________________ ( 152 ) उपनिषदों में ही सर्वप्रथम कर्मफलवाद तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ / जैन धर्म में जहां कि पुनर्जन्म की बात पर विश्वास किया जाता है, जन्म-मरण के बन्धन से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि पूर्व जन्मों के कर्मों से छुटकारा पाना तथा नये अच्छे कर्म करना / आवागमन के बन्धन से मुक्त होने के लिए महावीर स्वामी ने हर जैन धर्मावलम्बी को 'त्रिरत्तों के पालन की शिक्षा दी। भारत की आध्यात्मिक परम्पराओं ने जैन धर्म और संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थान है / कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष, सृष्टि, रूप आदि के सम्बन्ध में जैन दर्शन के अपने विचार हैं / 'अनेकान्तवाद' और 'स्यादवाद' के सिद्धान्त उसकी मौलिकता के प्रवलतर प्रतीक हैं / सांख्ययोग की भाँति जैन. दर्शन सृष्टिकर्ता ईश्वर को स्वीकार नहीं करता, अद्वैतवेदान्त की तरह वह आत्मा के स्वरूप लाभ को ही मोक्ष मानता है / वैशेषिक के समात वह परमाणुवादी है। उसके ज्ञान सम्वन्धी कतिपय विचार वर्तमान परामनोविज्ञान का पूर्वाभास देते हैं / 2 विभिन्न विद्वानों के इन उपरोक्त विवेचनों से स्पष्ट है कि जैन व वैष्णव - मान्यतात्रों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है तथा एक ही भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग होने के कारण वैष्णव और जैन दोनों ही हिन्दू (भौगोलिक नहीं वरन् सम्बोधन के परम्परागत अर्थों में) कहलाने के समान योग्य हैं। १-पी० एस० त्रिपाठी भारतीय इतिहास का परिचय २--डा० देवराज, एम० ए० डी० लिट्-चिन्तन की मनोभूमि -अमर मुनि के 'दो शब्द' से