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( ५७ } व पत्थर के कलस चढ़ाये जाते हैं, ध्वज लहराया जाता है | अन्दर भगवान् के स्वरूप की मूर्ति को ऊंचे सिंहासन पर विराजमान किया जाता है । भगवान् को वस्त्र व सोने चांदी के श्राभूषण भी पहनाये जाते हैं, स्नान करने के बाद ही पूजन की जाती हैं | फल, फूल, मेवा, अक्षादि सामग्री पूजन में उपयोग की जाती है, मिष्ठान का प्रसाद वांटा जाता है । मन्दिरों में भी पूजन विधि एक ही समान होती है। घंटा घड़ियाल दोनों जगह बजाये जाते हैं, भारती करने की विधि एक है ।
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भगवान् के समक्ष नतमस्तक होने की विधि एक सी है । जैन व हिन्दू मालाओं में १०८ ही मणिकों की डालने की प्रथा है । कुछ विशेष मंत्रों को दोनों पक्षों में १०८ बार जपने का भी विधान है ।
पूजा
में सबसे पहले जल से मूर्ति का अभिशेष (स्नान ) किया जाता है । कहीं-कहीं दूध, दही, घी, इक्षुरस व मिश्रण पदार्थों से स्नान कराया जाता है । वाद में जल चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवैद्य, दीप, धूप और फल श्रादि इनका उपयोग पूजन में किया जाता है ।
पूजा के दो भेद माने गये हैं । पहला द्रव्य पूजा, दूसरा भाव पूजा । यह दोनों प्रकार की पूजा विधियां जैन व वैष्णव में आज भी प्रचलित हैं ।
जैनियों में प्रचलित 'जुहार' शब्द का भारत में व्यापक प्रचार जैन संस्कृति के प्रभाव को स्पष्ट करता है । युगादि पुरुष भगवान् वृपभदेव के प्रणाम का द्योतक है । 'हा' का अर्थ है जिनके द्वारा सर्व संकटों का हरण होता है और 'र' का भाव है जो सर्व जीवधारियों के रक्षक हैं, इस प्रकार जिनेन्द्र गुण