्टि प्रदान करता है । अन्तरंग नियम की व्यवस्था ऊपरी तौर पर जैन और वैष्णवों के स्वरूप तथा आकार को कुछ अंशों में भिन्न कर सकती है किन्तु हिंसा और अहिंसा के विभिन्न पक्षों में अपना आत्मिक विश्वास प्रगट करने की मानवतावादी धार्मिक पृष्ठभूमि में सिर्फ इस कारण परस्पर विरोध नहीं माना जा सकता कि उसके मतानुयायी अलगअलग रास्तों और उससे सम्बन्धित धार्मिक पद्धतियों के श्राचरण का अनुगमन करते हैं, इसी क्रम में जहां एक ओर बहुत मे वैष्णवों में जैन धर्म के प्रति अपनी सम्पूर्ण श्रास्था प्रगट करते हुए उसकी दीक्षा ली वहीं बहुत से जैन मतानुयायी भी वैष्णव धर्म में दीक्षित हुए ।
वस्तुतः दोनों ही सिद्धान्त एक दूसरे के पूरक होने के कारण भारतवर्ष में बहुत पहले से ही धर्म परिवर्तन कर लेने पर कोई विशेष अन्तर नहीं माना जाता था । श्रच्छे से अच्छे नियम संयम में रहकर स्वयं का उद्धार भी समय समय पर
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जैन और वैष्णव के धर्म परिवर्तन का कारण रहा । और इसके . पीछे निश्चित ही संस्कृति में सम्मिलित होने या उससे बिल्कुल . कट जाने जैसी कोई भ्रामक स्थिति नहीं थी।
समय-समय पर जैन आचार्यों ने हजारों, लाखों अजनों को. जैन बनाया है जिसका उल्लेख जैन ग्रन्थों में मिलता है । जिस के अतिरिक्त जैन धर्म को छोड़ कर वैष्णव धर्म स्वीकार कर · लेने के भी बहुत से उल्लेख जैनेतर साहित्य में उपलब्ध हैं।'
उदाहरणार्थ जमुना वल्लभ रचित 'रसिक भक्त माल' का एक पत्र उद्धृत किया गया है जिसके अनुसार सेठ लक्ष्मी चन्द . जी जैन धर्म छोड़ कर वैष्णव हो गए थे और वृन्दावन में उन्होंने श्री रंगनाथ जी का मन्दिर बनवाया ।२
राजस्थान के कई सन्त-सम्प्रदायों के प्राचार्य , व अनुयायी भी पहले जैन थे फिर किसी जैनेतर संत के सम्पर्क में आने से उनके अनुयायी बन गए, इसके भी कुछ प्रमाण उनके ग्रन्थों में मिलते हैं । रामस्नेही सम्प्रदाय की रेणशाला के प्राचार्य हरखा राम जी को श्रावक जाति का बतलाया गया है। अतः ये नागौर : के सरावगी यानि दिगम्बर जैन ही होने चाहिये 'श्री रामस्नेही : अनुभव आलोक' नामक ग्रन्थ के पृष्ठ १६ में इनका परिचय देते। हुए लिखा है
आचार्य श्री हरखा राम जी महाराज का आविभाव वि० सं० १८०० भाद्रपद कृष्ण द्वादशी के दिन सायं काल नगर नागौर में हुया । आप के पिता विजयराज तथा माता वहाला. देवी थी। आप वश्य वंश में श्रवक जाति के थे। विजेराज जी १४-श्री अगर चन्द जी नाहटाः संमति संदेश-पृ० ३१ २-प्रभुदयाल जी मित्तलः चैतन्यमत और वृज साहित्य-पृ०३६४
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वि० सं० १७७५ में श्री दरयाव महाराज से राम-मन्त्र ग्रहण कर परम श्रद्धालु राम स्नेही भक्त बन गए थे। इनके सबसे छोटे पुत्र हरखा राम जी थे। इसी ग्रन्थ में इस राम सनेही सम्प्रदाय की अनुयायी आभाबाई का परिचय पृष्ठ १२१ में दिया गया है। वह नागौर जिले के डावगांव के निवासी सक्त सिंहोस वाल कोठारी की पुत्री थी, सन्त टेमदास जी के सम्पर्क में आकर उनकी शिष्या हो गई।
राजस्थान के कई राज्यों में कुछ राज्याश्रित जैनी वैष्णव हो गए। कुछ व्यक्तियों ने चमत्कार आदि से आकर्षित होकर जैन धर्म को छोड़ दिया। तारण समाज दिगम्बर जैन का ही अंग है। श्री तारण तरण मंडला चार्य ने इस पंथ को चलाया था इनका जीवन चरित्र उदास्यन श्रावक कालुराम जी जैन मुकाम सेमरखेड़ी द्वारा लिखा गया है। वे अपनी पुस्तिका में लिखते हैं कि श्री तारण स्वामी का जन्म विक्रम सम्वत् १५०५ में हुया था जिन्होंने . ५५:३१६ व्यक्तियों को अपना शिष्य बनाया था जिनको अध्यात्म मार्ग का मर्म बतलाया था जिसमें शिव कुमार, शाह कुमार नरेशों के अलावा भी जो स्वामी जी ने छः संघ बनाए थे उनमें समैया, गौलालारे तथा दुसके इनको तो दिगम्बर मूर्ति पूजकों में से ही सम्बोध थे वाकी तीन संघों में चरणागत यह संघ गहोई वैष्यों को संबोधित कर बनाया (आज भी हजारों घर गहोइयों के वैष्णव धर्म पालते हैं)। शेष दो संघ असहठी और अयोध्या वासियों के नाम से प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार इन छ संघों का गठन किया था। वैष्णव सम्प्रदाय में अव भी असहठी नाम संघ तथा अयोध्या वासी, अवविया आदि आदि जातियां विद्यमान है। . इसीप्रकार अवधा देश में कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्धगुप्त के काल में ही
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दूसरे धर्मों के प्रति कोई भेदभाव नहीं बरता जाता था। स्कंधगुप्त के समय एक वैष्णव ने जैन प्रतिमाओं का भी निर्माण कराया था । अपभ्रंश के महांकवि पुष्पडंत जो कि काश्यम गोत्रिय ब्राह्मण थे, माता-पिता के शैवानुयार्य होने के उपरान्त भी उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा ली और जिन सन्यास लेकर शरीर त्याग किया ।'
मगध देश में ३२२ ई० पूर्व चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य था। जो मौर्यय नामक क्षत्रिय वंश में से थे। २४ वर्ष राज्य करने के बाद २६८ ई० पूर्व में चन्द्रगुप्त मौर्य का देहान्त हो गया, जिन्होंने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था।
गुजरात में कुमार पाल सौलंकी राजपूत को राज्य था। वो जैन धर्म का मानते थे, जैन विद्वान उनके दरबार में रहते थे। कुमार पाल की मृत्यु ११७३ ई० में हुई थी, जिनकी राजधानी अन्हलवाड़े में थी।
इनके अतिरिक्त कई अन्य वैष्णव राजाओं ने भी जिन दीक्षा स्वीकार की थी।
वशाली के राजा चेटक, सिन्धु सौवीर देश का राजा-उदयन, अवन्ती नरेश-प्रद्योत, कोशम्बी का राजा-शतानीक, चम्पा का राजा-श्रोणिक, मगध सम्राट-कुणिक, (आजात शत्रु) सम्राटसम्प्रति (अशोक का पौत्र) महाराजा-खारवेल, गुजरात का महाराजा-अमोघवर्प, चावड़ावंशी-वनराज, चालुक्योंवंशी-मूलराज, रथवीरपुर के-शिवभूति, (पृष्ठ २६३) .
१-जैन, साहित्य और इतिहास-पृष्ठं २२५
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( १०२ ) सामिल प्रान्त के-पांडय नरेश, पल्लववंशी-शिवस्कन्द वर्मा महाराज पल्लवराज-महेन्द्र देव वर्मा, गंगवंशीय-मारसिंह, नासिक के राजा-राष्ट्रकूट, अमोघवर्ष प्रथम, तथा सेनापति-विमल, कुमारपाल इरुगप्य, मंत्री-तेजपाल, वस्तुपाल, चामुण्डराय ।
पुष्पदन्त ब्राह्मण थे, उनके माता-पिता पहले शैव थे, परन्तु पीछे किसी दिगम्बर जैन गुरू के उपदेश से जन हो गये।
भगवान महावीर के समय मगध देश की राजधानी राजगृही । में इन्द्रभूति नामक गौतम गोत्रीय वेद-वेदांग में पारंगत एक शीलवान ब्राह्मण विद्वान ने महावीर स्वामी के पादमूल में जिनदीक्षा ले ली और उनका प्रधान गणधर बन गया ।'
१-जैन धर्म : पृष्ठ २६३, २१
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वैष्णव राजवंशों द्वारा जैन धर्म
को संरक्षण
वहुत से भारतीय वैष्णव राजवंश ऐसे भी थे, जिन्होंने जैन धर्म को संरक्षण दिया। १. तमिल देश के प्रमुख राजवंशों के अनेक राजाओं और रानियों से जैन धर्म को निरन्तर संरक्षण और सम्पोषण प्राप्त होने का उस्लेख मिलता है । जिसमें पल्लव राजवंश के महेन्द्रराज वर्मा प्रथम का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। २. महान चोल राजवंश के शासकों की भी जैन समाज और जैन धर्म के प्रति गहरी आस्था के संकेत मिलते हैं। चोल शासन पद्धति में ऐसे अनेक गांवों का उल्लेख है जिनमें जैन धर्म के अनुयायी रहते थे और वे ही उनका प्रबन्ध करते थे । इसमें लाट राजवीर चोल और उनकी रानी लाटमहादेवी का नाम उल्लेखनीय है। ३. पूर्वीय चालुक्यवंश के सदस्यों से भी जैन धर्म को प्रारम्भ से ही संरक्षण मिला । इस राजवंश का शासक विजयादित्य षष्ठ उपनाम अम्म द्वितीय जैन धर्म का महान हितैपी था।' ४. वरंगल के काकतीय शासकों से भी जैन धर्म को सहायता
१-दक्षिण भारत में जैन धर्म-पृ० ४५, ६६
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( १०४ ) मिली थी।
५. कर्नाटक सलके उत्तराधिकारियों प्रमुखतः विनयादित्य प्रथम तथा उसके वंशजों ने जैन धर्म को महान संरक्षण दिया। ६. विष्णुवर्धन के सेनापति हुल्ल जैन धर्म का अनन्य भक्त था। राजा नरसिंहदेव ने जैन धर्म के प्रति जो उदारता बरती उसमें हुल्ल का ही हाथ था।
७. चामुण्डराय बड़ा उदार एवं दानी था । जैन धर्म के लिये किये गये उसके अथक प्रयासों ने उसे भारतीय इतिहास में अमर वना दिया। श्रवणनेलगोला में ५७ फिट ऊंची गौम्मटेश्वर की मूर्ति की स्थापना उसी ने की थी। . ८. विजय नगर के राजाओं की जैन धर्म के प्रति उदारता के सन्दर्भ में एक प्राचीन शिलालेख पर यह अंकित मिलता है कि जो भी इस जिन धर्म का विरोध करेगा वह अपने "महामहत्" के शिष्यत्व से बहिष्कृत कर दिया जायेगा । वह शिव का द्रोही तथा विभूति, रुद्राक्ष, लिंग तथा पवित्र तीर्थ काशी और रामेश्वर की अविनय करने वाला समझा जावेगा । इस पर सव वीर शैव नेतानों ने हस्ताक्षर किये। ९. चगाल्व राजाओं के इतिहास में एक उल्लेखनीय व्यक्ति सेनापति मंगरस है । मंगरस सुयोग्य सेनापति होने के साथ ही कन्नड़ भापा का चतुतं कवि और जैन धर्म का संरक्षक था ।४ १-वही-दक्षिण भारत में जैन धर्म-पृ० ७१ २-वही- " " पृ० १०८
' पृ० ११५, १४८
,
४-वही
पृ० १०८
पृ० १५२
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( १०५, ) 'इसके अतिरिक्त महाराज विक्रम के काल में सिद्धसैन दिवाकर नामक एक प्रसिद्ध जैन आचार्य हुए । राजा इनका बहुत सम्मान करते थे। जैन और वैदिक जैसा कोई भेदभाव उस समय नहीं था । महाराज चन्द्रगुप्त ने आचार्य सिद्धसैन सूरि को बहुत धन दिया। सिद्धसैन जैन सम्प्रदाय में पहले प्राचार्य थे, जिनके मन में यह बात समा गई कि सारा जैन आगम संस्कृत में कर देना चाहिए।
महावीर के प्रमुख शिष्यों (गणधरों) एवं समर्थक राजारों द्वारा जैन धर्म का प्रसार ५४६ ई० पू० बहत्तर वर्ष की आयु में पावा नामक स्थान में महावीर ने अपना शरीर छोड़ा, उस समय तक उनके मत का मगध और आसपास के क्षेत्रों में काफी प्रचार हो चुका था। इस कार्य में उनके ग्यारह प्रधान शिष्यों ने प्रमुख योग दिया था जो "गणधर" कहलाते थे। इनके नाम थे इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मण्डिक, मार्यपुत्र, अकम्पित, अंचलम्राता, मैतार्य और प्रमास । इनके आधीन उपासकों एवं अनुयायियों की विविध शिष्य मंडलियां संगठित थीं जो "गण" कहलाती थीं। इस प्रकार "गण" बना कर बुद्ध की भांति महावीर ने भी अपने अनुयायियों को संघ के रूप में सुगठित कर कर दिया था। इस संगठन से उसके मत के प्रचार में बड़ी सुविधा हुई । उधर उनके मत के पोपक कतिपय राज्यन्यों विशेषकर लिच्छविगण के शासक चैटक तथा मगधराज विविसार और उस के पुत्र अजातशत्रु ने भी इस अहिंसा के प्रसार में अनमोल सहायता दी । इन राजकुलों के अन्य राज परिवारों में विवाह संबन्ध के फलस्वरूप भी देश के दूर-दूर भागों तक जैन धर्म की पतांका
१-भारतीय संस्कृति का इतिहास :भगवद्दत-पृ० १०८
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के फहराने में मदद मिली। जैन धर्म लिच्छिवियों का तो राजधर्म वन ही चुका था । तदन्तर चम्पा, सिन्व-सौवीर, कौशाम्बी अवन्ति आदि के नरेश भी उसके प्रभाव में आ गये । इस प्रकार वैशाली और चम्पा के अतिरिक्त श्रावस्ती और अवन्ति (उज्जन) भी इस धर्म के पीठ-स्थान बन गये। सिकन्दर के आक्रमण के समय जैन साधु ठेठ सिन्धु नदी के तट तक पाये जाते थे।
१-राष्ट्रधर्म (तीर्थन्कर महावीर विशेषांक) श्री कृष्ण वल्लभ द्विवेदी-पृ० १६
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जैन धर्म के चौबीस तीर्थन्कर
भारतवर्ष के क्षत्रिय राजवंशों में अधिकतर जैन धर्मानुयायी ही थे। वे क्षत्रिय वीर जैन धर्म को अपनी आत्मा का कल्याणकारी धर्म समझते थे। हजारों राजा जैन थे या जो जैन धर्म में दीक्षित हुए थे । जैन धर्म के प्रवर्तक चौबीसों ही तीर्थकर क्षत्रिय थे।
भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक जैन धर्म के चौवीसों तीर्थंकरों का जन्म और निर्वाण उत्तर भारत में ही हुआ है।
१. श्री ऋषभदेव ही जैन धर्म के प्राद्यप्रवर्तक थे और प्रथम तीर्थकर थे। पिता नामिराजा तथा माता का नाम मरुदेवी था। जैन धर्म का प्रारम्भ काल बहुत प्राचीन है, भारतवर्ष में जव आर्यों का आगमन हुआ उस समय भारत में जो द्रविड़ सभ्यता फैली हुई थी, वस्तुतः वह जैन सभ्यता ही थी। इनका वंश इक्ष्वाकुवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ । प्रजा को कृपि, असि, मषी, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन षट्कर्मों से आजीविका करना बतलाया । सामाजिक व्यवस्था को चलाने के लिए इन्होंने क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इस प्रकार तीन वर्गों की स्थापना की । इनके बड़े पुत्र का नाम भ रत था। यही भ रत उस युग में भारतवर्ष के प्रथम चक्रवर्ती राजा हुए। श्री ऋषभदेव भगवान् का पुराणों में भी वर्णन मिलता है । इनका जन्म चैत्र
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! १०८ ) कृष्णा अष्टमी को और निर्वाण-मोक्ष माघ कृष्णा त्रयोदशी को हुआ ।
२. श्री अजितनाथ जिनका जन्म अयोध्या नगरी में हुआ, पिता जितशत्रु राजा और माता विजयादेवी थी। जन्म माघ शुक्ला अष्टमी को और निर्वाण शुक्ला पंचमी को हुना, इनकी निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर है जो आजकल बिहार में पारसनाथ पहाड़ के नाम से प्रसिद्ध है ।।
३. श्री सम्भवनाथ जी का जन्म थावस्ती नगरी में हुआ, पिता जितार्थ राजा, माता सेनादेवी थी। जन्म मार्ग शीर्ष शुक्ला चतुर्दशी को और निर्वाण चैत्र शुक्ला पंचमी को हुआ । निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर है।
४. श्री अभिनन्टैननाथ जिनका जन्म विनीतानगरी में हुआ पिता सम्वर राजा और माता सिद्धार्था देवी थी । जन्म माघ शुक्ला द्वितीया को और निर्वाण वैसाख शुक्ला अष्टमी को हुमा था । निर्वाण स्थल भूमि सम्मेद शिखर है ।
५. श्री सुमतिनाथ जिनका जन्म कश्लपुरी नगरी में हुआ। पिता मेघरंथ राजा और माता सुमंगला देवी थी। जन्म वैसाख शुक्ला अष्टमी को तथा निर्वाण चैत शुक्ला नवमी को हुआ था। निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर है।।
६. श्री पद्म प्रभुजी का जन्म कौशाम्बी में हवा, पिता श्रीधर राजा और माता सुसीमा थी। जन्म कार्तिक कृष्णा द्वादशी को और निर्वाण मार्गशीर्ष कृष्णा एकादशी को हुअा था । निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर है।
७. श्री सुपार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी (काशी) नगरी में हुया । पिता प्रतिष्ठन और माता पृथ्वी देवी थी, आपका जन्म ज्येष्ठ शक्ला द्वादशी को और निर्वाण भाद्रपद कृष्णा सप्तमी को
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८. श्री चन्द्रप्रभुजी का जन्म चन्द्रपुरी में हुआ । पिता राजा महासन और माता लक्ष्मी देवी थी, जन्म पौष शुक्ला द्वादशी को और निर्वाण भाद्रपद कृष्णा सप्तमी को हुआ था । निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर है।
६. श्री सुविधिनाथ जी (पुष्यदन्त) का जन्म काकन्दी नगरी . में हुा । पिता राजा सुग्रीव और माता रामादेवी थी। आपका जन्म मार्गशीर्ष कृष्णा पंचमी को हुआ और निर्वाण भाद्रपद शुक्ला नवमी को हुआ था, निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर हैं ।
१०. श्री शीतल नाथ जी का जन्म मकिलपुर में हुआ। पिता राजा दशरथ और माता नन्दादेवी थी। आपका जन्म माघ कृष्णा द्वादशी को और निर्वाण वैसाख कृष्णा द्वितीया को हुआ था। निर्माण भूमि सम्मेद शिखर !
