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________________ ८६ ) -सं० १७२० में कवि रमचन्द्र रचित 'राम विनोद' के प्रारम्भ में... सिद्धि बुद्धिदायक सलहीये, गवरी-पुत्र. गणेश । विधन विडारण सुख करण, हरशधरी प्रणमेश ।। १०-सं० १७२५ के लगभग लक्ष्मी वल्लभरचित 'कालज्ञान के प्रारम्भ में... सकति शंघु-सुतन, धर तीनों का ध्यान सुन्दर भाषा वंध करि, करिहं कालज्ञान । ११-सं० १७६४ में समरथ कवि० वि० 'रसमज्जरी' भाषा के प्रारम्भ में सवैया.. गणेश को रूप अनूप विराजति गंडौ-स्थल मद वारि झरै । ते पान किये अति मत्त भए भर गुजित भौंर अनेक फिरै ।। ते गुजत ही मुख की छवि देखि, मनों मनि नील की संक सो देव विनायक सदा सुखदायक, तुमको नित ही सौख्य करै ॥ इस प्रकार.१६वीं से १८वीं शताब्दि के श्वेताम्बर कवियों के हिन्दी और राजस्थानी दोनों भापायों के ग्रन्थों के प्रारंभ में गणेश जी का स्मरण किया जाता है। इनमें से कई ग्रन्थ तो वैद्यकएवं गणित के हैं। वैद्य - कादि ग्रन्थ तो सार्वजनिक है ही, अन्य कई संस्कृत एवं चरित्र काव्य भी हैं, जिनकी कथायें ऐतिहासिक एवं सार्वजनोपयोगी हैं । श्री गणेश जी के भक्त भी इन रचनाओं से लाभ उठा सकेंइस विशाल दृष्टि से गणेश जी की प्रति प्रसिद्धि के कारण ही जैन विद्वानों ने इनका स्मरण ग्रन्थ के प्रारम्भ में किया है ।' १-कल्याण-गणेश अंक-पृ० ३७२-श्री भंवर लाल जी नाहटा
SR No.010239
Book TitleJain Hindu Ek Samajik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mehta
PublisherKamal Pocket Books Delhi
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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