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बादरायण व्यास की सबसे अन्तिम कृति है। वाल्मिसीय रामायण तथा योगवासिष्ठ को भी राम का समकालीन नथ मान कर उनको भागवत् पुराण से भी अधिक प्राचीन माना
वाल्मिकीय रामायण के आदि काण्ड, दशम सर्ग, अष्टम श्लोक में दशरथ द्वारा किये गये अश्वमेघ यज्ञ का विवेचन करते हुए कहा है कि
अनाथा मुन्जते नित्यं नाथ पन्तश्च भुन्जते । तापस भुन्जते चापि, भुन्जते श्रमण अपि ।।
दशरथ के यज्ञ में अनाथ, सनाथ, तापस और श्रमण जैन मुनि सभी पाहार लेते थे । ग्रहण करते थे। इस श्लोक में । स्पष्टोल्लेख है कि राजा दशरथ ने अन्य साधुनों की भांति श्रमणों को भी पाहार दान दिया। श्रमण का शाब्दिक अर्थ जैन तथा वौद्ध साधु ही होता है । वौद्ध लोग रामायण काल में बौद्ध साधुनों का इतना विशेष अस्तित्व नहीं मानते, अतः बालिगकीय रामायण के 'श्रमण' शब्द का अर्थ केवल जन-साधु ही युक्ति संगत हो सकता है। अत: भगवान राम के समय में भी जैन धर्म का अस्तित्व पूर्णरूपेण स्वतः ही सिद्ध है। इससे निविदाद यह माना जा सकता है कि हिन्द विचारधारा और जन विचारघारा एक सरिता से निकलने वाले दो निझर हैं। - वासिष्ट के वैराग्य प्रकारग में तो भगवान राम स्पष्ट रूपेण जैनधर्म का वर्णन निम्नलिखित श्लोक में करते हैं---
नाहं रामो न मे वान्या, विषयेषु न च मे मनः । शान्तमास्थातुमिच्छामि, वीतरागां जिनो यथा ।।