Book Title: Gautam Pruccha
Author(s): Lakshmichandra Jain Library
Publisher: Lakshmichandra Jain Library
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી Ibollebic bol ng 6) દાદાસાહેબ, ભાવનગર, Beeheae-2eo : Pિ(કે ૩૦૦૪૮૪૬ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम ॥ गौतमएच्छा। सम्पादक और प्रकाशक श्रीलक्ष्मीचंद्रजी जैनलायब्रेरीकी तर्फसे शेठ अमरचंदजी वेद। आगरा। वी. सं. २४४७ ] [स. १९२१ दाम, बारह आने । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बडोदा-शियापुराम, लुहाणामित्र स्टीम प्रेसमें टक्कर विट्ठलभाई आशारामने प्रकाशकके लिये ता. १-८-२१ के दिन छापकर प्रकट किया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चिद्वक्तव्य। जैनसाहित्यमें सैंकडों नहीं, हजारों जैनग्रंथ ऐसे हैं, जिनके अनुवाद हिन्दीभाषामें होनेकी बहुत ही आवश्यकता है । ऐसे ग्रन्थोंमेंसे “गौतम पृच्छा" भी एक है। परमात्मा महावीर देवके प्रधान शिष्य श्रीगौतमस्वामीने महावीर देवको पूछे हुए प्रश्न और भगवान्ने दिये हुए उनके उत्तर-यही इस ग्रंथका विषय है । संसारमें जीवों की स्थितियाँ भिन्न भिन्न प्रकार की देखने में आती हैं। कोई राजा है तो कोई रंक है। कोई सुखी है तो कोई दुःखी है । कोई काना है तो कोई कूबडा है । कोई लला है तो कोई लंगड़ा है। कोई बधिर है तो कोई मूक है । इसप्रकार सभी जीव सुख-दुःखका अनुभव कर रहे हैं । वह सुख-दुःख किन किन कर्मोके उदयसे प्राप्त होता है , अर्थात् कैसे कर्मके करनेसे जीव कैसे फलको पाता है , यह जानने के लिये यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी है। विषयकी पुष्टि के लिये इसके कर्ता आचार्यने प्रत्येक प्रश्नोत्तर के ऊपर एक एक दृष्टान्त भी दिया है , जिससे पढ़नेवालों को अधिक आनंद मिलने के साथ विषय हृदयङ्गम भी हो जाता है । इस ग्रंथमें प्रारंभकी ग्यारह गाथाओं में प्रभोंके नाम मात्र दिखलाए गए हैं । तदनन्तर पनरहवीं गाथासे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) उसके उत्तर प्रारंभ किये हैं । एकंदर ६४ गाथाओम ग्रंथकी समाप्ति की गई है। हमारे पास यह कहनेका कुछ भी साधन नहीं है , कि इस ग्रन्थके कर्ता कौन आचार्य हैं ?। परन्तु इसकी रचना परसे इतना अवश्य कह सकते हैं , कि- इसके कर्ता कोई प्रचीन जैनाचार्य हैं । मूल और इसकी संस्कृत टीकाको, जामनगर वाले पंडित हीरालाल हंसराजने छापकर प्रकाशित किया है। आज हम हमारे हिन्दीभाषाभाषी भाइयोंके कर कमलों में इसका हिन्दी अनुवाद सादर समर्पित करते हैं । हमारी यह भी आशा है कि-हम इस लायब्रेरीके द्वारा हिन्दी संसारके उपयोगी और भी अन्यान्य ग्रंथ प्रकाशित करें। शासनदेव हमारी इच्छा पूर्ण करावें, यही अभ्यर्थना । बेलनगंज-आगरा. अशाड शुक्ला ५ वी. सं. २४४७ । अमरपद वद. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगौतमगुरुभ्यो नमः । गौतमच्छा . मंगलाचरण. नत्वा वीरजिनं बालारबोधो लिख्यते मया । श्रीमद्गौतमपृच्छाया वाचनार्थ विशेषतः ॥ १ ॥ श्रीसोमसुन्दरश्रीमुनिसुन्दरमद्विशालराजेन्द्राः । श्रीसोमदेवगुरवो जयन्ति जिनकल्पवृक्षसमाः ॥२॥ नमिऊण तित्थनाहं जाणतो तहय गोयमा भयवं । अबुहाण बोहणत्थं धम्माधम्म फलं पुच्छे ॥ १॥ भावार्थ:-तीर्थके नाथ श्रीमहावीर भगवानको नमस्कार करके, स्वयं विज्ञ होने पर भी श्रीगौतमस्वामी, अबुधजीवोंके बोधार्थ श्रीभगवानसे धर्माधर्मका फल पूछते हैं। यद्यपि श्रीगौतमस्वामी स्वयं चार ज्ञानके धारक और श्रुतकेवली होनेसे श्रुतज्ञानके बलसे असंख्य भव सम्बन्धी सन्देहको स्वयं जानते थे; तथापि इसप्रकार प्रश्न करनेका उनका उद्देश्य केवल यही था कि-अबोधजीवोंको बोध होवे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) अब दस गाथाओंके द्वारा उडतालीस प्रश्नोंके नाम कहते हैं। भयवं सुच्चिय नरयं सुच्चिय जीवो पयाइ पुण सगं । मुच्चिय किं तिरिएमु मुच्चिय किं माणुसो होइ ॥ २ ॥ मुच्चिय जीवो पुरिसो सुच्चिय इत्थी नपुंसओ होइ । अप्पाऊ दीहाऊ होइ अभोगी सभोगी य ॥ ३ ॥ केण व सुहवो जायइ केण व कम्मेण दुहवो होइ । केण व मेहाजुत्तो दुम्मेहो कहं नरो होइ ॥ ४ ॥ कह पंडिउत्ति पुरिसो केण व कम्मेण होइ मुक्खत्तं । कह धीरू कह भीरू कह विज्जा निष्फला सफला ॥५॥ केण विणस्सइ अत्थो कह वा संमिलइ कहं थिरोहोइ । पुत्तो केण न जीवइ बहुपुत्तो केण वा बहिरो ॥ ६ ॥ जच्चंधो केण नरो केण व भुत्तं न जिज्जइ नरस्स । केप व कुट्टी कुजो कम्मेण य केण दासत्तं ॥ ७ ॥ केण दरिदो पुरिसो केण कम्मेण ईसरो होइ । केण व रोगी जायइ रोगविहूणो हवइ केण ॥८॥ कह होणंगो मूओ केण कम्मेण ढूंटओ पंम् । केण सुरूवो जायइ रोगविहूणो हवइ केण ॥ ९ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) केणवि बहुवेयणत्तो केण व कम्मेण वेयणविमुक्को । पंचिंदिआवि होइ केणवि एगिदिओ होइ ॥ १० ॥ संसारोवि कह थिरो केवि कम्मेण होई संखित्तो। कह संसारं तरिउं सिद्धिपुरं पावइ पुरिसो ॥ ११ ॥ भावार्थ:-हे भगवन् ! (सुच्चिय नरयं ) १ सएव अर्थात् वही जीव नरकमें कैसे जावे ? फिर २ वही जीव स्वर्गमें कैसे जावे ? पुनः ३ वही जीव तिर्यंच कैसे होवे ? और ४ वही जीव मनुष्य जन्म भी कैसे पा सकता है ? (२) भगवन् ! ५ वही जीव पुरुष कैसे होता है ? ६ वही जीव बी कैसे होता है ? ७ वही जीव नपुंसक कैसे होता है ?। पुनः ८ वही जीव अल्पायुषी कैसे होवे ? वही जीव दीर्घ आयुष्यवाला कैसे होवे ? १० वही जीव भोग रहित कैसे होवे ? और ११ वही जीव भोग भोगने वाला कैसे होवे ? (३) हे भगवन् ! १३ किस कर्मके योगसे जीव सौभाग्यवंत होसकता है ? १३ किस कर्मके उदयसे जीव दुर्भागी होता है ? १४ किस कर्मके योगसे जीव (मेधायुक्त) बुद्धिमान होता है ? १५ और किस कर्मके योगसे जीव हीनबुद्धिवाला होता है ? (४) १६ किस कर्मके योगसे पुरुष पंडित होता है ? १७ किस कर्मके योगसे मूर्ख होता है ? १८ किस कर्मके योगसे धीर-साहसिक होता है ? १९ किस कर्मके योगसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीरू होता है ? २० किस कर्मके योगसे प्राप्त की हुइ विद्या निष्फल होती है ? और २१ किस कर्मके उदयसे प्राप्त की हुइ विद्या सफल होती है ? (५) हे भगवन् ! २२ किस कर्मके योगसे संचित लक्ष्मी चली जाती है ? २३ किस कर्मके योगसे अतुल लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ? २४ किस कर्मके योगसे पुत्र जीवित नहीं रहता ? २५ किस कर्मके योगसे अनेक पुत्र होते हैं ? और २६ किस कर्मके योगसे जीव बधिर होता है ? (६) २७ किस कर्मके योगसे जीव जन्मसे अन्ध होता है ? २८ किस कर्मके योगसे जीवको खाया हुआ अन्न हजम नहीं होता ? अर्थात् वदहजमी-अजीर्ण होता है ? २९ किस कर्मके उदयसे जीव कुष्ठरोगी होता है ? ३० किस कर्मके उदयसे जीव कूबडा होता है ? और ३१ किस कर्मके उदयसे जीव दासत्व पाता है ? (७ ) ३२ किस कर्मके योगसे जीव दरिद्री होता है ? और ३३ किस कर्मके उदयसे जीव धनवान् होता है ? और ३४ किस कर्मके योगसे जीव रोगी होता है ? और ३५ किस कर्मके योगसे जीव निरोगी होता है ? ( ८ ) ३६ किस कर्मके योगसे जीव हीनअंगवाला होता है ? ३७ किस कर्म के उदयसे जीव गुंगा व बोबडा होता है ? ३८ किस कर्मके उदयसे जीव लूंठा होता है ? ३९ किस कर्मके उदयसे जीव पंगू होता है ? ४० किस कर्मके उदयसे जीव बहुत रूपवन्त होता है ? एवं ४१ ___Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किस कर्मके उदयसे जीव हीनरूपवाला याने कुरूप होता है ? (९) १२ किस कर्मके योगसे जीव अत्यंत वेदनासे पीडित हो कर रहता है ? ४३ किस कर्मसे जीव वेदना रहित हो कर शातामें रहता है ? ४४ किस कर्मके योगसे जीव पंचेंद्रियत्व पाता है ? और ४५ किस कर्मके योगसे जीव एकेन्द्रियत्व पाता है ? ( १० ) ४६ किस कर्मके योगसे जीव बहुतकाल पर्यत संसारमें स्थिर हो कर रहता है ? १७ किस कर्मके योगसे पुरुष संसारमें स्वल्प काल रहता है ? एवं ४८ किस कर्मके योगसे जीव संसारसमुद्र तैर कर मोक्ष-नगर प्रति जाता है ? ( ११) उपर्युक्त ४८ प्रश्नोंको पूछ कर और उत्तरको जिज्ञासा रखते हुए फिर श्रीगौतमस्वामी कहते हैं: सबजगजीवबंधव सबन्नू सव्वदंसण मुणिंद । सव्वं साहुसु भयवं कस्स व कम्मस्स फलमेयं ॥ १२॥ भावार्थ:-हे भगवन् ! जगत्में रहनेवाले सभी जीवोंके आप बंधव हैं, आप सर्वज्ञ हैं, अर्थात् सर्व वस्तुओंके ज्ञाता हैं, सव्वदंसण अर्थात् केवलज्ञानके द्वारा सर्व वस्तुओंके देखनेवाले हैं, तथा सर्व मुनियोंमें इंद्र हैं, अतः मैंने जो जो प्रश्न किये हैं अर्थात् किन किन कर्मोके उद. यसे उपर्युक्त फल मिलते हैं ? उस विषयकी सर्व बातें आप फरमावे (१२) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) एव पुट्ठो भयवं तियसिंदनरिंदनमियपयकमलो | अह साहिउं पयत्तो वीरो महुराइ वाणीए ॥ १३ ॥ भावार्थ:-- इस प्रकार श्रीगौतमस्वामीके पूछने पर, त्रिदश जो देवता उनके इन्द्र और नरिंद याने राजा ये सब जिनके पादकमल में नमते हैं, ऐसे श्रीवीर भगवान् मधुरवाणीके द्वारा प्रश्नोंके उत्तर देनेके लिये प्रवृत्त हुए ( १३ ) परमेश्वरकी बानी श्रवण करते हुए जीवको कष्ट, क्षुधा या तृषा वगैरह मालूम नहीं होते। इस पर किसी वृद्धा स्त्री की कथा कही जाती है ; श्रवण कर " किसी गांव में एक वणिक् रहता था, उसके घर में एक डोकरी थी, जोकि घरकां दासत्व करती थी । किसी 'समय वह डोकरी ईंधन लानेके लिये वनमें गई । मध्याह्नके समय वह भूख और तृषासे पीडित हुइ, जिससे थोडा ईंधन ले कर वापिस लौट आई । उसे देख कर सेठने कहाः - ' रे ! डोकरी ! आज थोडा ईंधन क्यों लाई ? जा, विशेष ईंधन ले आ यह वह बिचारी भूखी प्यासी फिर वनमें गइ । दुपहर का समय था, जिससे लू और तापको सहन करती हुइ काष्ट की भारी उठाकर चली । मार्गमे एक काष्ट नीचे गिर गया, उसको उठाने लगी; उतने में श्रीवीरप्रभुकी बानी सुननेमें आई । सुनतेही वह वहीं खड़ी रही, और क्षुधा, तृषा व तापकी वेदनाको भूल गई । एवं धर्मदेशना सुन कर अतिहर्षित होती हुइ शामको घर आई । घर आनेमें विलम्ब होनेका कारण जब सेठने उसको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूछा, तब उनके सामने यथातथ्य बात कह सुनाइ । जब सेठने भी श्रीमहावीरप्रभुकी देशना श्रवण की । तदनन्तर उस स्थविरा ( डोकरी ) में धर्मका गुण जान कर उसको बहुत मान देने लगा। परिणाममें वह डोकरी सुखी हुइ ।" इस प्रकार प्रभुकी बानीको श्रवण करनेसे कष्ट नष्ट हो जाते हैं । कहा हः दोहा. जिनवर वाणी जे सुणे नरनारी सुविहाण । सूक्षम बादर जीवनी रक्षा करे सुजाण ॥ १ ॥ अब श्रीवीरभगवान कहते हैं कि-' हे गौतम ! जो जो प्रश्न तूने मुझसे पूछे हैं; उन सबका सामान्य उत्तर यह है कि-जीव ये सब बातें कर्मके वशीभूत हो कर पाता है, उन कर्मोंका स्वरूप मैं तुझको कहता हुँ, सो ध्यान दे कर श्रवण कर । ' ऐसा कह कर भगवान् अब ४८ प्रश्रों के उत्तर कहते हैं । इनमें प्रथम जीव किस कर्मके योगसे नरक गतिमें जाता है ? इसका उत्तर तीन गाथाओंके द्वारा देते हैं: जे घायइ सत्ताई अलियं जंपेइ परधणं हरइ । परदारं चिय वच्चइ बहुपावपरिग्गहासत्तो ॥ १५॥ चंडो माणी पिट्ठो मायात्री द्विरो खरो पावो । पिसुणो संगहसीलो साहूणं निंदओ अहमो ॥ १६ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) आलप्पालपयंपी सुदुदृबुद्धी य जो कयग्यो य । बहुदुक्खसोगपउरो मरिउं नरयम्मि सो याइ ॥ १७ ॥ अर्थात्:-जो १ जीवोंकी घात करे-जीवहिंसा करे; २ अलीक यानि झूठ वचन बोले; ३ परद्रव्यका हरण करे अर्थात् चोरी करे; ४ परस्त्रीगमन करे; एवं जो ५ बहु पापपरिग्रहमें आसक्त होवे । इन पांच प्रकारके खराब कृत्योंको करनेवाला जीव नरकका आयुष्य बांधता है (१५) ६ जो चंडो अर्थात् क्रोधी हो. ७ माणी यानि मानी-अहंकारी हो, धिट्टो-धृष्ट अर्थात् किसीको नमे नहीं, ८ मायावीकपटी होवे, ९ निट्टरो-निष्ठुर अर्थात् कठोर चित्तवाला हो, १० खर-अर्थात् रौद्रस्वभाववाला हो, ११ पावो अर्थात् पापी हो, १२ चुगलखोर-दुर्जनता पारायण हो, १३ अतिपापके हेतुभूत वस्तुओंका संग्रहशील हो, १४ साधुकी निंदा करे; उपलक्षणसे साधुओंका प्रत्यनीक हो, १५ अधम-नीच स्वभाववाला हो, १६ असंबंद्ध वचन बोलता हो-दुष्ट बुद्धिवाला हो, १७ तथा जो कृतघ्न यानि किये हुए उपकारको न जाने ऐसा जीव मृत्यु पाकर बहुत दुःख और शोकसे भरी हुइ नरकगतिमें जाता है (१७) यहां प्रथम हिंसा आश्रयी अष्टम सुभूम नामक चक्रवर्ती अत्यंत पापकर्मके करनेसे नरकगतिमें गये, उसकी कथा कहते हैं: " वसंतपुरी नगरीके वनमें एक आश्रम में जमदग्नि नामक एक तापस रहता था । वह बहुत कष्ट सहन कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) तपश्चर्या करता था। और निरंतर शिवका ध्यान हृदयमें धरता था। जिसके कारण वह तापस सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। किसी समय देवलोकमें एक धन्वंतरी नामक देव, कि जो तापसभक्त मिथ्यादृष्टि था, वह, और दूसरा विश्वानर नामक देव कि जो सम्यग्दृष्टि था, वे दोनों मित्रदेव अन्योन्य अपने अपने अंगीकार किये हुए धर्मकी प्रशंसा करने लगे । एकने कहा कि-' जैन धर्म समान कोइ धर्म नहीं है,' जब दूसरेने कहा कि- शिवधर्मके समान कोई धर्म नहीं है ' । पश्चात् दोनों देवोंने ऐसा निश्चय किया कि अपने दोनों धर्मोंके गुरुओंकी परीक्षा करें। उस समय जैनधर्मनुयायी देवने कहा कि-श्रीजैनधर्ममें जो जघन्य नवदीक्षित गुरु हो, उसकी परीक्षा की जावे और शैवधर्ममें जो चिरंतनकालका महातपस्वी गुरु हो, उसकी परीक्षा की जावे । जिस परसे अच्छे बुरेकी पहिचान शीघ्र हो जायगी । इस प्रकार निश्चय करके वे दोनों पृथ्वीतल पर आये। उस समय मिथिला नगरीका पद्मरथ राजा राजपाट छोड कर चंपा नगरीमें श्रीवासुपूज्य स्वामीके पास दीक्षा लेकर तुर्तही वापिस लौट रहा था । उसे रास्तेमें आते हुए देखकर प्रथम उसकी परीक्षा करने के लिये अनेक प्रकारके मिष्टान्न भात-पानी सरस बना कर देवोंने उसको बतलाये। वह नवदीक्षित मुनि भूख व प्याससे पीडित था, तथापि उसने उक्त मिष्टान्नको दूषित जान कर नहीं लिया । और अपने मार्गसे चलायमान नहीं हुए। तब उन देवोंने एक रास्तेमें कंटक व कंकरोंको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) रास्ता बिछाये । और दूसरे रास्ते में अनेक छोटे छोटे मेंडकोंकी रचना की । तब वे महात्मा मेंडकोंसे आच्छादित मागको छोड कर जिस रास्ते में कंटक कंकर बिछाये हुए थे, उस रास्तेमें चलने लगे । यद्यपि कंटकके योगसे मुनिके पैरों में से रक्तकी धाराएं बहती थीं, तथापि वह क्षुभित नहीं हुए । तदनन्तर तीसरी परीक्षा में उस साधुके समक्ष देवोंने गीत व नृत्य किये, स्त्रियोंके रूप बनाकर उसको मुग्ध बनानेके लिये बहुत कुछ परिश्रम किया; तथापि वे मोहजित् मुनि मनसे भी किंचिन्मात्र विचलित नहीं हुए । चौथी परीक्षा करनेके निमित्त उन देवोंने निमित्तियाके रूप धारण किये और उस मुनिके समीप आ कर कहने लगे कि - हे महात्मन् ! हम निमित्तशास्त्र के बल से कहते हैं कि तुम्हारा आयुष्य बहुत बाकी है, अतः इस समय यौवनावस्था में भुक्तभोगी हो कर फिर वृद्धावस्थामें चारित्र ले कर तप करना । ' यह श्रवण कर साधुजी कहने लगे कि -' हे सिद्ध पुरुषो ! यदि मेरा आयुष्य बहुत लम्बा होगा तो मैं दीर्घकालपर्यंत चारित्र पालूंगा, जिससे कर्मोंकी अधिकतर निर्जरा हागी । एक और भी बात है - इस लघुवयमें तप भी हो सकेगा, परन्तु जरावस्था प्राप्त होने के बाद विशेष तप नहीं हो सकेगा ।' उस साधुकी इस प्रकार दृढता देख कर दोनों देव हर्षित हुए और जैनधर्मकी प्रशंसा कर आगे चले । " - · आगे चलते हुए उन्होंने, बनमें एक दीर्घकालतपस्वी लम्बी जटावाले, एकान्त स्थानमें ध्यान में रहे हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) ' जमदग्नि नामक तापसको देखा । इसकी परीक्षा करने के लिये वे दोनों देव चीडियोंका रूप धारण कर उस ऋषिकी दाढीके बाल में घोंसला बांध कर रहे । इनमें एक था नर और दूसरी थी मादा । नर, मादाके प्रति मनुयोंकी भाषा में कहने लगा:- मैं हिमवंत पर्वतको हो आऊं, वहां तक तूने यहाँ रहना । मादाने ( चीडीने ) अपने पतिकी आज्ञाका निरादर करते हुए कहा :6 तू वहाँ जा कर दूसरी चोडीके साथ आसक्त हो जाय तो मेरी क्या दशा हो ? तब वह पक्षी बोला कि - ' मैं वापिस न आऊं, तो मेरे सिर गौहत्या व स्त्रीहत्या का पाप हो । ' इत्यादि बातें कहीं; परंतु चीडीने नहीं मानी और कहने लगी: - यदि तू किसी चीडियाके साथ यारी करे, तो इस ऋषिने जितना पाप किया है, वह सब पाप तेरे सिर पर पडे । इस प्रकारकी प्रतिज्ञा कर ले, तो मैं तेरेका जाने दूं । " " इस बातको श्रवण करते ही जमदग्नि तापसने क्रोधित होकर अपनी दाढीमें हाथ डाला, और उन दोनों को पकड़ लिये । फिर वह कहने लगा- ' अरे ! मैं इतने कठिन तप करके पापोंको नाश कर रहा हूँ, तिस पर भी तुम मुझे पापी कहते हो ? ' चीडियोंने उत्तर दिया:-' हे ऋषि ! आप क्रोध मत कीजिये और अपना शास्त्र देखिये । उसमें कहा है किः । अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्त्रर्गो नैत्र च नैव च । तस्मात् पुत्रमुखं दृष्टा स्वर्गे गच्छन्ति मानवाः ॥ १ ॥ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) ' जिसको पुत्र नहीं है, उसकी गति ( सद्गति ) नहीं होती, वह स्वर्गमें नहीं जा सकता। आप भी अपुत्र हैं, जिससे आपकी भी सद्गति कहां है ? इस बातको ऋषिने सत्य मानलिया और विचार करने लगा किकिसी खीके साथ पाणिग्रहण करके पुत्र उत्पन्न करूं । यह सोच कर तपका त्याग कर दिया और उसने कौष्टिक नगर में जितशत्रु राजा, जिसके वहाँ अनेक पुत्रियां थीं उस के पास जानेका विचार किया । ऋषि मनको इस प्रकार चलायमान देख, जो मिथ्यात्वी देव था, उसको खेद हुआ । और उसने तुर्त्तही श्रावकधर्म अंगीकार किया । " उधर तापस, राजाके पास कन्याकी याचना करने को गया । तापसको देख राजा आसन से उठ खडा हुआ ! और कुछ सामने भी आया । जब ऋषिने कन्याकी याचना की, तब राजाने उसको कहा कि-' मेरी सौ पुत्रिओं में से जो आपकी वांछा करे, उसको आप अंगीकार करें | यह श्रवण कर ऋषि भी अंतेउर में गया । वहां जाते ही सभी राजकन्याएं उसे जटाधारी, दुर्बल, भीख मंगा, श्वेतकेशवाला, व असंस्कारी शरीरवाला देख कर उस पर थूकने लगीं । ऋषिको बड़ा क्रोध हुआ । उस क्रोध के मारे अपने तपके प्रभावसे उन सब कन्याओंको कुबड़ी व कुरूपिणी बना दीं और पीछे लौटा। उस समय घरके चौक में धूल में खेलती हुई एक राजकन्या को उसने देखा । उसके सामने हाथ में बीजोरा फल रख कर कहने लगा-' हे रेणुका ! तु मुझको चाहती है ? उस समय उस लडैकीने बीजोराकी तरफ अपना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) हाथ लम्बाया। यह देख ऋषिने सोचा कि-यह जरूर मुझे चाहती है। ऐसा सोच उसे उठा कर ले गया! राजा भी शापके भयसे कम्पने लगा और सहस्र गोकुल तथा दास दासी सहित वह कन्या ऋषिको अर्पण की । ऋषिने अन्य सब कन्याओंको अपनी सालीओंके स्नेहसे तपके प्रभावसे उनका कूबडापन दूर कर दिया । बस, ऋषिने अपनी तपस्या नष्ट कर दी । अब तो वह उस कन्याको अपने आश्रमस्थानमें ले गया, जोकि बनमें बनाया गया था। वहां पर उसका लालन पालन करने लगा। कन्या यौवनावस्थाको प्राप्त हुइ, और जब वह अपने रूप-लावण्यसे ऋषिके चित्तको आकर्षित करने लगी, तब ऋषिने अग्निकी साक्षी से उसके साथ पाणिग्रहण किया । ऋतुकालमें उसे कहने लगा कि-' मैं अपने मंत्र के द्वारा सिद्ध करके एक चरू तेरेको देता हूं, जिसके प्रभावसे अत्यंत सुंदर एक ब्राह्मणपुत्र तेरेको होगा।' रेणुकाने ऋषिसे कहा:- मंत्र के द्वारा एक चरू नहीं किन्तु दो चरु सिद्ध कर देना, जिससे एक ब्राह्मणपुत्र हो और दूसरा क्षत्रियपुत्र हो । क्योंकि-क्षत्रियपुत्र मेरी बहिन, जो हस्तिनापुरमें ब्याही हुइ है, उसको दूंगी।' तत्पश्चात् ऋषिने दो चरू मंत्रके द्वारा सिद्ध कर स्त्रीको दिये । तब रेणुका विचार करने लगी कि-यदि मेरा पुत्र क्षत्रिय महा शूरवीर होगा, तो इस वनवासके कष्टसे मेरी मुक्ति होगी। इस आशयसे क्षत्रियऔषध तो स्वयं ही खा गइ और ब्राह्मणऔषध अपनी बहिनके लिये हस्तिनापुर भेज दिया। वह उसने खाया । ऋषिकी इस पत्नीका नाम रेणुका इस लिये रक्खा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) गया कि वह धूलि में क्रीडा करती थी । उसको राम नामक एक पुत्र हुआ । किसी समय अतिसार रोगसे पीडित एक विद्याधर इसके आश्रम में आया । यद्यपि यह विद्याधर था, परन्तु अतिसार के प्रभावसे आकाशगामिनी विद्या को भूल गया था । ऋषिपुत्र रामने इस विद्याधरकी औषधादिक द्वारा अनेक प्रकारसे सार - सम्हाल की । जिससे उस विद्याधरने हर्षित हो कर रामको परशु नामक विद्या प्रदान की । रामने इस विद्या को साध लिया । इस विद्या के योगसे वह परशुराम के नाम से जगत् में विख्यात हुआ और देवाधिष्ठित कुठार शस्त्र हाथमें लेकर घूमने लगा । किसी समय जमदग्निकी आज्ञा लेकर रेणुका अपनी बहिनको मिलनेके लिये हस्तिनापुर गइ । हस्तिनापुराधीश अनन्तवीर्य राजा रेणुकाको अपनी साली जानकर उसकी हांसी- मश्करी करने लगा, और रेणुकाका अत्यंत सुंदर रूप देख कामातुर हो कर निरंकुशतासे रेणुका के साथ विषयसेवन करने लगा । जिसके कारण रेणुकाको एक ओर भी पुत्र हुआ । तदनन्तर जमदग्नि पुत्र सहित रेणुका को अपने आश्रम में ले आया । उसे पुत्र सहित देख कर परशुरामने क्रोधावेशमें आकर परशुके द्वारा शीघ्र अपनी माता व भाइके मस्तक काट डाले । यह बात श्रवण कर अनन्तवीर्य राजा क्रोधातुर हो कर सेना सहित जमदग्निके आश्रम में आया और इस आश्रम को जला कर नष्ट कर दिया एवं सर्व तापसोंको भी त्रास देने लगा । उन तापसोंकी चिल्लाहट सुन कर परवहाँ पर आया । शुराम । उसने अनन्तवीर्यको मार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) डाला । अमात्यगणने यह वृत्तांत जान कर अनन्तवीर्यके पुत्र कृतवीर्यको हस्तिनापुरके तख्तपर बेठाया । उसने एक दिन अपनी माताके मुखसे उपर्युक्त वृत्तान्त सुना, तब वह अपने पिताका वैर लेने के लिये आश्रममें गया और जमदग्नि ऋषिको मार डाला । यह हाल जान कर परशुराम हस्तिनापुरमें आया और कृतवीर्यको मार कर खुद राज्यासन पर बैठ गया । उस समय कृतवीर्यको तारा नामक राणी, जो कि सगी थी, परशुरामके भयसे वनमें भाग गइ । उस पर किसी तापसने अनुकम्पा ला कर अपने आश्रमकी गुफामें छुपा रखी। वहां उसने चौदह स्वप्न करके सूचित पुत्रको जन्म दिया, जिसका नाम सुमूम रक्खा गया । अब परशुरामने क्षत्रियों पर क्रोध करके पुनः पुनः सात दफे पृथ्वी को निःक्षत्री ( क्षत्रिय रहित ) किया। जहां कहीं क्षत्रिय देखने में आते, वहां परशुरामकी परशु (कुठार) जाज्वल्यमान हो उठती थी। किसी समय जिस स्थानमें तारा राणी गुप्तरीत्या बैठी हुइ थी, उस आश्रममें आते हुए परशुरामका कुठार जाज्वल्यमान हुआ। इस समय परशुरामने तापसोंसे यह पूछा कि-'यहांकोइ क्षत्रिय है क्या ?'। तापस बोले कि-'पुर्व गहस्थावासमें हम ही सब क्षत्रिय थे' परशुरामने उन्हे ऋषि जानकर छोड दिये । इस प्रकार परशुरामने सर्व क्षत्रियोंका संहार किया और उनकी दाढाओंसे एक थाल भरा। किसी समय परशुरामने किसि निमित्तियासे गुप्तरीत्या यह प्रश्न किया कि 'मेरी मृत्यु किस प्रकार होगी?' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) तब निमित्तियाने उत्तर दिया कि 'जिसके देखनेसे ये दाढाएं क्षीर रूप हो जायेंगी और उस खीरका भोजन सिंहासन पर बैठ कर जो करेगा, उसके हाथसे तेरी मृत्यु होगी। उक्त बातको श्रवण कर परशुरामने एक दानशाला स्थापित की और उप्तके आगे एक सिंहासन बनवा कर उन दाढाओंका थाल सिंहासन के उपर रखवाया । किसी समय वैताढय पर्वत पर मेघनाद नामक एक विद्याधरने अपनी पुत्रीका पति कौन होगा ? इस विषय का प्रश्न निमित्तियासे पूछा । निमित्तियाने सुभूमका नाम व पता बताकर उसके सम्बन्ध में कथनीय सब कथा कह सुनाइ । तब वह विद्याधर अपनी पुत्रीको लेकर सुभूमके आश्रम में आया और अपनी पुत्रीकी सुभूमके साथ शादी कर दी। और वह विद्याधर भी सुमूमका सेवक बन कर उसीके साथ रहने लगा। एक दफे सुभूमने अपनी मातासे पूछा:-' हे माता! पृथ्वी क्या इतनी ही है ?' तब माताने कहा कीपृथ्वी तो बहुत बडी है। उसमें एक माखी की पांख जितने स्थानमें यह आश्रम है। जिसमें परशुरामके भयसे निवास कर रहे हैं । अपनी खास वासभूमी तो हस्तिनापुर है । ' इत्यादि सर्व वृत्तान्त कह सुनाया। जिसको श्रवण कर सुभूम क्रोधसे धमधमायमान हो उठा । वह गुफामेंसे बाहर निकल कर मेघनाद विद्याधर सहित हस्तिनापुरमें जहां दानशाला है, वहां गया। उसकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) दृष्टि उस थाल पर पडते ही क्षत्रियोंकी डाढोंका थाल खीर रूप हो गया । उसको वह जीमने लगा; यह देख परशुराम के अंगरक्षक ब्राह्मण उसे मारनेके लिये दौड़े। उनको मेघनाद विद्याधरने मार डाले । परशुराम भी यह हाल सुनकर वहाँ गया और सुभूमको माग्नेके लिये परशु चलाया । मगर उस परशु पर मुमृतको दृष्टि पड़ते ही, जैसे वायुके योग से दीपक बुझ जावे: उसी प्रकार वह परशु अदृश्य हो गया । और सुभूमने परशुराम पर थाल फेंका। वह थाल मिट कर चक्ररत्न हो गया और उसने परशुरामका मस्तक काट डाला । परशुरामने जिसप्रकार सात दफे पृथ्वी निःक्षत्री की थी; उसी प्रकार सुभूमने इक्कीस दफे पृथ्वीको निर्ब्राह्मणी की । जहाँ तक उसको मालूम हुआ, एक भी ब्राह्मणको जीवित न छोड़ा । चक्ररत्न के बल से षट् खंड पृथ्वी जीत कर चक्रवर्ती हुआ । तदनन्तर लोभके वशीभूत होकर धातकीखंडका भरतक्षेत्र जीतनेके लिये चर्मरत्न पर सेना चढ़ाकर लवणसमुद्र में चलने लगा । बीचमें अधिष्ठित सर्व देवोंने सहाय देने के बजाय समुद्र में छोड़ दिया । जिससे समुद्र में डूब कर वह मरणके शरण हुआ और अनेक जीवहिंसाके पापकर्म करने के कारण सातवीं नरक में गया । 77 अब दूसरे प्रश्नका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैं 1 तवसंजमदाणरओ पयईए भद्दओ किवालू य । गुरुवयणरओ निचं मरिजं देवेसु सो जायइ || १८ || 2 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) अर्थातः-जो जीव तप, संयम और दान में रक्त होवे, सहज प्रकृतिसेही भद्रक परिणामी होवे, कृपालुदयावन्त होवे, गुरुके वचनमें निरन्तर रक्त होवे और हमेशा गुरुकी आज्ञाका पालन करे, वह जीव मर कर देवलोकमें उत्पन्न होता है ॥ १८ ॥ जैसे आनन्द श्रावकने तपस्या की, प्रतिमा अंगीकार की, दान दिया और श्रीमहावीरके वचनमें निरन्तर रक्त होकर दयावन्त व भद्रक परिणामी हुआ; जिसके कारण वह अवधिज्ञान प्राप्त कर देवगतिमें उत्पन्न हुआ। आनन्द श्रावकका वृत्तान्त इस प्रकार है: " वाणिज्य " नामक ग्राम में जितशत्रु राजा राज्य करता था। वहां आनंद नामक गृहस्थ रहता था। उसकी स्त्रीका नाम था शिवानन्दा । उसके घर में बारह करोड सुवर्ण थी । और दश हजार गौओंका एक गोकुल, ऐसे चार गोकुल थे। उस गाँवके ईशान कोन में कोलाग नामक गाँव था, जिसमें आनन्द के अनेक रिश्तेदार रहते थे । किसी समय वहांके ' द्रुतपलाश' नामक उद्यानमें श्रीमहावीर स्वामी पधारे। वहां जितशत्रु राजा और आनंदादि गृहस्थ लोग भगवानको वंदन करने के लिये गये। वीरप्रभुको धर्मदेशनाको श्रवण कर आनंद श्रावकने बारह व्रत अंगीकार किये। जिनमेंसे पांचवें 'परिग्रह परिमाण' व्रतमें 'चार करोड सुवर्ण कोश ( भंडार) में रखना, चार करोड ब्याजु देना, और चार करोड व्यापारमें रोकना, यह सब मिल कर बारह करोड सुवर्ण तथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) दश हजार गौओंका एक गोकुल ऐसे चार गोकुल रखना' ऐसा नियम किया । इसके सिवाय खेतोंमें कृषि करने के निमित्त पांचसो हल, पांचसो शकट बाहर देशान्तर भेजनेके योग्य और पांचसो शकट घरका कामकाज करने के योग्य इसकी भी छूट रक्खी, कि जिनके द्वारा ग्वेतोंमेंसे धान्य, काष्ट व तणादि लाये जायं । तथा जलमार्गसे यदि देशान्तरमें जानेकी जरूरत होवे तो इसके लिये चार जहाज रक्खे और चार जहाज क्षेत्रसे धान्यादि लाने के लिये भी रक्खे । अंग पूंछनेके लिये रक्तवर्णका ही रस्त्र, दंतधावनके लिये केवल जेठीमधका हरा दंतवन और फलमें मात्र क्षीरामलक फल रक्खा । तेलमें शतपाक और सहस्रपाक तैल; धूपमें शिलारस व अगरका धूप; पुष्पमें जाई व कमलिनी, आभूषणमें कानके आभरण व नामांकित मुद्रिका व स्नानके लिये आठ पारी समासके इतना पानीका घडा तथा पीठीमें पहुंचूर्णकी पीठी इतनी चीजों की छूट रक्खी। बाकी सभी प्रकारके अंगलूहण, दन्तुवन, फल, तल आदि पदार्थोका त्याग किया । तदुपरान्त दो श्वेत पटकूलको छोड कर अन्य वस्त्रोंके भी नियम किये। चंदन, अगरू, कुंकुम-इन तीनके अतिरिक्त अन्य वस्तुके विलेपनका भी त्याग किया। मुंग प्रमुखकी खीचडी, तंदुलकी खीर, एवं उज्ज्वल मीसरीसे भरे हुए व पुष्कल घृतमें तले हुए मेदाके पक्वान्नको छोड कर शेष पक्वानोंके भी पञ्चक्खाण किये । द्राक्षादिक हरी काष्ट पेया को छोडकर अन्य पेयाके भी पच्चक्खाण किये । सुगंधीमय कल्मशालिका कूर छोडकर दूसरे ओदनके भी नियम किये । उड़द और मूंगको छोडकर दूसरे विदलका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) भो नियम किया । शरत्काल सम्बन्धी गायका घृत छोड़ कर शेष घृतका भी पञ्चक्खाण किया । बथुआ, मंडुकी और पालककी तरकारी छोड़कर दूसरी तरकारीके नियम किये । बड़े व पूर्णादिक छोड़कर शेष धान्यशाक के नियम किये । आकाशका पानी छोड़कर शेष पानीके नियम किये । इलायची, लोंग, कस्तूरी, कंकोल, कपूर, जायफल-इन पांच वस्तुओंसे संस्कारित तंबोल छोड़कर शेष तंबोल खानेके पच्चक्खाण किये । पहलेसेही घरमें जो कुछ चीजें थीं उनसे अधिक परिग्रह रखनेका नियम किया । यह पांचवें व सातवें व्रत सम्बन्धी बात कही । उसी अनुसार दूसरे भी सर्व व्रतोंके यथायोग्य . नियम ले कर श्रीमहावीर प्रभुको वंदन कर घरको आये। शिवानंदा स्त्रीने भी श्रीमहावीरके समीप जा कर आनंदकी तरह श्रावक धर्म अंगीकार किया। दोनोंने चौदह वर्ष पर्यंत इस प्रकार श्रावकधर्मका पालन किया । यदि कोई देवता भी मनमें द्वेष करके चलायमान करनेको आवे तो भी चलायमान न होनेका दृढ निश्चय किया। तत्पश्चात् आनंद श्रावकको प्रतिमा आराधनेका मनोरथ हुआ। उस समय समस्त कुटुम्बी मनुष्योंकी आज्ञा लेकर कोलाग ग्राममें पौषधशाला बनवाइ । बडे पुत्रको घरका भार देकर व सर्व सजनको जिमा कर सर्व वृत्तान्त कह सुनाया, और पौषधशालामें जा कर महातप करते हुए ग्यारह (११) प्रतिमाका आराधन करने में प्रवृत्त हुए । कहा है:Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१) दसणवयसामाइयपोसहपडिमाअबंभसच्चित्ते । आरंभपेसउद्दिवज्जए समणभूए अ ॥ १ ॥ इस प्रकार प्रतिमाका आराधन करते हुए आनन्दका शरीर अति दुर्बल हो गया । इस प्रकार धर्मजागरण करते हुए अनशनका मनोरथ उत्पन्न हुआ । तब संलेषणा ( आहार त्याग) करके अनशन किया । तदनंतर अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ । उस समय श्रीमहावीर स्वामी उद्यानमें पधारे। और श्रीगौतमस्वामी छटकी तपस्याके पारणे भिक्षाके निमित्त नगरमें पधारे । स्वामीजी अन्न-पाणी ले कर जब पीछे लौट रहे थे, तब कौल्लाग ग्रामकी ओर बहुत लोगोंको जाते हुए देख कर गौतमस्वामीने पूछा कि-ये लोग कहां जा रहे हैं ? तब किसीने कहा कि-हे महाराज! आनन्द श्रावकने अनशन किया है, उनको वंदना करनेको वे जा रहे हैं । यह श्रवण कर गौतमस्वामी भी आनंद श्रावकको वंदन कराने के लिये पधारे । उनको आते हुए देख कर आनंद श्रावक अत्यंत हर्षवंत हुआ और कहने लगा कि-हे महाराज ! मैं उठकर खडा नहीं हो सकता । अतः आप निकट पधारें, तो आपके चरणका स्पर्श मेरे मस्तक द्वारा मैं करूं । यह श्रवण कर श्रीगौतमस्वामी उनके निकट पधारे। तब आनन्द श्रावकने त्रिधा शुद्धिपूर्वक अपना मस्तक गौतमस्वामीके पैरसे लगा कर वंदना की और पूछा कि-हे महाराज ! गृहस्थको अवधिज्ञान उपजे ? गौतमस्वामी बोले कि-हां,. