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भारतीय संस्कृति और जैन-धर्म
संस्कार सम्पन्न जीवन का नाम ही संस्कृति है। जहां मानसिक, वाचिक और कायिक विकृतियां स्वतः परिष्कृत होकर सामने आती हैं। मानव जीवन के तीन पक्ष ज्ञान, भाव और कर्म जो क्रमशः बुद्धि, हृदय और व्यवहार से सम्बद्ध हैं, के पूर्ण सामन्जस्य से संस्कृति का निर्माण होता है । वस्तुतः संस्कृति किसी एक व्यक्ति के प्रयत्नों का परिणाम न होकर अनेक 'व्यक्तियों द्वारा वौद्धिक दिशा में किये गये सम्पूर्ण प्रयत्नों की अन्विति है ।
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तत्वज्ञान, नीति, विज्ञान और कला, ये चार संस्कृति के विभिन्न तत्व हैं, जिसके अन्तर्गत मनुष्य ग्रपनी बुद्धि से विचार और कर्म के क्षेत्र में जो सृजन करता है वह संस्कृति कहलाती है । मैथ्यु ग्रार्नल्ड के अनुसार विश्व के सर्वोच्च कथनों और विचारों का ज्ञान ही सच्ची संस्कृति है । पंडित देवेन्द्र, मुनि शास्त्री भी इसे स्वीकार करते हैं कि संस्कृति यद्यपि श्रदृश्य जीवन तत्वों की भांति कुछ रहस्यमय और दुर्बोध है तथा ठीकठीक शब्दों की पकड़ में नहीं ग्राती तथापि इतना कहा जा सकता है कि संस्कृति किसी जाति या देश की आत्मा है । इससे उसके सब संस्कारों का बोध हो जाता है, जिसके सहारे वह सामूहिक या सामाजिक जीवन का निर्माण करता है ।
संस्कृति एक अविरोधी तत्व है जो विरोध को नष्ट कर
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