११. श्री पांसनाथ जी का जन्म सिंहपुरी (सारनाथ) में हुआ। पिता राजा विष्णुसैन और माता विष्णुदेवी थी । आपका जन्म फागुन कृष्णा द्वादशी को और निर्वाण श्रावण कृष्णा तृतीया को हुआ था। निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर है।
१२. श्री वासुपूज्य जी का जन्म चम्पापुरी में हुआ। पिता राजा वासुपूज्य तथा माता जयादेवी थी। आपका जन्म फागुन कृष्णा चतुर्दशी को और निर्वाण अषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को हुआ था। निर्वाण भूमि चम्पापुरी है।
१३. श्री विमलनाथ जी का जन्म कपिला नगरी में हा। पिता राजा कर्तवर्म तथा माता श्यमादेवी थी । आपका जन्म माघ शुक्ला तृतीया और निर्वाण अषाढ़ कृष्णा सप्तमी को हुआ था । निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर है।
१४. श्री अनन्तनाथ जी जिनका जन्म अयोध्या नगरी में हुना । पिता राजा सिंहसन तथा माता सुयशा देवी थी। आपका जन्म वैसाख कृष्णा तृतीया को और निर्वाण चैत्र शुक्ला पंचमी
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( ११० ) को हुआ था । निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर है ।
१५. श्री धर्मनाथ का जन्म रत्नपुर में हुआ । पिता भानुराजा तथा माता सव्रतां देवी थी । आपका जन्म माघ शुक्ला तृतीया को और निर्वाण ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को हुआ था । निर्वाण सम्मेद शिखर है |
१६. श्री शान्ति नाथ जी का जन्म हस्तिनापुर में हुआ । पिता राजा विश्वसैन तथा माता अचिरा देवी थी । आपका जन्म ज्येष्ठ कृष्णा त्रियोदशी को और निर्वाण भी इसी तिथि को हुआ । निर्वाण सम्मेद शिखर पर हुआ ।
१७. श्री कुन्युनाथ जी जन्म हस्तिनापुर में हुआ। पिता सूरराजा तथा माता श्री सूरा देवी थी । श्रापका जन्म वैसाख कृष्णा चतुर्दशी र निर्वाण वैसाख कृष्णा एकम को हुआ था । निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर है |
१८. श्री अमर नाथ का जन्म हस्तिनापुर में हुआ । पिता सुदर्शन राजा और माता श्री देवी था । श्रापका जन्म मार्घ शीर्ष शुक्ला दशमी और निर्वाण भी इसी तिथि को हुआ था । निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर है ।
१६. श्री मल्निनाथ का जन्म मिथिलापुरी में हुआ। पिता कुम्भ राजा तथा माता प्रभावती थी । आपका जन्म मार्ग शीर्ष शुक्ला एकादशी को और निर्वाण फागुन शुक्ला द्वादशी को हुग्रा था । निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर ।
२०. श्री मुनिसुव्रतनाथ का जन्म राजगृही नगरी में हुआ । पिता सुमित्र राजा तथा माता पद्मा देवी थी । श्रापका जन्म ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी और निर्वाण ज्येष्ठ कृष्णा नवमी को हुआ था । निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर है ।
२१. श्री नमिनाथ का जन्म मिथिलापुरी में हुया । पिता विजयसैन तथा माता वप्रादेवी थी । श्रापका जन्म श्रावण कृष्णा
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अष्टमी और निर्वाण कृष्णा दशमी को हुआ । निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर है।
२२. श्री नेमिनाथ, ये श्री कृष्ण के चचेरे भाई.थे। इनके पिता का नाम समुद्रविजय था तथा माता का शिवादेवी थी । जन्म स्थान शारीपुर था बाद में द्वारका नगरी में रहने लगे थे । आप का जन्म श्रावण शक्ल पंचमी को हुआ था । जूनागढ़ के राजा की पुत्री राजमती से इनका विवाह निश्चित हुआ, लेकिन जब बारात जूनागढ़ पहुंची, वहां एक बाड़े में वारात के आतिथ्य सत्कार के लिए बहुत से पशु बन्द किये गये थे, इनका वध किया । जाने वाला था। मुकुट कंगन त्याग कर गिरनार (खेतकगिरि) जी " प्रात्मध्यान में लीन हो केवल ज्ञान प्राप्त कर यहां से निर्वाण । अषाढ़ शुक्ला अष्टमी को हुआ ।
२३. श्री पाश्वनाथ का जन्म वाराणसी (काशी) नगरी में हुआ, पिता अश्वसन तथा माता बामादेवी थी। आपका जन्म पौष कृष्णा दशमी और निर्वाण श्रावण शुक्ला अष्टमी को हुआ। निर्वाण सम्मेद शिखर पर हुआ।
२४. महावीर स्वामी, पिता राजा सिद्धार्थ, माता त्रिशलादेवी जाति ज्ञातृवंशी क्षत्रिय, जन्म ग्राम कुण्डग्राम (कन्डलपुर) जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी ई० पू० ५९६ बाद में श्री. वर्द्धमान । कहलाये । भगवान महावीर बड़े ही उत्कृष्ट त्यागी पुरुष थे। . निर्वाण समय कार्तिक कृष्णा अमावस्या (दिवाली) क प्रातः ई० पू० ५२७ वर्ष में पावापुरी में इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।
सभी जैन तीर्थन्करों ने क्षत्रियकुलों में जन्म लिया, उनमें से पांच तीर्थन्करों ने तो बाल्य अवस्था में ही जिन दीक्षा ली। शेष सभी ने पैतृक राज्य का संचालन और संवर्धन किया था इन्हीं में से तीन ने तो दिगविजय करके चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था । इनमें से श्री धर्मनाथ, अमरनाथ और कुन्युनाथ का जन्म
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कुरुवंश में हुग्रा । मुनिसुव्रतनाथ का जन्म हरिवंश में हुआ । और शेप का जन्म इक्ष्वाकुवंश में हुआ । भगवान ऋषभदेव की तरह तपश्चरण किया और केवल ज्ञान को प्राप्त करके जन-जन को धर्मोपदेश करते हुए अन्त में निर्वाण को प्राप्त किया इन . में से भगवान वासु पूज्य का निर्वाण चम्पापुर से हुया और शेस तीर्थन्करों का निर्वाण सम्मेद शिखर से हुया। ___इसी सन्दर्भ में इन तीर्थन्करों से सम्बन्धित प्रतीकों का भी उल्लेख अप्रासंगिक न होगा। भारतीय कला में वैसे भी प्रतीकों का बड़ा महत्व है। कई बातें प्रतीकों द्वारा प्रशित की जाती हैं । जन धर्म के सभी तीर्थन्करों की कल्पित प्राकृति एवं बैठने की स्थिति एक सी है, इन्हें प्रतीकों द्वारा पहिचाना जाता है । जैसे(१) वृपभदेव-'वृषभ' (२) अजितनाथ-'हाथी' (३) संभवनाथ-'घोड़ा' (४) अभिनन्दनस्वामी-'बन्दर' (५) सुमतिनाथ-'चकवा' (६) पद्मप्रभु-'कमल' (७) जिनसुपास-'साथिया' (८) चन्द्रप्रभु-'चन्द्र' (६) पुष्पदन्त-'मगर' (१०) शीतलनाथ-'कल्पवृक्ष' (११) श्रयासपद-'गेंडा' (१२) वासुपूज्य-'भैसा' (१३) विमलनाथ-'शूकर' (१४) अनन्तनाथ-'सेही' (१५) धर्मनाथ-'वन' (१६) शान्तिनाथ-'हिरन' (१७) कन्युनाथ-'हिरन' (१८) अमरनाथ-'मीन' (१६) मल्लिनाथ-कलश' (२०) सजत-'कछुया' (२१) नमि-'लालकमल' (२२) नेमिनाथ-'शंख (२३) पार्श्वनाथ-'सर्प' (२४) महावीर-'सिंह'
ऊपर उल्लिखित प्रतीकों में जितने भी नाम पाये हैं, उन सवकी अधिकांशतः किन्हीं अर्थो में हिन्दू संस्कृति में एक विशिष्ट महत्व है। अतः समन्यात्मक प्रतीकों की ये विशेषता यहां भी स्पष्ट करती है कि मूलतः जैन और वैदिक परम्परा में बहुत अधिक साम्य है।
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जैनेतर साहित्य में जैन तीर्थंकर
साहित्य का क्षेत्र सदैव व्यापक उदात्त और शाश्वत माना गया है । जैनेतर साहित्य में श्रीमद्भागवत का नाम उल्लेखनीय है। इसके पांचवे स्कन्ध के अध्याय २-६ में ऋषभदेव का सुन्दर वर्णन है, जो जैन साहित्य के वर्णन से कुछ अंशों में मिलताजुलता हुआ भी है । उसमें लिखा है कि जब ब्रह्मा ने देखा कि मनुष्य संख्या नहीं बढ़ी तो उसने स्वयंभू मनु और सत्यरूपा को उत्पन्न किया। उनके प्रियव्रत नाम का लड़का हुना । प्रियव्रत का पुत्र अग्नीध्र हुमा । अग्नीध्र के घर नाभि ने जन्म लिया, नाभि ने मरुदेवी से विवाह किया और उनसे ऋपभदेव उत्पन्न हुए । ऋषभदेव ने इन्द्र के द्वारा दी गई जयन्ती नाम की भार्या से सौ पत्र उत्पन्न किये और बड़े पुत्र भरत का राज्याभिषेक करके सन्यास ले लिया । ऋपभदेव ने ही जैन धर्म का उपदेष दिया था। जैन परम्परा श्री ऋषभदेव को अपना प्रथम तीर्थंकर मानती है । और वैष्णव परम्परा श्री ऋषभदेव को आठवें अवतार के रूप में स्वीकार करती है। जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि अति प्राचीन काल से ऋषभदेव को हो जैन धर्म के संस्थापक के रूप में माना जाता है।'
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१. सिर्द्धाताचार्य श्री कैलाशचन्द शास्त्री जैन धर्म-पृ० ४-६
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( ११४ ) इत्थं प्रभव ऋषभवतारोहि शिवस्य मे। सतां गतिदीन बन्धुनं वामः कथितस्तवः ।।
शिवपुराण ४१४८ अजितनाथ और अरिष्ठ नेमी नाम के तीर्थंकरों का निर्देश यजुर्वेद में मिलता है। ऋग्वेद में 'अरिष्ठनेमि' शब्द चार वार प्रयुक्त हुआ। 'स्वास्ति नस्ताक्ष्यों अरिष्ठनेमिः' यहां पर अरिष्ठनेमि शब्द भगवान अनिरण्ठनेमि के लिए आया है।
अथर्ववेद के व्रात्य-काण्ड में रूपक की भापा में भगवान ऋपम का ही जीवन उदंकित किया गया है भगवान ऋषभ के प्रति वैदिक ऋपि प्रारम्भ से ही निष्ठावान रहे हैं और उन्हें वे देवाधिदेव के रूप में मानते रहे हैं । ___'भगवान् परमपिभिः प्रसादितो नाम: प्रियचिकीर्पयातदवरोवायने मरुदेव्यां धर्मान दर्शयितु कामावतार शनानां श्रमणानाम् ऋपीणाम् उर्ध्वन्यिनां शुक्लया तन्वावतार ।'
भगवत पुराण ५।३।२०-१ यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्ठनेमि इन तीनों तीर्थन्करों के नाम आते हैं । भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋपभदेव जैन धर्म के संस्थापक थे।
वैदिक हरिवंश पराण में भी महर्षि वेदव्यास ने श्री कृष्ण को अरिष्ठनेमि का चचेरा भाई माना है।
वर्तमान महावीर जन धर्म के मूल प्रवर्तक वैशाली के राजकुमार वर्षमान थे । वहाँ लिच्छिवि वंश के एक क्षत्रिय राजा राज्य करते थे । वर्षमान का जन्म ईसा से लगभग ५४० वर्ष पूर्व हुया था। ३० वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपना घर बार बोड़ कर १२ वर्ष तक घोर तपस्या की। १३वें वर्ष में उन्हें 1-देवेन्द्र युनि शास्त्री, साहित्य और संस्कृति-पृ० २०६ २-राधाकृष्णन-भारतीय दर्शन का इतिहास सजिल्द १४४-२८७ -देवेन्द्र मुनि शास्त्री : ऋषभदेवः एक परिशीलन-पृष्ठ ६
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ज्ञान की प्राप्ति हुई, तब से वे 'महावीर' और 'जिन' (विजयी) कहलाये । उनके नाम से जैन सम्प्रदाय चला । 'भागवत' में ऋषभदेव की कथा आई है, जिसमें यह बतलाया गया है कि उनके जटिल अवधूत वेष से माहित होकर अहत अर्थात जैन सम्प्रदाय चला । जैनों के यहां महावीर के पूर्व २४ तीर्थान्कर याने गये हैं। जिनमें एक ऋषभदेव भी थे । इस तरह उस कथा के साथ इसकी संगति बैठ जाती है । ३० वर्ष तक अपने सिद्धान्तों का प्रचार करने के बाद राजगृह के निकट ७२ वर्ष की अवस्था में महावीर स्वामी ने ईसा के ४६८ वर्ष पूर्व शरीर त्याग दिया।' ___इसके अतिरिक्त अन्य भी बहुत से प्राचीन प्रमाण इस समर्थन में उपलब्ध है कि जैन तीर्थकर वस्तुत: वैदिक संस्कृति के ही अभिन्न अंग थे। अमर मुनि के अनुसार भी भगवान ऋषभदेव तीर्थन्कर का जन्म युगलियों के युग में हुआ था । जव मनुष्य वक्षों के नीचे रहते थे और वन-फल तथा कन्दमूल खाकर जीवनयापन करते थे। उनके पिता का नाम नाभिराजा और माता का नाम महदेवी था। उन्होंने युवा अवस्था में आर्य सभ्यता की नींव डाली । पुरुषों को बहत्तर और स्त्रियों को चौंसठ कलायें सिखायीं। वे विवाहित हुये । बाद में राज्य त्याग कर दीक्षा ग्रहण की और कैवल्य प्राप्त किया । भगवान् ऋषभदेव का जन्म चैत्र कृष्णा अष्टमी को और निर्वाण-मोक्ष माघ कृष्णा त्रयोदशी को हुआ । उनकी निर्वाण भूमि अष्टापद [कैलाश पर्वत है । ऋग्वेद, विष्णुपुराण, अग्निपुराण, भगवत आदि वैदिक साहित्य में भी उनका गुण-कीर्तन किया गया है ।२-3 १-देवेन्द्र मुनि शास्त्री : भगवान् अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्री
कृष्ण-पृ०६ २-गंगाशंकर मिश्र : भारत का इतिहास-पृ० ५४ ३-चिन्तन की मनोभूमि-पृ० ३३-३४, अमर मुनि
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इसके अतिरिक्त प्राचीन उपदेशों और ग्रन्थों के आधार पर जैसे श्रीमद्भागवत के अन्तर्गत भगवान ऋषभदेव द्वारा दिये गये उपदेश भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। नायं देहोदेह भाजां नृलोके
कष्टान् कामानहते विड् भुजां ये । तपो दिव्यं पुत्रकायेन सत्वं
शुद्धयेयस्माद् ब्रह्म सौख्यंत्वनन्तम् ।। महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्त
स्तमोद्वारयोषितां सडिग सङ्गम् । महान्तस्ते समचित्ताः प्रशान्ता
विमन्यवः सुहृदः साधवी ये ।।
(श्रीमद्भा० ५।५।१-२) पुत्रो! इस मर्त्यलोक में यह मनुष्य-शरीर दुःखमय विषयभोग प्राप्त करने के लिए ही नहीं है । ये भोग तो विष्ठा भौजी सूकर-कूकरादि को भी मिलते ही हैं । इस शरीरं से दिव्य तप ही करना चाहिए, जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो, क्योंकि इसी से अनन्त ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में महापुरुषों की सेवा को मुक्ति का और स्त्रीसंगी कामियों के संग को नर्क का द्वार बताया है । महापुरुष वे ही हैं जो समानचित्त, परमशान्त, कोषहीन सव के हितचिन्तक और सदाचार सम्पन्न हों। गुरुर्नसस्यात् स्वजनो न सस्यात्
पिता न सस्याम्जननी न सास्यात् । देवं न तत् स्यान्न पतिश्च सस्या
न्न मोच पेयः समपैतमत्युम् ।।
(श्रीमद्भा० २०१०) जो अपने प्रिय सम्बन्धी को भगवद्भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फांसी से नहीं छुड़ा देता, वह गुरू नहीं है, स्वजन स्वजन
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नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है।'
भगवान महावीर के जीवन के विषय में तथा उनके द्वारा बतलाया गया धर्म-सूत्र, श्री अगरचन्द नाहटा लिखित 'कल्याण' के संतवाणी अंक में प्रकाशित हुया है देखिये पृ० १७६ । जैन तीर्थंकरों की वाणी व उनके उपदेश वैदिक धर्म ग्रन्थों में एक नहीं अनेक स्थानों पर पाये ही जाते हैं, इसके बाद भी जैन सन्तों के विषय में व उनके संयममय जीवन व उच्च कोटि के उपदेशों को स्वीकार कर उन्हें सन्तों की शृखला में प्रकाशित किया है वो हैंश्रीकुंदकुशादार्य, मुनि रामसिंह, मुनि देवसैन, सन्त आनन्दधन जी, मस्तयोगी, ज्ञानसागर जैन योगी चिदानन्द, श्री जिनदास, आचार्य श्री भिक्षु स्वामी जी (भीखण जी) स्वामी जी श्री तारण तरण मण्डलाचार्य ।
जैन मत बहुत पुराना है। अनुश्रुति के अनुसार इस मत के आदि प्रवर्तक ऋषभदेव थे, जिनका उल्लेख ऋग्वेद, यजुर्वेद, विष्णु, पुराण, श्रीमद्भागवत् आदि जैनेतर ग्रन्थों में भी मिलता है । यह महापुरुष आदिनाथ के नाम से पुकारे जाते हैं । कहते हैं इन्होंने राजपाट त्याग कर घोर तप किया था और केवल्य-प्राप्त करके अहिंसा धर्म के सिद्धान्तों का प्रवर्तन किया था । पुराणों में वह महायोगी कह कर पुकारे गए हैं और उन्हें विष्णु का अवतार माना गया है । ___ऋषभदेव से महावीर तक जैन धर्म की चौबीस महान विभूतियां हुई हैं। जिन्हें तीर्थकर कहा जाता है।
१-सन्तवाणी अंक, कल्याण-पृ० ६५ २-कल्याण (सन्तवाणी अंक).पृ० (१६३-१८५) ३-राष्ट्रधर्म (तीर्थकर महावीर विशेषांक) श्री वल्लभ द्विवेदी
