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( ५२ ) है जो इसे पितृभूमि व पुण्यभूमि मानता है।'
वस्तुतः वर्ण व्यवस्था के पूर्व सब एक ही जाति के थे जो आर्य कहलाये। मूल वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर एक गुणात्मक विभाजन का परिणाम थी, जिसमें परिस्थितियों के समानान्तर अन्य धर्मों का बाद में चल कर समावेश होता गया और अनेक प्राचार्यों ने भारतीय संस्कृति के समसामयिक मोलिक चिन्तन के अनुरूप अनेक पन्थों की स्थापना की। यही कारण था कि इस संस्कृति में विभिन्न धार्मिक मतों और उसकी व्यवहारिक स्वीकृतियों में किसी तरह का आन्तरिक विरोध या प्रायोगिक असहिष्णुता हमें नहीं मिलती और निःसन्देह एक स्वस्थ भारतीय समाज की संरचना इस बात का प्रमाण है कि आज भी यदि कोई व्यक्ति वैष्णव वर्म छोड़ कर जैन धर्म स्वीकार कर लेता है तो वह किसी प्रकार की कुदृष्टि का शिकार नहीं होता और न उसके प्रति किसी प्रकार के द्वेष की उत्पत्ति होती है। आज भी जैन व वैष्णवों के ऐने सैकड़ों कुटुम्ब मिल सकते हैं जो एक संगठन के अन्र्तगत भी अलगअलग जैन व वणव धर्म का पालन करते हैं। कुछ सदस्य परिवार के जैन धर्म मानते हैं और कुछ वैष्णव धर्म, किन्तु उनकी प्रास्थायें किसी भी स्तर पर एक दूसरे से न तो टकराती हैं, न ही परिवार के संवेदनात्मक तथा भावात्मक संबंधों में किसी प्रकार का अलगाव महसूस करती हैं।
उदयपुर मेवाड़ में हजारों घर जैन श्वेताम्बर के हैं, जो आज भी वैष्णव धर्म ही मानते हैं।
जैन धर्म हो या नैष्णव धर्म, जातियों के घर में इन्हें नहीं
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१-हिन्दुत्व का अनुशीलन-तनसुख राम गुप्त सम्पा०-०८४