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वंश से बतलाया जाता है। लुईराईस ने उसे दक्षिण का प्रमुख जैन राजवंश कहा है।
३४. श्री रामस्वामी आयंगर ने लिखा है कि मुष्कर या मुखर : के राज्यकाल में जैन धर्म राज्य धर्म हो गया था। उसके पूर्वजों में से केवल तीसरे और चौथे राजा को छोड़ कर शेष निश्चय ही जैन धर्म के अनुयायी थे। उसका उत्तराधिकारी अविनीत जैन था और अविनीत का उत्तराधिकारी दुविनीत प्रसिद्ध जीन वैयाकरण पूज्यपाद का शिष्य था।
३५. राजा शिवभार द्वितीय संगोट का छोटा भाई दुग्गभार इरेयप्प भी जन था।
३६. मारसिंह ने जिनेन्द्रदेव के सिद्धान्तों को सुनियोचित किया और अनेक स्थानों पर वसदियों और मानस्तम्भों का निर्माण कराया।
३७. खारवैल जैन धर्मावलम्बी था, परन्तु चैदिक विधाना'नुसार उसका महाराज्याभिषेक हुआ और उसने राजसूय-यज्ञ भी किया । ब्राह्मणों की जातीय संस्थानों को उसने भूमि प्रदान की। इससे यह भली-भांति स्पष्ट है कि जैन धर्मानुयायी होते हुए प्राचीन राष्ट्रीय नियमों का पालन करने के लिए उसे पूर्ण स्वतन्त्रता थी।
३८. अग्निकुल में उत्पन्न परमार परिहार, चालुक्य, सौलंकी और चाहान राजपूत भी जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे। ३६. मैसूर के कादम्बवंशी राजा अधिकतर जैनी थे।
४०. सन् १९२२-२३ की एप्रिग्राफी रिपोर्ट में वर्णित है कि फांची के कुछ पल्लव राजा, कुछ पाण्डराजा, पश्चिमी वालक्य राजा, गंगवंशीय तथा राष्ट्रकूट वंशीय राजा पक्के जैनी थे। २-दक्षिण भारत में जैन धर्म-पृ० ७६ ३--जेन वीरों का इतिहास और हमारा पतन-पृ०७६
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