पृ० २६
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जैन प्राचार्य--जो पहले वैष्णव थे
भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के प्राचीन अध्ययन से इस वात का संकेत मिलता है कि अपनी भीतरी वासनाओं का दमन कर आनन्द की उपलब्धि प्राप्त करने वाले तथा कर्मकाण्ड के खोखले आडम्बरों के विरोध में नैतिक संघर्षों और द्वन्दों को अपने वस में कर जैन अर्थात जिन या विजयी स्वयं को मानने वाले जन सम्प्रदाय एवं अन्य वैदिक सम्प्रदायों ने उत्पत्तिमूलक कोई मौलिक मतभेद नहीं था। __वे सभी वैष्णव ही मूलतः थे जिन्होंने जैन प्राचार्य का पद प्राप्त किया। इसके अतिरिक्त जैन धर्म को संरक्षण प्रदान करने वाले वहुत से वैष्णव राजवंशी एवं क्षत्रिय वीरों का उल्लेख हमें प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है।
इस देश की कई प्रमुख जातियां जो जैन धर्म को पहले से ही मानती आ रही हैं आज भी उनमें से अधिकांशतः वैष्णव धर्म का पालन करती हैं तथा इस तरह के सामान्य भेदस्तर को मान्यता न देते हुये उनमें परस्पर विवाह सम्बन्ध भी आज स्थापित होते दिखाई पड़ते हैं।
इसी क्रम में जैन प्राचार्यों, प्राचीन वैष्णव राजवंणों जन धर्म में दीक्षित होने वाले वैष्णव क्षत्रियों आदि की विवेचना से में इस बात को और भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि सांस्कृतिक
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एवं सामाजिक तथा अधिकांश अर्थों में धार्मिक स्तर पर मूलतः जैन और वैष्णव दोनों ही एक ही वृक्ष की शाख होने के कारण स्वरूप और आकार में भिन्न दीखने के उपरान्त भी मूलतः एक हैं और इन्हें तर्क की संकीर्ण एवं दुराग्रही नीतियों द्वारा अलग नहीं किया जा सकता।
कुछ विभूतियां ऐसी हैं जिनका भारतीय संस्कृति पर विशेष उपकार है। आज जिस किसी भी रूप में जैन-साहित्य अथवा जैन आगम परम्परा हमें प्राप्त है उसमें इन महान आत्माओं का योगदान रहा है। १. गौतम गणधर
इनका मूलनाम इन्द्रभूति था, गौतम इनका गोत्र था । आप मगध की राजधानी राजगृह के पास गोबर नाम के रहने वाले थे। २. गणधर सुधर्मा
ये कोललाक सन्निवेश के अग्नि वैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनका जन्म विक्रम से ५५१ वर्ष पूर्व हुआ था। ३. आर्य जम्बू स्वामी-- ___इनके पिता का नाम श्रेोष्ठि ऋषभदत्त और माता का नाम धारिणी था। राजगृह के निवासी थे। वीर निर्वाण के १६ वर्ष पूर्व इनका जन्म हुआ था। ४. आचार्य प्रभव स्वामी
५. ये विन्ध्याचल पर्वत के निकटवर्ती जयपुर नगर के विन्ध्य राजा के पुत्र थे। विन्ध्य राजा कात्यायन गोत्रीय क्षत्रिय थे। वीर संवत् ७५ में १०५ वर्ष की आयु पूर्ण करके आप स्वर्गवासी
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( १२० ) हुये। ५. प्रार्य शययंभवाचार्य---
आप राजगृही के निवासी वत्स गोत्रीय ब्राह्मण थे। ८५ वर्य की आयु पूर्ण कर वीर निर्वाण संवत १८ में आपका स्वर्गवास हुआ। ६. प्रार्य यशोभद्र---
आर्य यशोभद्र तुगियायन गोत्र के विद्वान ब्रह्मण थे । वोर संवत १४८ में आप स्वर्गवासी हुये। ७. श्रार्य सम्मति विजय---
आप जाति के माठर गोत्रीय ब्राह्मण थे । वीर संवत् १५६ में ६० वर्ष की आयु में आपका स्वर्गवास हुआ । ७. आचार्य भद्रवाहु स्वामी
ये प्राचीन गोत्रीय ब्राह्मण, थे प्रतिष्ठानपुर नगर में आपका जन्म हुआ था। और ७६ वर्ष की आयु में वीर संवत् १७० में आप स्वर्गवासी हुए। ६. आचार्य स्थूलिवभद्र---
ये नौवेवनन्द राजा के मंत्री शकडाल के पुत्र थे। श्राप गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे। आपका जन्म वीर सम्बत् ११६ में । हुया था तथा वीर संवत् २१५ में वैभारगिरि पर आपका स्वर्गवास हुना। १०. प्राचार्य महागिरि
प्राचार्य महागिरि अपने समय के बड़े ही प्रभावशाली महापुरुष थे। इनका जन्म वीर सम्बत् १४५ में हुया था, वीर संवत् २४५ में १०० वर्ष की आयु पूर्ण कर दशार्णपुर (मन्दसौर, मालवा) में श्रापका स्वर्गवास हुा ।
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( १२१ ) ११. प्राचार्य सुहस्ति
आर्य सुहस्ति भी प्राचार्य स्थूलिभद्र जी के शिष्य रत्न थे। इनका जन्म वीर सम्वत् १९१ में हुआ था और २६१ में १०० वर्ष की आयु पूर्ण करके आप उज्जैनी नगरी में स्वर्गवासी हुये। १२. आचार्य सुस्थित-- ___काकन्दी नगरी के व्याघ्रापत्य राजकुल में पाप उत्पन्न हुये थे तथा १६ वर्ष की सर्वायु पूर्ण करके वीर सम्बत् ३३६ में कुमारगिरी पर्वत पर स्वर्गवासी हुये। १३. प्राचार्य सुप्रतिबद्ध- .
ये प्राचार्य सुस्थित के सगे भाई थे। १४. आचार्य इन्द्रदिन्न-- ___ इनका शुद्ध संस्कृत नाम इन्द्रदत्त प्रतीत होता है । आप कौशिक गोत्रीय ब्राह्मण थे। वीर सम्वत् २८० में आपका जन्म तथा ३७६ में स्वर्गवास हुआ। १५. आचार्य दिन्न---
आप गोतम गोत्रीय थे। १६. प्राचार्य सिंहगिरि___ आप कौशिक गोत्रीय ब्राह्मण थे। १७. आचार्य वज्रस्वामी__इनकी माता का नाम सुनन्दा था और पिता धनगिरि थे। इनका जन्म वीर सम्वत् ४६६ (३१ ई० पू०) हुआ था एवं दक्षिण के रथावर्त पर्वत पर अनशन पूर्वक वीर सम्वत् ५८४ में आप स्वर्गवासी हुए। १८. प्राचार्य बज्रसेन
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( १२२ । । मालवा प्रदेश के दशपुर (मन्दसौर) नगर के रूद्रसोम पुरोहित के घर पापका जन्म वीर सम्वत् ४६२ में हुआ था, एवं वीर सम्वत् ६२० में १२६ वर्ष की आयु पूर्ण कर आप स्वर्गवासी हुए। १६. प्राचार्य रथस्वामी-~
पाप वशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण थे । आपका दूसरा नाम आर्यजयन्त भी आता है।
प्राचार्य रथस्वामी के बाद स्थाविरावली में केवल नाममात्र का परिचय आता है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार
प्राचार्य पुष्पगिर कौशिक गोत्र प्राचार्य फल्गुमित्र गौतम गोत्र आचार्य धनगिरि वशिष्ठ गोत्र प्राचार्य शिवभूति कुचछस गोत्र आचार्य भद्र
कश्यप गोत्र प्राचार्य नक्षत्र
कश्यप गोत्र प्राचार्य रक्ष
कश्यप गोत्र प्राचार्य नाग
गौतम गोत्र प्राचार्य जेहिल
वशिष्ठ गोत्र प्राचार्य विष्णु
माठर गोत्र प्राचार्य कालक गौतम गोत्र
ये तीसरे कालकाचार्य हैं, इनका समय वीर संवत ७२० माना जाता है। प्राचार्य सम्पालित तथा भद्र ये दोनों ही महापुरुष प्राचार्य कालक के शिष्य थे।
इसके पश्चात् के प्राचार्यों का भी केवल उल्लेख किया
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( १९३ ) गया है। आचार्य वृद्ध
गौतम गोत्र ,, संघपालित ,, श्री हस्ती
कश्यप , , धर्म
साक्य , " सिंह
कश्यप , , धर्म . इनके वाद के आचार्यों के विषय में जानकारी हेतु जैन इतिहास देखना उचित होगा। उपरोक्त शाक्षी के लिए यदि आप चाहें तो 'हमारा इतिहास' मूल लेखिका महासती श्री चन्दन कुमारी जी मा० की पुस्तक का अवलोकन कर सकते
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जैन वीर जो पहले वैष्णव थे
युद्ध भूमि में अपने पौरुप एवं पराक्रम को प्रमाणित करने वाले को वीर कहा जाता है । इस क्षेत्र में भी जैनों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है । वीरता किमी जाति विशेष की सम्पत्ति नहीं है । जैन धर्म में दया प्रधान होते हुए भी वे लोग अन्य जातियों से पीछे नहीं रहे हैं । भारतवर्ष की प्रायः सभी रियासतों में कामदार [मंत्री], भण्डारी [ भण्डार पर ], खजांची प्रादि उच्च पदों पर बहुवा जैन ही रहे, जिन्होंने देश की आपत्ति के समय महान सेवायें की हैं । उन्हीं में से भामाशाह, श्राशाशाह, वस्तुपाल, तेजपाल र विमलशाह का नाम बड़ी श्रद्धा के साथ लिया जाता है । इसके अतिरिक्त
१. भारतीय इतिहास के सुप्रसिद्ध म्राट विम्वसार श्रेणिक जैन धर्म का आधार स्तम्भ था ।
२. उनके पुत्र प्रजातशत्र कुणिक जन धर्म के संरक्षक प्रतापी नरेश थे ।
३. सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य, जिनका जन्म क्षत्रिय कुल में हुया था, मूलत: जैन धर्म के ही संरक्षकों में से एक हैं ।
४. राजावलिक थे, नामक कन्नड् ग्रन्थ अशोक सम्राट को भी जन बतलाता है । महाकवि कल्हण ने अपने संस्कृत ग्रन्थ 'राजतरंगिणी' में अशोक द्वारा कश्मीर में जैन धर्म के प्रचार करने का उल्लेख किया है ।
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( १२५ ) ५. अशोक के उत्तराधिकारी सम्प्रति के बारे में विश्ववाणी मासिक पत्रिका ने १६४१ में यह प्रकाशित किया था कि सम्राट संप्रति ने अरब स्थान और फारस में जैन संस्कृति के केन्द्र स्थापित किये थे।
६. महाप्रतानी एवं सम्राट महामेघ वाहन खारवेल महाराज जैन थे।
७. दक्षिण भारत के इतिहास पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि प्रतापी नरेश तथा गंगराज्य के संथापक महाराज को गुणीवर्मन ने आचार्य सिंहनंदि के उपदेश से शिवमग्गा के समीप एक जिन मन्दिर बनवाया था।
८. महाराज कोगुणी के वंशज अविनीत नरेश ने अपने मस्तक पर जिनेन्द्र भगवान की मूर्ति विराजमान कर कावेरी नदी को वाढ़ की अवस्था मे पार किया था । . ६. महाराज नीतिमार्ग और बूतग जिन धर्म परायण राजा
थे।
१०. महाराज मारसिंह गंगवंश के शिरोमणि पराक्रमी, निर्भीक, धार्मिक जैन नरेश थे।
११. पांचवी सदी में कदंव नरेश वर्मा और उनके पुत्र रवि वर्मा अपने पराक्रम और जैन धर्म के लिये प्रख्यात थे।
१२. राष्ट्रकूट वंश में जैन धर्म की विशेष मानता थी । सम्राट अमोघ वर्ष जिनेन्द्र भक्त, विद्वान, पराक्रमी, पुण्यचरित्र तथा व्यवस्थापक नरेश थे । इसी वंश में बंकेय, श्री विजय, नरसिंह आदि अनेक पराक्रमी जैन प्रतापी पुरुष हुए हैं ।
१३. धारवाड़, वेलगांव जिलों में शासन करने वाले महामंडलेश्वर नरेशों में महान योद्धा नरेश पृथ्वीराज, शान्तिवर्मा, कलासैन, कन्नेकर, कीर्तिवीर्य, लक्ष्मीदेव, मल्लिकार्जुन आदि जैन शासन के प्रति विशेष अनुरक्त थे ।
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( १२६ ) १४. दशवीं, तेहरवीं सदी तक कोल्हापुर, वेलगांव में अपने पराक्रम द्वारा शान्ति का राज्य स्थापित करने वाले शीलहार नरेश जैन थे।
१५. जैन सेनापति वोप्पण को एक शिलालेख में बड़ा प्रतापी बताया है। पांचवी से बारहवीं शताब्दी तक बम्बई प्रान्त मैसूर एवं दक्षिण भारत में चालुक्य वंशीय जैन नरेशों का शासन था।
१६. कलचुरि नरेशों में महामंडलेश्वर विज्जल अपने पराक्रम और जिनेन्द्र भक्ति के लिए विख्यात थे।
१७. महाराज विनयादित्य के जिन भक्त पुत्र एरयंग महान योद्धा थे, उन्होंने श्रमणवेल गोला के जिन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया था।
१८. ईसवी सन् १९६० के शिलालेख में चामुन्डराय का उल्लेख पाया है। इनके दिपय में कहा जाता है कि इन से बढ़ कर वीर सैनिक, जैन धर्म भक्त, सत्यनिष्ठ व्यक्ति कर्नाटक में कोई और नहीं था।
१६. जिन धर्म भक्त सेनापति हल्ल और अमात्य गंग का नाम भी उल्लेखनीय है।
२०. दक्षिण भारत की जैन वीरांगनामों में जवकेयावी, जवकलदेवी, सावियवी, भैरवीदेवी आदि विशेप विख्यात है।
२१. श्री विश्वेश्वरनाथरेऊ कृत 'भारत के प्राचीन राजवंश' [पृष्ठ २२७-२२८] और रायबहादुर महामहोपाद्याय पंडित गौरीशंकर, हीरानन्द अोझ के 'राजपूताना का इतिहास' [पृ० ३६३] के अनुसार वीर भूमि राजपूताना. में शासन करने वाले चाहान, शोलंकी, गहलोत यादि जैन धर्मावलम्बी वीर पुरुप थे । अजमेर के नरेश पृथ्वीराज प्रथम ने जैन मुनि अमयदेव के प्रति अपनी भक्ति प्रदशित की थी।
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( १२७ ) २२. पृथ्वीराज द्वितीय जैन धर्म के संरक्षक थे एवं उनके चाचा महाराज सोमेश्वर जैन धर्म के प्रेमी थे। - २३. शोलंकी नरेश अश्वराज तथा उनके पुत्र अल्हणदेव जिन भक्त थे।
२४. परिहार वंशी काक्कुक नरेश कीर्तिशाली तथा जैन धर्मावलम्बी थे।
२५. महाराज भोज के सेनापति कुलचन्द्र जैन थे।
२६. प्रतापी नरेश सिद्धराज, जयसिंह के मन्त्री मुज्जल और शांतु जैन थे।
२७. महाराज कुमारपाल अनेक युद्ध विजेता तथा जिन धर्म भक्त थे।
२८. राठौर नरेश सिद्धराज जैन थे। २६. मारवाड़ के नरेश विजयसिंह के सेनापति र्मराज जैन
थे।
३०. स्मिथ और कनिंगहम ने जिन वीर सुहलदेव को भी जैन माना है।
३१. खारवेल के शिलालेख से पता चलता है कि मगध का राजा नन्द कलिंग को जीत कर अग्रजिन की मूर्ति ले गया था । अतः राजानन्द जैन धर्म का अनुयायी होना चाहिये और यह नंद मौर्यों का पूर्वज था।'
३२. श्री पी० बी० देसाई ने लिखा है कि मार्कण्डेय पुराण के तेलगू अनुवाद के अनुसार आन्ध्र देश के चार क्षत्रियवंश नन्दवंश से निकले थे और नन्द कलिंग पर राज्य करता था । तथा जैन धर्म का अनुयायी था।
३३. गंग राज्य वंश बहुत प्राचीन है, उसका सम्बन्ध इक्ष्वाकुं
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१-दक्षिण भारत में जैन धर्म-पृष्ठ ६२
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वंश से बतलाया जाता है। लुईराईस ने उसे दक्षिण का प्रमुख जैन राजवंश कहा है।
३४. श्री रामस्वामी आयंगर ने लिखा है कि मुष्कर या मुखर : के राज्यकाल में जैन धर्म राज्य धर्म हो गया था। उसके पूर्वजों में से केवल तीसरे और चौथे राजा को छोड़ कर शेष निश्चय ही जैन धर्म के अनुयायी थे। उसका उत्तराधिकारी अविनीत जैन था और अविनीत का उत्तराधिकारी दुविनीत प्रसिद्ध जीन वैयाकरण पूज्यपाद का शिष्य था।
३५. राजा शिवभार द्वितीय संगोट का छोटा भाई दुग्गभार इरेयप्प भी जन था।
३६. मारसिंह ने जिनेन्द्रदेव के सिद्धान्तों को सुनियोचित किया और अनेक स्थानों पर वसदियों और मानस्तम्भों का निर्माण कराया।
३७. खारवैल जैन धर्मावलम्बी था, परन्तु चैदिक विधाना'नुसार उसका महाराज्याभिषेक हुआ और उसने राजसूय-यज्ञ भी किया । ब्राह्मणों की जातीय संस्थानों को उसने भूमि प्रदान की। इससे यह भली-भांति स्पष्ट है कि जैन धर्मानुयायी होते हुए प्राचीन राष्ट्रीय नियमों का पालन करने के लिए उसे पूर्ण स्वतन्त्रता थी।
३८. अग्निकुल में उत्पन्न परमार परिहार, चालुक्य, सौलंकी और चाहान राजपूत भी जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे। ३६. मैसूर के कादम्बवंशी राजा अधिकतर जैनी थे।
४०. सन् १९२२-२३ की एप्रिग्राफी रिपोर्ट में वर्णित है कि फांची के कुछ पल्लव राजा, कुछ पाण्डराजा, पश्चिमी वालक्य राजा, गंगवंशीय तथा राष्ट्रकूट वंशीय राजा पक्के जैनी थे। २-दक्षिण भारत में जैन धर्म-पृ० ७६ ३--जेन वीरों का इतिहास और हमारा पतन-पृ०७६
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( .१२६ ) पश्चिमी चालुक्य राजा प्रथम पुलकैशी, विजयादित्य व विक्रमादित्य बहुत प्रसिद्ध जैन राजा थे ।
४१.. कलचूरी वंश.का वज्जाल राजा तथा महेन्द्रवर्मन भी जैन माने गये हैं। . ४२.. जयसिंह के पुत्र - मूलराज ने गुजरात में अणहिल पाटन को अपनी राजधानी बनाया, यह जैन धर्म का अनुयायी था ।
४३. महाराज कुमारपाल ने जैन धर्म का बड़ी उत्कृष्टता से पालन किया और सारे गुजरात को एक आदर्श जैन-राज्य बनाया । .
