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वह आज भी यज्ञोपवीत धारण करते हैं । यहां मेरा औशय सिर्फ यह स्पष्ट करना है कि वैष्णव एवं जैनियों का यज्ञोपवीत धारण परस्पर समन्वय सूचक तथा हिन्दू संस्कृति का प्रतीक है। इस प्रकार जैनियों द्वारा यज्ञोपवीत की मान्यता यह प्रमाणित करती है कि जैन भी हिन्दू ही हैं। सौमदेव ने अपने यशस्तिलक में लिखा है
९ . . . यत्र सम्यवत्वहानिर्न यत्र न ब्रतदूपणम् । सर्वमेव हि जैनानां प्रमाणं लोकिकों विधिः । '
अर्थात वे सभी लौकिक विधियां या क्रियायें जैनियों के . लिये प्रमाण हैं, जिनमें सम्यवत्व की हानि न होती हो और व्रतों में कोई दोष न लगता हो, इस सूत्र के अनुसार ही अग्नि पूजा और यज्ञोपवीत की विधियों को जैन धर्म में स्थान मिल सकता
जनेऊ से अध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थय के.. अनेक लाभ प्राप्त होते हैं, जो विज्ञान सम्मत हैं।
यज्ञोपवीत चव्व पर ६६ बार लपेटा जाता है। फिर इसे तिगुना करके ऊपर बांई तरफ लपेटना पड़ता है । इससे इसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य इन तीनों वर्गों का अधिकार बताया जाता है, फिर इस तीन लड़ी वाले सूत्र को तिगुना करके पुनः दाहिने से नीचे लपेटा जाता है जो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ इन तीन आश्रमों की प्रयोगशीलता का प्रतीक है। .
श्री मूल शंकर देसाई के अनुसार 'यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार उसे ही है जिसका खान-पान शुद्ध हों, आगम के अनुकूल हो और जो अभक्ष का त्याग करने वाला हो, जो रात में चार प्रकार के ग्राहारों से मुक्त, सप्त व्यसन का सम्पूर्ण रीति से त्याग करने वाला हो। जैन धर्म में भी यज्ञोपवीत के पीछे यही