________________
इसके अतिरिक्त प्राचीन उपदेशों और ग्रन्थों के आधार पर जैसे श्रीमद्भागवत के अन्तर्गत भगवान ऋषभदेव द्वारा दिये गये उपदेश भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। नायं देहोदेह भाजां नृलोके
कष्टान् कामानहते विड् भुजां ये । तपो दिव्यं पुत्रकायेन सत्वं
शुद्धयेयस्माद् ब्रह्म सौख्यंत्वनन्तम् ।। महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्त
स्तमोद्वारयोषितां सडिग सङ्गम् । महान्तस्ते समचित्ताः प्रशान्ता
विमन्यवः सुहृदः साधवी ये ।।
(श्रीमद्भा० ५।५।१-२) पुत्रो! इस मर्त्यलोक में यह मनुष्य-शरीर दुःखमय विषयभोग प्राप्त करने के लिए ही नहीं है । ये भोग तो विष्ठा भौजी सूकर-कूकरादि को भी मिलते ही हैं । इस शरीरं से दिव्य तप ही करना चाहिए, जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो, क्योंकि इसी से अनन्त ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में महापुरुषों की सेवा को मुक्ति का और स्त्रीसंगी कामियों के संग को नर्क का द्वार बताया है । महापुरुष वे ही हैं जो समानचित्त, परमशान्त, कोषहीन सव के हितचिन्तक और सदाचार सम्पन्न हों। गुरुर्नसस्यात् स्वजनो न सस्यात्
पिता न सस्याम्जननी न सास्यात् । देवं न तत् स्यान्न पतिश्च सस्या
न्न मोच पेयः समपैतमत्युम् ।।
(श्रीमद्भा० २०१०) जो अपने प्रिय सम्बन्धी को भगवद्भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फांसी से नहीं छुड़ा देता, वह गुरू नहीं है, स्वजन स्वजन