४४. राठौर राजा अमोघ वर्ष मान्यखेट के राष्ट्रकूट (राठौर) राजा गोविन्द का तृतीय पुत्र था। इसी के . द्वारा लिखाया गया एक ताम्रपत्र मिला है, जिसमें जैन देवेन्द्र को दिये गये दान का उल्लेख है।
४५. इसके अतिरिक्त राजपूताने के राठौर वंशीय हरि वर्मा, विदग्ध राज, मम्मट धवल आदि भी मूलतः जैन अनुयायी हुए थे।
४६. जोधपुर के राजवंश में आयस्थानजी, घूहड़जी, रायपालजी, मोहनजी, भीमराजजी, रामचन्द्रजी आदि जैन धर्म के ही अनुयायी थे।
मौर्य वंश का सम्प्रति राजा बहुत प्रसिद्ध हुआ है। वह सम्भवतः कुणाल का सबसे छोटा पुत्र था । वह जैन धर्म का अनुयायी था । आर्य सुहस्ती ने उसे जैन धर्म में दीक्षित किया था । वह शत्रुन्जय तीर्थ का एक प्रधान उद्धारकर्ता था। वह त्रिखण्ड भारताधिप तथा अनार्य देशों में भी भ्रमण विहारों का प्रवर्तक महाराज था । उसके आदेश से जैन साधु अनार्य देशों में गये । इन सब से स्पष्ट है कि मौर्यकाल में संस्कृति का स्तर पर्याप्त अच्छा था ।' १-भगवत्दत्त : भारतीय संस्कृति का इतिहास-पृ० ८७
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( १३० ) उपरोक्त ऐतिहासिक विवेचन से स्पष्टतः यह कहा जा सकता। है कि भारतीय क्षत्रिय राजाओं ने सम्भवतः हिमा और कर्मकाण्डों के प्रति अपनी उदासीनता के कारण ही जैन धर्म में दीक्षा ली थी और वे सिर्फ इस दीक्षा के कारण ही अपने आप को हिन्दू या आर्य या वैष्णव संस्कृति से बिल्कुल भिन्न और अलग मानने लग गये हों, कम से कम यह विश्वसनीय नहीं लगता।
प्रमाण के लिये इसी सन्दर्भ में अन्य क्षत्रिय राजाओं और उनके समकालीन सांस्कृतिक चेतना के बदलते मूल्यों के अन्तर्गत जैन धर्म के प्रति उनकी आस्था की बात भी कही जा सकती है।
क्षत्रिय वर्ण पहले विशेष रूप से जैन धर्मानुयायी ही था। ने क्षत्रिय वीर इसी धर्म को जगत अथवा अपनी प्रात्मा का कल्याणकारी धर्म समझते थे । हजारों राजा ऐसे हो चुके हैं जो जैन थे या जैन धर्म में दीक्षित हुए थे। जैन धर्म के प्रवर्तक चौबीसों ही तीर्थकर क्षत्रिय थे।" मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तः-अलेकजेण्डर (सिकन्दर) के उद्दण्ड भुजदण्ड से विलोडित भारतवर्प का उद्धार मौर्य चन्द्रगुप्त ने ही किया था
और आज तक इतिहास पुरातत्ववेत्ताओं ने जितने भी सर्व प्राचीन शिलालेख एकत्रित किए हैं उन सबमें प्राचीनतम मिलालेख चन्द्रगुप्त के ही मिले है । जैन ग्रन्थों में मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त के जैन धर्मावलम्बी होने व भद्रवाह स्वामी से जिन दीक्षा लेकर उनके साथ दक्षिण को प्रस्थान करने का विवरण है।
मौर्य सम्राट सम्प्रति:-चन्द्रगुप्त के पात्र अशोक के पीछे सम्प्रति गद्दी पर बैठे । य जैन कहे गए हैं और इनके बनाये हुए जैन मन्दिर अनेकानेक मौर्यतर स्थानों में भी कहे जाते है । जैन १-जैन वीरों का इतिहास और हमारा पतन, लेखक अयोध्या प्रसाद गायलीय 'दास
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लेखों के अनुसार सम्प्रति ऐसे विभवशाली थे मानो जैन धर्म के लिए दूसरे अशोक ही थे । भारतवर्ष का शासन १३७ वर्ष तक मौर्यवंश के हाथ में रहा, जिसमें चन्द्रगुप्त, सम्प्रति और वृहद्रथ ये तीन प्रसिद्ध जैन धर्मी राजा हुए।
महामेघवाहन राजा खारवेल:-जैन कुलोत्पन्न 'खारवेल' का परिचय पुराणरत्न पं० गंगाधर सामन्त शर्मा की 'प्राचीन कलिंग' नाम की पुस्तक में लिखा है-कलिग के जैन राजे 'ऐर्य' कहलाते थे । महामेघवाहन इनकी उपाधि होती थी। कलिंग का 'ऐर' वंश के चैत्र राजा द्वारा उद्धार हुआ इसलिए तव से कलिंग देश के ऐर चैत्र वंशीय कहलाने लगे। इस वंश में ६ राजा हो गये
अग्निकुल के पराक्रमी राजा-परमार, चौलुक द सोलंकी और चौहान अग्निकुल के राजपूत समझे जाते हैं । जैन धर्म के तेईसवें तीर्थकर धर्मवीर पार्श्वनाथ के समय में परमार वंशी राजा उत्पल (उपलदे) ने ओसिया पट्टन नगर (जोधपुर के पास) वसाया था, जैनाचार्य के उपदेश से जौनधर्मी हुया, इसके साथ
ही ३६ कुल के (सवा लाख) राजपूतों ने जैन धर्म स्वीकार किया, - सोसिया नगर में जैन धर्म में दीक्षित हुए, इसलिए ये सब राजपूत प्रोसवाल कहलाये, इसी जाति में भामाशाह, आशाशाह, वस्तुपाल और तेजपाल जैसे वीर-चूड़ामणि नररत्न पैदा हुए हैं । ___चालुक्य (सौलकी) जैन राजा.-चालुक्य नरेशों की उत्पत्ति राजपूताने के सोलंकी राजपूतों से कही जाती है । दक्षिण में इस राजवंश की नींव जमाने वाला एक पुलकेशी नाम का सामन्त था। इसके उत्तराधिकारी-कीर्तिवर्मा, मंगलीश, पुलकेशी (द्वितीय) हुए थे, सब जैन धर्म के अनुयायी थे।
महाराजा कुमारपाल जैन:-आपकी राजधानी अनहिलपुरपाटन नगर में थी। हेमचन्द्राचार्य ने महावीर चरित्र में आपकी
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( १३२ ) आज्ञा का पालन उत्तर दिशा में तुर्कस्थान, पूर्व में गंगा नदी, दक्षिण में विन्ध्याचल और पश्चिम में समुद्र पर्यन्त के देशों में होना लिखा है। यज्ञों में पशु बलि देना बन्द किया । तभी से अन्न का हवन होना शुरू हुआ । लाखों रुपये व्यय करके जैन शास्त्रों का आपने उद्धार कराया और अनेक पुस्तक भण्डार स्थापन किए । हजारों जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया तथा नए वनवाए । आपने जैन धर्म के प्रभाव को बहुत बढ़ाया ।
चौहान वंशीय जैन योद्धा:--राव लक्ष्मण (लखमसी) जिन्होंने नाडोल में स्वतन्त्र राज्य कायम किया था। इस. कुल के अन्तिम राजा अल्हणदेव थे। लाखा ने नाडोल का किला बनवाया था। उसके चोवीस पुत्र थे । उनमें से एक का नाम 'दादराव' था, वही भण्डारी कुल का जन्मदाता था। विक्रम संवत् ११४६ अथवा ई० सन् १९२ में यशोभद्रसूर्यने दादराव को जैन धर्म ग्रहण कराया था और उसके कुल को श्रीसवाल जाति में मिलाया था।
गंगवंशीय जैन राजा:-इक्ष्वाकुया सूर्यवंश में 'धनंजय' थे, उनकी स्त्री गन्धारदेवी थी। इनके पुत्र राजा हरिश्चन्द्र अयोध्या में हुए, इनकी रानी रोहणीदेवी थी तथा इनके पुत्र का नाम “भरत था। भरत की पत्नी विजयमहादेवी ने गर्भावस्था में गंगा नंदी में स्नान किया था और उसी समय उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । अतः उस पुत्र का नाम गंगादत्त रखा गया और उसके वंशज गंगवंशीय कहलाये । इसी वंश में राजा प्रियवन्धुवर्मा हुए। फिर राजा फम्प हुए । इनके पुत्र राजा पद्मनाथ थे। इन के राम और लक्ष्मण दो पुत्र हुए। पद्मनाथ अपने दोनों पुत्रों व एक छोटी पत्री के साथ दक्षिण को प्रस्थान कर गये । दक्षिण में
पंचूर स्थान (जिला कुड़ाया अब भी इसको गंकपरुर कहते हैं) , पर जब ये पहुंचे तब वहां कणुरगण के प्राचार्य सिंहनन्दि
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( १३३ ) (दिगम्बर जैन मुनि) से भेंट हुई । उनका आर्शीवाद पाकर (श्री जिनेन्द्र अपना देव) श्री जैनधर्म अपना धर्म स्थिर कर उन्होंने राज्य व्यवस्था प्रारम्भ की।
समरकेसरी सेनापति चामुण्डरायः-इनका जन्म ब्रह्म-क्षत्रिय कुल में हुआ था । यह बड़े शूरवीर और पराक्रमी थे। जैसे यह वीर थे, वैसे ही विद्वान एवं साहित्य के प्रेमी थे। इन्होंने स्वयं कई ग्रन्थ लिखे हैं । अन्त में सांसारिक सम्बन्ध त्याग कर अपना जीवन सफल किया। इन्होंने श्रवणवेल गोल में भद्रवाह स्वामी की विशाल मूर्ति स्थापित की थी।
सेनापति गंगराज जैन:-होयसलवंशीय महाराज विष्णुवर्द्धन के राज्य में जैन-धर्मी गंगराज ने सेनापति का कार्य किया । महासामन्ताधिपति, महाप्रचण्ड दण्डनायक, जिन धर्म रत्न, यह गंगराज को उपाधियां मिलीं।
कलचूरिवंशीय जैन राजा:-मध्य प्रान्त का सबसे बड़ा राजवंश कलचूरिवंश था । यह वंश प्रारम्भ से जैन धर्म का पोषक था, पांचवीं, छठवीं शताब्दी के अनेक पाण्ड्य और पख्लव शिला लेखों में उल्लेख है कि कलभ्र लोगों ने देश पर चढ़ाई की और चौल और पाण्ड्य राजारों को पराजय कर अपना राज्य स्थापित किया था। प्रोफेसर रामस्वामी अम्यंगर ने बेल्विकुडि के ताम्रपत्र तथा तमिल भाषा के 'पेरियपुराणम्' के आधार पर ये प्रमाणित किया है कि ये कलनवंशीय प्रतापी राजा जैन धर्म के पक्के अनुयायी थे।
" राठौर राजा अमोघवर्ष जैन:-यह अमोघवर्प, मान्यखेट के राष्ट्रकूट (राठौड़), राजा गोविन्द का तृतीय पुत्र था । जैन देवेन्द्र ___ को दिये गये दान का उल्लेख. शक संवत् ७८२ (वि० स० ६२७;
में स्वयं ने ताम्रपत्र पर किया है, यह दान .
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( १३४ ) मोघवर्ष ने अपनी राजधानी मान्यखेट में दिया था।
गुणभद्रसूरि कृत उत्तर पुराण में लिखा है कि अमोघवर्ष श्री जिनसेनाचार्य को जगत के मंगल रूप में मानता था तथा उनको प्रणाम कर अपने को पवित्र समझता था । यह राजा दिगम्बर जैन मत का अनुयायी था और जिनसैन का शिष्य था । . __ राजपूताने के जैन राठौड़ राजे:-वि० सं० १०५३ (ई० स० ६६७) का एक लेख बीजापुर से मिला है, यह स्थान जोधपुर राज्य के गोड़वाड़ परगने मे है । इसमें ह्यूडी के राठौड़ों की वंशावली इस प्रकार है-हरिवर्मा, विदग्धराज, मम्मट, धवल इसी धवल ने अपने दादा विदग्धराज के बनाये हुए जैन मन्दिर का जीर्णोद्धार कर ऋपभनाथ (जैन धर्म के प्रथम तीर्थन्कर) की मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी।
जोधपुर के राजवंश में जैन धर्म:-रायबहादुर महता विजय सिंह जी दीवान रियासत जोधपुर के जीवन चरित्र में लिखा है कि राठौड़ राव सीहोजी के पुत्र प्रायस्थान जी ने परगने मालानी के गांव खेड़ में सं० १२३७ में अपना राज्य स्थापित किया, उन के पुत्र घुहड़जी राज्य के उत्तराधिकारी हुए । इनके पुत्र रायपाल जी सं० १२८५ में सिंहासनारूढ़ हुए।
राजपाल जी के चौथे पुत्र मोहन जी थे। इनके पुत्र भीमराज जी थे, उनके वंश के भीमावत राठौड़ कहलाते हैं । बाद में मोहन जो ने जैन धर्म के उपदेशक शिवसन शीश्वसर के उपदेश से जैन मत का अवलम्बन कर दूसरा विवाह प्रोसवाल जाति के श्री माल जीवणोतकाजू जी की कन्या से किया, जिससे संप्रति मैन जी उत्पन्न हुए । इनके वंश के मोहणोत श्रोसवाल कहलाते है । मोहन जी की २०वीं पीढ़ी में उत्पन्न रामचन्द्र जी ने एक जैन मन्दिर श्री चितामणि पार्श्वनाथ. जी का सं० १७०२ में
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( १३५ ) बनवा कर प्रतिष्ठा की। यह मन्दिर कृष्णगढ़ में आज भी विद्यमान है।
इन्हीं के वंशज जयमल जी फलौदी में हाकिम थे । सं०१६८१ में जालौर शतरूजा, सांचौर, मेड़ता और सिवाना में इन्होंने जैन मन्दिर बनवाये ।
वच्छवतों की जैन धर्म के प्रति आस्था:-बीकानेर में रागड़ी । के चौक में एक जैन उपासरा है जो पहले कभी वच्छावत कुल का राजमहल था ।
वच्छराज जिसके नाम से यह वंश वच्छावत कहलाया, यह मारवाड़ के बोथरों की उत्तम जाति में से था जिनकी रगों में जालौर के भूपनि वीर चौहान कुवर सामंत सिंह का वीर रक्त . बहता था । वच्छराज बड़ा ही प्रेमी और धर्मात्मा, वीरपरुप था,
उसने जैन धर्म की प्रभावना के लिए बहुत कुछ उद्योग किये। ... शत्रुजय की यात्रा भी की। .
___ इन्हीं के वंश में वरसिंह और नागराज, ये दो बड़े प्रसिद्ध वीर थे। उन्होंने जैन साधुओं को गद्दी पर बैठाने के उत्सव 'किए, संघ चलाये और अनेक जैन मन्दिर वनवाये ।
वस्तुपाल, तेजपाल:-ये दोनों सगे भाई थे, जाति के पोरवाड़ थे, लेकिन जैन धर्म के पालने वाले थे । जैन मन्त्रियों और सेनापतियों में वस्तपाल और तेजपाल का नाम सर्वोपरि है । जैन धर्म की प्रभावना के जो कार्य इन्होंने किए हैं, उनमें संसार में इनका नाम अमर हो गया है।
इसी प्रकार जैन और वैष्णव की एकता के प्रति सत्त प्रयत्न करने वाले राजारों में सम्राट -बुक्क. का नाम भी लिया जा सकता है। . ..