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) उपजे । तब आनन्दने कहा कि आपके प्रभावसे मुझे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है । उसकी मर्यादा उस प्रकार है किः-पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशामें समुद्रके भीतर पांचसो योजनपर्यंत देखता हुँ । और उत्तरदिशिमें हिमवंत पर्वत पर्यंत देखता हुं। तथा ऊंचे सौधर्मदेवलोक तक व नीचे पहले नरक पृथ्वीके लोलुआ नरकवासा तक देखता हुं। यह श्रवण कर श्रीगौतमस्वामीने कहा कि, गृहस्थको इतना अवधिज्ञान न होवे, अतः तुम मिच्छामि दुक्कड लो। आनंदने कहा कि-सत्य कहनेका मिच्छामि दुक्कड कैसा ? गौतमस्वामीने कहा कि-इतना अवधिज्ञान गृहस्थको न उपजे । तब आनंदने कहा कि-आप खुद मिच्छामिदुक्कड लेवें । यह वाक्य श्रवण कर गौतमस्वामी शंकित हो कर महावीरस्वामीके पास पधारे और भातपाणी की आलोचना कर पूछने लगे कि-हे भगवन् ! आनंद श्रावक मिच्छामि दुक्कड ले कि मैं लूँ ? भगवानने फरमाया कि-हे गौतम ! तू ही मिच्छामि दुक्कड ले। क्योंकि आनन्दके कथनानुसारही उनको अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है । तब गौतमस्वामीने आनन्द श्रावकके पास जा कर मिच्छामि दुकडं दिया और आनन्द श्रावकसे क्षमा मांग ली। इस तरह आनंद श्रावकने वीश वर्ष पर्यंत श्रावकधर्म पाल कर पहले सौधर्मदेवलोकके अरुणाभ विमानमें चार पल्योपमके आयुष्य सह देवता हुए । वहांसे चव कर महाविदेहक्षेत्र में उत्पन्न हो कर मनुष्यपणेमें चारित्र ( प्रवा ) पाल कर मोक्षमें जायेंगे। यह दूसरे प्रश्रके उत्तरमें आनंद श्रावककी कथा कही । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) इस प्रकार नरक व स्वर्गकी प्राप्ति विषयके दो प्रश्नोत्तर कहे । अब तिर्यंचत्व व मनुष्यत्व पाने के विषयम किये हुए दो प्रश्नों के उत्तर दो गाथाओंके द्वारा कहते हैं:कजत्थं जो सेवइ मित्ते कज्ज कएवि संचयइ । कूरो गूढमइओ तिरिओ सो होइ मरिऊणं ॥ १९ ॥ अज्जवमदवजुत्तो अकोहणा दोसजिओ दाई । नयसाहुगुणेमु ठिी मरिउ सो माणुसो होइ ॥ २० ॥ अर्थात्-स्वार्थ के वशीभूत हो कर मित्रकी सेवा करनेवाला, कार्य सिद्धि होनेके पश्चात् मित्रको छोड देनवाला, उसकी निंदा करनेवाला, क्रूर परिणामी और गूढमतिवाला, अपने मनकी बात कीसीको कहे नहीं, ऐसा जीव मर कर तिर्यच होता है । जिस प्रकार अशोक कुमारने माया करके मित्रद्रोह किया । जिससे विमलवाहन कुलगरका हाथी हुआ ॥ १९ ॥ आर्जव अर्थात् सरल चित्तवाला होवे, मार्दव यानि मानरहित निरंहकारी होवे, अक्रोधी (क्षमावन्त ) होवे, दोषवर्जित अर्थात् जीवघातादि दोष रहित होवे, सुपात्रको दान देवे, न्यायवाला होवे और महात्मा-साधुके गुणोंकी प्रशंसा किया करे, वह जीव मृत्यु पाकर मनुष्य होता है । जैसे सागरचंद्र मर कर पहला कुलगर विमलवाहन हुआ। अब इन दो प्रश्नों के ऊपर सागरचंद्र सेठ और अशोकदत्तकी कथा कहते हैं:--- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) कर भी परित हुए ग क " महाविदेह क्षेत्रमें अपराजिता नगरीमें ईशानचंद्र राजा राज्य करता था। वहां चंदनदास नामक एक श्रेष्ठी ( सेठ ) रहता था, उसको सागरचंद्र नामक एक गुणवन्त पुत्र था। वह सरल चित्तवाला, निरन्तर धर्मपरायण और निर्मल आचारवाला था । उसको अशोकदत्त नामक मित्र था । वह मायावी मनमें कूड कपट बहुत रखता था । किसी समय वसन्त मासमें राजाका आदेश हुआ कि-' आज वसन्तक्रीड़ा करने के लिये सर्व लोग वनमें आवें । यह वार्ता श्रवण कर सागरचंद्र व अशोकदत्त-ये दोनों वनमें गये, और राजा भी परिवार सहित वनमें आया । और भी लाखों लोग वहां एकत्रित हुए । सर्व स्थल में गीत, गान, नाटक झूलणादि कौतुक सब लोग करने लगे। उस समय " बचाओ बचाओ " ऐसी चिल्लाहट सुनाई दी । तब सागरचंद्र नजीक होनेसे खड्ग हाथमें ले कर वहां गया, तो चौरोंसे अपहराती हुई पुण्यभद्र सेठकी पुत्री प्रियदर्शनाको दयाजनक स्थिति में देखी । उसे सागरचंद्रने बलपूर्वक छुड़ाई । यह बात सागरचंद्र के पिता चंदनदासने सुनी । पुत्र जब घरको आया, तब पिताने शिक्षा दी कि-'हे वत्स ! कभी उद्धत मत होना, कुलमर्यादाके अनुकूल बल-पराक्रमका उपयोग करना, द्रव्यके अनुसार वेष पहिरना, कुसंगति नहीं करना, बड़ोंका विनय करना, बडोंके कटुवचनको सहन कर लेना, ताकि महत्ताकी प्राप्ति होवे । इस लिये तू तेरा मित्र जो अशोकदत्त है, इसकी संगति छोड दे और श्रीजैनधर्मका पालन कर।' इस प्रकार पिताकी शिक्षाको श्रवण कर सागरचंद्रने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा कि-' हे पिताजी ! ऐसा कार्य मैं कभी न करूंगा कि-जिससे मेरी इज्जतमें धब्बा लगे ।' पुत्रके इन बचनोंसे पिता हर्षित हुआ । अब पुण्यभद्र सेठने भी सागरचंद्र कुमारका उपकार जान कर अपनी प्रियदर्शना कन्याको बडे महोत्सवसे उसके साथ ब्याह दी । प्रारब्धने दोनोंका अच्छा समागम मिलाया । कुंवर-कुंवरी दोनों सुख समाधिसे रहने लगे। किसी समय सागरचन्द्र ग्रामान्तरको गया। पीछे से अशोकदत्त अपने मित्र सागरचन्द्र के वहां आ कर प्रियदर्शनाके प्रति कपटयुक्त स्नेह दर्शाने लगा और कहने लगा कि-' आइये अपने दोनों परस्पर स्नेह सम्बन्ध कर सुखी होवें । ' इस बातको श्रवण करते ही स्त्रीको क्रोध उत्पन्न हुआ। जिससे उसको घरसे बाहर निकाल दिया । बाहर निकलते हुए रास्ते में सागरचन्द्र भी ग्रामान्तरसे आता हुआ उसको मिला । उसको अशोकदत्तने कहा कि- तुम्हारी स्त्री मेरे साथ स्नेह करनेको तत्पर हुई; मगर मैंने निषेध किया।' यह बात सुन कर सागरचंद्रने विचार कर कहा कि-' अघटित कार्य करना उचित नहीं। ' सागरचंद्र घर आया, तब स्त्रीके मुखसे मित्रका सर्व स्वरूप जान लिया और सोचने लगा कि मेरे पिताने जो कहा था कि-अशोकदत्तकी संगति मत करना, यह बा सत्य हुई। ऐसा निश्चय करके धर्मकार्य करने में स-पर हुआ। अपनी लक्ष्मीका सय सात क्षेत्रों में करने का । स्त्री भतार-दोनों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) आयुष्य पूर्ण होने पर काल कर जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रमें दक्षिणखंडमें गंगा और सिन्धु नदीके बीच में तीसरे आरेमें पल्योपमका आठवाँ भाग अवशेष रहते हुए नवसो धनुष्य प्रमाण शरीरवाले युगल हुए। जहां कल्पवृक्षके द्वारा मनोवांछित पदार्थ मिलते हैं । अल्प कषायवाले हुए । परस्पर दोनोंमें गाढ प्रीति हुई और अशोकदत्त मित्र भी मर कर वहीं चार दांत वाला हाथी हुआ । उस हाथीने भ्रमण करते हुए एक दिन दोनों युगलोंको देखे, उस समय पूर्वकालीन स्नेहके वशसे दोनोंको सँडसे उठा कर अपनी पीठ पर चढ़ा दिये । अतः उस युगलका विमलवाहन नाम प्रसिद्ध हुआ । आर्जव गुणके प्रतापसे सात कुलगरमें यह प्रथम कुलगर हुआ। और अशोकदत्त कपटके करनेसे तिर्यंच हुआ । " यह मनुष्यत्व तथा तिर्यंचत्व पानेके विषयमें सागरचंद्र तथा अशोकदत्तकी कथा कही । अब स्त्री मृत्यु पा कर पुरुषत्व पावे और पुरुष मत्यु पा कर स्त्रीत्व पावे, इन दो प्रश्नोंके उत्तर दो गाथाओंके द्वारा देते हैं: संतुट्टा सुविणीआ अज्जवजुत्ता य जा थिरा निचं । सच्च जपइ महिला सा पुरिसो होइ मारऊण ॥ २१ ॥ जो चवलो सठभावो मायाकवडेहिं वंचए सयणं । न कस्स य विसत्थो सो पुरिसो महिलिया होइ ॥२२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) अर्थात् - जो स्त्री सन्तोषवती, विनीता, सरल चित्तवाळी, स्थिर स्वभाववाली, और सत्यवचन बोलने वाली होती है, वह स्त्री मर कर पुरुषत्वको प्राप्त करती है ॥ २१ ॥ जो पुरुष चपल स्वभावी, शठ, कदाग्रही, माया कपट करके मित्र स्वजनको ठगने वाला, ठग और अविश्वासु होता है, वह मर कर परभव में स्त्री होता है ।। २२ ।। अब इन दोनों उत्तरोंके उपर पद्म-पद्मिनीको कथा कहते है: : - "स्वस्तिमती नगरी में न्यायसार नामक राजा राज्य करता था । उस नगर में एक पद्म नामक सेठ रहता था । वह सत्यवादी और संतोषी था । उसकी स्त्रीका नाम पद्मिनी था । वह बडी रूपवती थी । किन्तु कर्मयोगसे बह मुखरोग से पीडित और काहल स्वरवाली थी । एवं असत्यवादिनी तथा मायाविनी भी थी । सेठने स्त्रीके मुखरोगको मिटानेके लिये अनेक उपचार किये; किन्तु कुछ भी आराम न हुआ । किसी समय उस खीने कपटभावसे अपने पति से कहा कि - हे महाराज ! मुझे आराम नहीं हुआ, अतएव अब आप दूसरी स्त्रीसे शादी करके सुख से रहें ' तब सेठने कहा कि-' मुझे परम सन्तोष है, अतः यह बात कभी मत छेडना ' । C एक दिन सेठ पुराने उद्यानमें गया । वहां मेघकी वृष्टिसे निधान देख कर सेठ वहांसे उठकर घरको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat देहचिंताके कारण प्रगट हुआ । उसे चला गया । वहां www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) नजीकमें कोटवाल खडा था, उसने निधान देखा और राजासे जा कर कहा कि पद्म सेठ उनमें निधान प्रगट होता देखकर घरको चला गया। उसी समय राजाने कोटवालको कहा कि-यह सेठ पीछेसे धन लेनेको गया होगा । अतः तू पुनः वहां जा और देख कि-उसका क्या हुआ है ? । कोटवाल फिर वहां गया; किन्तु सेठको वहां नहीं देखा । तब फिर राजाके पास जाकर कहा कि-' स्वामिन् ! सेठ निधान लेनेको तो आया नहीं'। ऐसा श्रवण कर राजाने सेठको बुलाकर पूछा कि- तुमने निधान क्यों नहीं लिया ? ' सेठने कहा कि'महाराज ! मेरे पास अखूट निधान भरा पडा है, तो फिर दूसरे निधानको मैं क्या करूं ? ' राजाने पूछा कि- तुम्हारे पास कौनसा निधान है ?' तब सेठने कहा कि- मेरे पास सन्तोषरूप अक्षय निधान है ' । यह श्रवण कर राजा बहुत हर्षित हुआ और सेठको निर्लोभी जानकर नगरसेठके पदसे विभूषित किया । किसी समय उद्यानमें श्रुतकेवली पधारे । उनको राजा तथा पद्म सेठ मिलकर वंदन करनेको गये। धर्म देशना सुनने के पश्चात् सेठने गुरुसे पूछा कि-' हे महाराज ! मुझे सत्य और संतोष प्रति अति रुचि है, इसका कारण क्या ? और मेरी स्त्रीको मुखरोग होनेसे उसका काहल स्वर हुआ है इसका भी कारण क्या है ? सो कृपाकर मुझको कहिए । सेठका यह कथन सुनकर गुरु उनके पूर्वभव कहने लगे कि-'इसी नगरमें नाग सेठ रहता था, वह असत्यShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) वादी, असन्तोषी और मायावी था। उसको नागिला नामकी स्त्री थी, वह मायारहित तथा सत्य-संतोपको धारण करने वाली थी । एकदा नाग सेटका नागमित्र नाम: कोई मित्र देशान्तर जाता था। उसकी स्त्री चपला थी. उसके भयसे नागमित्रने अपने पुत्रको कहकर अपना मुवर्ण नाग सेठके पास अनामत (थापण ) रखा और नाग सेठकी स्त्री नागिलाको साक्षीरूप रखी। फिर नागमित्र देशान्तरको गया। वहां प्रचुर धन उपार्जन करके वापिस लौटते हुए रास्तेमें चोर लोगोंने उस पर हमला किया और उसे मार डाला । यह हाल जब उसकी स्त्री तथा पुत्रको मालूम हुआ, तब वे दुःखित होकर शोक करने लगे । कुछ समय व्यतीत होनेके बाद नागमित्रके पुत्रने अपने पिताकी रखी हुइ थापण नाग सेठके पाम मांगी, तब सेठ ना कबुल हो गया और कहने लगा कि,-' मेरे पास तेरे पिताने कुछ भी थापण नहीं रक्खी है ।' नागमित्रके पुत्रने राजाके पास जा कर बात कही। राजाने कहा कि- तेरे पास कोई गवाही है ? ' उसने कहा कि-'नाग सेठकी स्त्री नागिला मेरी साक्षी देनेवाली है।' तब सेठको प्रथम राजाने बुला कर पूछा, मगर उसने कहा कि-' मेरे पास उसके पिताने कुछ भी थापण नहीं रखी है।' फिर राजाने नागिलाको बुलाकर पूछा, तब नागिला विचार करने लगी कि-' एक ओर तो कूप है और दूसरी ओर वाघ है । यह न्याय मेरा हुआ है। क्योंकि एक ओर भरतार है, भरतारके प्रतिकूल न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) होना यह उत्तम स्त्रीकी रीति है । और दूसरी ओर विचार करूं तो सत्यवचनका लोप होता है कि जो कार्य इस भव और परभवमें महा दुःखदायी होगा । इस प्रकार विचार कर अंत में यह निश्चय किया कि जो हा सो हो; मगर सत्य बोलना । अमृत पीने से मृत्यु न होगी यह सोच कर सत्य बात राजाके समक्ष कह दी । उस वचनसे राजा बहुत हर्षित हुआ, और नाग सेठसे थापण दिलवा कर उसे छोड दिया तथा उसकी स्त्रीको उत्तम वस्त्रोंका शिरपाव दे कर बेटी की । अनंतर नगरकी स्त्रियों में नागिला सत्यवक्ता के रूपसे प्रसिद्ध हुई । एकदिन नाग सेठ के घर पर महीनेके उपवासके पारणे कोई मुनि पधारे । उनको भाव सहित निर्दोष अन्न-पानी दिया । जिससे दोनोंने शुभ कर्म उपार्जन किया । आयु पूर्ण होते नागिलाका जीव मृत्यु पा कर -तु यहां पद्म सेठके रूपसे आ कर उत्पन्न हुआ और नाग सेठ मृत्यु पा कर कपटके यांगसे यहां तेरी पद्मिनी स्त्री हुई है । जीभसे असत्य बोला जिसके कारण मुख रोग व काहल स्वर हुआ है । इस प्रकार पूर्वभवका वृत्तांत सुन कर योग्य पा कर दोनों मोक्षमें गये । कहा है: -- जीभे सच्चा बोलिए राग द्वेष कर दूर | उत्तमसे संगत करो लाभे ज्यों सुख पूर ॥ अब सातवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैं: आसं वस पसुं वा जो निलंछियं इह करेइ | सो सवंगनीणो नपुंसओ होइ मरिऊणं ॥ २३ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात्-जो पुरुष घोडे और वृषभ यानि बेल तथा बकरे प्रमुख पशुओंको आंक करे, नाक छेदे, गलकंबल काटे, श्रोत्र काटे, वह जीव सर्व मनुष्योंमें अधम जानना और वह मर कर नपुंसक होता है (२३) जैसे गोत्रासने अनेक जीवोंके अवयव छेदे, जिससे अनेक भव पर्यंत नपुंसकत्व पाया, उस गोत्रासकी कथा कहते हैं। “वणिक ग्राममें मित्रदेव राजा राज्य करता था। उसको श्रीदेवी नामक पट्टराणी थी । किसी समय वहां वर्द्धमान स्वामी समोसरे । बारह परिषद मिली। धर्मदेशना श्रवण कर सर्व हर्षित हुए। वहां श्रीमहावीरके प्रथम शिष्य और सात हाथ प्रमाण शरीरवाले अक्षीणमहाणसी प्रमुख अनेक लब्धि के धारक श्रीगौतमस्वामी छठ तपके पारणे श्रीमहावीरकी आज्ञा पाकर पात्रादिककी प्रतिलेखना करके वणिकग्राममें गोचरी करनेको पधारे । गौचरी करके वापिस लौटते हुए रास्तेमें अनेक नगरजनोंसे घिरे हुए और गाढ बंधनोंसे बंधे हुए एक पुरुषको देखा । जिसके कान, नाक, होठ, जीभ फटे हुए थे, जिसका शरीर धूलसे लिपटा हुआ था और तिल तिल जितना मांस उसके शरीरमेंसे काट कर उसे खीलाते हैं। ऐसा दयापात्र और दुःखी देखकर यह पापका फल है, ऐसा जान कर मनमें वैराग्य ला कर श्रीमहावीरके पास आये और इरियावही पडक्कम कर भात पानी आलोइ पूछने लगे कि-हे भगवन् ! किस किस प्रकारके रौद्र कर्मक करनेसे यह पुरुष ऐसा महा दुःखी हुआ है ? तब भगवान बोले कि-हे गौतम! सुन, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) हस्तिनापुर नगरमें सुनंद राजा राज्य करता था। उस गांवमें गौओंको बैठने के लिये लोगोंने एक मंडप बनाया था । निरंतर वे गौएं जंगलमेंसे तणादिक चर कर और पानी पी कर शामके समय मंडपमें आ कर सुखसे बैठती थी। उस गांवमें भीम नामक एक पुरुष रहता था। उसकी उत्पला नामकी स्त्री थी। उसके पुत्रका नाम गोत्रास था। वह छोटी वयसेही महा दुष्ट था; निर्दयी, पापी और जीवघातका करनेवाला था। किसी दिन रात्रिके समय लोग मो गये, इससे बाद वह गोत्रास अपने हाथमें काती ले कर गौओंके मंडपमें आया। वहां कइ गायोंके पूछ, कान, नाक, ओष्ठ, जिल्हा और पैर वगेरह अवयव काट डाले । ऐमा पाप करके वह पांचसो वर्षकी आयु पूरी कर दूसरी नरकमें नारकीपणे उत्पन्न हुआ। क्योंकि कहा है: घोड़े बल समारीया, कीना जीव विनाश। पुण्य विहुणा जीव सो, पावे नरक निवास ॥ १ ॥ गोत्रासका जीव नरककी घोर वेदनाएं भोग कर वहांसे निकल कर इसी नगरमें सुभद्र सेठकी सुमित्रा नामा स्वीके वहां पुत्र रूपसे उत्पन्न हुआ है। उसके जन्मके होते ही उसे एक कचरेके पूंजे में फेंक दिया। फिर वहांसे उठा लाये और उज्झित ऐसा नाम दिया। जब वह बडा हुआ, तब सुभद्र सेठ धनोपार्जनके लिये उसको साथ ले कर वहाणमें चढा । कर्मवशात् , संवर्तक वायुके योगसे प्रवहण नष्ट हुआ। जिससे सुभद्र सेठ मर कर के देव हुआ। उस वृत्तान्तको सुन कर उज्झित पुत्र घरको आया। पिताके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) सुमित्रासेठाणी भी शोक-संताप करती हुइ मृत्युकेवश हुई। पीछेसे लडका दुराचारी-पापिष्ठ हुआ। यह बात जान कर लोगोंने उसे घरसे बाहर निकाल दिया। वह गांवमें इधर उधर भटकने लगा और सातों दुर्व्यसनको सेवता हुआ सर्व अनर्थोका मूल रूप हुआ । उसने राजाकी मानेती महा रूपवंत, कलावान्, सर्व देशोंकी भाषा जाननेवाली ऐसी कामध्वजा नामक वेश्या, कि जिसके साथ राजाका बहुत स्नेहसंबंध था, उसके घरमें प्रवेश किया । राजाके अनुचरोंने उज्झित पुत्रको वेश्याके घर में प्रवेश करते हुए देख कर पकड लिया । और बांध कर राजाके सन्मुख लाये । उस राजाने उसको बड़ी विडंबना पूर्वक मार डाला । मर कर वह पहली नर्कमें उत्पन्न हुआ । वहांसे मर कर वह नपुंसक हुआ है । इस प्रकार अनेक भवपर्यंत नपुंसकत्वके दुःखको सहन करेगा । ऐसा जान कर निलंछन कर्म नहीं करना चाहिए ।' यह सातवें प्रभके उत्तरमें गोत्रासकी कथा कही । ___ अब आठवें प्रश्नका प्रत्युत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैं:जो मारेइ निद्दयमणो परलोअं नेव मन्नए किंचि । अइसंकिलिट्टकम्मो अप्पाऊ सो भवे पुरिसो ॥ २४ ॥ जो निर्दयी मनवाला होकर जीवोंकी घात करे, स्वर्ग मोक्ष प्रमुख परलोकको किञ्चित्मात्र भी माने नहीं, और जो जीव अतिसंक्लिष्ट विरुद्ध कौंको आचरे, वह जीव परभवमें अल्प आयुष्यवाला होता है (२४) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) - जैसे किः-उज्जयिनी नगरीमें समुद्रदत्त सेठकी भार्या धारिणी दुराचारिणी थी, वह यज्ञदत्त नामक नौकरके साथ आसक्त होकर व उसके साथ मिलकर अपने पुत्र शिवकुमारके साथ द्रोह करने लगी। अन्तमें उसने उन सबकी हत्या करा डाली और खुद भी मर गई। आगे अनेक भवमें वे अल्पायु पाये । अतः यहां शिवकुमार और यज्ञदत्तकी कथा कहते हैं: “उज्जयिनी नगरीमें समुद्रदत्त सेठ रहत्ता था । उसकी धारणी नामा स्त्री थी । उसको शिवकुमार नामक पुत्र था और यज्ञदत्त नामक कर्मकर था । किसी एक दिन समुद्रदत्त सेठको रोग उत्पन्न हुआ, और उससे वह मर गया । पीछेसे उसके पुत्रने मृतकार्य किये । कर्मके योगसे धारिणी सेठाणी पहले यज्ञदत्त कर्मकरके साथ लुब्ध हुई । यौवनावस्था में जितेन्द्रिय होना महा दुर्लभ है, उसमें भी कामको जीतनेका कार्य परम दुर्लभ है । पीछे यह कार्य लोकविरुद्ध जान कर शिवकुमार बार बार निषेध करता रहा, तथापि माताने उसका कहना नही माना । एकदिन धारिणीने यज्ञदत्तको एकान्तमें कहा कि'मेरा पुत्र शिवकुमार अच्छा नहीं है, अतः जिस प्रकार सूर्य कुमुदिनीका विनाश करता है, और जिस प्रकार नदीका प्रवाह नदीके तटका नाश करता है, एवं जिस प्रकार दावानल वनका नाश करता है, उसी प्रकार शिवकुमार अपना विनाश करेगा। इस लिये गुप्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) रीतिसे उसको मार डालना चाहिये ।' यह श्रवण कर यज्ञदत्तने कहा:- . 'यह बात युक्त नहीं है, क्योंकि तेरा पुत्र वह मेरा स्वामी है, उसके प्रासादसे अपने दोनों सुखी है। अतएव स्वामीद्रोह करना यह महापापका हेतु है ।' यह श्रवण कर धारिणी बोली कि-'इसमें पाप क्या है ? यदि वह जीवित रहेगा, तो अपनेको सुखका अंतराय करेगा।' इत्यादि बातें सुन कर विषयांध यज्ञदत्तने भी शिवकुमारको मार डालनेका वचन दिया। अब कपटभावसे धारिणीने अपने पुत्रको कहा कि-' हे वत्स! शस्त्रधारक किसी भी पुरुषका विश्वास मत करना।' फिर एक दिन वह कुमारको कहने लगी कि-' गोवालिक लोग अपने गौओंकी रक्षा अच्छी तरह नहीं करते हैं, अतः तुम दोनों गौओंकी रक्षा करने के लिये जाओ।' यह सुन कर दोनों मनुष्य हाथमें हथियार लेकर जंगलमें गये । दोनों आगे पीछे चलते हैं, एक दूसरेका विश्वास कोइ नहीं करता है। नीचे उतरते हुए एक खाइमें यज्ञदत्तने खड्ग निकाला, वह पीछेसे शिवकुकारने जान लिया; तब वहाँसे भाग कर गोकुल में छिप गया। वहां गोपालकों को सब हाल कह कर उनको सचेत कर रखे। . संध्याके समय गौओंके बाडे में दोनों शय्या बिछा के सो गये । तत्पश्चात् शिवकुमारने उठकर शय्यामें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खड्ग रखकर ऊपरसे ढांप दिया और खुद गायोंके समूहमें छिप रहा । बादमें यज्ञदत्तने गुप्त रीतिसे खड्ग निकाल कर शिवकुमारकी शय्या के ऊपर प्रहार किया, उस समय शिवकुमारने गौओंके समूहमेंसे गुपचुप निकल करके यज्ञदत्त पर खड्गप्रहार करके उसको मार डाला । और मुखसे चोर ! चोर !! ऐसी चिल्लाहट करते हुए गोवाल व शिवकुमार थोडी दूर तक बाहर गये; फिर वापिस आ कर बूम पाडने लगे कि-यज्ञदत्तको चोरने मार डाला । यह काम करके शिवकुमार घर आया। उसकी माताने पूछा कि-' यज्ञदत्त कहां है ? ' तब शिवकुमारने कहा कि ' पीछे आ रहा है।' यह कह कर मनमें विचार करता है कि-मेरी माताके कर्म तो देखो, कैसे निन्दनीय हैं ? जो पुत्रको भी मारनेके लिये तत्पर हुई ! ऐसा विचार कर माताको कहने लगा कि मैं रात्रिको सोया नहीं हुं, जिससे मुझे निद्रा आती है । ऐसा कह कर वह सो जाता है। उस समय उसकी माताने खड्गके ऊपर चींटियां चढती हुई देखीं, तब खड्ग निकाल कर देखा तो रुधिरसे लिप्त था । इस परसे वह विचारने लगी कि-यज्ञदत्तको निश्चय इसीने मार डाला है । ऐसा चिंतन करके अति दुःखित हुई । और उसी खड्गके द्वारा अपने पुत्रको मार डाला। वह धावमाताने देखा, उसने मुशलसे धारिणी को मार डाला। मरते मरते धारिणीने चपेटाके द्वारा धावमाताके मर्मस्थानमें प्रहार किये, जिससे वह भी मर गई । इस प्रकार निर्दयता पूर्वक परस्पर द्रोह करके वे मर गये और वे सर्व जीव उस भवमें भी पाप के करनेसे अल्पाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) युषी हुए और आगामी भवोंमें भी महा दुःखी होंगे। अतः जीववध नहीं करना चाहिये । कहा है:“ जीववधे पापज करे, आणे हिये कुबुद्धि । भारी कर्मा जीव जे, ते पामे किम सिद्धि ॥१॥" इस प्रकार आठवें प्रश्रके उत्तरमें शिवकुमार-यज्ञदत्तकी कथा कही । अब नववे प्रश्नका उत्तर एक गाथा द्वारा कहते हैं: मारेइ जो न जीवे दयावरो अभयदानसंतुट्ठो। दीहाऊ सो पुरिसो गोयम ! भणियो न संदेहो ॥२५॥ जो जीवोंकी हिंसा नहीं करता, दयावान होता है और अभयदान देकर संतुष्ट रहता है, वह जीव मरकर आगामी भवमें संपूर्ण आयुवाला होता है, इस विषयमें हे गौतम, जराभी संदेह मत कर । __ ऐसी जीवदया पालनेसे दामनक दीर्घायुष्यवाला हुआ था । इसलिये यहाँ दामनक की कथा कही जाती है:___“ राजगृही नगरीमें जितशत्रु राजा राज्य करता था । उसको जयश्री नामकी रानी थी। उस नगरमें मणिकार नामक एक श्रेष्ठी था, जिसकी स्त्रीका नाम सुयशा था । इनको दामनक नामक पुत्र हुआ । यह जब आठ वर्षका हुआ, तब इसके माता-पिता मरगये । दामनक बहुत दरिद्र था, इसलिये वह धनिगृहस्थोंके घरोंमें भिक्षावृत्तिकर अपना निर्वाह करता था । एकदिन दो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) मुनि सागरपोत नामक गृहस्थके घर में गोचरीके लिये गये । गोचरी बहेरकर ज्योंही वे दो मुनि बाहर निकले, त्योंही उस दामनकने उसी घर में प्रवेश किया । इस बालकको देखकर एक मुनिने दूसरे मुनिसे कहा:सचमुच ही यह बालक इस घरका मालिक होगा । मुनिका यह कथन ऊपर गोख में बैठे हुए घरके स्वामीने सुन लिया । सुनते ही उसके हृदय में आघात पहुंचा । वह सोचने लगाः 'अहा ! बडे बडे कष्टोंका सामना करके मैंने यह लक्ष्मी उपार्जन की है । क्या इसका मालिक यह रंक जो भिक्षावृत्तिसे जीता है, वह होगा ? । और गुरुका वचन भी अन्यथा नहीं हो सकता । अब तो किसी उपायसे इस लड़केको यमद्वारमें पहुँचाना ही श्रेयस्कर है । ' इस प्रकार विचार करके सागरपोतने उस बालकको मोदकादिकी लालच देकर पिंगल नामक चांडालके घर रक्खा । उस चांडालको सेठने गुप्तरीत्या कह दिया कि - ' मैं तेरेको पांच मुद्राएं दूँगा । तूने इस बालकको पूरा कर देना और मुझको दिखलाना । ' इस बालक के सुरूप को देखकर चांडाल के अंतःकरण में करुणभाव उत्पन्न हुआ । वह विचारने लगा :- क्या द्रव्य के लोभसे ऐसे निर्दोष बालकको मार हूँ ।' चांडालने कतरनीसे उस बालककी कनिष्ट अंगुली काटली, और उससे कहा:- भाई ! तू यहाँ से बहुतही शीघ्र चला जा । नहीं तो इस कतरनीसे मैं तेरेको मार दूंगा । बालक गभराहट में हो वहाँसे चल दिया, और जिस गाम में सागरपोतका गोकुल था, वहाँ पहुँचा । गोकुलके स्वामी नंदने, जिसको पुत्र नहीं था, पुत्र रूपसे इसको 6 " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com " Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रख लिया । उधर चांडालने लडकेकी कनिष्ट अंगुली सागरपोत को दिखलाई । सागरपोत समझा कि-लडका मर गया और मुनिका वचन मिथ्या हुआ । कुछ वर्षों के बाद सागरपोत अपने गोकुलमें गया, तब उसने अंगुली कटे हुए दामनकको युवावस्थामें देखा। दामनकको देखते ही उसके हृदयमें आघात पहुँचा । उसने गोकूलरक्षक नंदको पूछा कि-' यह लडका तेरे पास कहाँसे ? तुझे यह कहाँसे मिला ? ' नंदने कहा:' महाराज किसी चंडालने इसकी अंगुली काट ली, इस लिये यह भयभ्रान्त होकर यहां चला आया, और मेरे पास वर्षोंसे रहता है। मैंने इसकी पुत्ररूप रक्षा की है ।' यह सुनतेही सागरपोत अपने घरकी और चलनेके लिये प्रस्तुत हुआ। तब नंदने आश्चर्यान्वित होकर कहाः-'वाह ! आप अभी न अभी आए वैसे ही कैसे चले जाते है ? क्या कोई गृहकार्य आपको विस्मृत हुआ है ? । यदि ऐसा है तो आप एकपत्र लिख दीजिये, मेरा यह पुत्र शीघ्र आपका कार्य कर आवेगा । ' सेठको यह बात रुचिकर हुइ । उसने एक पत्र लिखकर दामनकको दिया, और कहा कि-यह पत्र शीघ्र ही जाकर मेरे पुत्रको दे दे । वह बहुत जल्दी राजगृही के समीप पहुँचा। और थोडी देर विश्राम लेनेके कारण एक उद्यानस्थ कामदेवके मंदिरमें जा बैठा । थोड़ी ही देरमें उसको वहाँ निद्रा आ गई, क्योंकी-चलनेके परिश्रमसे वह बडा थका हुआ था। इसी समय सागरपोतकी पुत्री, जिसका नाम 'विषा' था, इसी मंदिरमें कामदेवकी पूजा करनेको आइ । कामदेवकी पूजा करते हुए इसने अपने योग्य वरकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) याचना की । इधर पूजा करके वह निकलने लगी, तब इसने इस नवयुवकको सोता हुआ देखा । विषा, इस युवक के रूप- लावण्यपर मुग्धा हुई । इसने, बडी हुशीयारीसे इसके पास अपने पिताकी मुद्रिकासे मुद्रित पत्रको खोलकर देखा, तो इसके आश्चर्यकी सीमा न रही । पत्र मे लिखा था: - ' इस पत्र के लानेवालेको निःशंक मनसे विष दे देना । इस कार्यमें मेरी संपूर्ण आज्ञा है ।' पहिले तो इस कन्याको, इस पत्रके पढ़नेसे बड़ा दुःख हुआ, परन्तु विचार कर उसने सोचा कि ऐसे रूप लावण्ययुक्त युवकको विष ( झहर ) देनेके लिये मेरे पिता कभी नहीं लिख सकते । वस्तुतः उनके लिखनेका आशय यह है कि विषाको (मेरेको ) दे देना, क्योंकि उन्होंने मेरेही योग्य यह वर देखा है । विषाने तुरंत ही इस कल्पनाकी सिद्धिके लिये एक सलीपर अपने नेत्रसे काजल लेकर 'विष' का ' विषा' बना लिया । और बड़ी सावधानी के साथ वह पत्र ज्यों का त्यों कपडे में बांध दिया । और अपने घर चली गई । - कुछ समयके अनन्तर दामनक जाग्रत हुआ, और शहेरमें जाकर सेठके पुत्र समुद्रदत्तको वह पत्र दे दिया । समुद्रदत्तने पत्रको पढकर विचार कीया कि पिताजीने लिखा है कि- इस आनेवाले आदमीको विषा देदेना । इसमें जरा भी संदेह नहीं करना । ' इसलिये मुझको चाहिये कि मेरी बहिन - विषाका लग्न इस युवकके साथ कर दूँ । बस, विचार पक्का कर लिया । और बड़े उत्सवके -साथ विषाका लग्न दामनकके साथ कर दिया । विवाहके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) दो दिन बादही यह समाचार सागरपोतके कर्णगोचर हुआ । समाचार सुनतेही उसके हृदयमें आघात पहुँचा । वह बडा दुःखी होता हुआ अपने घरकी ओर आते हुए रास्ते में विचार करने लगा - 'अहो ! मैं जो जो करता हुँ, सो तो विधि अन्यथा ही करता है । खैर, यह मेरा गृहजमाई हुआ है । तथापि इसको मारे विना तो मैं नहीं रहूँगा ।' ऐसा विचार कर वह अपने गाँव गया और सीधा ही पिंगलचाण्डालके वहाँ जाकर कहने लगा:-' अरे चांडाल ! तूने क्यों उस लड़केको नहीं कहा:- -' सेठ | " चाण्डालने " मारा ? सच कह दे । उसके प्रति मुझको दया आई, इसलिये मैंने मारा नहीं । खैर, अगर उसको मारनाही है, तो आप वह लड़का मुझको दिखलाइये; अब मैं उसे मार डालूंगा ।' सेठने कहा:-' पिंगल, आज शामको मैं दामनकको मेरी गोत्र देवता के मंदिरमें भेजूंगा, तूने वहाँ उसको अवश्य मार देना । संध्या समय सेठने घर आकर दामनक और उसकी स्त्री - विषाको कहा: - ' अरे, अभीतक तुमने क्या कुलदेवीका पूजन नहीं किया ? जिसके प्रभावसे तुम दोनोंका संगम हुआ है ।' ऐसा कह कर उसने उन दोनोंको पुष्पादि पूजासामग्री के साथ पूजाके लिये गोत्रदेवीके मंदिरमें भेजे । जब वे दोनों बजारमें होकर गोत्रदेवीके मंदिरप्रति जाने लगे, तब सेठकी दुकानपर बैठे हुए सेठके पुत्र समुद्रदत्तने उठकर उन दोनोंसे कहाः - ' यह पूजाका समय नहीं है । ' ऐसा कहकर उन दोनोंको किसी एक स्थानपर बैठाये, और स्वयं वे पुष्पादि चीजें लेकर गोत्रदेवी के मंदिरमें गया। मंदिरमें तो संकेतानु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) सार पिंगलचाण्डाल मारनेके लिये आयाही था । उसने समझा कि यह दामनक आया । ऐसा विचार कर उसने झटसे खड्गद्वारा उसको हनन कर दिया । ज्योंही यह बात शहरमें पहुँची, त्योंही हाहाकार मच गया । सागरपोतने जिसको मरवाने के लिये प्रयत्न किया था, वह तो बच गया, और उसके बदले में अपना लड़काही मारा गया । यह सुनकर सागरपोतको पारवार दुःख हुआ । दुःख क्या हुआ, हृदयमें ऐसा आघात पहुँचा, कि जिससे उसकी मृत्युही होगइ । तत्पश्चात् कुटुंबी पुरुषोंने मिलकर दामनकको सागरपोतके घरका मालिक बनाया । दामनक ऐसा धर्मशील था, कि - यौवनावस्था में भी वह विषयों की इच्छा नहीं करता था । किसी एक दिन उसने किसी पवित्र साधुसे धर्मोपदेश सुना । उपदेशश्रवणके बाद उसने उस ऋषिसे पूछा:- भगवन् । कृपाकर आप मेरे पूर्वभवका वृत्तान्त सुनाइये । " मुनिने उसके पूर्वभवका वृत्तान्त सुनाते हुए कहा: ' इसी भरतक्षेत्रके गजपुरनगरमें सुनंद नामक एक कुलपुत्र था । उसका जिनदास नामक मित्र था । किसी दिन वे दोनों उद्यान में गये । वहाँ कंचनाचार्य नामक एक आचार्यको देख सुनंद अपने मित्रके साथ उनके पास गया । आचार्यने देशना दी, उसमें आचार्यने कहा:' जो मनुष्य मांस खाता है, वह अत्यन्त दुःखोंको भोगता हुआ नरकमें जाता है।' इसको सुन सुनंदने मांसभक्षण नहीं करनेकी प्रतिज्ञा की । और जीवरक्षा में तत्पर हुआ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) कुछ समयके बाद बड़ा भारी दुष्काल पडा । उस दुष्कालके समय में बहुधा लोग मांस भक्षणसे गुजारा करने लगे । एक दिन सुनंदकी स्त्रीने अपने पतिसे कहा:'स्वामिन् । आप भी नदी किनारे जाईये, और जाल डालकर मत्स्य ले आइये । जिससे अपने कुटुंबका पोषण हो ।' इन बचनोंको सुनकर वह कहने लगाः'हे प्रिये ! ऐसा कार्य मैं कदापि नहीं करूंगा । ऐसा करने में महती हिंसा होती है । ' स्त्रीने कहा:-' आपको किसी मूंडेने बहकाया मालूम होता है । अच्छा, तुम दूर होजाओ।' इस तरह स्त्रीने बहुत तिरस्कार किया, तब वह जाल लेकर तालाब पर गया । और गहनजलमें जाल डालकर मत्स्य निकालने का प्रयत्न करने लगा। जालमें फंसे हुए मत्स्योंको तडफडाते हुए जब यह देखने लगा, तब इसको बड़ी दया आने लगी । और उस दयाके कारण उन मत्स्योंको वापस पानीमें धीरेसे डाल देता था। दो दिन तक इसने इस प्रकार प्रयत्न किया। तीसरे दिन इस तरह करते हुए एक मत्स्यकी पांख तूट गई । उसको देखकर सुनंद अत्यन्त ही दुःखी होने लगा। वह अपने घर आकर घरके मनुष्योंसे कहने लगा:- मैं कभी भी जीवहिंसाको नहीं करूंगा, जो नरकको देनेवाली है । ' ऐसा कहकर वह घरसे निकल गया । कुछ कालतक अपने नियमको पालनकर वह मरा। वही तू दामनक उत्पन्न हुआ है । मत्स्यकी पांख तोडने के कर्मके उदयसे इस भवमें तेरी अंगुली काटी गई।' इस प्रकार गुरुके मुखसे अपने पूर्वभवको सुनकरके सुनंदको वैराग्य उत्पन्न हुआ । उसने अनशन करके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) समाधिपूर्वक अल्प आयुष्य पूरा कर देव हुआ । वहाँसे चव कर मनुष्यभवमें दीक्षा लेकर क्रमसे मोक्षमें जायगा।" अब दशवें और ग्यारहवे प्रश्नके उत्तर दो गाथाओंके द्वारा देते है: देइ न नियमं सम्म दिन पि निवारए दित्तं । एएहिं कम्मेहिं भोगेहिं विवज्जिओ होइ ॥ २६ ॥ सयणासणवत्थं वा भत्तं पत्तं च पाणयं वावि । हीयेण देइ तुट्ठो गोयम भोगी नरो होइ ॥ २७ ॥ अपने पास वस्तु होने पर भी जो किसीको न दे, और यदि देभी, तो पीछेसे संताप करे, एवं अन्य कोई देता हो, तो उसकोभी रोके । ऐसे कर्मोंके करनेसे जीव मोगसे विवर्जित यानि भोगरहित होता है। जिस प्रकार धनसार सेठ छासठ कोडी द्रव्यका मालिकहोने पर भी अत्यंत कृपण होनेसे भोगरहित हुआ ( २६ ) तथा, जो पुरुष शयन, पाट, संथारा, आसन, पाटा, पायपूंछणुं, कम्बल, वस्त्र, भात, पानी आदि महात्माको देने योग्य वस्तु उत्कृष्ट भावसे सन्तुष्ट हो कर देता है, वह पुरुष हे गौतम ! भोगवाला-सुखी होता है (२७) जैसे कि धनसार सेठने सुपात्र दान दे कर भोग सम्बन्धी सुख प्राप्त किया [ कहा है: बिनतडी स्वामी सुनो, तप जप क्रिया न कीध । राग-द्वेष पातक किये, गवं दानज दीध ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) उस सेठकी कथा इस प्रकार है:-" मथुरा नगरीमें धनसार सेठ रहता था, वह छासठ कोटी द्रव्यका अधिपति था; परंतु महा कृपण था । एक कौडी भी धर्मके निमित्त देता नहीं था । द्वारपर किसी भिक्षाचरको देखता, तो उस पर रोष करता । यदि कोई आकर याचनाभी करता, तो उस पर क्रुद्ध होता था। याचक को देखतेही उठकर चला जाता । धर्मके निमित्त धन देनेकी बातमें कभी शरीक नहीं होता था । अपने घरमें कभी अच्छी रसोइ भी जिमता नहीं था । उसकी ऐसी कृपणता के कारण उस नगरमें कोइ मनुष्य भोजन करनेके पहले धनसार सेठका नाम भी नहीं लेता था। लोगोंमें ऐसा शक पडगया था कि उसका नाम लेंगे, तो अन्न भी नहीं मिलेगा। उसने अपने द्रव्यका तीसरा हिस्सा बाईस काटी द्रव्य जमीनमें गाड रक्खा था । उसको एक दीन खोल कर देखा, तो कोयलेके सदृश देखा । बस देखते ही सेठको मूर्छा आ गई । वह जमीन पर गिर गया। थोडी देरके बाद सचेत हुआ, उस समय किसीने आ कर कहा किः- सेठजी ! आपके बाईस कोडीके मालसे भरे हुए नाव समुद्र में डूब गये।' फिर किसीने आ कर कहा कि-' अमुक स्थान पर मालसे भरी हुई अपनी गाडी चोरोंने लूंट ली' । इत्यादि द्रव्यके नाश होनेकी वातें सुन कर सेठ अचेत सा हो गया । रात्रि दिवस घूमता फिरता और सब लोग उसकी हांसी किया करते । एक दिन दस लाख भांड प्रवहणसे भर कर सेठ देशान्तर को चला । वहां भी कर्मयोगसे समु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमें गाज-बीज और वर्षा हुई । तूफानसे प्रवहण नष्ट हो गया, मगर भाग्ययोगसे एक तखता हाथमें आया, जिसको पकड कर सेठ किनारे पहुंचा। वहांसे भटकता हुआ घरको आया । मनमें विचार करने लगा किमुझको द्रव्य मिला; परंतु कभी सुपात्रमें दान नहीं दिया, बल्कि देते हुएको भी रोका। मेरी लक्ष्मी परोपका. रादि किसी सुकृतमें काम नहीं आई। शास्त्र में लक्ष्मी की तीन गति हातमें काम! मेरी लक्ष्म नहीं दिया, को वंदन करना किस कर्मके दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुंक्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥१॥ उपर्युक्त दान, भोग और नाश-ऐसी तीन गतिमेसे मेरी लक्ष्मीकी तो केवल एक तीसरी गती ही हुई । अर्थात् नष्ट ही हो गई। एक दिन वनमें केवली भगवान समोसरे। सेठ उनको वंदन करनेके लिये गया। वन्दन कर के उसने पूछा कि-'हे भगवन् । किस कर्मके उदयसे मैं कृपण हुआ? तथा मेरी सर्व लक्ष्मी चली गयी इसका कारण क्या ?' गुरु कहने लगे कि-' हे सेठ! भरतक्षेत्रमें दो भाई अत्यंत ऋद्धिवान् थे । उनमें बड़ा भाई तो सरल चित्तवाला, उदार और गंभीर था और छोटाभाई रौद्र परिणामी पवं कृपण था । वह बडे भाईको भी दानादिक देते हुए रोकता था, मगर वह तो दान अवश्य दियाही करता था। कालक्रमसे बड़े भाईके पास दिनप्रतिदिन लक्ष्मी बढ़ कारण क्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) ती ही गई, और छोटाभाई देखता ही रहा; मगर किसीको एक कौडी भी देता नहीं, जिससे लक्ष्मी बढनेके बदले घटती ही गई । वह भाईकी ऋद्धिको लेने के लिये बडे भाईके साथ बहुत कलह करने लगा। उस कलहके योगसे एक दिन बडे भाईने गुरुकी देशना श्रवण कर वैराग्य पा कर दीक्षा ली। काल करके प्रथम देवलोकमें उत्पन्न हुआ । और छोटाभाई कृपण होने पर भी निर्धन रहा । लोगोंके द्वारा निन्दनीय हो कर उसने तापसी दीक्षा ले कर अज्ञान तप किया और असुरकुमार देवोंमें जा कर उत्पन्न हुआ । वहांसे चव कर यहाँ तू धनसार नामक सेठ हुआ है। और मैं-बडाभाई देवलोकसे चव कर तामलिप्ती नगरीमें एक व्यवहारिकके वहां पुत्र रूपसे उत्पन्न हुआ । और दीक्षा ले घातिकर्म क्षय करके केवलज्ञान उपार्जन कर मैं अभी यहां आया हूँ।' यह श्रवण कर सेठ अपने पूर्वभवका भाई जान कर बहुत हर्षित हुआ। फिर गुरुने कहा कि- तू दान नहीं दे सका, जिससे अंतराय कर्म उपार्जन किया। तथा दान देते हुएको रोका, जिससे सर्व धन क्षय हो गया।' इत्यादि बातें सुनकर धनसार सेठने ऐसा नियम किया कि-'अबसे मैं जितना धन उपार्जन करूंगा, उनमेंसे चौथा हिस्सा धर्मकार्यमें खर्च कर डालूंगा। ऐसी प्रतिज्ञा यावजीवके लिये करता हूँ। तथा परके दोषोंको प्रकट करूंगा नहीं।' ऐसा कह कर श्रावकधर्म अंगीकार किया । और केवली भगवानके पास पूर्वभवके अपराधकी क्षमा मागी । अब सेठ तामलिप्ती नगरीमें जा कर व्यापार करने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) लगा। वहां लक्ष्मी उपार्जन करके उसमेंसे यहुत द्रव्य धर्मार्थ सात क्षेत्रोंमें खर्चने लगा । और अष्टमी चतुर्दशीको पोषध भी करने लगा। एक दिन शून्य घरमें पौषध ले कर काउसग्गध्यानमें रहे । वहां व्यंतरदेवने कोप करके, सर्पका रूप धारण कर सेठको काटा । सारा दिन सेठ प्रतिमामें स्थित रहे । वहां तक व्यंतरदेवने अनेक प्रकारके उपसर्ग किये; किन्तु सेठ क्षुभित नहीं हुए । सेठकी इस प्रकारकी स्थिरता देखकर व्यंतर सन्तुष्ट होकर कहने लगा कि- तुम जो मांगो सो मैं ढूँ; ' परन्तु सेठने कुछ भी याचना नहीं की । तो भी व्यंतरने कहा कि-' आप पुनः मथुरा नगरीमें जाओ, और तुम्हारे भंडारमें रक्खे हुए बाईस कोडी सुवर्ण जो कोयलेके सदृश हो गये है, वे तुम्हारे पुण्यके योगसे सुवर्ण हो जायेंगे ।' फिर सैठने मथुरा नगरीमें आ कर निधान खोल कर देखा तो कोयलेके स्थान पर पुर्वके अनुसार सुवर्ण दृष्टिगोचर हुआ । वैसेही जलमार्गके प्रवहण भी पानीकी कमीके कारण कहीं खराबे नजीक रूक रहे थे, वे भी कुशलतापूर्वक आ पहूँचे । इस प्रकार सर्व स्थलसे पुनः छासठ कोडी द्रव्य एकत्रित हुआ । उसमेंसे दान देने लगा और भोग भोगने लगा। उसने कई जिनप्रासोद कराये । इस प्रकार सातों क्षेत्रों में अच्छी तरह धनका सव्यय करके धर्म सम्बन्धी अचल कीर्ति उपार्जन की । अन्तमें पुत्रको घरका भार सोंप कर अनशन किया। और अन्तमें काल करके पहले देवलोकके अरुणाभ विमानमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९ ) चार पल्योपमके आयुष्य सहित उत्पन्न हुआ । वहाँ से चत्र कर महाविदेह क्षेत्रमें मनुष्यत्व पा कर और दीक्षा ले कर मोक्षमें जायगा "? अब बारहवें और तेरहवें प्रश्न के उत्तर में कहते हैं: गुरुदेवयताहृणं विणयपरो त सीओ य । न भगेह किंपि बहुयं सेो पुरिलो जायए मुहिओ ॥ २८ ॥ अगुणोषि षिनि धीरेणी कामी । माणी विडयओ को सो जायड़ दूही पुरियो । २९ ॥ अर्थात् - जो पुरुष गुरु, देव और साधु महात्माका विनय करने में तत्पर रहता है और जो आकृतिका शान्त होता है, किसीको कटु वचन नहीं कहता, अर्थात् मर्मयुक्त, निन्दायुक्त तथा अप्रिय वचन नहीं बोलता, वह पुरुष सौभाग्यवन्त होता है । ( २८ ) जो पुरुष गुणरहित होने पर भी गर्वित याने अहंकारी होता हैं, और गुणवन्त-धैर्यवान् ऐसे तपस्वीकी निन्दा करता है, तथा जो मानी अर्थात् जात्यादि मदका करने वाला अभिमानी होता है, एवं जो जिनशासनविडंबक होता है, वह पुरुष दुर्भागी होता है । ( २९ ) जैसे राजदेवका भाई भोजदेव उक्त पापोंके करनेसे दुर्भागी हुआ । उन राजदेव और भोजदेवकी कथा इस प्रकार है: :-- " अयोध्या नगरीका सोमचन्द्र राजा सौम्य प्रकृति वाला था। उस नगर में देवपाल नामक एक सेठ रहता 4 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) था। उसली देवदिन्ना नामक स्त्री थी। उसके राजदेव और मोजदेव नामके दो पुत्र थे। उनमें बडा भाई सर्वको प्रिय एवं सुभागी था । आठवें वर्षमें उसने सर्व कलाओंको सीख लिया और अनेक शास्त्र भी पढे, और यौवनावस्था प्राप्त होने पर किसी कन्याके साथ स्वयंवर लग्न किया । वह जहां कहीं जाता था और जिस किसी चीजका व्यापार करता था, उसमें अवश्य लाभ प्राप्त करता था। यहां तक कि-यह पुत्र राजाको भी वल्लभ हो गया। अब छोटा भाई जो भोजदेव था, वह पहेलेसेही दुर्भागी था । जब वह यौवनावस्थाको प्राप्त हुआ, तब उसके पिताने अनेक सेठोंके पास कन्याकी याचना की; परंतु उसको देनेकी किसीने इच्छा नहीं की। उस समय सेठने किसी एक दरिद्रीको पांचसो सुवर्ण महोर दे कर उसकी कन्याके साथ लग्न करनेका निश्चय किया। उस कन्याके पिताने सोनैयाके लोभसे कन्या देना मंजूर किया; परन्तु कन्या कहने लगी कि,-' मैं अग्निमें प्रवेश करके जल जाउंगी; मगर उस दुर्भागीके साथ शादी नहीं करूंगी' ऐसा हठ ले कर बैठी। बाद में वेश्या को धन दे कर उसके घरको जाने लगा। वहां भी वेश्या ऐसा चिंतन करने लगी कि, किसी भी तरहसे यह यहांसे उठ जावे तो अच्छा । वह जो कुछ व्यापार करता था, उसमें अवश्य नुकसान होता था । मूलगी पूंजी भी प्राप्त नहीं होती थी। इस प्रकार यद्यपि वे दोनों सगे भाई थे, तथापि दोनोंमें महदन्तर था । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) एक दिन कोई ज्ञानी गुरु वनमें पधारे । उनको वन्दना करने के लिये सेठजी दोनों पुत्रोंको साथमं ले कर गये। वन्दना करके धर्मदेशना श्रवण की । तत्पश्चात् सेठने पूछा कि 'हे भगवन् ! मेरे दोनों पुत्रोंमेंसे एक महा सुभागी और दूसरा महा दुर्भागी हुआ है, सो किन किन कर्माके उदयसे हुए ? ।' __तब गुरु बोले कि:-'हे देवपाल ! संसारमें सर्व जीव अपने २ किये हुए शुभाशुभ कर्मोके फल भोगते हैं । अब तेरे पुत्रोंका वृत्तान्त सुन । _ 'इसी नगर में इस भवसे तीसरे भवमें गुणधर और मानधर नामक दो वणिक रहते थे। उनमें गुणधर तो देव, गुरु और साधुओंके प्रति विनीत एवं अक्रोधी था, किसीको कटु वचन नहीं कहता था, और दूसरा जो मानधर था, वह महा निर्गुणी, अहंकारी और साधुओंका तथा धार्मिक पुरुषोंका निन्दक था । महापुरुषोंका उपहास करता हुआ कर्म उपार्जन करता था। किसी दिन एक साधुने मासखमण तप किया । उस तपके बलसे देव भी आकर्षित हो कर उस तपस्वी की सेवा करने लगे। यह देख कर मानधर उसकी निन्दा करने लगा और कहने लगा कि-' अरे यह पाखंडी मायावी लोगोंको वंचित करने के लिये तप करता है । महत्त्व पानेके लिये कष्ट सहन करता है। इस प्रकार निन्दासे एक देवताने रोका भी, तथापि निंदा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) करने लगा। तब देवने क्रोधातुर होकर चपेटा मारा, जिससे मृत्यु पा कर पहली नर्कमें गया । और बडा गुणधर नामक वणिक मर कर देवता हुआ । अब वह नरकसे निकल कर भोजदेव ( तुम्हारा पुत्र) हुआ है। वह पूर्वकृत कर्मके योगसे दुर्भागी है । और पहले देवलोकसे चवकर तेरे वहीं राजदेव नामक पुत्र हुआ है, वह सुकृतके योगसे सुभागी हुआ है । ' इस प्रकार गुरुकी वाणीको श्रवण करते हुए दोनों भाइयोंको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे पूर्व के अब देखने लगे, तब भोजदेवने आत्मनिंदा करके कुछ कर्मका क्षय किया, और दो भाई तथा पिता तीलाने मिलकर केवली भगवानके पाल श्रावकधर्म अंगीकार किया । अनुक्रमसे दोनों पुत्र दीक्षा ले कर और चारित्रधर्म पालकर आयुपूर्ण होनेपर देवलोकमें गये । और तीसरे भबमें मोक्षमें जायेंगे । कहा है: गुण बाले निंदे नहीं, ते सोभागी हुँत । अवगुण बोले परतणा, दोहग ते पामंत ॥ १ ॥ अब चौदहवें और पंद्रहवें प्रश्नके उत्तर कहते है:जो पढइ चिंतइ सुणे अनं पाढेइ देइ उवएसं । सुयगुरुभत्तिजुत्तो मरि सो होइ मेहावी ॥ ३० ॥ तवनाणगुणसमिद्धी अवमन्नइ किर न याणइ एसो। स मरिऊण अहन्नो दुम्मेहो जायइ पुरिसो ॥ ३१॥ अर्थात्:-जो पुरुष ज्ञान सीखे, सुने, सूत्रोंके अर्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) मनमें चिंतवे, तथा अन्य पुरुषोंको ज्ञान पढावे, उनको धर्मोपदेश देवे और जो पुरुष सिद्धांतकी तथा सद्गुरुकी भक्ति करे वह पुरुष मर कर मेधावी अर्थात् बुद्धिशाली, चतुर, शाना और विचक्षण होता है । जिस प्रकार मतिसागरका पुत्र सुवुद्धि प्रधान बुद्धिमान् हुआ (३०) तथा जो तपस्वी ज्ञानवन्त गुणवन्त पुरुष हो, उसकी जो पुरुष अवगणना करे, मुखसे ऐसा बोले कि-' कुछ नहीं, इसमें माल क्या है ? यह कुछ भी नहीं जानता है, मूर्ख है ' वह पुरुष अधन्य अर्थात् अभाग्यवान् , दुष्टपापिष्ट और दुर्बुद्धिवाला होता है, जैसे सुबुद्धि प्रधानका छोटा भाई कुवुद्धि के कारण दुःखित हुआ था (३१) इन दो प्रश्नोंके ऊपर सुबुद्धि कुबुद्धिकी कथा कही जाती है। “क्षितिप्रतिष्ठित नगरमें चंद्रयशा राजा राज्य करता था । उसको मतिसागर नामक प्रधान था, जिसके पुत्रका नाम सुबुद्धि था । वह छोटीवयमें पढ कर प्रज्ञाके बलसे सर्व कलाओंमें निपुण हुआ । चार प्रकारकी बुद्धिका निधान हुआ । प्रधानको फिर दूसरा पुत्र हुआ, वह भी पढने योग्य हुआ । तब इसे पढने के लिये पाठशालामें भेजा गया। पंडितने इसको पढाने के लिये चार मास पर्यंत बहुत उद्यम किया, परन्तु जिस प्रकार कर्षणी लोग उखर भूमिमें बीज बोवें और वह निष्फल जावे, उसी प्रकार पण्डितका सर्व उद्यम निष्फल हुआ, क्योंकि वह गुणवन्त व बुद्धिशाली था। जिससे लोगोंने उसका नाम दुर्बुद्धि रख दिया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) उस असेंमें उसी गांवका रहने वाला एक व्यवहारिक सेठ, कि जिसका नाम धन्ना था, उसने अपने चार पुत्रोंकी शादी की । उन चार पुत्रोंके नामः-१ जावड २ बाहड, ३ भावड और ४ सावड थे। उन चारोंकी शादी होने के पश्चात् धन्ना सेठ बीमार हो गया। तब उसने अपने चारों पुत्रोंको बुला कर शिक्षा दी कि 'हे पुत्रो ! तुम चारों भाइ परस्पर स्नेह रख कर साथमें रहना; परन्तु अपनी स्त्रियोंके वचन सुन सुनकर अलग मत हो जाना । किसीने सत्य कहा है किः-- स्त्रीने वचने जाये स्नेह, स्त्रीने वचने जाये देह । स्त्रीने वचने बांधब लडे, एकठा रहे तो गुअड चडे ॥१॥ ऐली बात तुम लोग मत करना । कदापि कलह करके एक दुमरेसे अलग मत होना । अलग रहनेसे लोकमे हांसी होगी । तिस पर भी यदि अलग हो कर रहने की जरूरत पटे, तो तुम चारों के लिये अलग अलग चार निधान अपने घर के चारों कोने मे चारोंके नामसे रख छोडे हैं, वह ले लेना।' ऐसी बात पिताके मुखसे श्रवण कर दुत्र बोले कि-' हे तात : आपकी आज्ञाके अनुसार ही हम वर्तन करेंगे।' तदनन्तर पिताका समाधिमरण हुआ। उसका मतकार्य करके चारों भाई स्नेह पर्वक इकट्ठे रहने लगे । अनुक्रमसे चारों भाइओं को सन्तानकी प्राप्ति हुई । तब स्त्रियों में लडाई झगडे होने लगे और वे सब कहने लगीं कि-'अब अलग रहो ।' उस समय चारों भाइयोंने मिल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार निधान निकाले । उनमेंसे प्रथम बडे भाई के निधानमंसे केश निकले, दूसरेके निधानसे मिट्टी निकली, तीसरेके निधानसे बहियां व कागजात निकले और चौथेके निधानमेंसे सुवर्ण तथा रत्न निकले । इससे वह छोटा भाइ तो हर्षित हुआ और तीन भाइ चिंतित हो कर कहने लगे कि-' पिताने बडाही पक्षपात किया । अकारण अपनेसे वैर रक्खा । सीर्फ एक छोटा पुत्रही वल्लभ था, इस लिये इसकोही सर्व लक्ष्मी दे दी; परन्तु यह अन्याय हम सहन नहीं करेंगे । चारों भाई मिल कर यह लक्ष्मी बांट लेंगे । तब छोटा भाई कहने लगा कि- ' मुझको पिताने जो निधान दिया है, उसमेंसे मैं किसीको कुछ भी न दूंगा। इस प्रकार रात्रिदिन परस्पर लडने लगे । कोइ किसोका बचन मानता नहीं । फिर तीनों भाइओंने जा कर राजाके प्रधानको सब बात कही, परंतु प्रधानसे भी उसका न्याय नहीं हुआ, जिससे तीनों भाइ शोकाकुल हुए। उस समय में प्रधानका पुत्र सुबुद्धि वहां आया । उसके सामने चारों निधानों के सम्बन्धमें सब हाल कह सुनाया। सुबुद्धिने कहा कि-' राजाका देश होवे, तो मैं तुम्हारा झगडा निपटा दूं।' राजाने आदेश दिया, तव सुवुद्धिने चारों भाइऑको एकांतमें बुलाकर कहा कि- तुम्हारा पिता बहुत चतुर था, उसने चारों भाइको लाख लाख टका देनेका कहा है; क्योंकि बड़े भाई के निधान में केश रक्खे हुए हैं, अतः घोड़े, गौ, भेंस, ऊंट आदिक जो चोपद रूप धन है, वह उसको दिया है । और दूसरेके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) निधानमें मिट्टी निकली है; अतएव उसको क्षेत्र जमीन रूप धन दिया है । तीसरेके निधान में बहियां व खत पत्रादि हैं, उससे यह फलित होता है कि जितना धन व्याजु दिया हुआ है यानि लोगोंके पास जो लेना है वह धन उसको दिया हुआ है । और सबसे छोटे भाइको सोना तथा रत्न जो घर में हैं वह दिये हैं । ' यह सुनकर चारोंने हिसाब कर देखा तो सबके हिस्से में लाख लाख टकेकी पूंजी होती थी । वह देखकर चारों भाइयोंने राजाके पास जा कर कहा कि-' हे स्वामिन् ! सुबुद्धिने हमारे झगड़ेका निपटारा कर दिया है ' । यह सुनकर राजा प्रसन्न हुआ और सुबुद्धि लोक में प्रसिद्ध हुआ । और दूसरा पुत्र लोगों में हांसीपात्र होकर एवं निंदा पाकर कुबुद्धिया के नामसे लोकमें प्रसिद्ध हुआ । उस समय कोई ज्ञानी गुरु उस वनके उद्यानमें पधारे । उनको वंदना करनेके लिये राजा तथा प्रधान अपने पुत्र सहित तथा अन्य लोग भी गये । वंदना कर और धर्मोपदेश श्रवण कर प्रधानने सुबुद्धि दुर्बुद्धि नामक दोनों पुत्रोंके संबंध में गुरुसे प्रश्न किया, तब गुरु कहने लगे कि - ' हे प्रधान ! इसी नगर में एक विमल और दूसरा अचल नामक दो वणिक रहते थे; परन्तु दोनोंके स्वभाव मिलते नहीं थे । उनमें से विमलने दीक्षा ली, देवगुरु सिद्धांतकी भक्ति की, सिद्धान्त पढे, उनके अर्थको जान लिया, दूसरे साधुओंको भी पढाये, आखिरमें आचार्य पद पाये, उस समय बहुत जीवको धर्मोपदेश दे कर अपना आयुष्य पूर्ण करके दूसरे देवलो कमें देवता हुआ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) दूसरा जो अचल नामक वणिक था, वह तपस्वी, ज्ञानी तथा धर्मवन्त पुरुषोंकी निंदा करता व कहता था कि-' यह साधु क्या जानते हैं ? ' इस प्रकार सर्वकी अवज्ञा करता था । जिस पापके कारण वह दूसरी नरक में गया । अब विमलका जीव देवलोकसे चव कर तेरा सुबुद्धि नामक पुत्र हुआ है और अचलका जीव नरकमेंसे निकल कर पूर्व भवमें किये हुए निंदाके पापसे यहां पर तेरा दुर्बुद्धि नामक पुत्र हुआ है । वह अब भी संसारमें बहुत रुलेगा । इत्यादि पूर्वभवकी बातें सुनकर सुवुद्धिने श्रावकधर्म अंगीकार किया। और कुछ दिनके बाद दीक्षा भी ली । सिद्धांत पढ कर और चारित्र पाल कर पांचवें ब्रह्म देवलोकमें उत्पन्न हुआ । अनुक्रमसे मोक्षमें भी जायगा । कहा है: भणे भणावे ज्ञान जे, पावे निर्मल बुद्धि । देव गुरु भक्ति करे, अनुक्रमे पावे सिद्धि ॥१॥ और भी कहा हैःजिणपवरसुरतेअं वीरं नमिऊं विसालरायतयं । लहिओ बालाबोहो भणंति निसुणंति सुक्खकरो ॥१॥ अब सोलहवें और सत्रहवें प्रश्नके उत्तर दो गाथाओंके द्वारा कहते हैं:जो पुण गुरुजणसेवी धम्माधम्माइ जाणिउं कुणइ । सुयदेवगुरुभत्तो मरि सो पंडिओ होइ ॥ ३२ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) मारेइ खाइ पीयइ किंवा पढिएण किंच धम्मेण । एअं चिय चिततो मरि सो काहलो होइ ॥ ३३ ॥ अर्थात् — जो पुरुष गुरुजन यानि वडिलोंकी सेवा भक्ति करने में तत्पर होता है, धर्माधर्म अर्थात् पुण्यपापका स्वरूप जाननेकी वांछा करता है, तथा जो श्रुत सिद्धांतका और देवगुरुका भक्त होता है, वह कुशल पुरुष मर कर पंडित होता है ( ३२ ) जो पुरुष जी - वोंको मारे, हिंसा करे, मद्य-मांसादिक खावे पीवे, मौज मझाह करे और इस प्रकार चिंतन करे कि -' धर्म करनेकी क्या जरूरत है ? पढने पढानेसे क्या फायदा है ? वह जीव मर कर काहल - मूक- मूर्ख होता है ( ३३ ) जिस प्रकार पूर्वभवमें आंबाका जीव मर कर कुशल हुआ और आंबाका मित्र जो लींबा था, कुशलके वहां कुमार' नामक सेवक हुआ । उसकी कथा कहते हैं: वह मर कर -: 66 धारावास नगर में वेसमण सेठ रहता था, उसको कुशल नामक पुत्र हुआ । वह पढ कर ७२ कलाओं में प्रवीण हुआ । और पदानुसारिणी प्रज्ञावंत हुआ । अब उस सेठके वहां एक कर्मकर था, जो कि कुरूप, दुर्भागी, मूक व मुखरोगी था । तथापि कुशल उस कर्मकरके ऊपर स्नेह रखता था । कुशल जैनधर्मका जानकार था और धर्म क्रियाओं को भी करता था । एक दिन कुशल कोड़ा करनेके लिये वनमें गया | वहां एक विद्याधरको ऊंचा उछल कर पीछा नीचे पड़ता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९) हुआ देखा । उसको कुशलने पूछा कि-'तुम उत्तम पुरुष होने पर भी पांख रहित पक्षीके अनुसार क्यों चडते पड़ते हो ? ' यह श्रवण कर विद्याधर बोला कि-' में वैताढयका वासी विचित्रगति नामक विद्याधर हुँ । इस समय मैं श्रीपर्वतको गया था, वहांसे वापिस लौटते हुए मेरा मित्र विधाधर मिला, उसको कितनेक शस्त्रके घाव लगे हुए देखे, तब मैंने पूछा कि-तेरेको यह क्या हो गया ? उसने कहा कि-मेरी स्त्रीको एक दूसरा विद्याधर ले जा रहा था, उसके पीछे जा कर युद्ध करके मेरी स्त्रीको ले कर यहां रहा हूं। युद्ध में घाव लगे हैं। ' यह सुनकर मैंने व्रणसंरोहणी औषधिके प्रयोगसे उसको सज किया। वह विद्याधर स्त्री को कर अपने स्थानकको गया; परन्तु हे भाइ ! व्याकुलताके कारण मैं आकाशगामिनी विद्याका पद भूल गया हुं, जिससे गिर जाता हुँ ।' यह बात श्रवण कर कुशलने कहा कि-' तुम्हारी विद्याका अग्रिम पद याद कर मुझे कहो' । तब विद्याधरने प्रथमका पद कह सुनाया। उसके अनुसार कुशलने पदानुसारिणी प्रज्ञाके बलसे समस्त परिपूर्ण आकाशगामिनी विद्याके पद कह सुनाये, जिससे विद्याधर हर्षित और विस्मित हुआ एवं विचार करने लगा कि-' यह पुरुष प्रज्ञा, रूप और गुणों करके श्रेयस्कर है। परोपकार करने में दक्ष है। ऐसे पुरुष विरल ही होते हैं।' ऐसा सोच कर कुशलके मात पिताका नाम पूछ कर विद्याधर स्वस्थानको चला. गया। . दसरे दिन वेसण सेठका घर पूछता हुआ विधा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) धर वहां आया, वहां पर कुशलको देवपूजा करता हुआ देख कर विद्याधरने पूछा कि, ' तुम यह क्या कर रहे हो ?' उसने कहा कि-' देवपूजा, गुरुभक्ति आदिके द्वारा श्रीजिनधर्मका आराधन कर रहा हूं।' यह देख कर विद्याधरने भी जैनधर्म अंगीकार किया और कहने लगा कि, एक तो आकाशगामिनी विद्याका पद याद कर दिया, यह उपकार और दूसरा श्रीजैनधर्म बतलाया यह उपकार-ये दोनों उपकार तुमने मुझ पर किये जिसका प्रत्युपकार मैं किसी हालतमें नहीं कर सकता । यह कहकर पुनः सेठको कहने लगा कि-' मेरे पिताने एक निमित्तियासे पूछा था कि-' मेरी पुत्रीका वर कौन होगा?' निमित्तियाने कहा था कि-'तेरा पुत्र विद्या भूल जायगा, उसको जो याद करा देगा, वह तेरी पुत्रीका पति होगा, इस वास्ते हे सेठ ! तुम्हारे पुत्रको मेरे साथ वैताढय पर भेजो तो विवाह करा दें। यह श्रवण कर सेठने पुत्रको वैताढय पर्वत पर भेजा, वहां शुभलग्नमें विवाह करके फिर विद्याधर, कुशल तथा कुशलकी पत्नी-ये तीनों शाश्वत चैत्यको वंदन करनेको गये, सर्व चैत्योंको वंदन कर चैत्यके मंडपमें आये। वहां चारणश्रमण मुनिको वांदे । मुनिने विद्याधरको कहा कि तेरे बिनोइसे तुम्हे जिनधर्मकी प्राप्ति हुइ है । उस समय मुनिको ज्ञानवन्त जान कर कुशलने पूछा कि-'हे महाराज ! किस शुभ कर्मके उदयसे पदानुसारिणी प्रज्ञा-अत्यंत निर्मल बुद्धि मुझको प्राप्त हुई ? और कुमार नामक मेरा सेवक किस कर्मके योगसे मुख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोगी, मूर्ख और कुरूपवान् हुआ ? एवं उस पर मेरे हृदयम बहुत प्रेम आता है इसका भी क्या कारण ? वह कृपा कर मुझे कहीए ।' मुनिने कहा कि-' इस भवसे तीसरे भवमें तू और कुमार मिलकर दोनों कुलपुत्र मित्र थे । एकका नाम आंबा व दूसरेका नाम लींबा था । तुम दोनों में परस्पर अत्यंत स्नेह था । आंवा निरन्तर गुरुकी सेवा करता था, पुण्य पाप सम्बन्धी विचार पूछता रहता था और गुरुके कहने से उसने पांच वर्ष और पांच मास पर्यंत ज्ञानपंचमी तप, विधिपूर्वक एकाग्रचित्तसे किया। उसने ज्ञान और ज्ञानवन्तकी अत्यंत भक्ति की, उस पुण्यसे आंबाका जीव मर कर देवलोक देवत्ता हुआ। वहांसे चव कर तू वेसमण सेठका पुत्र हुआ है । और लींबाका जीव तो नास्तिकवादी हो कर, जीवहिंसा करना, अच्छा खाना, अच्छा पीना, स्वेच्छानुसार घूमना, 'पढनेसे क्या होगा? धर्म करनेकी क्या जरूरत ? उसका फल कुछ भी नहीं है, जो धर्म करे सो विशेष दुःखी होवे' ऐसा ही चिंतवन करना तथा लोगोंको उपदेश भी ऐसाही करना, यही उसका काम था। यद्यपि दोनों मित्र थे, तथापि स्वभावमें एक दूसरेके बीच बडाही अन्तर था। एकही गांठमें चाहे बांधे हो, लेकिन जो काच है वह काचही कहावेगा और जो मणि होगा सो मणिही कहलावेगा । उसी प्रकार दोनों मित्र थे, तो भी आंबा धर्मका उत्थापन करता था। धर्मकी निंदा करके वह नरकमें गया। वहांसे निकल कर कुमार नामक तुम्हारा सेवक हुआ। पूर्वकृत कर्मके उदयसे वह मूक, मूर्ख, दुर्भागी और कुरूपी हुआ । जैसा नाम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) वसाही परिणाम हुआ और हे कुशल ! तूने ज्ञानपंचमीका तप किया, ज्ञानवन्त गुरुकी भक्ति की: जिससे तू निर्मल बुद्धिवाला हुआ और इसी कारणसे धर्म में तेरी भावप्रज्ञा है।' इस प्रकार गुरुकी वाणी श्रवण करते हुए कुशलको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्वभव देखे, उस समय गुरुके पाससे श्रावकधर्म अंगीकार किया-देशविरति हुआ और वहांसे सुंदरी नामक स्त्री सहित अपने घरको गया, और विद्याधर वैताढय पर्वत पर अपने स्थानकको गया। कुशलको घर आने के बाद पुत्र प्राप्ति हुई। स्त्री भर्तार दोनोंने पंचमीका तप किया, वह पूर्ण होने पर उसको उझमणा ( उत्सव) किया। श्रीसंघकी भक्ति की। तत्पश्चात् घरका भार पुत्रको सुपुर्द कर कुशलने पिता सहित दीक्षा ली। ग्यारह अंग व चौदह पूर्व पढ कर शुद्ध चारित्रका पालन कर मुक्तिमें गया और लींबाके जीवने दीर्घकाल पर्यंत संसारमें परिभ्रमण किया । कहा है:"जे नाणपंचमि तवं उत्तम जीवा कुणंति भावजुआ। उवभुजिय मणुअमुहं पावंति केवलं नाणं" ॥ १ ॥ अब अठारहवीं व उन्नीसवीं पृच्छाके उत्तर दो गाथाओंके द्वारा कहते हैं । सव्वेसि जीवाणं तासं ण करेइ णो करावेइ । परपीडवज्जणाओ गोयम धीरो भवे पुरिसो॥ ३४॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) कुकडतित्तरलावे सूअर हरिणे अ विविहजीवे अ । धारे निकाले सो सवकालं हवइ भीरू ॥ ३५ ॥ अर्थात् - जो जीव सर्व प्रकार के जीवोंको अभय देवे, किसीको भय उपजावे नहीं, त्रास पहुंचावे नहीं, किसीको पीडा उपजावे नहीं वह पुरुष है गौतम ! धैर्यवन्त साहसिक होता है। जिस प्रकार पृथ्वी तिलक नगर में धर्मसिंह क्षत्रियका पुत्र अभयसिंह नामक महा धैर्यवान् हुआ (३४) तथा जो जीव मुरघे, तीतर, सूअर, हरिण प्रमुख विविश्व प्रकार के जीवोंको निरन्तर बंधन ताडनादि करे, पिंजरेमें रखे, वह जीव सदैव भीरु होता है उचाटमें रहता है । जिस प्रकार अभयसिंहका छोटा भाई धनसिंह क्षत्रिय भीरु हुआ || ३५ ॥ अब दोनों उत्तर के विषय में अभयसिंह और धनसिंह इन दोनों भाइयोंकी कथा कहते हैं । " पृथ्वी तिलक नगर में पृथ्वी तिलक राजा राज्य करता था। उस राजाका सेवक धर्मसिंह क्षत्रिय था, वह जैनधर्म में रक्त था । उसको एक अभयसिंह और दूसरा धनसिंह नामक दो पुत्र थे; परन्तु सर्वके कर्म भिन्न भिन्न होनेसे स्वभाव भी भिन्न २ होते हैं । बडा भाई तो वाघ, सिंह, सर्प, शरभ भूत, प्रेत इत्यादिक जीवोंसे भी डरता नहीं था और दूसरा छोटा भाई जो धनसिंह था वह तो रस्सीको देखनेसे भी साप मान कर डरता था । सहज पत्ता हिलता देखे तो भी भयभ्रान्त होता था । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख कर दंग कर बन गया, यहांला (६४) किसी समय उस नगरके करीब एक सिंह आया जान कर उस रास्तेसे कोई भी मनुष्य नहीं निकलता था। तब प्रधानले राजाके पास जा कर विज्ञप्ति की कि-' हे महाराज! सिंहके भयसे रस्ते में कोई मनुप्य नहीं चल सकता है । उस समय राजाने सिंहको मार कर लानेका बीडा फिराया, मगर किसीने उनका स्वीकार नहीं किया। जव अभयसिंहने बीडा लिया और कहा कि-'हे महाराज! आपका आदेश होवे तो मैं अकेलाही जाकर बिहका वध करके लेआऊं । और लोगों को सुख कर दंगा । ऐला कह कर वनमें गया, वहां तिहको बुला कर भाला मार कर उसका वध किया और वापिस आ कर राजाको प्रणाम किया । राजाने खुश हो कर उसको बड़ा शिरपाव-बहुत वस्त्राभरण दिये । पुनः एकदा कोइ एक राजा, कि जिसकी सरहद पृथ्वीतिलकके राजाकी सीमासे मिलती थी, वह पृथ्वी तिलककी आज्ञाका उल्लंघन करता हुआ डाका पा. डता था, गांवोंको लूटता था, उसका निग्रहं करने के लिये राजाने बीडा फिराया, वह भी अभयसिंहने लिया और कटक ले कर दुश्मन सामंतके नगर पहुंचा। और उस राजाके पास दूत भेज कर कहलाया कि-हमारे राजाकी आज्ञाको मान्य कर, वरना युद्ध करनेमें प्रवृत्त होजाओ। तब सामंतने कहा कि आगे भी कइ दफा राजाका कटक यहां पर आया था और उसको मैने जीत लिया था । उसको दूतने कहा कि-स्वामिन् ! अब अभयसिंह आया है। यह श्रवण कर सामंतने कहा किमुखसे बडाइ करनेसे क्या होगा ? सिंह है या शृगाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) है ? उसकी परीक्षा तो संग्राममें फोरन हो जायगी । यह सुनकर दूत वापिस आया और अभयसिंहको कहा कि वह बड़ा अहंकारी है इसलिये विना युद्ध किये वह मानेगा नहीं । अव अभयसिंह रात्री के समय गुमरीतिसे गढको लांघ कर सामंत राजाके महेलमें घुस गया । सामंत सोया हुआ था उसे जगा कर कहा कि, उठ ! उठ ! सिंह आया है उसके सामने आ । यह सुन कर सामंत भी उठ कर सामने आया । दोनोंने युद्ध किया । अभयसिंहने सामंतको भूमि पर पटक कर बांध लिया । तब उसकी खीने नमन करके भरतारकी भिक्षा याच कर पतिको छुडाया । वह अहंकारको छोड़ कर अभय-सिंहका सेवक हुआ । इधर जब प्रातःकाल हुआ तो अभयसिंहको कटकमें किसीने नहीं देखा । जिससे सर्व सैन्य चिन्तातुर हुआ । उस असेंमें एक मनुष्यने आ कर कहा कि, अभयसिंहने सामन्तको जीत लिया है । और आप सर्व महाशयोंको उन्होंने बुलवाये हैं। तुम लोग लेश मात्र शंकाशील मत होना । उस समय सैन्यके सर्व लोक गांवमें आये, उनको सामन्तने भोजन करा कर सर्वको वस्त्रादिकका शिरपाव देकरके खुश किये । · अब अभयसिंह सामंतको साथ ले कर पृथ्वीतिलक नगरको आया । और सामन्त सहित जा कर पृथ्वी तिलक राजाको प्रणाम किया । उसको देख कर राजा हर्षित हुआ और विचार करने लगा कि यह मनुष्य होने पर भी 5 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) देवशक्तिको धारण करता है। ऐसा सोच कर अभयसिंहको एक देश प्रदान किया, और सामंतको भोजन करा कर व शिरपाव दे कर विदाय किया। वह भी राजाको नजराणा दे कर व शीख ले कर अपने देश को गया। एकदा उस नगरके उद्यान में चार ज्ञानके धारक श्रुतसागर नामक आचार्य पधारे। यह सुन कर राजा परिवार सहित उनकी वन्दना करनेको गया । देशना सुनने के पश्चात् धर्मसिंहने पूछा कि हे महाराज ! मेरे पुत्र अभयसिंहने ऐसा कौनसा पुण्य किया है कि जिसके उदयसे यह महा साहसिक हुआ है ? और छोटे पुवन कौन कुकर्म किये हैं कि जिससे वह महा भीरू हुआ है ? गुरु कहने लगे कि-इसी नगरमें एक पूरण व दूसरा धरण-इस नामके दो आहीर थे । उनमेंसे पूरण ती बहुतही दयावन्त था, धर्मात्मा था, सर्व जीवोंकी रक्षा करता था, किसीको त्रसित नहीं करता था, और दूसरा जो धरण था वह मुरघे, तोते, तीतर, मृग आदि जीवोंको पकड़ कर बांधता था, सताता था, किसीकी सुनता नहीं था, जिससे उसको अलग किया। अतः जीवरक्षाके पुण्यसे पूरणका जीव तो तेरे वहां अभयसिंह नामक शूरवीर और भाग्यवंत पुत्र हुआ। नथा धरणका जीव बहुत जीवोंको सता कर तेरा धनसिंह नामक लघु पुत्र भीरू हुआ है। ऐसी पूर्वभव सम्बन्धी वार्ताको श्रवण कर सर्वने श्रावक धर्मका स्वीकार किया। धर्माराधन करके पिता तथा दोनों पुत्र मिल कर तीनों देवलोकमें गये।