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( १६ } उच्चकुल में जन्मे श्री रतनचंद जी मेहता ने इकलोती सन्तान के रूप में सभी पत्रिकगुण विरासत में पाये । पिता श्री अनूपचंद जी मेहता जितने उदार हृदय-सौम्य, कानून थोर कास्त के मर्मज्ञ, दूरदृष्टा और भावुक थे, वे सारी की सारी विशेषतायें प्राज भी श्री मेहता में देखी जा सकती हैं ।
शैशव का सीमान्त लांघते ही परिदेशानुकूल व्यायाम की तरफ इनकी गहरी रुचि उभर कर सामने आई, जिसे आने वाले २५ वर्षों तक इन्होंने विविध रूपों में संवारा-संजोया । किशोरावस्था के दौरान सन् १९३१ में इन्होंने ग्रागासौद में ही नवयुवक सेवा मण्डल की स्थापना की और जीव दया प्रचारिणी सभा के समन्वय से गांव के विकास और समाज की प्रगति के लिए थाने वाले लम्बे समय तक उन्होंने उसका संचालन किया ।
अध्ययन के प्रति अपनी स्वाभाविक और गहरी रुचि के कारण बचपन से ही विभिन्न पुस्तकों का घर पर पठन-पाठन इन्होंने प्रारम्भ कर दिया था तथा कुछ अन्तराल से इनका ध्यान अध्ययन की एक सुनियोजित व्यवस्थानिर्माण के प्रति गया और गांव में इसकी कमी तथा साक्षरता की आवश्यकता को ध्यान में रखकर इन्होंने एक सुव्यवस्थित पुस्तकालय की स्थापना की एवं प्रौढ़ शिक्षा के विकास के लिये रात्रि पाठशाला भी प्रारम्भ की जिसे एक प्रभुतपूर्व शुरूप्रात माना गया, लोगों की सामायिक चेतना और शिक्षा को विकसित करने के क्षेत्र में...
देश जब भी क्रान्ति की अनिवार्य भूमिका से गुजरता है, तो एक दायित्वपूर्ण, भावुक चेतनशील और आस्थावान व्यक्ति उससे सहजता उससे आन्दोलित हो उठता है। तत्कालीन