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. . सम्राट बुक्क तोराजपि थे । राज पद पर पाते ही उन्होंने
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( १३६ ) सम्पूर्ण वेदविद्या का संग्रह एवं संशोधन करने का निश्चय कर विद्यारण्य के नेतृत्व में एक पीठ की स्थापना की। देश के समस्त विद्वान पण्डितों को उस पीठ में एकत्र कर उन्हें वेद ग्रन्थों पर नये भाष्य लिखने का आदेश दिया। दूसरा भी महत्वपूर्ण कार्य उन्होंने किया । शैव-वैष्णव, जैन, इन पन्थों का श्रापसी वैमनस्य समाप्त कर हिन्दू धर्म की विघटनकारी वृत्तियों को रोक दिया । प्राचीन काल में ये पत्थ भेद किस सीमा तक पहुंच गए थे तथा जिन पुराणों ने समस्त देवतायों में ऐक्य स्थापित किया था उन्होंने ही बाद में भेदों की धूम कैसी मचा दी थी। हिन्दू-धर्म का ऐक्य इन्हीं भेदों के कारण नष्ट हुआ था । परन्तु इन सभी दुष्प्रवृत्तियों को रोक कर सम्राट वुक्क ने घोषणा की कि जैन दर्शन एवं वैष्णव दर्शन में कोई भेद नहीं है । वैष्णव के हाथों जैनियों का यदि कुछ लाभ हानि होता है तो वह अपना ही हानि लाभ है । ऐसा वैष्णव समझें थोर जैन भी इस बात का विश्वास रखें कि उनकी रक्षा करने का व्रत वैष्णव यावक्चन्द्र दिवा करो निभाते रहेंगे । ( ऐपिग्राफि का कर्नाटिका, १३६ शिलालेख, १३६८ ई० ) । '
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१ - हिन्दू समाज : संघटन और विघटन - दा० सहस्त्रबुद्धे - पृष्ठ १३१
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जैन व वैष्णव भूतियों की एक
मन्दिर में स्थापना
शिल्प की दृष्टि से भी प्राचीन मन्दिरों में कई वैदिक देवताओं की मतियां एवं उनके विभिन्न प्रतीकात्मक चेष्टाओं से सम्बद्ध चित्र हमें जैन मन्दिरों में प्राप्त होते हैं, जैसे कृष्ण को ही लें।
जैन शिल्प में कृष्ण-अंकन की बहुलता कृष्ण के जैन धर्म में लोकप्रिय होना प्रमाणित करती है। कृष्ण-जीवन से सम्बन्धित विभिन्न घटनाओं के स्वतन्त्र या नेमिनाथ से सम्बद्ध कई शिल्पगत अंकन आज के मध्ययुगीन जैन मन्दिरों में देखे जा सकते हैं।
.११वीं सदी के प्रारम्भ में निर्मित विमलवसही मन्दिर के गर्भगृह नं० १० की छत पर उत्कीर्ण वृत्ताकार घेरे के मध्य जल से भरे तालाब में क्रीड़ा करते कृष्ण उनकी रानियों और नेमिमाथ को 'चित्रित किया गया है। दूसरे घेरे में नेमि को कृष्ण के श्रायुद्धशाला में शंख बजाते हुए उत्कीर्ण किए जाने के साथ ही दोनों के मध्य हुए शक्ति परीक्षण को भी चित्रित किया गया है। तीसरे घेरे में राजा उग्रसैन राजकुमारी राज्यमती और विवाह पंडाल प्रदर्शित है। साथ ही नेमि का विवाह के लिए प्रस्थान, १-मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी : जैन साहित्य और शिल्प में
कृष्ण : कादम्बिनी-अक्टूबर १६७२, पृ० ८२,
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( १३८ ) पशुओं के प्रति उनका द्रवित होना, दीक्षा लेना और केवल्य प्राप्ति आदि दृश्यों को अंकित किया गया है। इसी प्रकार का एक अन्य चित्रण गुणवसही मन्दिर में भी देखा जा सकता है ।
विमलवसही मन्दिर के देवकुलिका : सैल : नं० २६ की छत पर कृष्ण द्वारा कालिया-दमन का दृश्य उत्कीर्ण है । सम्पूर्ण चित्रण तीन भागों में विभक्त है। ऊपरी भाग के अतिरित्त निचले भाग में कृष्ण को शेपनाग की शय्या पर लक्ष्मी के साथ विश्राम करते व्यक्त किया है । इस पावार पर डा० यू० पी० शाह की धारणा है कि ये समस्त अंकन हिन्दू कथानक का अनुसरण करते हैं ।
१३वीं सदी के प्रारम्भ में निर्मित आज के लूणवसही मंदिर में रंगमण्डप के बायीं ओर कृष्ण जन्म की कथा, मध्य में कृष्ण की माता देवकी खाट पर लेटी हैं । देवकी के पार्श्व में एक सहायक स्त्री आकृति वैठी है और दूसरी पंखा झल रही है । उस स्थान . से बाहर निकलने के सभी मार्ग बन्द हैं। कृष्ण का जन्म कारावास में हुया था, इसलिए समस्त द्वारों को बन्द दिखाया गया है। इसी अंकन के समीप कृष्ण और गोकूल का दृश्य है । एक फलक पर कृष्ण पालने में भूलते दिखाये गए हैं । इसी प्रकार मले में लेटे कृष्ण द्वारा सले से कूद आने का भाव प्रदर्शन किया । गया है। गर्भ नं० ११ की छत पर उत्कीर्ण एक विशाल चित्रण म नामनाथ के संसार-त्याग का दृश्य सात भागों में विभक्त है, जिसमें कृष्ण से सम्बन्धित दृश्यों में कृष्ण-जरासंघ युद्ध और रानियों के साथ कृष्ण और नेमिनाथ का जल-क्रीड़ा करते हुए अंकन प्रमुख है।
इसी प्रकार किला राय पिथोरा गढ़ को ध्यानपूर्वक देखने पर हमें पान उसके जो भी अवगैप बारहवीं शती में कुतुबुद्दीन
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( १३६ ) ऐवक द्वारा किले के प्रांगण में स्थित इस विशाल मन्दिर को ध्वस्त कर उसके ऊपर 'दवातुल इस्लाम' नामक मस्जिद के निर्माण के उपरान्त भी आज उपलब्ध हैं, उसके आधार पर भी हिन्दू : वैदिक और जैन की परम्परा समन्विति प्रमाणित होती है ।
इस प्राचीन मन्दिर के दो खण्ड थे, पहला गर्भ गृह, जहां पूजन हुआ करता था, दूसरा वह पांगण जहां लोग एकत्र होते थे, इसे जगमोहन कहा जाता था । यद्यपि गर्भगृह की मूर्तियां तत्कालीन मुगल शासकों द्वारा तलवार से खण्डित कर दी गई हैं तथापि मस्जिद के पीछे आज भी यह गर्भगृह सुरक्षित है। और इसकी छत के चारों चोर बीस फिट ऊंची सुन्दर मूर्तियां बनी हुई हैं तथा इसकी सबसे ऊंची प्रस्तर पट्टी पर जैन तीर्थकर के जीवन से सम्बन्धित दृश्य अंकित हैं ।
जगमोहन के चारों कोनों पर जिनमें अब केवल तीन ही शेप हैं, दो मंजिले कमरे हैं, जिनमें जैन तीर्थकरों के जीवन से संम्बन्धित दृश्य अंकित हैं । मस्जिद की बाहरी दीवारों में भी कुछ प्रस्तर प्रतिमाय पूर्णरूपेण सुरक्षित हैं । मस्जिद की दक्षिणी दीवार पर वाहर की ओर गणेश की एक प्रतिमा है । कुछ मूर्तियां खजुराहो और भुवनेश्वर शैली की भी हैं ।
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उपरोक्त प्रमाण के ग्रावार पर एक ही मन्दिर में जैन तीर्थ
करों और गणेश की मूर्ति की प्राचीनता इस वात की साक्षी है
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कि मूलतः श्राज जो सतही विभिन्नता जैन और सनातनी हिन्दू
: रूढ़िगत अर्थों में धर्मो में मूलतः बड़ा गहरा सामंजस्य है और ये दोनों एक ही हैं । यदि उपरोक्त मन्दिर को जैनियों द्वारा
१- डा० सुरेन्द्र सहाय : पुरातत्व सम्बन्धी लेख, दिनमान, ३ जनवरी १९७१ पृष्ठ: ३२
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( १४०. ) निर्मित प्रमुखतः जैन मंदिर ही आज के प्रचार अर्थो में हम मान लें, तो गणेश की मूर्ति के प्रति यह अटूट श्रद्धा हमारी प्राचीनतम एकत्व की साक्षी होगी।
और फिर आज की ही धार्मिक व्यवस्था को लें, तो क्या गणेश निर्विवाद रूप से जैन और सनातनी अन्य धर्मावलम्बियों के समान पूज्य नहीं हैं । किसी भी परम्परा का व्यवहारिक निर्वाह ही उसकी जीवन्तता का साक्षी होता है । जैनियों में विनायक जी के नाम से मंगलकायों में सर्वप्रथम पूजे जाने वाले ग्रादिदेव गणेश जी को क्या समान रूप से ऋद्धि-सिद्धि देने वाले देवता का प्रतीक नहीं माना जाता।
लोक रूढ़ियों की प्राड़ में इस तरह प्राचीन धर्म और उस की समन्वित सांस्कृतिक चेतना को विभाजित कर देखने वालों. को शायद वह हमेशा ध्यान में रखना चाहिये कि रूढ़ियां सिर्फ परिवेशगत तथा परिस्थितियों के आधार पर ही प्रभावशील और परिवर्तित नहीं होतीं, उनके पीछे व्यक्ति की श्रद्धा और भावना की समन्वित पृष्ठ भूमि हुआ करती है ।
पुरलिए से १३ मील की दूरी पर पौतमा एक गांव है, वहां जैन मूर्तियों को ब्रह्म और विष्णु मूर्ति मान कर पूजा जाता है । वहीं शिव मन्दिर में सामने की दीवाल में विशाल बालों में खड़ी हुई दो मनोन मूर्तियां हैं, जिनके चारों ओर २४ तीर्थकरों की स्पष्ट खड़गासन मूर्तियां हैं, यक्षयक्षिणी हैं और चरणों में बैल व गेंडा का चिन्ह बना है।
दुर्गा मन्दिर में जिस मूर्ति को भगवान विष्णु के नाम से पूजा जाता है । वह मूर्ति भगवान आदिनाथ की है, जिसके चारों
और चोवीस तीर्थकरों की मूर्तियां हैं । चरणों में बैलों का स्पष्ट चिन्ह उभरा हुआ है।
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( १४१ ) पुरलिया से ५ मील दूर छर्रा ग्राम में शिव मन्दिर के मुख्य द्वार पर भगवान चन्द्र प्रभु की मूर्ति खड़गासन है, यक्ष-यक्षिणी सहित है । इसे लोग चन्द्र देवता के नाम से पूजते हैं। .
शिव मन्दिर में शिवलिंग के सामने वाली दीवाल में एक बड़े पाले में भगवान आदिनाथ की पदमासन मूर्तिधरणेन्द्र पद्मावती सहित विराजमान है । नीचे भगवान को गोदी में खिलाते हुए मां-बाप, दासियां दिखायी गयी हैं ।
मथुरा में कई ऐसी मूर्तियां भगवान नमिनाय की प्राप्त हुई हैं, जिनमें एक ओर श्रीकृष्ण और दूसरी ओर बलराम भी अंकित
हैं।
_ 'जैसलमेर के हिन्दू राजानों ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जैसा कि पहले भी कहा गया है कि यह क्षेत्र जैन मुनियों की तपोभूमि रहा है । जब भी ये यहां आते थे, उनकी सेवा में जैनियों के साथ हिन्दू · भी रहा करते थे। चौहदवीं शताब्दी में यहां कई जैन मन्दिरों एवं उपाश्रयों का निर्माण हुना है। इस काल में जैसलमेर के महाराजा लक्ष्मण सिंह एवं उनके उत्तराधिकारी वैरसी ने हिन्दू और जैन धर्मों के मध्य समन्वय स्थापित करने में ठोस प्रयत्न किये थे, उस समय हिन्दू मन्दिरों में जैन धर्म के आराध्य देवों की प्रतिमाओं को प्रतिष्ठापित करना कितने साहस का काम रहा होगा । लक्ष्मी नाथ जी, सूर्य भगवान एवं रत्नेश्वर महादेव के देवालयों में पार्श्व नाथ जी की प्रतिमा स्थापित की गयी थीं । जिन्हें आज भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। धर्म समन्वय के ऐसे उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ हैं। वस्तुतः यह कार्य धर्म समन्वयता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है । इन समन्वयी मंदिरों में एक साथ ही पूजा होती है, भोग चढ़ता है तथा भारती उतारी जाती है । ऐसा ही
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( १४२ ) एक मन्दिर जैसलमेर के वरसलपुर ठिकाणे (अभी बीकानेर जिले में ) में स्थित है । यहां की लक्ष्मीनाथ जी की मूर्ति के पास ही श्री पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा विद्यमान है । मन्दिर में एक शिला लेख उपलब्ध है, जिसके अनुसार यदि इन दोनों देवों की पूजादि एक साथ नहीं की जायेगी तो इस क्षेत्र में देवी विपत्तियां विनाश के कगार ढा देंगी। इन देवालयों में हिन्दू व जैनी दोनों ही पूजार्थ जाया करते है ।
जैसलमेर नगर में दस जैन मन्दिर हैं तथा ब्रह्मासर, देवीकोट, लुद्रवा, अमर सागर आदि स्थानों पर भी जैन मन्दिर बने हुए हैं । धर्म समन्वय की कितनी गहरी बात है कि इन मन्दिरों के पुजारी परम्परागत रूप से भोजक जाति के हिन्दू ब्राह्मण ही हुआ करते हैं । हिन्दू देवालयों में जब जैनों के प्राराध्य देवों की प्रतिमायें स्थापित की गयीं तो जैन मन्दिरों में भी हिन्दू धर्म के देवताओं की मूर्तियां विराजमान की गयी थीं । मन्दिरों की भीतों एवं छतों पर कहीं-कहीं कृष्ण लीलायें यदि ग्राकीर्ण हैं |
जैन श्राचार्यो ने न सिर्फ अपने धर्म के प्रसार के लिए ही कार्य किया, अपितु यहां की हिन्दू संस्कृति के सवर्द्धन में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है । जैसलमेर के सात सुप्रसिद्ध ज्ञान भण्डारों में संग्रहीत हस्तलिखित एवं ताड़ पत्रीय ग्रन्थों के अव लोकन से ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों ने हिन्दू धर्म विषयक अन्यान्य ग्रन्थों की संरचना को थी तथा विसरे लोक साहित्य को लिपिवद्ध भी किया था ।'
१--जैन जगत Train पृष्ठ २०७ पोत्तम गाणी
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भारत में जैन तीर्थ
जैन भारत के ही निवासी हैं, जैन दर्शन भारत की ही एक मूल्य निधि है. इनके चोबीसों तीर्थकरों ने भारत में ही जन्म लिया और यहीं से मोक्ष गए, इसलिए जिन स्थानों पर तीर्थकरों ने जन्म लिया हो, दीक्षा धारण की हो, पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया हो या मोक्ष प्राप्त किया हो उन स्थानों को जैनी तीर्थस्थान मानते हैं और वो सब तीर्थस्थान भारत में ही हैं जो प्रान्तों में विद्यमान हैं । जैनों के तीर्थस्थानों की जिनमें से कुछ यहां दर्शा रहा हूँ ।
भारत के सभी संख्या बहुत है,
कैलाश, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार, शत्रुन्जय, सम्मेद शिखर, गजपन्या, तुरंगी, पावागिरि, द्रोणागिरि, मेदगिरि, कुथुगिरि, सिद्धवरकूट, बड़वानी, ग्राबूगिरि, शंखेश्वर, गुणावा, राजगृही, कुण्डलपुर, मन्दारगिरि, पटना, वनारस, सिंहपुरी, चन्द्रपुरी, प्रयाग, फफोसा, कोशाम्बी, अयोध्या, खुस्वुन्दू, सटमेंट, रत्नपुरी, कम्पिला, हिक्षेत्र, हस्तिनापर, चौरासीमथुरा, सौरीपुर, ग्वालीपद, सोनागिर, अजयगढ़, खजराहा, नैनगिरि, बीनाजीक्षेत्र संरोनगांव, देवगढ़, चांदपुर, पपोराजी, अहारजी, चन्देरी, पचराई, थूवीनजी, अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ कारंजा, मुक्तागिरि, मातकुलि, रामटेक, श्री महावीर जी चांदखेड़ी, मक्सी पार्श्वनाथ, विजोलिया पार्श्वनाथ, केशरियाजी, ग्रावू पहाड़, अचलगढ़, तारंगा, पावागढ़, मांगीतुरंगी, गजपन्था, एलोरा, कुलगिरि, कारकण्डू की गुफायें, वीजापुर, वादामी के गुफा मन्दिर, वैलगांव, हम्मचरद्द्मावती, वरांगकारगल, मूड़विद्री, वेणूर, वैलुर- हलेविड, श्रवणबेलगोला, खण्डगिरि, भालरापाटण, (१०८ मन्दिर हैं) लूणवसही, रणकपूर आदि ।
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भारतीय संस्कृति और गाय के प्रति जैनों की श्रद्धा
भारतीय संस्कृति में निःसन्देह गाय को मां के समानान्तर मान्यता दी गयी है। श्रद्धा, सम्मान, पूजा और त्याग की अधिकारिणी गो माता के प्रति आदि काल से ही एक पवित्र सम्बन्ध हम अपने भीतर वाल्यकाल से ही अनुभव करने लगते हैं ।
'वाल्यकाल से ही हमारे ऊपर गो का उपकार या ऋण चालू हो जाता है। मां का दूध क्रमशः घटता जाता है और बच्चे की भूख क्रमशः बढ़ती जाती है । स्थिति यहां तक चली जाती है कि केवल माता के दूध से उसकी क्षुधा निवृत्ति नहीं हो पाती । दूध उसके शरीर को पुष्ट करने वाला और शक्ति देने वाला होने से उसकी श्रावश्यकता तो बड़े होने पर भी बनी रहती है, पर बच्चे के लिए तो वही आरम्भ से अभ्यस्त आहार है तथा जहाँ तक दांतों से चबाने की शक्ति नहीं मिल जाती, वहां तक अन्न उसके स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं होता । इसलिए जब माता के दूव से उसका पेट पूरा नहीं भरता तो गाय का दूध उस कमी की पूर्ति कर देता है । श्रतएव वाल्य जीवन से ही 'गी' का स्थान 'माता' के समान ही उपकारी वन जाता है । गो-मूत्र
और गोवर-इन
दोनों को हिन्दू धर्म भूमि पर गोवर लीप
शास्त्रों में पवित्र माना गया है । ग्रपवित्र देने से वह पवित्र वन जाती है । प्राचीन
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( १४५ ) काल में बड़े यत्न से गौ का पालन-पोषण, रक्षण किया गया है। तभी तो गौवंश की इतनी वृद्धि हुई कि दो-चार या दस-बीस ही। नहीं चालीस, साठ और अस्सी हजार का गौ-कुल रखने वाले जैन श्रावकों का उल्लेख 'उपासक दशांग' नामक सातवें अंग-सूत्र में पाया जाता है।'
सम्राट अकवर के समय गौ-हत्या वन्द कर दी गई थी। उनमें कई हिन्दू जैन-मुनि महात्माओं तथा विद्वानों का बड़ा योग रहा है।
गाय के गोबर से कन्डे (उपले) बनते हैं, जो रसोई बनाने के काम में लाये जाते हैं। अधिक उपज पैदा करने के लिये गोबर का खाद खेतों में डाला जाता है । गौ-मूत्र औपधं के उपयोग में में भी आता है। गाय के बछड़े ही खेती करने के काम आते हैं। गाय के मर जाने पर भी उसकी हड्डी, सींग, वाल व चमड़ी काम आती है, गौवंश के ऋण से हम कभी उऋण नहीं हो सकते। जैनों में दूध के लिए बकरी के बजाय गाय आज भी पाली जाती है।
वर्तमान में देहली में जो गौ हत्या वन्द कराने का आन्दोलन चलाया गया था, इस विराट प्रदर्शन के संयोजक जैन मुनि श्री सुशील कुमार जी ही नियुक्त हुए थे। जैनियों का शक्तिशाली संगठन सबके साथ मिल कर कार्य कर रहा था।
श्री भगवान महावीर २५वीं शताब्दी के सन्दर्भ में २५०० गायों को कसाइयों की छुरी से बचा कर उनके पालने की समुचिंत व्यवस्था श्री आदर्श गौशाला टीकोली (गुड़गांव) हरियाणा राज्य में की जा रही है । श्री सुराणा जी जैन-हिन्दू ही हैं ।
आदि कृषि शिक्षक भगवान आदिनाथ पुस्तिका में श्री विद्या
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१-कल्याण वर्ष ४१ अंक ७ जुलाई १६६७--१०५६
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. ( १४६ ) नन्द जी मुनि लिखते हैं कि विदेशी मुद्रा अजित करने के लिए गौ हत्या आवश्यक प्रतीत होती है । सुभाषित के समान मधुर तथा साधु के समान निर्दोष गौ को मार कर गौ पालक गोपाल कृष्ण के राष्ट्रीय सहोदर और महावीर भगवान के अहिंसक देश के प्रतिनिधि व्यापारी किस अन्धपातक के अतल गड्डर में गिरे जा रहे हैं । आज अन्न निर्भर होने की इच्छा रखने वाला भारत कृपि के परम सहायक गौवंश पर पारा चलाये, यह समर्थन कौन पंडिताभिमानी अर्थशास्त्री करना चाहता है। . . देश में जब भी मातृभूमि की स्वतन्त्रता और गौरक्षा का अवसर आया है तब प्रायः जैनियों ने स्वाधीनता के सच्चे पक्ष का समर्थन किया और उसके लिए अपने सर्वस्व तथा जीवन निधि की तनिक भी परवाह नहीं की। - जैनों के उपासक दशांग सूत्र में भगवान महावीर के सद श्रावकों का वर्णन इस प्रकार किया गया है। (१) आनन्द - वाणिजग्राम - गायों की संख्या ४ गोकुल (२) कामदेव - चम्पानारी
६ गोकुल (३) चूलणीहिता- बनास
८ गोकुल (४) सरादेव - वनास
६ वर्ग (५) चुल्लशतक - आलम्पिकानारी
६ गोकुल (६) कुंड कौलिक-कम्पिलपुर -
६ गोकुल (७) सद्दौल पुत्र- पोलासपुर
१ गोकुल (८) महाशतक - राजगृह
८ गोकुल (8) नन्दिनीपता श्रावस्ती -
