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जैन से वैष्णव : वैष्णव से जैन
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पूर्णवतः इस बात को स्पष्ट किया जा चुका है कि जैन धर्म में प्रास्थावश दीक्षित होने वाले बहुत से क्षत्रीय राजाओं ने इस के विकास और सम्बर्धन में जीवन भर यथाशक्ति प्रयास किया । धर्म अपने आप में मूलतः एक ऐसा विश्वास है जो आस्था, संयम, आचरण आदि की सर्वथा सहवर्तीय और अनुकूल जीवन दृष्टि प्रदान करता है । अन्तरंग नियम की व्यवस्था ऊपरी तौर पर जैन और वैष्णवों के स्वरूप तथा आकार को कुछ अंशों में भिन्न कर सकती है किन्तु हिंसा और अहिंसा के विभिन्न पक्षों में अपना आत्मिक विश्वास प्रगट करने की मानवतावादी धार्मिक पृष्ठभूमि में सिर्फ इस कारण परस्पर विरोध नहीं माना जा सकता कि उसके मतानुयायी अलगअलग रास्तों और उससे सम्बन्धित धार्मिक पद्धतियों के श्राचरण का अनुगमन करते हैं, इसी क्रम में जहां एक ओर बहुत मे वैष्णवों में जैन धर्म के प्रति अपनी सम्पूर्ण श्रास्था प्रगट करते हुए उसकी दीक्षा ली वहीं बहुत से जैन मतानुयायी भी वैष्णव धर्म में दीक्षित हुए ।
वस्तुतः दोनों ही सिद्धान्त एक दूसरे के पूरक होने के कारण भारतवर्ष में बहुत पहले से ही धर्म परिवर्तन कर लेने पर कोई विशेष अन्तर नहीं माना जाता था । श्रच्छे से अच्छे नियम संयम में रहकर स्वयं का उद्धार भी समय समय पर
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