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________________ जैनों में गणेश पूजन हिन्दुस्तान को अपनी भूमि मानने वाला हिन्दू भले ही किसी भी जाति व धर्म का अनुयायी हो, अपनी पृथक-पृथक मान्यताओं के उपरान्त भी किसी न किसी रूप में गणेश पूजन किया करता है । गणानाम् अथवा (गणस्य) अर्थात साधुगण-जन गण के ईश (नियामक या नेता) को गणेश कहते हैं । गणेश शब्दगत प्रथम अक्षर ग जानार्थवाचक है, द्वितीय अक्षर 'ण' निर्माणवाचक है तथा अंतिम शब्द 'ईश' स्वाभिमानवाचक है। इस प्रकार गणेश संपूर्ण शब्द का अर्थ हुआ-ज्ञान तथा निर्वाण का स्वामी ब्रह्म, परमात्मा, परमेश्वर, या परमतत्व आदि । जैन धर्म में ज्ञान का संकलन करने वाले. 'गणेश' · अति गणधर की मान्यता है । केवल ज्ञान (सर्वज्ञता) को उपलब्ध कर ने पर अरहन्त (तीर्थकरों) का उद्देश्य प्रायः गणधर के निमित्त से ही होता है । गणधर ही उसका मुख्य पात्र है और वे ही उस मान का बारह अंगों और चौदह पूर्वा में संकलन करते हैं। चे मतिः श्रत, अवधि (परोक्षा बातों का सीमा सहित प्रत्यक्ष शान) और दयरों की बातों को प्रत्यक्ष जानने वाला मन-पर्यय -मान इन चार प्रकार के गान वाले होते हैं। तीर्थकर तो किसी को गिप्य बनाते नहीं, किसी को दीक्षा देते नहीं। तीर्थकरों के साथ जो साधुओं के संग रहता है, उसके नियामक गणधर होते हैं, क्योंकि तीर्घकर अनादिकाल से होते याये हैं,
SR No.010239
Book TitleJain Hindu Ek Samajik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mehta
PublisherKamal Pocket Books Delhi
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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