४ वर्ग (१०) सालिहिपिया श्रावस्ती ~~
४ गोकुल — नोट :-दस हजार गायों का एक गोकुल होता है । १-जैन शासन : श्री सुमेरुचन्द्र जी दिवाकर सिवनी-पृ० ३४०
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( १४७ ) यस्या दुग्धतादिना नरतनुः पोपुष्यते सर्वथा । वाणिज्यं कृषि कर्मभारवहनं यज्जातिमालम्बते ।। .. सा रक्ष्या पशुजातिरुत्तमजन कर्त्तव्य सेवाधिया। हिंसातो वलितोऽसिमार भरणात्क्रौर्याद् भृशंताऽनात् ॥
जिनके दूध और घी से सब प्रकार मनुष्य जाति के शरीर का पोषण होता है, जिन्हें गाड़ी वगैरा में जोत कर व्यवसायादि का काम काज लिया जाता है, जिनकी गर्दन पर जुया रख कर खेती का तमाम काम लिया जाता है, जिनकी पीठ पर भार लादा जाता है, उत्तम पुरुषों को चाहिये कि कर्त्तव्य तथा सेवा-भाव से उन पशुओं को हिंसा, बलिदान अतिभार लादने और क्र र मनुष्यों द्वारा निर्दयतापूर्वक मारने पीटने से बचाना चाहिये ।'
समस्त भारतवर्ष में गोपालन और गौशालानों का महत्व दिखाई दे रहा है । वह श्रीकृष्ण की देन है। गुजरात-सौराष्ट्र और राजस्थान आदि में गौनों के साथ ही अन्य प्राणियों को भी रखा जाता है, उनका भी पालन पोषण किया जाता है जिसे 'प्रांजरापोल' कहते हैं, यह भगवान अरिष्टनेमि' की देन है।२।।
गांधी जी गौ रक्षा के सम्बन्ध में जैन और वैष्णवों को समदृष्टि से देखते हुए कहते हैं कि हिन्दुस्तान जैसे मुल्क में जहां जीव दया का धर्म पालने वाले असंख्य मनुष्य वसते हैं और जहां गाय को माता के समान मानने वाले करोड़ों धर्मात्मा हिन्दू रहते हैं, वहां गाय का यह बुरा हाल है।
जैन लोग भी गाय को गऊ माता ही कहते हैं। दीवाली के १--कर्त्तव्य कोमुदी : भारत भूपण शतावधानी पं० मुनि श्री रत्न
चन्द्र जी महाराज (जैन द्वितीय खण्ड-पृ०२५२) . २-भगवान अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण-एक अनुशीलन
पृष्ठ २०
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६
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{ १५० } (३) कर्मवाद ( ४ ) क्रियावाद एवं ग्रात्मा के अस्तित्व के लिए छः बातें अनिवार्य हैं । (१) ग्रात्मा है । (२) पुनर्भव है (३) बंध है ( ४ ) बन्ध के हेतु हैं (५) मोक्ष हैं । (६) मोक्ष के हेतु है आचार्य दत्तात्रेय गणेश कस्तूरे ने भी प्रतिपादित कि वैदिक व जैन मत दोनों में कर्म, पुनर्जन्म तथा सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं । २
किया है मोक्ष के
मूलतः पुनर्जन्म पर भारतीय दर्शन के अन्तर्गत यहां के बड़ेबड़े दार्शनिकों, तत्व चिन्तकों, मनीषियों और तार्किकों ने बड़ी ही गम्भीरतापूर्वक मनन चिन्तन किया है । आस्तिक दर्शनों में पुनर्जन्म का सिद्धान्त निर्विवाद रूप में माना गया है । बौद्ध तथा जैन इसे डंके की चोट पर स्वीकार करते हैं । बौद्ध जातक में तो तथागत के पूर्व के हजारों जन्म की कथायें लिपिबद्ध हो चुकी हैं । न्यायदर्शन का तो यह एक प्रतिपाद्य सिद्धान्त रहा है । गीता जसी सर्वतन्त्र - सिद्धान्त एवं विश्व-सम्मान्य पुस्तक में भी पूर्व जन्म एवं पुनर्जन्म का उल्लेख है । 3
·
भारत के प्रार्य पुनर्जन्म के सिद्धान्त को अनादिकाल से मानते चले आये हैं । आप किसी साधारण से साधारण अपठित भारतीय से पूछिये, वह इस सिद्धान्त पर अपना अटल विश्वास प्रगट करेगा, यहां तक कि जैन और बौद्ध सम्प्रदाय भी इस
सिद्धान्त पर आस्था रखते हैं । वेद, पुराण, इतिहास सभी के पश्चात एक शरीर
यह प्रतिपादित को छोड़ कर
उपनिषद्, शास्त्र, स्मृति,
करते हैं कि ग्रात्मा मृत्यु दूसरे शरीर में इसी प्रकार
१- प्राचार्य तुलसी तीर्थंकर और सिद्ध-वही ग्रंक पृष्ठ ५५ २- माध्यमिक सम्पूर्ण इतिहास - पृष्ठ ४० भाग १
३ - श्री जर्नादन मिश्र ' पंकज - परलोक और पुनर्जन्मांक - कल्याण - पृष्ठ १६४-१६६
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जाता है, जिस प्रकार हम पुराने वस्त्रों को उतार कर नये को धारण करते हैं।'
बौद्ध दर्शन के समान जैन दर्शन भी कर्म फल को मानता है और शुभ कर्मों से स्वर्ग तथा अशुभ कर्मों से नरक की प्राप्ति के सिद्धान्त में विश्वास करता है ।२
वस्तुतः कर्म को समझने के लिए कर्मवाद को समझने की जरूरत है । 'वाद' का अर्थ सिद्धान्त है । जो वाद कर्मों की उत्पत्ति, स्थिति और उनकी रस देने आदि विविध विशेषताओं का वैज्ञानिक विवेचन करता है, वह कर्मवाद है । जैन शास्त्रों में कर्मवाद का बड़ा गहन विवेचन है ।
आत्मा, पुनर्जन्म और कर्म सिद्धान्त-ये तीनों परस्पर में अनुस्यूत है। आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व मानने पर शेष दोनों को भी मानना पड़ता है। जैन मत में पुनर्जन्म के प्रति आस्था प्रदर्शित की गई है । जैन आगम ग्रन्थों तथा महापुराणादि चरित गाथाओं में बारम्बार पुनर्जन्म के उल्लेख हुए हैं। जैन मतानुसार जीव इस संसार में कम से प्रेरित होकर भ्रमण करता है। १-श्री बल्लभ दास जी विन्नानी : पुनर्जन्म सिद्धान्त की विश्व
व्यापी मान्यता कल्याण अंक -पृष्ठ ३०१ २-५० गौरी शंकर द्विवेदी : दर्शन और पर लोकवाद-वही अंक
पृष्ठ ३१२ ३-५० चैनसुखदास न्यातीर्थ : जैन धर्म का कर्मवाद-वही अंक
पृष्ठ ४६० : ४-कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन धर्म में आत्मा पुनर्जन्म और कर्म -
सिद्धान्त वही अंक पृष्ठ ४६३ ५-डा० राज नारायण पाण्डे : जन मत में पुनर्जन्म तथा कर्म सिद्धान्त-वही अंक पृष्ठ ४६६
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________________ ( 152 ) उपनिषदों में ही सर्वप्रथम कर्मफलवाद तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ / जैन धर्म में जहां कि पुनर्जन्म की बात पर विश्वास किया जाता है, जन्म-मरण के बन्धन से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि पूर्व जन्मों के कर्मों से छुटकारा पाना तथा नये अच्छे कर्म करना / आवागमन के बन्धन से मुक्त होने के लिए महावीर स्वामी ने हर जैन धर्मावलम्बी को 'त्रिरत्तों के पालन की शिक्षा दी। भारत की आध्यात्मिक परम्पराओं ने जैन धर्म और संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थान है / कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष, सृष्टि, रूप आदि के सम्बन्ध में जैन दर्शन के अपने विचार हैं / 'अनेकान्तवाद' और 'स्यादवाद' के सिद्धान्त उसकी मौलिकता के प्रवलतर प्रतीक हैं / सांख्ययोग की भाँति जैन. दर्शन सृष्टिकर्ता ईश्वर को स्वीकार नहीं करता, अद्वैतवेदान्त की तरह वह आत्मा के स्वरूप लाभ को ही मोक्ष मानता है / वैशेषिक के समात वह परमाणुवादी है। उसके ज्ञान सम्वन्धी कतिपय विचार वर्तमान परामनोविज्ञान का पूर्वाभास देते हैं / 2 विभिन्न विद्वानों के इन उपरोक्त विवेचनों से स्पष्ट है कि जैन व वैष्णव - मान्यतात्रों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है तथा एक ही भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग होने के कारण वैष्णव और जैन दोनों ही हिन्दू (भौगोलिक नहीं वरन् सम्बोधन के परम्परागत अर्थों में) कहलाने के समान योग्य हैं। १-पी० एस० त्रिपाठी भारतीय इतिहास का परिचय २--डा० देवराज, एम० ए० डी० लिट्-चिन्तन की मनोभूमि -अमर मुनि के 'दो शब्द' से
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________________ ... सामाजिक परिप्रेक्ष्य और जैन तथा हिन्दू धर्म का मूल्यांकन
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________________ जिज्ञासा (r) जैनियों की वेशभूषा 'अलंकरण...? -~-भारतीय 'समस्त जातियों व समाज में सम्मान (r) आपका भाषा विकास...? -~-मूल भारतीय भाषा, --संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश..... हिन्दी * हिन्दू विधि से आपका सम्बन्ध...? --अभिन्न हिन्दू विधि में 'हिन्दू' के अंतर्गत जैन भी * उपनियम संस्कार का जैन-धर्म में स्वरूप और महत्व ? . -वैष्णवों के समान ही * आपमें वैवाहिक सम्बन्धों का आधार...? --समन्वयात्मक, जन-वैष्णवों में परस्पर विवाह सम्बन्ध मान्य, .. आपके त्यौहार और पर्व...? ---वैष्णवों के समान एक ही समय 'दीपावली, मकर संक्रांति, होली, रक्षाबन्धन, नागपंचमी, विजया दशमी आदि का मनाना (r) आपमें मृत्यु संस्कार...? -~~-अग्निदाह (चिता) की मान्यता, मृतक के फूल का . गंगा में विसर्जन, मृत्यु-भोज, मृत्यु समय भगवान के नामोच्चारण का समान महत्व /
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________________ जैनों में हिन्दू वेश-भूषा, भाषा और साहित्य है वेश-भूषा से आदमी का धर्म, जाति, देश और संस्कृति सव __ कुछ स्पष्ट हो जाता है। जैनों की वेश-भूषा भारतीय है। पुरुषों द्वारा पहनी हुई धोती, कुर्ता, जाकिट, सलूका, बंडी, दुसाला व दुपट्टा साफा और पगड़ी आदि, जैन नारियों द्वारा पहने हुए लहंगा (घाघरा) ओडनी, चोली(कांचली), साड़िये, ये सब भारतीय प्रत्येक समाज व जाति का पहनावा रहा है जिसे हिन्दू पहनावा ही कहा जाता है। जैनों में अपनी प्रान्तीय भाषा के साथ-साथ हिन्दी जो हमारी मातृ-भाषा है, पूर्ण रूपेण उसको व्योहार में लाते हैं और उससे प्यार करते हैं / वेप-भूषा व भाषा से ही संस्कृति का सम्बन्ध माना जाता है / जैनों के मूल धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत व प्राकृतिक भाया में ही लिखे गए हैं जो भारतीय मूल भापा ही कहलातो है जिनका अर्थ-भावार्थ हिन्दी भाषा द्वारा ही लिखा गया है। निष्कर्ष यह निकलता है कि वेष-भूषा, भाषा और साहित्य से ही देश का धर्म, संस्कृति और जातीय आदर्श जुड़े हुये हैं।
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________________ ( 156 ) इनके द्वारा ही भावात्मक एकता बनी हुई है। ___ जैनों में भी वही आभूषण और उन्हीं अंगों में पहने जाते हैं जो समस्त भारतीय जाति व समाज के अंग हैं; जैसे सिर में वेदा, वौर (वीज) टीका, शीश फूल, क्लिप, गले में ठुस्सी, सतफूली, हार (नेकलिस), जंजीर, कन्ठा, कन्ठी; 'गुन्ज, कोप, हाथों में हथफूल, अंगूठी, चूड़ियां, ककना (गोखरू), पौंची, चूड़ा, पटेला बगड़ी, वाजूबन्द, भुजवन्द, कमर में कनकती, कन्दौरा, पैरों में विकूड़ी (विछिया), छल्ला टनका, नेवरी, आवला, कड़ी, तोड़ा, झांज, लच्छे, पायल, पायजेव आदि। ये भले ही चांदी व सोने के बने हों, भिन्न प्रकार के भी अपनी सूची के अनुसार बना कर पहने जाते हों, लेकिन इनसे भारतीयंता का दिग्दर्शन होता है / ये सब हिन्दुत्व की निशानी हैं। इन सवको पहनने वाले हिन्दू हैं, चाहे धर्म भले ही भिन्न-भिन्न हों।
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________________ हिन्दू-विधि हिन्दू कोन व्यक्ति हैं और कौन नहीं, किनं व्यक्तियों पर हिन्दू विधि की व्यवस्थायें लागू होती हैं, यह विचारणीय है / वास्तव में हिन्दू वे सभी व्यक्ति हैं जो हिन्दू के अनुयायी हैं या जिन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया है। पेज 25 पर लिखा है कि हिन्दू धर्म के अनुयायी चार वर्णों में विभाजित किये गये हैं / यह चार वर्ण ब्राह्माण, क्षत्रिय, वैश्य . तथा शूद्र हैं। पेज 26 हिन्दुओं की वैवाहिक प्रथा के सम्बन्धित समयसमय पर अधिनियम पारित किए गए हैं, सन् 1946 में हिन्दू विवाह मान्यता अधिनियम, पास किया गया था जिसमें हिन्दू, सिक्ख तथा जैनियों के बीच तथा इनकी उपजातियों के बीचः परस्पर विवाहों को मान्यता प्रदान की गयी थी। . - पेज 30 हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 26 की: उपधारा (4) निम्नलिखित व्यवस्था है। हिन्दू विवाह अधिनियम में विवाह के अतिरिक्त, विवाह विच्छेद :तथा विवाह, सम्बन्धी उपराधों के विपय में भी व्यवस्थायें की गई हैं। इस अधिनियम के अनुसार निम्नलिखित व्यक्तियों की गणना हिन्दुओं में की जाती हैं (1) बौद्ध, जैन तथा सिक्ख (2) कोई भी वैध या अवैध बच्चा जिसके माता-पिता दोनों हिन्दू हों या बौद्ध, जैन या सिक्ख हों। (3) कोई भी वैध या अवैध बच्चा जिसके माता
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________________ ( 158 ) पिता दोनों में से एक भी हिन्दू बौद्ध, सिक्ख या जैन रहा हो और जिसका पालन-पोषण उसी जाति वर्ग में या परिवार में उस के सदस्य के रूप में किया गया हो / (4) कोई भी व्यक्ति जिस ने हिन्दू धर्म स्वीकार किया है या कोई भी ऐसा व्यक्ति जो पहले हिन्दू धर्म छोड़ चुका था, किन्तु जिसने पुनः हिन्दू, जैन या सिक्ख धर्म स्वीकार कर लिया हो। जैन समाज के अन्दर हिन्दू विवाह अधिनियम की धारागों तथा उपधारात्रों के अन्तर्गत ही विवाह सम्बन्धी व्यवस्थायें पूर्णरूप से निभाई जाती हैं। . हिन्दू विधि में विवाह तथा हिन्दू विवाह अधिनियम की मान्यता के आधार पर ऐसा कहने में कोई. संकोच नहीं होना चाहिये कि जैन हिन्दू हैं। हिन्दू-विधि पेज 66 (अ) धर्म परिवर्तन के सम्बन्ध में लिखा गया है कि हिन्दू धर्म त्याग कर ऐसा धर्म स्वीकार किया जाय जिससे कि वह व्यक्ति पूर्णतया अहिन्दू हो जाये / इसका तात्पर्य यह है कि हिन्दू धर्म छोड़ कर इस्लाम, क्रिश्चियन, पारसी या जिन धर्म स्वीकार किया गया होना चाहिये / हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार वौद्ध. जन तथा सिक्खों को हिन्दुओं के समकक्ष रखा गया है।' . हिन्दू विधि एक व्यक्तिगत विधि है / व्यक्तिगत विधि से तात्पर्य उस विधि से है जो किसी व्यक्ति पर उसके धर्म अथवा सम्प्रदाय विशेष के सदस्य होने के नाते लागू होती है / इस प्रकार हिन्दू विधि से तात्पर्य उस विधि से है जो किसी व्यक्ति पर उसके हिन्दू होने के नाते लागू होती है। दूसरे शब्दों में वह विधि अहिन्दुओं पर लागू नहीं होती है। इसलिए हिन्दू विधि के १-हिन्दू विधि ? श्रीमती उपा सक्सैना : पृष्ठ 7
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________________ अध्ययन में सर्वप्रथम जिस बात के ज्ञान की आवश्यकता है वह यह है कि वह कौन व्यक्ति है जिस पर यह विधि लागू होती है अर्थात, हिन्दू कौन है ? दूसरे उसकी व्यक्तिगत विधि का क्षेत्र क्या है ? हिन्दू शब्द विदेशियों का दिया हुआ है और इसकी उत्पत्ति सिन्धु शब्द से हुई है। हिन्दू शब्द से तात्पर्य नदी के पूर्व के रहने वाले लोगों से था / इस प्रकार यह शब्द एक राष्ट्रद्योदक शब्द था, किसी जाति अथवा सम्प्रदाय का वोधक नहीं था। वास्तव में हिन्दू कहे जाने वाले लोगों में जो एकता है वह एक सांस्कृतिक एकता है / इसलिए अनेक विद्वानों ने 'हिन्दू' शब्द को धर्म का वाचक न मान कर संस्कृति का वाचकं माना विधि को हिन्दू धर्मावलम्बियों की विधि समझना भ्रामक है / वस्तुतः हिन्दू विधि में हिन्दू शब्द से तात्पर्य उन व्यक्तियों से है जो या तो आदितः भारतीय ह अथवा ऐसे धर्म या मत के अनुयायी हैं जिसकी उत्पत्ति भारत की है। ___इस प्रकार हिन्दू विधि के उपरोक्त संदर्भ में भी यह कहना असंगत न होगा कि मूलत: वैष्णव और जैन दोनों ही सम्द्रदाय आज भी सांस्कृतिक तथा अन्य स्तरों पर एक हैं और उनमें विमेद पैदा करने के सारे तर्क बहुत हद तक सायास हैं, सहज.नहीं। PRIN २-हिन्दू विधि : प्रो० विजय नारायण मण्ण त्रिपाठी-विधि विभाग प्रयाग विश्व विद्यालय-पृ० 1
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- जैन और यज्ञोपवीत
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उपनयन या यज्ञोपवीत धारण सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है। इस शब्द का अर्थ समीप लेना है। उप' अर्थात समीप और नयन का अर्थ लेना है। आचार्य ,या गुरू के निकट वेद अध्ययन के लिये लड़के को लेना अथवा-ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करना ही उपनयन है। इस संस्कार के चिन्ह स्वरूप लड़के कीः कमर में मूज-की-डोरी बांधने को मोन्जी. बन्धन और गले में सूत के तीन धागे डालने को उपवीत, यज्ञोपवीत या जनेऊकहते हैं-यज्ञन संस्कृतं उपवीतम् । यह एक शुद्ध वैदिक क्रिया या.प्राचार है और अब भी वर्णाश्रम धर्म के पालन करने वालों में प्रचलित है। आदि पुराण में श्रावकों को भी यज्ञोपवीत धारण करने की प्राज्ञा दी गई है और तदनुसार दक्षिण तथा कर्नाटक के जैन गृहस्थों में जनेऊ पहना भी जाता है। इधर कुछ समय से उनकी देखा-देखी उत्तर भारत के जैन भी जनेऊ धारण करने लगे हैं।'
जनेऊ धारण कर लेने के उपरान्त जो क्रियायें अपनानी पड़ती हैं, उसमें स्वयं की कमजोरी के कारण कुछ जैनियों ने उसका त्याग कर दिया है और जो उसकी साधना में समर्थ हैं
१-यज्ञोपवीत और जैन धर्म : जन साहित्य और इतिहास-नाथू
राम जी प्रेमी-पृ० ५०
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वह आज भी यज्ञोपवीत धारण करते हैं । यहां मेरा औशय सिर्फ यह स्पष्ट करना है कि वैष्णव एवं जैनियों का यज्ञोपवीत धारण परस्पर समन्वय सूचक तथा हिन्दू संस्कृति का प्रतीक है। इस प्रकार जैनियों द्वारा यज्ञोपवीत की मान्यता यह प्रमाणित करती है कि जैन भी हिन्दू ही हैं। सौमदेव ने अपने यशस्तिलक में लिखा है
९ . . . यत्र सम्यवत्वहानिर्न यत्र न ब्रतदूपणम् । सर्वमेव हि जैनानां प्रमाणं लोकिकों विधिः । '
अर्थात वे सभी लौकिक विधियां या क्रियायें जैनियों के . लिये प्रमाण हैं, जिनमें सम्यवत्व की हानि न होती हो और व्रतों में कोई दोष न लगता हो, इस सूत्र के अनुसार ही अग्नि पूजा और यज्ञोपवीत की विधियों को जैन धर्म में स्थान मिल सकता
जनेऊ से अध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थय के.. अनेक लाभ प्राप्त होते हैं, जो विज्ञान सम्मत हैं।
यज्ञोपवीत चव्व पर ६६ बार लपेटा जाता है। फिर इसे तिगुना करके ऊपर बांई तरफ लपेटना पड़ता है । इससे इसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य इन तीनों वर्गों का अधिकार बताया जाता है, फिर इस तीन लड़ी वाले सूत्र को तिगुना करके पुनः दाहिने से नीचे लपेटा जाता है जो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ इन तीन आश्रमों की प्रयोगशीलता का प्रतीक है। .
