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( १०५, ) 'इसके अतिरिक्त महाराज विक्रम के काल में सिद्धसैन दिवाकर नामक एक प्रसिद्ध जैन आचार्य हुए । राजा इनका बहुत सम्मान करते थे। जैन और वैदिक जैसा कोई भेदभाव उस समय नहीं था । महाराज चन्द्रगुप्त ने आचार्य सिद्धसैन सूरि को बहुत धन दिया। सिद्धसैन जैन सम्प्रदाय में पहले प्राचार्य थे, जिनके मन में यह बात समा गई कि सारा जैन आगम संस्कृत में कर देना चाहिए।
महावीर के प्रमुख शिष्यों (गणधरों) एवं समर्थक राजारों द्वारा जैन धर्म का प्रसार ५४६ ई० पू० बहत्तर वर्ष की आयु में पावा नामक स्थान में महावीर ने अपना शरीर छोड़ा, उस समय तक उनके मत का मगध और आसपास के क्षेत्रों में काफी प्रचार हो चुका था। इस कार्य में उनके ग्यारह प्रधान शिष्यों ने प्रमुख योग दिया था जो "गणधर" कहलाते थे। इनके नाम थे इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मण्डिक, मार्यपुत्र, अकम्पित, अंचलम्राता, मैतार्य और प्रमास । इनके आधीन उपासकों एवं अनुयायियों की विविध शिष्य मंडलियां संगठित थीं जो "गण" कहलाती थीं। इस प्रकार "गण" बना कर बुद्ध की भांति महावीर ने भी अपने अनुयायियों को संघ के रूप में सुगठित कर कर दिया था। इस संगठन से उसके मत के प्रचार में बड़ी सुविधा हुई । उधर उनके मत के पोपक कतिपय राज्यन्यों विशेषकर लिच्छविगण के शासक चैटक तथा मगधराज विविसार और उस के पुत्र अजातशत्रु ने भी इस अहिंसा के प्रसार में अनमोल सहायता दी । इन राजकुलों के अन्य राज परिवारों में विवाह संबन्ध के फलस्वरूप भी देश के दूर-दूर भागों तक जैन धर्म की पतांका
१-भारतीय संस्कृति का इतिहास :भगवद्दत-पृ० १०८