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सैध्दान्तिक पक्ष हम लें तो हमें हिन्दू ग्रन्थों में वे सब बातें मिलती हैं जो जैनत्व के मूल तत्व में हैं, लेकिन उनका विकास जो जैन दर्शन में है, वह ग्रन्यत्र नहीं है । ग्रहिसा का सूक्ष्म विवेचन जैन दर्शन में पराकाष्ठा पर पहुँच गया । कर्मवाद जैनत्व का मूल आधार है । ईश्वरवाद को वहां स्थान नहीं, यह नई विचारधारा नहीं लेकिन हिन्दुत्व विचाराधारा का विकास ही है । इसलिए जैन दर्शन व हिन्दू दर्शन एक गुलदस्ता है, विविधता में भी 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' के दर्शन हैं ।
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का भागवत् गीता में ग्रादीश्वर के रूप में उल्लेख है । ग्रतः दोनों का श्राराध्य देव एक है, अतः दोनों प्रणालियां इस देश के श्रात्म-वल को जगाने में अपने-अपने ढंग से कार्य कर रही हैं । लेकिन यह दोनों दर्शन इस देश की निधि हैं और इसलिए हिन्दुत्व से पृथक नहीं की जा सकतीं ।
प्रसिद्ध भागवत् पुराण में विष्णु के चौबीस अवतारों का उल्लेख करते समय उनमें ऋषभदेव भगवान् को विष्णु का पांचवां अवतार माना गया है । प्रथम भल्यावतार, द्वितीय कच्छप, तृतीय वराह और चौथा नृसिंह अवतार मानकर पांचवां अवतार ऋषभदेव को माना गया है । विष्णु के अवतारों में भगवान् ऋषभदेव मनुष्य अवतारों में सर्वप्रथम थे ।
भगवान् ऋषभदेव का चरित्र भगवत् पुराण के पंचम स्कन्ध में विस्तारपूर्वक उपलब्ध होता है । भागवत् पुराण में यह भी उल्लेख है कि उन्हीं के चरित्र की नकल करके बाद में जैनधर्म चला । भागवत् में उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती को एक बहुत प्रभावशाली महात्मा वतलाया गया है । कतिपय लेखक भागवत् पुराण को हजार बारह सौ वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं मानते, किन्तु श्रन्वेषकों का मत है कि यह महाभारत कालीन महर्षि
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