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हिन्दुओं, जैनों तथा सिक्खों तथा उनकी उपजातियों में होने वाले विवाहों को वैधता प्रदान की गई थी।
हिन्दू मैरिज ऐक्ट में दोनों विशेषतायें थीं-शास्त्री मान्यताओं का अनुमोदन भी तथा जातीय स्थानीय परम्परात्रों की मान्यता भी। इसलिए यह एक व्यापक अधिनियम बन गया।
इसके अतिरिक्त जहां तक विवाह के अन्तनिहित कार्यविधि का प्रश्न है, जन और वैष्णव दोनों की विवाह पद्धति समान है, दोनों ही सम्प्रदायों में न तो एक गोत्र में विवाह होते हैं और न माता या पिता के मूल परिवारों में परस्पर विवाह सम्बन्ध को स्वीकृति दी जाती है। इसके अतिरिक्त बहु विवाह के सन्दर्भ में भी समान निषेध दोनों ही जगह मान्य है। बहिविवाह जिसके अन्तर्गत सपिण्ड और सगोत्र विवाह नहीं हो सकते, जैन और वैष्णव दोनों ही इस प्रतिबन्ध का पालन करते हैं। अन्तर्विवाह अर्थात् समाज में अपने वर्ग जाति धर्म तथा प्रजात के अन्दर ही विवाह करना दोनों ही सम्प्रदायों में समान प्रचलित है। यहां धर्म का आशय हिन्दू और मुसलमान जैसे पूर्ण भिन्न धर्मों से है। क्योंकि जैन और सनातन धर्म में पहले भी विवाह सम्वन्धन होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं । जैन और सनातन या वैष्णव समाज में अनुलोम तथा प्रतिलोम के वैवाहिक नियमों का भी पूरी तरह समान पालन किया जाता है।