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( २६ ) छिपा नहीं है । इस विषैले वातावरण को समाप्त करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। वैदिक, जैन, बौद्ध और सिक्ख संस्कृति के समन्वय बिना ग्रार्य परम्परा का इतिहास किन्हीं अर्थो में पूर्ण नहीं माना जा सकता ।
इस स्वीकारोक्ति के उपरान्त भी कि कोई प्रयास ग्रुपने आप में पूर्ण नहीं होता, इस पुस्तक को सार्थक एवं उद्देश्यपूर्ण बनाने का भरसक प्रयास मैंने किया । पुस्तक में कई ऐसे प्रसंग थाए हैं, जहां ग्रास्था से परे बौद्धिक तर्क वितर्क के द्वारा सन्देह उत्पन्न किए जा सकते हैं या सम्भव है कई सन्दर्भों में मुझसे भी त्रुटियां वन पड़ी हों, किन्तु अन्ततः सभी बातें सबको समझ में श्री जावें, यह भी तो सम्भव नहीं है ।
यदि जैन व वैष्णव समाज के विद्वान इस पुस्तक के निष्पक्ष एवं प्राग्रहरहित अध्ययन के फलस्वरूप मेरे प्रयासों को दोनों ही सम्प्रदायों की एकरूपता के संदर्भ में अपनी थोड़ी बहुत भी स्वीकृति प्रदान कर सकें तो मैं "जैन- हिन्दू एक सामाजिक दृष्टिकोण" इस दिशा में अपने इस प्रयत्न को सफल मानू ंगा | मुझे सन्तोष है कि वैष्णव विद्वान द्वारा जैनियों को हिन्दू हो माना गया है, साथ ही यह विश्वास भी है कि जैन व वैष्णव समाज के पाठकों द्वारा हार्दिक सहयोग प्राप्त होगा । कुछ लोग अवश्य मेरी इस विचारधारा से रुष्ट होंगे, उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि जैन वस्तुतः हिन्दू समाज के ही अभिन्न अंग हैं, ऐसा निश्चिय कर लेने के पश्चात ही समाज समर्थ, सुखी, प्रगतिशील, सुदृढ़ और समृद्ध बन सकेगा ।
मैं उन प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वानों तथा चिन्तकों का हृदय से अभिनन्दन करता हूँ, जिनके ग्रन्थों, गन्वेपणापूर्ण निवन्धों