श्री मूल शंकर देसाई के अनुसार 'यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार उसे ही है जिसका खान-पान शुद्ध हों, आगम के अनुकूल हो और जो अभक्ष का त्याग करने वाला हो, जो रात में चार प्रकार के ग्राहारों से मुक्त, सप्त व्यसन का सम्पूर्ण रीति से त्याग करने वाला हो। जैन धर्म में भी यज्ञोपवीत के पीछे यही
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( १६२ ) मान्यता रही है। . .. .
यज्ञोपवीत. में नौ तन्तुओं का विवेचन निम्न प्रकार किया गया है। (१) ॐकार-एकत्व का प्रकाश, ब्रह्मज्ञान । (२) अग्नि-तेज, प्रेकाश, पापदाह । . (३) अनन्त-अपार धैर्य, अचज्वलता, स्थिरता। . (४) चन्द्रमा-शीतलता, सुधावर्षा, सर्वप्रियता । (५) पितृगण-स्नेहशीलता, आशीर्वाददान । (६) प्रजापति-प्रजापालन, प्रजास्नेह । (७) वायु-बलशीलता, धारणशक्ति । (८) सूर्य-स्वास्थ्य-प्रदान, मलशोषण, अन्धकारनाश, प्रकाश । (8) सर्वदेवता देवोसम्पत्ति, सात्विक जीवन ।'
· काश्मीर हो या कन्याकुमारी, द्वारका हो या जगन्नाथपुरी, प्रत्येक स्थान पर ऐसे व्यक्ति मिल जायेंगे, जो निर्धन हों या धनवाद, समान रूप से अपने शरीर पर जनेऊ धारण किये होंगे। ये धागे भारत की वास्तविक एकता के प्रतीक हैं । विशेपता यह है कि इनसे केवल भौतिक अथवा वाह्य एकता ही नहीं प्रकट होती है, अपितु ठोस और आन्तरिक एकता का भी प्राभास होता है। क्योंकि जनेऊधारी व्यक्तियों की मनोवृत्ति, संस्कृति एवं जीवन वृत्ति में प्रायः एकरूपता होती है । अति प्राचीन काल में कर्मनिष्ठ तथा जागरूक नागरिक की वय पर पहुंचने से वहत पूर्व... कर्तव्य परायणता के लिए सम्मान स्वरूप से सूत्र प्रदान किये जाते थे।' ___ महापुराण में यज्ञोपवीत के लिए ब्रह्मसूत्र, रत्नत्रय सूत्र और यज्ञोपवीत आदि कई नामों का उल्लेख मिलता है । इसकी
१-कल्याण : श्री घनश्याम दास जी जालान ।
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व्याख्या करते हुए प्राचार्य जिनसैन ने लिखा है कि सर्वज्ञ देव की आज्ञा को प्रधान मानने वाला वह द्विज, जो मन्त्रपूर्वक सूत्र धारण करता है, उसके व्रतों का चिन्ह है। तीन रत्न का जो यज्ञोपवीत है वह हृदय में उत्पन्न हुए सम्यक दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक् चरित्र तथा गुणरूप जो श्रावक का सूत्र है वह उसका भावसूत्र है। ___ भरत महाराज के अनुसार उपनीति संस्कार के नियम का पालन करते हुए जिसने अहितन्त देव की पूजा की है ऐसे उस बालक को व्रत देकर उसका मौंजी बन्धन करना चाहिए जो चोटी रखाये हुए हैं, जिसके तन पर सफेद धोती और सफेद दुपट्टा है. जो वेश और विकारों से रहित है तथा जो व्रतों के चिन्ह स्वरूप यज्ञोपवीत सूत्र को धारण कर रहा है । उसे ही ब्रह्मचर्य मानना चाहिये।
कितने लर का यज्ञोपवीत होता है, इसके स्पष्टीकरण के .. सन्दर्भ में व्रतचर्या संस्कार का निरूपण करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया है कि सात लर का गुठा हुआ यज्ञोपवीत होना चाहिये।
दीक्षान्वय क्रियानों में भी एक उपनीति क्रिया कही गयी है और उसमें यज्ञोपवीत धारण करने का विधान है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि व्यक्ति जैन धर्म में चाहे नव दीक्षित हो, चाहे कुल परम्परा से जैनी हा, प्राचार्य जिनसैन के अभिप्राय अनुसार यज्ञोपवीत का धारण करना द्विजमान के लिए आवश्यक है। जिस गृहस्थ ने जितनी प्रतिमायें स्वीकार की हों उसे उतनी लर का यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये ।'
श्री रामचन्द्र शर्मा वीर ने भी जैन मतावलम्नियों द्वारा शिखा और सूत्र धारण करने की बात को स्वीकार किया है ।२ १-वर्ण जाति और धर्म-पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री -पृ. २०१ २-विजय पताका -श्री रामचन्द्र शर्मा वीर -पृ० १८१
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विवाह सम्बन्ध
जैनों व सनातन धर्मियों के परस्पर विवाह की पुष्टि के सम्बन्ध में 'कल्याण' के हिन्दू संस्कृति अंक पेज २७४ पर 'हिन्दूसंस्कृति और दर्शन-शास्त्र' शीर्षक लेख में सभी दर्शनों की व्याख्या की गई है, उसमें पेज २८० पर अहित (जैन)-दर्शन लेख के अन्त में लिखा गया है कि जैन-धर्म का साहित्य एवं दर्शन अत्यन्त विस्तृत है। इतिहासज्ञ इस धर्म को बौद्ध धर्म से प्राचीन मानते हैं और शास्त्र के अनुसार भी इसकी परम्परा भगवान ऋषभ से है।
जैन धर्म सनातन धर्म से इतना कम अन्तर रखता है कि वैवाहिक सम्बन्धादि भी परस्पर होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं।
साप्ताहिक दिनमान ३ जनवरी सन् १९७१ के नव वर्षांक में पृष्ठ ५ पर रामेश्वर महतो (संथाला परगना) लिखते हैंइस संदर्भ में हिन्दू मैरेज ऐक्ट १९५५ उल्लेखनीय है, हिन्दू, सिख, बौद्ध और जैन धर्मावलम्बियों के साथ विवाह का उपबन्ध इसमें है। ___इसके पूर्व बम्बई में दो अधिनियम पारित हुए :-(१) हिन्दू मैरिज डिजेविलिटीज रिमूवल ऐक्ट (१९४६) जिसमें सगोत्र, सम्रवर और अन्तः उप-जातीय विवाहों को वैधता प्रदान की गई थी और (२) दी हिन्दू मैरिजेज वैलिडिटी ऐक्ट १९४६) जिसमें
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हिन्दुओं, जैनों तथा सिक्खों तथा उनकी उपजातियों में होने वाले विवाहों को वैधता प्रदान की गई थी।
हिन्दू मैरिज ऐक्ट में दोनों विशेषतायें थीं-शास्त्री मान्यताओं का अनुमोदन भी तथा जातीय स्थानीय परम्परात्रों की मान्यता भी। इसलिए यह एक व्यापक अधिनियम बन गया।
इसके अतिरिक्त जहां तक विवाह के अन्तनिहित कार्यविधि का प्रश्न है, जन और वैष्णव दोनों की विवाह पद्धति समान है, दोनों ही सम्प्रदायों में न तो एक गोत्र में विवाह होते हैं और न माता या पिता के मूल परिवारों में परस्पर विवाह सम्बन्ध को स्वीकृति दी जाती है। इसके अतिरिक्त बहु विवाह के सन्दर्भ में भी समान निषेध दोनों ही जगह मान्य है। बहिविवाह जिसके अन्तर्गत सपिण्ड और सगोत्र विवाह नहीं हो सकते, जैन और वैष्णव दोनों ही इस प्रतिबन्ध का पालन करते हैं। अन्तर्विवाह अर्थात् समाज में अपने वर्ग जाति धर्म तथा प्रजात के अन्दर ही विवाह करना दोनों ही सम्प्रदायों में समान प्रचलित है। यहां धर्म का आशय हिन्दू और मुसलमान जैसे पूर्ण भिन्न धर्मों से है। क्योंकि जैन और सनातन धर्म में पहले भी विवाह सम्वन्धन होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं । जैन और सनातन या वैष्णव समाज में अनुलोम तथा प्रतिलोम के वैवाहिक नियमों का भी पूरी तरह समान पालन किया जाता है।
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त्यौहार और पर्व
जैन समाज द्वारा मनाये जाने वाले वे त्यौहार जो काफी प्राचीन काल से भारतवर्ष में चले आ रहे हैं आज भी वैष्णव के समानान्तर दिखाई पड़ते हैं। वैष्णव के समान जैनियों में भी ये त्यौहार उसी सद्भावना, श्रद्धा और एकत्व के साथ एक ही समय पर, एक ही तरीके से मनाये जाते हैं। .
