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* स्वामी रामतीर्थ
श्रीमद्भगवद्गीता, ऐसे विश्वमान्य ग्रन्थ पर श्रास्था रखने वाले सभी मानव यह जानते हैं कि जब-जब वौद्धिक सिद्धान्त अर्थात् धर्म की अवहेलना मनुष्य करने लगता है, और सिद्धान्त विहीन, धर्म-विमुख जीवन व्यतीत करने लगता है तब-तब सर्व व्यापक चेतन सत्ता जिसे भक्त हृदय भगवान् कहता है, तत्कालीन परिस्थिति एवं मानव मनः स्थिति के अनुसार अनेकों रूपों में प्रकट होकर लोगों का पथ प्रदर्शन करती है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, भ्युत्थामवस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम् । परित्राणाय साधूनां विनाशायद दुष्कृताम् धर्मसंस्थापनवार्य संभवामि युगे युगे ।
जव जव होई धर्म की हानी, वाह प्रसुर महा श्रभिमानी ।
तव तव प्रभु धरि विविध सरोरा, हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा ।
गीता
- रामायण
मनीषियों का अनुभव एवं शास्त्र की सहमति है कि सत्व, रज और तम के व्यापार का ही नाम संसार है । इन्हीं तीनों गुणों की after र न्यूनता पर ही सत, प्रेता, द्वापर और कलियुग का अस्तित्व है । सत्वगुण के विकास से वृद्धि में प्रकाश बढ़ता है । प्रकाशart बुद्धि ही सत्यन्यसत्य का विशुद्ध निर्णय देती है । ऐसी वुद्धि वाला मनुष्य ग्रसत् का त्याग कर सत् को और गतिशील रहता है। समष्टि में जब ऐसी परिस्थिति और व्यष्टि में जब ऐसी मनः स्थिति होती है तब सत्ययुग की प्रवृत्ति