दीपावली:-कार्तिक वदी अमावस्या को दीपावली के पावन पर्व पर रात्रि के समय साफ-सुथरे मकान में जैन और वैष्णव दोनों ही लक्ष्मी पूजन के साथ पूरे उल्लास और उत्साह पूर्वक दीप जलाते हैं, एक-दूसरे के यहां लक्ष्मी पूजन का आमन्त्रण भेजते हैं और प्रसाद वितरण करते हैं । अमावस्या के अगले दिन प्रातःकाल दोनों में ही गोवर्धन पूजा होती है । द्वितीया के दिन दोनों ही पक्ष समान रूप से भाई दौज का त्यौहार मनाते हैं, जिसमें वहिन भाई को तिलक लगा कर उसका मुंह मीठा करती है और भाई बहिन के पैर पड़ कर उससे अाशीप एवं शुभ कामनायें ग्रहण करता है । दीपावली की रात दीप और ज्योति तथा हर्प की प्रतीक पटाकों की ऐसी रात है जहां जैन और वैष्णव किसी भी पृष्ठ भूमि पर दूर-दूर तक अलग नहीं दिखाई पड़ती।
मकर सक्रान्ति:-यह पर्व भी हिन्दू और जैन परिवारों में समान उल्लास और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। चौदह
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( १६६ ) जनवरी को पड़ने वाले इस पर्व पर हिन्दू व जैन निश्चित मुहूर्त पर पिसे हुए तिल को शरीर पर मल कर स्नान करते हैं । घरों में तिल व फूली के लड्डू बनाये जाते हैं, दाल और चावल की खिचडी इस मौके पर खाई जाती है तथा इन सब का वितरण गरीबों में भी किया जाता है। ___ रक्षा बन्धनः-सावन शुदी पन्द्रह को यह त्यौहार भी दोनों सम्प्रदाय के लोग विशेष उत्साह के साथ मनाते हैं। सभी नए और स्वच्छ कपड़े धारण कर इसमें हिस्सा लेते हैं । वहिन और भाई के पवित्रपूर्ण तथा संस्कारगत दायित्व का पर्व रक्षा-बन्धन समस्त हिन्दू संस्कृति का एक गरिमामय प्रतीक है। इस दिन वहिन अपने भाई को पवित्र प्रेम से जुड़े हुए राखी के डोरे उस की कलाई में वांधती है और भाई जीवन पर्यन्त उसकी रक्षा का वचन देता है । इस त्योहार पर वैष्णव व जैन सभी परिवारों की लड़कियां पिता के घर बुला ली जाती हैं, इसके अतिरिक्त प्रायः ब्राह्मण पूरे दिन दोनों सम्प्रदाय वालों को राखी वांधते हैं और उनके प्रति अपने आशीष प्रगट करते हैं।
गणगौरः-यह सौभाग्यवती नारियों का व्रत है। राजस्थान में तथा अन्यत्र गणगौर की झांकी बड़ी सजधज व गाजे-बाजे के साथ निकाली जाती है, जिसमें वैष्णव व जैन सभी समान रूप से सम्मिलित होते हैं । यह पर्व चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है।
गुरू पूर्णिमा:-आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को मनाया जाने वाला यह त्यौहार मूलतः गुरू अथवा प्राचार्य की पूजा से सम्बद्ध है जिसका समान प्रचलन आज भी जैन और वैष्णवों में श्रद्धा के साथ एक ही धरातल पर देखा जा सकता है। ।
नागपंचमी:-नागों की पूजा प्राचीन काल से ही हिन्दू संस्कृति
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का एक अंग रही है जिसके अन्तर्गत श्रावण शुक्ला पंचमी को दीवार पर नागों के चित्र बना कर उनकी पूजा की जाती है तथा उन्हें विभिन्न स्थानों पर प्रतीक के रूप में दूध पिलाया जाता | यह पर्व भी हिन्दू, जैन और वैष्णव समान रूप से मनाते हैं ।
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शीतला सप्तमी :- श्रावण शुक्ल सप्तमी को शीतला मां की पूजा ग्राज भी जैन और वष्णवों में प्रचलित है, जिसमें तीन दिन तक ठन्डा भोजन किया जाता है । चेचक से सुरक्षा पाने के लिए उस दिन मातायें शीतला माता को जल, दूध आदि से पूजन करती हैं ।
कजलियां:- यह त्योहार देश के कई हिस्सों में श्रावण पूर्णिमा को मनाया जाता है, जिसके अन्तर्गत परस्पर जैन श्रोर वैष्णव दोनों ही सम्प्रदायों में ग्रापस में कजलियों का ग्रादान-प्रदान कर वर्ष भर की होने वाली गल्तियों की क्षमा मांगी जाती है। इसे भुजरिया भी कहते हैं ।
गो पूजन:- गाय भी हिन्दू संस्कृति में यादि से ही मां की तरह पूज्य मानी गयी है । आज भी कार्तिक कृष्ण द्वादशी को गौ माता का पूजन जैन और वैष्णव में समान रूप से उसी श्रद्धा के साथ किया जाता है ।
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धन तेरस :- कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को दीपक जला कर यह पर्व दोनों ही सम्प्रदायों में मनाया जाता है तथा उस दिन वर्तन भी खरीदने का एक जैसा प्रचलन है ।
होली :- फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को होलिका दहन के पर्व पर जैन और वैष्णव दोनों ही सम्प्रदाय के लोगों को इसमें भाग लेते देखा जा सकता है। जैनों के घरों से गोवर की मलरियां डोरी में पिरो कर होलिका पर चढ़ाई जाती है । होलिका की श्रग्नि सभी लोग अपने घर से लाते हैं तथा अगले दिन स्नेह और पारस्परिक प्रेम के प्रतीक रंगों का त्योहार शुरू हो जाता है जो
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( १७१ ) बड़े उल्लास के साथ पंचमी तक मनाया जाता है।
विजय दशमी:-अशुभ की पराजय और शुभ की विजय के प्रतीक आश्विन शुक्ल दशमी को मनाये जाने वाला ये पर्न जैन और नैष्णव में उसी व्यापक विश्वास तथा श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इस दिन नीलकण्ठ का दर्शन आवश्यक एवं शुभ माना जाता है । यह राष्ट्रीय त्यौहार के रूप में मनाया जाता है ।
अक्षय तृतीया-वैशाख शक्ल तृतीया को पड़ने वाले इस पर्व का महात्म जहां जैन धर्म के अनेक ग्रन्थों में वर्णित है वहीं वदिक धर्म के पुराणों में भी इसे मान्यता दी गयी है । जैन धर्म के शास्त्रों में इससे लम्बा तप अन्य कोई नहीं माना गया है। इस तप को वी तप भी कहा जाता है और उसका पूरक दिन अक्षय तृतीया ही है। भगवान ऋषभदेव ने एक वर्ष के बाद आज के ही दिन इक्षुरस से पारणा किया था।
गोगा नवमी:-कार्तिक शुक्ल नवमी को मिट्टी के घोड़े पर - वैठी हुई मूर्ति बना कर दोनों ही सम्प्रदायों में गोगा जी का . पजन किया जाता है । ---. ...इसके अतिरिक्त जैन वौद्ध एवं वैदिक ग्रन्थों के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय में पर्व और त्यौहार जीवन के पावश्यक अंग थे । शायद ही कोई ऐसा दिन हो जब कि समाज में पर्व, त्यौहार व उत्सव का आयोजन न रहा हो । इतना ही नहीं बल्कि एक-एक दिन और तिथि में दस-दस तथा उससे भी अधिक पर्वो का सिलसिला चलता रहता था। सामाजिक जीवन में बच्चों के पर्व अलग युवकों तथा औरतों के पर्व
अलग और वृद्धों के पर्व अलग हुआ करते थे जिसके कारण . भारत का जन-जीवन बहुत ही उल्लिसित और नित्य प्रति आनं
दित रहा करता था।' ... १-जीवन दर्शन : अमर मुनि -पृ २४२
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जैन और वैष्णव : मत्य संस्कार
मृत्यु संस्कार का भी समस्त भारतीय संस्कृति में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है, जिस प्रकार व्यक्ति और उसकी आत्मा की शान्ति के सम्बन्ध में कई परिकल्पनायें जुड़ी हैं साथ ही इस संस्कार पद्धति के कुछ अपने विशिष्ट वैज्ञानिक कारण भी हैं जो आज भी जैन और वैष्णव में एक समान देखे जा सकते हैं।
समस्त जैनियों का वो चाहे दिगम्बर हों या श्वेताम्बर, हिन्द प्रथा के अनुसार उनके शवों का अग्नि-संस्कार ही किया जाता है । शव के साथ चलने वाला जन-समूह राम नाम सत्य है व अरिहंत नाम सत्य है, का मिल कर उच्चारण करने में कोई भेदभाव नहीं समझा जाता । मखाने व पंसे शव के ऊपर से फेंके जाते, मरघट पहुंचने के पहले भूमि स्पर्श कराया जाता है।
शव हिन्दू का हो या जंन का वहां कुछ पैसे रख दिये जाते हैं, बाद में शव उठाने वाले पीछे के आगे व आगे के पीछे हो जाया करते हैं, चिता पर हिन्दू पद्धति के माफिक ही दिशा) रखी जाती है, उस पर घी, जवा, तिल्ली मिश्रण कर डाला जाता है. चन्दनं भी रखा जाता है, अग्नि संस्कार के बाद ही मुख्य कुटुम्बी ही चारों तरफ घूम कर चिता में आग लगाता है। कपाल क्रिया करना, कुछ समय ठहरने के बाद सभी जन, पंच लकड़ी देने, घर वापिस आने के पहले किसी जलाशय पर जाकर स्नान करने, ये सब
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( १७३ ) विधि हिन्दू पद्धति के माफिक ही पूर्ण की जाती हैं ।
जैनों का प्राणान्त होने के बाद उसके शव को मरघट ले जाने के लिए दो लम्बी लकड़ियों पर ५ या ७ छोटी लकड़ियां बांधी जाती हैं, उस पर शव लिटाने के बाद स्त्री पर लाल तथा पुरुष पर सफेद कफन डाला जाता है, शव के आगे-आगे पुत्र या भाई अग्नि का बर्तन लेकर चलता है। (इसी अग्नि से अग्नि संस्कार किया जाता है) यह सब भारतीय परम्परा के मुताविक ही होता
____कोई-कोई जैन खानदानों में मृतक के फूल (जली हुई हड्डियां) गंगा जी में विसर्जन करने जाते हैं, वहां से गंगाजल भी भर कर लाते हैं और गंगाजली खोलने की रस्म भी अदा करते हैं, ब्राह्मण भोजन भी समाज के साथ करवाते हैं तथा ब्राह्मण से पूजन भी करवाते हैं ।
भारतवर्ष में प्राचीन प्रथा के अनुसार मनुष्य के पलंग पर प्राण निकलने को अच्छा नहीं मानते, उसका अन्त पाया समझ उसे उसके कुटुम्बी जन पलंग से उठा कर भूमि पर लिटा देते हैं । यह क्रिया जैन व वैष्णवों में एक-सी ही अपनाई जाती है। मृत्यु के बाद मृतक को नहला कर वस्त्र बदलना, अर्थी सजाना, शव-यात्रा में बाजे बजाना, शमशान से वापसी पर घर के द्वार से अन्दर तव तक प्रवेश नहीं करने दिया जाता, जब तक घर वाले पाकर पानी का छींटा न दे दें।
मृतक की भस्मी (खारी) अग्नि संस्कार के तीन दिन बाद शमशान भूमि से उठा ली जाती है, उसे तीसरा कहते हैं । बाद में दाह-स्थल को गाय के गोबर से लीप कर नमक छिड़कते हैं तथा कुछ खाने की सामग्री, पानी, व्यसन पदार्थ रख दिये जाते हैं।
इसके बाद समाज व मिलने वाले लोग मृतक के घर पहुंच
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( १७४ ) . कर घरवालों को नन्दिर तथा दुकान पर ले जाते हैं, इसी को उठावना कहते हैं। ___ मृत्यु से १३ दिन के बाद तेरवी की जाती है, जिसमें अपने रिश्तेदारों के अलावा ब्राह्मणों को भी भोजन के लिए बुलाया जाता है, यथा शक्ति दान दक्षिणा भी दी जाती है।
इसी दिन समाज द्वारा पगड़ी का दस्तूर भी किया जाता है। इस दस्तूर द्वारा पुत्र व अन्य अधिकारी को मृतक की जायदाद का मालिक मान लिया जाता है।
कुछ समय तक मृतक की पत्नी भाई व पुत्र नीले पक्के रंग के वस्त्र पहनते हैं, गले में दुपट्टा भी डाले रहते हैं। सिर पर भी दुपट्टा व रूमाल बांध लिया करते हैं ।
जैन धर्म यह अवश्य कहता है कि जिस रूढ़ि और परम्परा में विवेक और विचार को स्थान हो उसे कायम रखो और जो विवेक और विचार के विरुद्ध हो उसे छोड़ दो। उदाहरणार्थ जैन धर्म यह कहेगा कि मृतक शरीर को यदि फेंका या गाड़ दिया जाता है तो वह सड़ेगा और असंख्य सम्सुर्छिम जीव पैदा होंगे; परन्तु अग्नि में जला देने पर जीव पैदा नहीं होंगे। वह एक ही बार में भस्म हो जाएगा, अधिक हिंसा नहीं होगी।'
जैन व वैष्णव सम्प्रदाय में मृत्यु के समय भगवान का नाम लेना व सुनाने की समान प्रथा प्रचलित है । मृत्यु के समय का एक वार का भी नामोच्चारण अत्यन्त महत्वशाली माना गया है, प्राणी मोक्ष पद पा लेता है, ऐसा विश्वास है। इस कारण ही भारतीय प्रथा के अनुसार स्वयं से भगवान का नाम बारवार लेने को कहा जाता है। इसके उपरान्त भी सगे सम्बन्धी मृत्यु को भाई समझ मृतक के कान से लगकर भगवान के नाम का वार-बार उच्चारण करते हैं, ताकि अन्त समय मृतक को भगवान का स्मरण बना रहे । १-जीवन दर्शन-पृ० ६० ले० अमरमुनि
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धर्म, दर्शन, विज्ञान, कला एवं समस्त जीवन के सार तत्व से समन्वित संस्कार सम्पन्न जीवन ही संस्कृति कहलाती है। जहां समस्त अन्तरंग विरोध स्वयं समाप्त हो जाते हैं और जीवन्त मानवीय समग्रता ही शेष रह जाती है । पाने वाले लम्बे काल चक्र की अविश्रांत गतिशीलता को अपने में समेटे'। ____ शताब्दियों पूर्व बुक्का राय प्रयम (१३६८ के शिलालेख के अनुसार) ने एक आज्ञा प्रकाशित की थी :--'यह जैन दर्शन पहले की भांति पंत्र महाशक और कलश का अधिकारी है। यदि कोई वैष्णव किसी भी प्रकार जनियों को क्षति पहुंचाये, तो वैष्णवों को उसे वैष्णव धर्म की क्षति समझना चाहिए। वैष्णव लोग जगह-जगह इस बात की ताकीद के लिए शासन कायम करें। जब तक सूर्य और चन्द्र का अस्तित्व है, तब तक वैष्णव लोग जैन दर्शन की रक्षा करेंगे । वैष्णव व जैन एक ही हैं, उन्हें अलग-अलग नहीं समझना चाहिए । वैष्णवों और जैनों से जो कर लिया जाता है, उससे श्रवण वेल गोला के लिये रक्षकों की नियुक्ति की जाये और यह नियुक्ति वैष्णवों के द्वारा हो तथा उससे जो द्रव्य वचे, उससे जिनालयों की मरम्मत कराई जाये और उस पर चूना पोता जाये। इस प्रकार वे प्रतिवर्ष धन दान देने से चूकेगे और यश तथा सम्मान प्राप्त करेंगे, जो
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( १७६ ) इस आशा का उल्लंघन करेगा, वह राजद्रोही और सम्प्रदायद्रोही होगा।
कितनी गहरी सामन्जस्य भावना इसमें विद्यमान है कि व्यवस्था की दृष्टि से वैष्णव व जैन दोनों ही अपनी सम्पूर्ण आर्य संस्कृति के संदर्भ में इतने अभिन्न हैं कि उनके बीच किसी भी प्रकार का परस्पर असम्बद्धता की कल्पना अपराध है। .
वर्ण व्यवस्था को ही लें तो यह निर्विवाद है कि मूल वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर एक गुणात्मक विभाजन का परिणाम थी, जिसमें परिस्थितियों और प्रगति के समान्तर अन्य धर्मों का काल में चलकर समावेश होता गया और अनेक आचार्यों ने भारतीय संस्कृति के समसामयिक भौतिक चिंतन के अनुरूप अनेक दिशा-क्रम की स्थापना की तथा विभिन्न धार्मिक मतों और व्यावहारिक मान्यताओं के समग्न अन्तकर्म में सभी अन्तविरोधों और प्रायोगिक असहिष्णुता के विपरीत निःसंदेह एक स्वस्थ भारतीय समाज की संरचना, इस बात का प्रमाण ह कि आज भी यदि कोई व्यक्ति वैष्णव धर्म छोड़कर जन धम स्वीकार कर लेता है तो किसी प्रकार की कूदृष्टि का शिकार नहीं होता और न उसके प्रति किसी प्रकार के द्वेष की उत्पत्ति होती है। आज भी जैन व वैष्णवों के ऐसे सैंकड़ों कुटुम्ब मिल . सकते हैं जो एक संगठन के अन्तर्गत भी अलग-अलग जैन व वैष्णव धर्म का पालन करते हैं । वहुत से ऐसे मन्दिर अाज भा इस वात के जीवन्त साक्षी हैं कि वहां वैष्णव, शैव, आदि सभा प्रास्था विश्वास और श्रद्धापूर्वक उसे अपने तीर्थ मानत है ।
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१. जन-धर्म-सिद्धांताचार्य कैलाश चन्द शास्त्री पृ० ६३
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( १७७ ) फिर 'हिन्दू' किसी जाति या धर्म का वाचक कभी नहीं रहा । संस्कृति के समग्र भौगोलिक परिवेश में सम्बोधन का पर्याय 'हिन्दू' को किसी भी विशिष्ठ साम्प्रदायिकता से सम्बद्ध करना नितांत दुराग्रहयुक्त और द्वषपूर्ण तथा भ्रामक है.।
भारत संस्कृति के धार्मिक एवम् सामाजिक परिप्रेक्ष्य के समस्त आयांम समन्वय की अपनी मूल व्यवस्था को प्रत्येक . काल-क्रम में समान रूप से प्रभावित करते हैं। कहीं भी किसी तरह के मूल विभेद की बात हमें नहीं मिलती। फिर जैन हिन्दू हैं । भौगोलिक सन्दर्भो के अतिरिक्त अन्य अपने 'रूढ़िगत व्यवहार पक्षों में इस बात को निर्विवाद स्वीकार किया जा सकता है।
समस्त पुस्तक में मैंने इसी समन्वय की केन्द्रीय भावना को ध्यान में रखते हुये विद्वानों के समक्ष अपने इस प्रयास को प्रस्तुत करते हुए उनसे समस्त सहयोग को तथा उनकी प्रतिक्रियाओं को अपेक्षा करता हूँ।
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संदर्भ-ग्रन्थ
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भारिल्य ५. प्राचीन भारतीय इतिहास : हेत सिंह बघेला ६. जीवन दर्शन : श्री अमर मुनि ७. सूक्ति त्रिवेणी : श्री अमर मुनि ८. कल्याण : हिन्दू संस्कृति अंक ६. समस्या का पत्थर : आध्यात्म की छनी : मुनि नथ मल जी १०. भारतीय दर्शन : सतीश चन्द्र चट्टोपाध्याय एवं धीरेन्द्र
-मोहन दत्त
११. हिन्दू धर्म : राम प्रसाद मित्र १२. हिन्दू का स्वरूप : गुरुदत्त १३. वैदिक आर्य सभ्यता : पं० रघुनन्दन शर्मा १४. हिन्दुत्व का अनुशीलन : तनसुख राम गुप्त १५. नवभारत, भोपाल : १४ जनवरी १६७४ १६. भारतीम समाज-जीवन और प्रादर्श :प्र० भाग : रवीन्द्र
नाथ ठाकुर १७. विजय-पताका : स्वामी श्री रामचन्द्र वीर महाराज १८. राष्ट्र-धर्मः लखनऊ-तीर्थन्कर : श्री कृष्ण वल्लभ द्विवेदी १६. मेरा धर्मः केन्द्र और परिधि : प्राचार्य तुलसी
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२०. श्रग्नि परीक्षा : चिन्तन का प्राव्हान् दैनिक जागरण,
कानपुर
२१. नवभारत टाइम्स, दिल्ली
२२. अग्नि परीक्षा : एक समीक्षात्मक अध्ययन
२३. हिन्दू समाज : सघटन और विघटन : डा० पुरुषोत्तम गणेश सहस्त्रबुद्ध े
२४. हिन्दू धर्म का क ख : तनसुख राय गुप्त
२५. भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम पृष्ठ: तृतीय भाग २६. हिन्दुत्व के पंचप्राण : विनायक दामोदर सावरकर
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२८. अग्नि परीक्षा - कृति श्रोर कसौटी : प्राशा विवेकी
२६. मंगल प्रवचन : विद्यानन्द मुनि
३०. श्रग्नि परीक्षा : एक समीक्षा : मुनि श्री रूपचन्द
३१. भगवान अरिष्ठनेमि श्रोर कर्मयोगी कृष्ण एक अनुशीलन
: अथरचन्द नाहटा
३२. कादम्बिनी : अक्टूबर १९७२ ३३. दिनमान : ३ जनवरी १९७१
३४. जन साहित्य का इतिहास ३५. दक्षिण भारत में जैन धर्म
३६. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि : डा० ज्योति प्रसाद जन ३८. जैन शासन
३९. नवनीत : गणपति गाथा : जनेन्द्र वात्स्यायन
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४२. जैन रामायण १ कविवर्य सूर्यमुनि जी महाराज ४३. सन्मति सन्देश : श्री अगर चन्द नाहटा ४४. चैतन्य मत और ब्रज साहित्य : प्रभुदयाल
मित्तल
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( १८० ) ४५. जैन साहित्य और इतिहास
४६. भारतीय संस्कृति का इतिहास : भगवद्दत्त ४७. जैन धर्म : सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाश चन्द्र शास्त्री ४८. ऋषभदेव : एक परिशीलन : देवेन्द्र मुनि शास्त्री ४६. भारत का इतिहास : गंगा शंकर मिश्र ५०. राष्ट्रधर्म (तीर्थकर महावीर विशेषांक) ५१. साहित्य और संस्कृति : देवेन्द्र मुनि शास्त्री ५२ : भारतीय दर्शन का इतिहास : डा० राधाकृष्णन ५३. चिन्तन की मनोभूमि : अमर मुनि
५४. सन्त वाणी अंक : कल्याण
५५. जैन वीरों का इतिहास और हमारा पतन : अयोध्या प्रसाद गोयलीय
५६. कल्याण : ७ जुलाई १९६७
५७. जैन शासन : श्री सुमेर चन्द जी दिवाकर, सिवनी ५८. कर्त्तव्य कौमुदी : पं० मुनि रत्न चन्द जी महाराज (जैन)
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६०. परलोक और पनर्जन्मांक-कल्याण
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वीर
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