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) अब बीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथा करके कहते हैं। विजा विनाणं वा मिच्छारिगए ग गिह्निउं जो उ। अवमन्नइ आयरियं सा विजा निष्फला तस्म ॥३६॥ अर्थात् जो जीव विद्या अथवा विज्ञान जो कलादिकको मिथ्या अर्थात् अविनयले ग्रहण करना चाहे अर्थात् पढाने वाला जो आचार्य उनका नाम गुप्त रखे, उनको अवगणना करे नहीं उस जीवको परभवमें पढी हुइ विद्या मफल नहीं होती है-निष्फल होती है। जैसे त्रिदंडीयाने नापितसे विद्या मीख कर उस विद्याके बलसे विदेशमें जा कर त्रिदंडको आकाशमं रक्सा और गुरुका नाम गुप्त रक्खा, जिससे त्रिदंड आकाशसे गिर गया, और विद्या निष्फल हुइ। यहां नापितकी कथा कहते हैं। " गजापुर नगरमें कोइ विद्यावत नापित रहता था। वह विद्याके बलसे अपना छुरा आकाशमें निराधार रखता था; परन्तु लोक उसे मानते नहीं थे। एक त्रिदंडी ब्राह्मणने उसका प्रभाव देख कर विद्या सीखनेका निश्चय किया और उस नापितका वह बाह्य ( दिखलाने रूप) विनय करने लगा। उसने सोचा कि किसी युक्तिसे मैं उससे विद्या ले लूं तो ठीक | "अमेध्यादपि कांचनम्" यानि अपवित्र चीजमेंसे भी सुवर्ण लेना चाहिये। ऐसा विचार कर सदैव उसकी सेवा करता और भक्ति करता फिर उसने विद्याकी याचना की, तब उसने भी सन्तुष्ट हो कर विधि पूर्वक विद्या प्रदान की। उस त्रिदंडीने भी विधिपूर्वक आराध कर विद्या साध ली। फिर अपना जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) त्रिदंड था, उसे आकाशमंडल में रख कर लोगोंको कौतुक दिखाता हुआ घूमने लग। लोग भी उसकी पूजा भक्ति करके प्रशंसा करने लगे । एकदा लोगोंने पूछा कि हे स्वामिन् ! यह विद्या आपने किस गुरुके प्रसाद से प्राप्त को है ? तब उस ब्राह्मणने लज्जासे नावीका नाम न दिया और उसके एवज में हिमवंतवासी विद्याधर मेरा गुरु है, उनके प्रसादसे, उनकी सेवा भक्ति करनेसे मुझे यह विद्या मिली है । इस प्रकार गुरुका नाम छिपाते ही उस ब्राह्मणका त्रिदंड, जो आकाशमें अद्धर रहा हुआ था, सनसनाट करता हुआ आकाशसे नीचे धरती पर आ गिरा । तब सर्व लोग हांसी करने लगे और जैसेमान महत्व वृद्धिंगत हुआ था, वैसेही बल्कि उससे भी दुगुनी उसकी लोगों में अवहेलना होने लगी । जो लोग पूजा भक्ति करते थे उन्होंने पूजा भक्ति करना छोड़ दिया । इस प्रकार जो पुरुष विनय विना विद्या सीखते है, गुरुका नाम गुप्त रखते हैं, गुरुकी अवगणना करते हैं, उसकी विद्या निष्फल होती है । और भवान्तरमें भी उसके लिये ज्ञानप्राप्ति दुर्लभ होती है । " अब इक्कीसवीं पृछाका उत्तर एक गाथा द्वारा कहते हैं । बहु मन आयरियं विणयसमग्गो गुणेहिं संजुत्तो । इह जा गहिया विज्जा सा सफला होइ लोगंमि ||३७|| www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् जो जीव अपने पढानेवाले आचार्यका बहुमान करता है, जो विनयवंत होता है, समग्र गुणों करके युक्त होता है और इस प्रकार जो विद्या प्राप्त की होती है यह विद्या लोकमें सफल होती है (३७) जिस प्रकार श्रेणिक राजाने अपने सिंहासन पर चाण्डालको बैठा कर विनयके द्वारा अवनमन नामक विद्या सम्पादन की, वह सफल हुइ । अतः यहां श्रेणिक राजाकी कथा कहते हैं। . “राजगृही नगरीमें श्रेणिक राजा राज्य करता था। उसको चेलणा नामक पट्टराणी थी। एकदा राणीको एकथंभा धवलगृहमें रहनेका दोहद उत्पन्न हुआ। यह बात राजाने अभयकुमारको कही। अभयकुमारने देवताका आराधन किया । देवता प्रत्यक्ष आकर खडा रहा । उसके पास एकथंभा आवास करवाया । उसकी चारों ओर चार वन बनवाये। उन चारों वनमें सर्व ऋतुके फलफूल सदैव मिले, ऐसा करके राणीको एकथंभा आवास में बैठा कर उसका दोहद पूर्ण किया। __ उस असेंमें एक मातंगकी स्त्रीको अकालमै आंबा खानेका दोहद उत्पन्न हुआ। उसके पति मातंगने अमगमन नामक विद्याके बलसे राजाके उपवनमसे सर्व आंबेकी डाल नमा कर उन परसे फल ले कर स्त्रीका दोहद पूर्ण किया। राजाने अभयकुमारको कहा कि-'आम्रवृक्षके फल रावली बाडीमेंसे किसने लिये? उस चोरको वंह निकालना चाहिये।' अभयकुमारने बडी कुंआरी कन्याको कथा कह कर वुद्धिके बलसे उस मातंग चोरको प्रकट किया और पकड लिया । उसको राजाने पूछा कि-'कोटके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) भीतर मेरी वाडी है, उसके फल तूने किस प्रकार लिये ?' जब मातंगने डर कर कहा कि-'मैंने विद्याके बलसे लिये।' श्रेणिक राजाने कहा कि-यदि तेरी विद्या मुझे देवे तो. में तेरेको क्षमा करूं। मातंगने उस बातको मान्य किया। उस समय राजाने अपने सिंहासन पर बैठे हुए ही विद्या सीखना प्रारंभ किया । मातंग पुनः पुनः राजाको विद्या मुनाता मगर बाजाको याद नहीं रहती। तब अभयकुमार मंत्रीने कहा कि-हे महाराज : विद्या तो विनय करनेसे आती है, यह सुन कर राजाने अपने सिंहासनसे नीचे उतर कर मातंगका सिंहासन पर बैठाया । और खुद मातंगके आगे दो हाथ जोड कर विद्या सीखनेको बैठा। तब एक दफे चंडालने कही हुइ विद्या राजाको मुखाग्र हो गइ और सफल हुइ। इस प्रकार विनय करके विद्या लेनेसे कार्य सिद्धि होती है। ___ अब बाइसवीं और तेईसवीं पृच्छाके उत्तर दो गाथाके द्वारा कहते हैं: जो दाणं दाऊणं चित्इ हा कीस मए दिन्नं । होऊण वि धणरिद्धि अचिरावि हु नासए तस्स ॥३८॥ थोवे धणवि हु सत्तिइ देइ दाणं पवइ परेवि । जो पुरिसो तस्स धगं गोयम संमिलइ परे जम्मे ॥३९॥ अर्थात्-जो मनुष्य दान दे करके पीछेसे हृदयमें ऐसी चितवना करता है कि-' हा ! अरे मैंने यह दान अकारण ही कर दिया ।' इस प्रकार दान दे कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) पीछेसे उसका पश्चात्ताप करता है, उसके घर में लक्ष्मी इकट्ठी तो होती है, मगर स्वल्पकाल पर्यंत रह कर फिर निश्चयसे चली जाती है। जिस प्रकार दक्षिणमथुराका वासी धनदत्त सेठका पुत्र सुधन नामक था, उसकी लक्ष्मी निकल कर पराइ हो गई-परघरको चली गई (३८) तथा जो स्वल्प धनवान् होते हुए भी अपनी शकिके अनुसार खुद सुपात्रको दान देता है और दूसरे के पाससे दान दिलाता है, उस पुरुषको हे गौतम : परजन्म यानि भवान्तरमें सम्यक प्रकारसे धन मिलत है। जिस प्रकार उत्तरमथुरावासी मदनसेठके वहां अकस्मात् बहुत ऋद्धि. आ कर मिली (३९) इन दोनों बोलके ऊपर सुधन और मदनसेठकी कथा कहते हैं। "दक्षिणदेशमं दक्षिणमथुरा नगरी में धनदत्त नामक सेठ रहता था। वह कोटिद्रव्यका स्वामी था । उसको सुधन नामक पुत्र हुआ । वह सेठ पांचसो शकट करियाणासे भर कर नोकरके साथ परदेशमें बेचनेके लिये भेजता. वह वहां पर करियाणां बेच कर पुनः दुसरे नये करियाणे ले आता । वैसेही कुछ न कुछ माल समुद्रमार्गसे भेजता और मंगावता। और कुछ व्याजु देता था और कुछ धन तो वरके भंडारमें रख छोडता था । अब उत्तरमथुरामें समुद्रदत्त नामक व्यवहारिया रहता था, उसके साथ उस सेठको बहुत स्नेह था-प्रीति थी। दोनों परस्पर एक दूसरेके ऊपर करियाणे बेचनेके लिये भेजते थे, उसमें बहुत लाभ होता था। एकदा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) 'धनदत्त सेठ दाघज्वरसे पीडित हो कर देवशरण हुआ। उस समय उसके रिश्तेदारोंने उसके पुत्र सुधनको उसकी पाट पर बैठाया । सुधन घरके कुटुम्बका भार निर्वहने लगा । एकदा सुधन सुवर्णके पाट पर स्नान करनेको बैठा। आगे सुवर्णकी कुंडी पानीसे भर कर सेवकोंने रखी । स्नान कर रहा कि फौरन वह कुंडी आकाशमार्गसे चली गई । स्नान करके पाठसे नीचे पैर दिया कि सोनेका पाट भी आकाशमार्गसे चला गया । फिर देवपूजा करनेको देवमन्दिरमें गया, वहां पूजा कर ली कि-फौरन देवमंदिर तथा बिम्ब कलश आदि सर्व अदृश्य हो गये। धोतीका समुदाय आकाशमें चला गया। फिर घरमें आया, तब जहाज समुद्र में डूब जानेका समाचार मिला। फिर भोजन करनेको बैठा । आगे सुवर्णके थालमें भोजन रक्खा । तथा सुवर्णमय बत्तीस कटोरे दाल, कढ़ी, शाक प्रमुखके भर कर रखे । तथा बत्तीस कटोरी चांदी की रखी । वे सब चीजें भी आकाशमें चली गइ । और जब थाल आकाशमें जानेके लिये कम्पित हुआ, तब सुधनने उसे पकड़ लिया; मगर उसका केवल एकही टुकडा उसके 'हाथमें रह गया, और थाल चल गया। इस प्रकार देखते देखते सभी ऋद्धि चली गई। कर्म के आगे किसीका जोर नहीं चल सकता। उस असमें एक लेजदारने आकर कहा कि-मेरा एक लाख द्रव्य तुम्हारे पाल लेना है वह दे दी। तब निधान खोल कर देखा तो सर्व द्रव्य राखके सदृश बना हुआ दृष्टिगोचर हुआ । लिलसे वह बड़ाही दुःखी हुआ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) फिर माताकी आज्ञा ले कर सुवर्णके थालका टुकड़ा साथ में रक्खा और देशान्तर में चला। मार्गमें चलते हुए महाकष्टसे कायर हो कर एक पर्वत के ऊपर चढ़ कर वहांसे पापात करके मरनेको तय्यार हुआ । उसे झंपापात करते हुए एक साधुने देखा । उसने ज्ञानबलसे उसका नाम जान कर उसे बुलाया कि हे सुधनशाह ! तुम साहस मत करो, क्योंकि पर्वत परसे गिरकर अकाल मरणसे तेरी व्यंतरकी गति होगी । यह सुन कर सुधन भी उस ज्ञानी ऋषिके पास आया, ऋषिको वन्दना की, ऋषिने कहा कि-कर्म किसीको छोडता नहीं है । कर्म से सुदर्शन सेठ, हरिचंद कीनी मातंग वेठ । मेतारज ऋषि काढी दृष्ट, कर्मे कीना सहु पग हेठ ॥ १ ॥ अतः हे सेठ ! जिस लक्ष्मी के दुःख से तुम मरनेके लिये तय्यार हुए हो वह लक्ष्मी असार है, चपल है, मलिन है, अनर्थका मूल है, विद्युत् के चमकारकी भांति हाथमेंसे चली जावे ऐसी लक्ष्मीके कारण मर कर हीरा जैसे मनुष्यभवको कौन निष्फल करे । इत्यादि उपदेशको सुन कर सेठने प्रतिबोध पाया । मुनिके पास दीक्षा ले कर सूत्र पढ कर गीतार्थ हुआ, अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ । ऐसा सुधन ऋषि विहार करता हुआ उत्तरमथुरा में समुद्रदत्त सेटके वहां गौचरीके निमित्त गया । वहां अपने सुवर्णपाट, कुंडी, लोटा, कटोरे, थाल, प्रमुख सर्व देखे व पिछान लिये । सुवर्णके खंडित था Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) लमें समुद्रदत्त सेठको जिमता हुआ देखा । इस प्रकार उस ऋषिको अपने घरमें इधर उधर घूमता हुआ और वस्तुओंको देखता हुआ देख कर सेठने पूछा कि-'महाराज! क्या देखते हो ?' तब ऋषिने कहा कि-हे सेठ ! ये पाट, कुंडी,कटोरे और थाल प्रमुख तुमने बनवाये हैं, किंवा तुम्हारे पूर्वजोंने बनवाये हैं ?' सेठने कहा कि ये सब चीजें प्रथममेही मेरे घरमें हैं । ऋधिने कहा कि, तुम ऐसे खंडित थालमें भोजन क्यों करते हो? सेठने कहा कि-क्या करूं? इम थाल में खंड चिपकता नहीं । तब ऋषिने कमरमसे थालका खंड निकाल कर थाल उठा कर उसके साथ मिला दिया। वह खंड स्वयं चिपक गया। थालको संपूर्ण अखंड देख कर मेठके कुटुम्बको कौतुक हुआ । साधु चलने लगे। नव सेठने वंदन करके पूछा कि महाराज! यह क्या बात है ? साधुने कहा कि तू असत्य बोलता है, तो मैं तुझे क्या कहुं ? सेठने कहा कि-हां. मैं असत्य बोला हुं; परन्तु सत्य बात तो यह है कि, यह ऋद्धि मेरे यहां आठ वर्षसे आइ है। . माधुने कहा कि-'इम ऋद्धिको मैंने पिछान ली है। ये सब मेरे पितामह के समयकी है; परन्तु मेरे पिता मर जाने के बाद में उसका मुधन नामक पुत्र था और मेरे हाथसे यह ऋद्धि चली गइ । जिससे मैंने वैराग्य पा कर दीक्षा ली। मुझे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है। जिससे मैं यहां पर आया हुँ।' सेठने कहा कि-'यह सर्व लक्ष्मी तुम्हारी ही है, अब इसे ग्रहण कर सुखी हो ।' साधु बोले कि-मेरे देखते तो वह चली गइ, अतः अब मैं उसका उपभोग कैसे करूं? सेठने पूछा कि हे भगवन्! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) तुम्हारे हाथसे गइ और हमारे घर में आइ, उसका कारण क्या ? तब ऋषि कहने लगे कि-पूर्वकालमें श्रीपुरनगरमें जिनदत्त सेठ रहता था, उसकी एक पद्माकर और दूसरा गुणाकर नामक दो पुत्र थे । उम सेठने मरने के समय निधानका स्थान दिखलाया कि-अमुक स्थानमें द्रव्य रखा हुआ है । फिर बड़े भाइने रात्रिमें गुपचूप जा कर निधान मेंसे सर्व द्रव्य निकाल लिया । पीछेसे छोटे भाइको कहा कि, चलो निधान निकाल कर अपने दोनों भाइ बांट लेवें । फिर दोनों भाइयोंने जमीन खोद कर देखा तो कुछ भी नहीं मिला । तब बडे भाइके कपट योगसे छोटे भाइको मूच्र्छा आ गइ । सचेत होने के बाद फिर बडे भाइने छोटे भाइको कहा कि-यह सब धन निकाल कर तूही ले गया है । ऐसा कह कर गाढ कर्म बांधे। इस प्रकार मैंने वंचना की, जिससे मर कर मैं सुधन हुआ। और छोटा भाइ मर कर तेरा मदन नामक पुत्र हुआ । मैंने वंचना की जिससे मेरी लक्ष्मी मदनके घर आइ तथा मैंने पूर्व भवमें दान दे कर फिर पश्चात्ताप किया था. जिससे मेरी लक्ष्मी च ही गइ और मदनके जीवने बहुत सुपात्रों को दान दिये, दिलाये, जिससे उसको पुष्कल धन मिला। यह बात सुन कर सेठको वैराग्य उत्पन्न हुआ और दीक्षा ली, तब सर्व लक्ष्मीका स्वामी मदन हुआ। श्रावकधर्म का पालन कर अंत में वह देवलोक में देवता हुआ; और सुधनऋषि मोक्ष में गये" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) अब चौवीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैं। जं जं नियमणइदं तं तं साहूण देइ सद्धाए । दिनेवि नाणु तप्पड़ तस्स थिरा होइ धणरिद्धी ॥४०॥ अर्थात्-जो जो मनोज्ञ वस्तुएं अपने पास होती हैं, वे सब चीजें जो पुरुष साधुको श्रद्धा करके भावपूर्वक देता है दे कर उसकी अनुमोदना करता है; परंतु पश्चात्ताप विषाद करे नहीं, उस पुरुषके वहां विपुल ऋद्धि स्थिर हो करके रहती है। जैसे कि शालिभद्र सेठके घरमें ऋद्धि स्थिर हो करके रही, बत्तीस कन्या ब्याही, उनको नित्य नये नये वस्त्राभरण मिलते थे (४०) उसकी कथा कहते है। “मगध देशमें राजगृही नगरीके करीब शालिग्राम नामक ग्राम था। वहां पर धन्या गोवालका संगम नामक पुत्र लोगोंके बछडे चरा कर पेट भरता था । एकदा पर्वके दिन माताके पास उसने खीर की याचना की; मगर घर में कुछ भी चीज न थी, कि जिससे खीर पका कर लड़केको खिलावे । माता रोने लगी। यह देख कर पडोसणने दूध, सक्कर व शालिधान्य ला दिये । जिसकी उत्तम खीर पका कर संगमको थाली में परोम कर माता बाहर गइ। उस समय पीछेसे वहां मासखमणके पारणे एक मुनि पधारे, उनको संगमने बडेही उल्लालभावसे आनन्दित हो कर वह सर्व खीर बहरा दी । उल पुण्यके योगसे राजगृही नगरीमें गोभद्र सेठकी भद्रा नामक स्त्रीकी कुक्षिमें वह उत्पन्न हुआ। माताको शालिक्षेत्रका स्वप्न आया, जिससे शालिभद्र ऐसा नाम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) दिया । जब वह तरुण हुआ, तब बत्तीस कन्या के साथ उसकी शादी की । गोभद्र सेठ दीक्षा ले कर देवता हुआ । पुत्रके ऊपर अत्यंत स्नेह था, जिससे गौभद्र सेठ बत्तीस त्रियोंके व शालिभद्र के लिये नित्यप्रति नये नये वखाभरण भेजते रहते थे । एकदा नेपाल देशका एक व्यापारी लक्ष मूल्य के सोलह रत्नकम्बल बेचनेको लाये, उन्हें श्रेणिक राजाने नहीं लीं । परन्तु भद्रा सेठाणीने सोलह वस्त्र ले कर उन्हें फाड़ कर बत्तीस टूकडे किये । और बत्तीस बहूओंको एकेक टूकडा बांट दिया । शामको सर्व पुत्रवधूओंने पग लूछ कर फेंक दिये । अब श्रेणिक राजाकी पट्टराणी चेलणाने एक रत्नकम्बल लेनेके लिये बहुत आग्रह किया । श्रेणिकने व्यापारीको बुलाया । वह बोला कि भद्रा सेठाणीको विक्रय से दे दी । राजाने एक रत्नकम्बल लेनेके लिये भद्रा सेठानीके पास आदमी भेजा । उसको भद्राने कहा किये तो मेरी पुत्रवधुओंने पग लूंछ कर फेंक दी हैं । मैले टुकड़े पड़े हुए हैं, चाहिये तो ले लो । यह बात सुनकर आश्चर्य पा कर श्रेणिक राजा शालिभद्रको देखनेके लिये उसके घर आया । तब भद्रा सेठानी सातवें मजले पर बैठे हुए शालिभद्रको कहने लगी कि - हे वत्स ! अपने यहां श्रेणिक आया है इस वास्ते तुम नीचे चलो । पुत्र समझा कि श्रेणिक नामका कोइ करियाणा होगा, इसलिये माताको कहा कि तुमही ले जा कर वखारमें डलवा दो, जब लाभ मिले तत्र बेच डालना | माताने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) कहा कि-वह करियाणा नहीं है, यह तो अपना राजा है । यह बचन सुन कर शालिभद्र विचार करने लगा कि मैं सेवक हुं वह ल्वामी है । अत एव मैंने पूर्णरूपसे पुण्य नहीं किय । ऐसा सोचता हुआ नीचे आया और राजाको प्रणाम किया । राजाने गोद में बैठा कर मुखचुम्बन किया । शालिभद्र राजाके पास गमगीन हो गया। जिससे गोद में उठ कर सातवें मजले पर चला गया। भद्राने राजाको भोजन करने के लिये प्रार्थना की। श्रेणिक स्नान करनेको बैठा । स्नान करते हुए राजाकी मुद्रिका कुएमें गिर गई। भद्रान कृपका पानी बाहर निकलबाया । जिसमेंसे अनेक प्रकार के अपार तेजस्वी आभूषण निकलते हुए देखे । उन आभूषणों के मुकाबले राजाको अपनी मुद्रिका निस्तेज प्रतीत होने लगी । यह देख कर आश्चर्यचकित हो कर राजाने दामीको पूछा कि-ये अमूल्य आभरण कूपमें कहांसे आये ? तब दासीने कहा कि हमारे स्वामी तथा उनकी बत्तीस स्त्रियां नित्यप्रति नये नये आभूषण पहनते हैं। अगले दिनके पहने हुए आभूषण उतार कर कूपमें डाल देते हैं। अतः हमारे स्वामीका यह निर्माल्य है। श्रेणिक अत्यंत आश्चर्य पा कर दान पुण्यके यह फल है यह सोचता हुआ भोजन कर अपने महलमें गया। पीछे शालिभद्रने वैराग्य पा कर ऐसा निर्धार किया कि-बत्तीस स्त्रियोंमेंसे नित्यप्रति एक एक स्त्रीका परित्याग करना। अब इसी गांवमें एक धन्ना नामक सेठ रहता था । जिसके साथ शालिभद्रकी बेनकी शादी हुई थी। वह धन्नाको स्नान कराती थी, उसे रोती हुइ देख कर धन्नाने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९ ) पूछा कि क्यों रोती है ? तब उसने कहा कि मेरा भाई नित्य एक एक स्त्रीका परित्याग करता है और दीक्षा लेनेवाला है । उसको धन्नाने मुस्करा कर कहा कि तेरा भाई ऐसा कायर क्यों हो गया ? तीनही खियाँको एकही साथ क्यों छोड़ नहीं देता है ? तब वो बोली कि - बात करना तो सहठ है: परन्तु करना अति दुर्लभ है, आप एक को भी छोड़ नहीं सकते हैं । धन्नाने कहा कि में तेरे मुखसे यही बचन निकलवाना चाहता था । अब कुछ सत कहना । जा. मैंने मेरी आठों स्त्रियोंका अभीसे त्याग कर दिया है । यह सुन कर स्त्री पगमें पडी और मनाने लगी कि महाराज ! मैंने तो हंसते २ कहा था अतः आपको रोष न करना चाहिये । इत्यादि कह कर बहुत समझाया, मगर धन्नाने कहा कि मेरे मुखमेंसे जो बात निकल गई, सो निकल गई. अब वह पलटेगी नहीं । ऐसा कह कर वहांसे उठा उठ कर अपने साला पास गया । उसे समझा कर साथ लिया और धन्ना तथा शालिभद्र इन दोनोंने मिल कर श्रीमहावीरके पास जा कर दीक्षा ली। दीक्षा महोत्सव श्रेणिक राजाने कराया । दोनों साधु छठ, अठम, दशम, दुबालस, मासखमणादि तप करते हुए शरीर में अत्यंत दुर्बल हुए । एकदा श्रीमहावीर के साथ विहार करते हुए राजगृही नगरी में आये । पारणेके लिये भगवानने कहा कि आज तुम्हारी माताके हाथसे पारणा होगा । जिससे भद्रा के घर गये मगर शरीर दुर्बल हो जानेसे किसीने पिछाने नहीं । वापिस लौटते हुए पिछले भवकी माता मिली । ऋषिको देखतेही वह हर्षित हुइ और उसके स्तनमेंसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूधकी धारा बहने लगी, अपने पाम महीकी मटकी थी उसका दान दिया । साधुने भगवानको पूछा कि-हमें माताके हाथसे पारणा न हुआ। भगवानने कहा किजिसके हाथसे पारणा हुआ वह शालिभद्रकी पूर्वभवकी माता थी। फिर दोनों साधुओंने अनशन किया। भद्राको जब मालूम हुआ तब बहुत पश्चात्ताय करती हुइ बत्तीस गुत्रवधुओंको साथ ले कर श्रेणिक गजाके साथ मिलकर अनशनस्थानकको आइ और साधुओंको वंदना कर अपने घरको चली आइ । वे ऋषि सार्थसिद्ध विमानमें पहुंचे, एकावतारी हो कर मोक्षमें जायेंगे । अतः जो भावपूर्वक सुपात्रको दान देता है वह दिन दिन प्रति नये नये भोगविलास प्राप्त करता है। अब पच्चीसवीं और छब्बीसी गाथाका उत्तर देढ गाथाके द्वारा कहते हैं। पसुपक्खिमाणुसाणं बाले जोवि हु जो विच्छोहइ पावो । सोअणवच्चो जायइ अह जायइ तोवि णो जीवइ ॥ ४॥ जो होइ दयापरमो बहुपुत्तो गोयमा भवे पुरिसो। अर्थात्-जो पापी पुरुष गवादि पशुओंके बालक तथा हंस प्रमुख पक्षिओंके बालक तथा मनुष्योंके बालकोंका अपने मातपितासे वियोग करताहै वह पुरुष अनपत्य यानि संतानसे रहित होता है। अथवा कदापि संतति होती है तो बचती नहीं। जिस प्रकार सिद्विवास नगरमें वर्द्धमान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) नामक वणिक् रहता था, उसे देशल और देदा नामक दो पुत्र हुए । उनमें देशल महा दयावान् था, और देदाका हृदय निर्दय था। युवावस्था प्राप्त होते देशलकी देवीनी, और देदाकी देमती नामा कन्याओंके साथ शादी की । उनमें देशल धर्मकरणी करता, लक्ष्मी भी उपार्ज करता और सुख भी भोगताथा । इस प्रकार तीनों पुरुषार्थ साधताथा । और देदा तो केवल लक्ष्मी उपार्जन करना और सुख भोगना इतनाही केवल साधता था परन्तु धर्म नहीं करता था । महा लोभी होनेसे धर्मकी बात भी नही जानता था अनुक्रमसे देशलको गुणवंत पुत्र हुए। उनकी माता देवीनी अपने पुत्रोंका पालन करती, गोद में बैठाती, परस्पर लड़ते तो रोकती । वेभी बाहरसे आ कर शीघ्र अपनी माताको लते । एकको देखे, एकके मुखको माता चुम्बन करती। ऐसा देख कर देदा और देमती अपने हृदयमें चिंतातुर हुए और परस्पर बात करने लगे कि-अपनेको पुत्र नहीं है, अतः अपना यह संयोग, यह ऋद्धि, यह स्नेह और यह जीवित इत्यादि सर्व किस कामके हैं ? किसीने यथार्थ ही कहा है किः अपुत्रस्य गृहं शून्यं दिशः शून्या अबांधवाः । मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्यं दरिद्रता ॥ १ ॥ ऐसा विचार कर पुत्र के लिये अनेक देव देवियोंकी मानता की। एक दिन सत्यवादी यक्षका आराधन किया । देदा यक्षकी पूजा और उपवास करके आगे बैठा और कहा कि-जब मुझे पुत्र दोगे तब मैं ऊंटुंगा। इस प्रकार बैठते हुए उसे ग्यारह उपवास हो गये। तब यक्ष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) देव प्रत्यक्ष हुआ और कहने लगा कि-हे सेठ ! तू कष्ट किस वास्ते सहन कर रहा हैं ? क्योंकि देव, दानव, व्यंतर, यक्ष, चाहे सो हो, परन्तु कोइ भी उपार्जन किये हुए कर्मको दूर नहीं कर सकते हैं। हे सेठ! तूने पूर्व जन्मान्तरमें अंतराय कर्म बांधे हुए हैं, उसमें मेरा कुछ बल नहीं चल सकता । इस प्रकार यक्षने कहा तो भी सेठ वहांसे उठा नहीं । तब यक्षने कहा कि-कदाचित् मैं तुझे पुत्र दूंगा तो भी वह पुत्र जीवित न रहेगा। तब फिर भी तू मुझे ओलंभा ( उपालंभ ) देगा। सेठने कहा कि एक दफे पुत्र होवे ऐसा कीजिये । फिर चाहे सो हो । यक्ष भी उस बातकी हा कह कर अपने स्थानक चला गया। सेठने घरमें आ कर अपनी स्त्रीके पास बात कही। स्त्री और सेठने कुछ हर्ष और कुछ विषाद पाते हुए पारणा किया । अन्यदा गर्भाधान हुआ। पुत्रप्राप्ति भी हुइ, जिसकी बधाइ सुन कर सेठ हर्षित हुए । वह पुत्र दीर्घजीवी होवे, इस लिये उसे तुलामें तोल कर उसका नाम भी तोला रखा । छट्ठी, दशोट्टण प्रमुख करते हुए स्वजनोंको जिमा कर दान मान दिये । फिर यक्षको भेटने के लिये बली, फूल प्रमुख ले कर व बालकको भी साथ ले कर यक्षके भुवनमें गये। वहां द्वार बंध किये हुए थे । उसे खोलने के लिये अनेक उपाय किये, मगर यक्षने दर्शन न दिये । तब सर्व वापिस घरको लोट आये। सेट बोले कि यक्षने कहा था कि लडका जीवित न रहेगा सो शायद वैसाही हो जाय! उस प्रकार सोच करते हुए वह दिवस तो गया, मगर रा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) त्रिको अचानक बालक बीमार हो गया और जिस प्रकार पवनसे दीपक वुझ जावे उसी प्रकार देखने २ बालक देवशरण हो गया । वह देख कर देदा सेट व देमती सेठानी मूर्छित हो कर भूमि पर गिर गये। थोडी देर के बाद सचेत हुए और बहुत रुदन तथा आनंद करने लगे; मगर गया हुआ पुत्र वापिस आया नहीं। फिर बड़े भाइ देशलने कहा कि तुम स्नान भोजन कर लो। मेरे लडके हैं वे तुम्हारेही है ऐसा समझो; अतः अब तुम शोक करना छोड़ दो । उस समय उनके समीप होकर चार ज्ञानके धारक चारणऋषि चले जाते थे, वे उनके रुदन श्रवण कर वहां आये । उनको सर्व लोगोंने उठ कर वंदना की । ऋषिने धर्मलाभ दिया । पुनः धर्मोपदेश दे कर कहने लगे कि-हे सेठ ! तुम शोक मत करो, क्योंकि जिस जीवने जैसा कर्म उपार्जन किया होता है वैसाही फल उसको मिलता है । यदि कोदरा नामक धान्य बोया होवे तो उसकी उपजमें शाल कहांसे मिले ? नींव का बीज बोवे और रायणकी आशा करे तो वह कहांसे मिले ? ___ सेठने पूछा कि-महाराज ! मेरे दोनों पुत्रोंने पूर्व भवमें किस २ प्रकारके कर्म किये हैं ? जिनके योगसे एकको अनेक सन्तान हुए हैं और दूसरेको लन्तान है ही नहीं। तब मुनि कहने लगे कि-हे सेठ ! इसी नगरीमें इस भवसे पिछले तीसरे भव में विल्हण और निल्हण नामके दो कुलपुत्र रहते थे, उनमें बडा भाइ तो बडा धर्मात्मा और दयावंत था, और छोटा भाइ तो नित्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) वनमें जा कर मृगली और उनके बालकका वियोग कराता था। हंस, तोते, मयूर आदि पक्षियोंको उनके बालकसे अलग करता व पकड कर पिंजरे में डाल कर बेचता था। वैसेही मनुष्यके बालकों को भी एक गांवमेंसे ले कर दूसरे गांवमें जा कर बेचताथा। इस प्रकार धनके लोभसे पाप करता था, उसको ऐसा करनेसे रोकने के लिये बहुत सजनोंने प्रयत्न किया, तथापि वह दुष्ट कर्मसे पीछा न हटा-दुर्व्यसन नहीं छोडा। जिसका जैसा स्वभाव होता है वह कदापि स्वभावको नहीं छोडता है। एक दिन उसने किसी क्षत्रियके बालकको बेचने के लिये चुपकेसे उठाया। मगर उसके मात पिताने देख लिया और शीघ्र उसे पकड कर बहुतही पीटा और छेदन भेदन किया। उसकी वेदनासे रौद्रध्यान पूर्वक मृत्यु पा कर पहली नरकमें गया । बडा भाइ विल्हण अपने भाइकी मृत्यु सुन कर वैराग्य पा कर व अनशनव्रत ले कर समाधि मरणके अनन्तर सौधर्म देवलोकमें देवता हुआ । वहांसे चव कर तेरा देशल नामक बडा. पुत्र हुआ है । उसने पूर्वभवमें भूखे प्यासे पर दया की थी जिस पुण्यके योगसे उसको अनेक गुणवंत पुत्रोंकी प्राप्ति हुई है। और तिल्हणका जीव नरकसे निकल कर तेरा देदा नामक छोटा पुत्र हुआ है। उसने पूर्व भवमें मनुष्य और तिर्यचके बालकोंका अपने मातापितासे वियोग कराया था जिससे उसको संतति नहीं होती है। ऐसे गुरुके बचन मुन कर दोनों भाइओको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । जिससे पूर्वके भव देखने में आये । तब वैराग्य पा कर समकित मूल बारह व्रत अंगीकार किये । और चारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) मुनि आकाश मार्ग में चलते भये । दीर्घकाल पर्यंत श्रावकधर्म पाल कर फिर दोनों भाइओंने दीक्षा ली । और समाधि मरणसे मर कर देवलोक में देवता हुए। कहा है: जीवदया जिनवर कही, जे पाले नर नार । पुत्र होवे शूरा सबल, तेहने रंग मझार ॥ अब सत्ताइसवें और अठ्ठाइसवें प्रश्न के उत्तर देढ गाथाके द्वारा कहते हैं । असूयं जो भणइ सुयं सो बहिरो होड़ परजम्मे ||४२|| अहिं चिय दिट्ठे जो किर भासिज्जा कह विमूढप्पा | सो जच्चंधी जायइ, गोयम नियकम्मदोसेण ॥ ४३ ॥ अर्थात् — जो पुरुष अश्रुतं यानि अनसुनेको सुना कहे, अर्थात् जो बात कहिंसे सुनी भी न हो तथापि ऐसा कहे कि यह बात मैंने सुनी है, इसके अतिरिक्त जो दूसरेके दोषको प्रकट करे वह जीव निश्चय बधिर होता है ( ४२ ) तथा, जो पुरुष अनदेखी वस्तुको देखी कहे, इस प्रकार जो मूढात्मा पुरुष धर्मकी उपेक्षा करता हुआ भाषण करे, बह जीव हे गौतम ! मर कर अपने कर्मके दोषसे भवान्तरमें जात्यंध होता है (४३) जिस प्रकार महेन्द्रपुरका रहनेवाला गुणदेव सेठका पुत्र वीरम था वह पूर्वकृत पापके उदयसे जन्मपर्यंत बधिर जात्यंध त्रींद्रिय सदृश हुआ, अर्थात् कान और नेत्र रहित मानो द्रिय जैसा हुआ। यहां पर वीरमकी कथा कहते हैं: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) " महेन्द्रपुर नगरमें गुणदेव नामक सेठ रहता था, उसकी गायत्री नामक स्त्री थी । उसे बहुत दिनोंके पश्चात् पुत्र हुआ; परन्तु वह कर्म के योगसे जन्मांध और बधिर हुआ। जिससे बधाइ देना तो बाजु पर रहा, मगर उस लडकेका नाम संस्करण भी नहीं किया । वह अंधबधिर इस नामसे प्रसिद्ध हुआ । उसकी बाल्यावस्था व्यतीत हो गई और यौवनावस्था प्राप्त हुइ तब उसके मातपिताने मोहके वशीभूत हो कर जितने २ मंत्र तंत्र थे वे सब किये, कुछ बाकी न रखा । वैसेही निमित्तिया, ज्ञानी, जोशी, चूडामणीयादिक सब सिद्ध पुरुषोंको पुछा, मंडल बैठाये, दीपावतार, अंगुष्टावतार, पात्रावतार देखे । तथा ग्रहपूजा शान्तिकर्म कराये, पादर देवताकी मानता की, यक्ष की सेवा की, क्रोडीयाको पूछा, पुत्रके मोहसे ऐसा कोइ देवस्थान शेष रहा कि जिस स्थानको उसके मातपिताने पूछे व पूजे विना छोड दिया हो; परन्तु वह सर्व प्रयास जिस प्रकार उखर भूमिमें बोया हुआ बीज निष्फल होवे, उसी प्रकार निष्फल हुआ । अनेक वैद्योंके औषध भी किये, परन्तु वह लडका अच्छा न हुआ । आंखोंसे कुछ देखे नहीं व कानसे कुछ सुने नहीं, जिससे भोजन पान कराना पडे वह भी इसारेसे कराते । मातपिताने सोचा कि हमने पूर्वभवमें न मालूम कैसे पाप किये होंगे कि जिससे यह पुत्ररूपमें सदैवका शल्यही हुआ। ऐसे पुत्रके होनेकी अपेक्षा न होनाही अच्छा, और यह पुत्र जीवित रहे इसकी अपेक्षा मृत्यु पावे तो भी अच्छा । ऐसा बार बार विचार करते। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७ ) एक दफे कोई ज्ञानी महाराज वनमें पधारे, उनको वंदना करनेके लिये सब लोग गये। वंदना कर बैठे, तब ज्ञानबलसे जान कर गुरु बोले कि-हे गुणदेव सेठ ! तुम. तुम्हारे अंधबधिर लडकेके लिये बहुत दुःखी मत हो । क्योंकि किये हुए कर्म इंद्रसे भी दूर नहीं हो सकते हैं। अपने २ किये हुए पुण्य पाप सब कोई भोगते हैं, ऐसी गुरुकी बानी सुन कर सब लोग कहने लगे कि, देखो इन मुनि महाराजका कैसा ज्ञान है ? कैसा परहितचिंतन है ? कैसा मैत्रीभाव है ? इत्यादि प्रशंसा करने लगे। फिर सेठने पूछा कि हे महाराज : किस पापकर्मके उदयसे मेरे पुत्रको अंधत्व और बधिरत्वकी प्राप्ति हुई है ? तब ज्ञानी गुरु बोले कि इसी नगरमें वीरम नामक कुनबी रहता था, वह महा अधर्मी, असत्यभाषी, अन्यायी, परके दोषोंको सुननेवाला, परदोष प्रकाशक, परनिंदा करनेवाला और कूडे कलंकका चढानेवाला इत्यादि दुष्ट कोका करनेवाला था । एकदिन गांवके राजाके साथ किसी निकटवर्ती राज्यके राजाको वैर हुआ । उसका निरन्तर राजाको भय रहता था। उस समयमें दो पुरुषोंको अन्योऽन्य गुप्त बातें करते देख कर वीरमने कोटवालके पास जा कर कहा कि, अमुक दो शख्स शत्रु राजाको यहां बुलानेकी बातें कर रहे थे। यह बात श्रवण कर कोटवालने उन दोनों शख्सोंको पकड कर राजाके समक्ष खडे किये । राजाके पूछनेसे वे कहने लगे कि महाराज ! हम हमारे घर सम्बन्धी बातें कर रहे थे, हम शपथपूर्वक कहते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com को बैर हुआ दो पुरुषापास जा कर Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) कि कदापि स्वप्न में भी हमने हमारे ठाकुरका बुरा चिन्तन नहीं किया है । ऐसी उनकी बात सुनकर राजाने वीरमको बुला कर पूछा, तब धूर्त, पापी, दुष्ट चित्तवाला वीरम बोला कि, महाराज ! यह बात बिलकुल ही सच्ची है । मैंने अपने कानसे सुनी है । राजाने भी उसका कथन सत्य मान कर उन दोनोंको दण्डित किये । · , फिर एक दफे वीरमका पडोसी ग्रामांतरको गया था, वह वापिस घरको आता था । उसे मार्ग में वीरम मिला | पडोसीने वीरमको अपने घर सम्बन्धी सुख समाधिके समाचार पूछे । तब दुष्ट वीरमने कहा कि, कामदेव नामक वणिक तुम्हारे घर में निरंतर आता है, और तुम्हारी खी उसके साथ बहुत स्नेह करती है, रमती है । यह बात सुन कर सेठ कामदेव के ऊपर कोपित हुआ, और राजाके समीप जा कर सब बात कही । राजाने कामदेवको बुला कर उसका सर्वस्व लूट कर दंडित किया । वीरम ऐसा पाप करता, व असत्य बोलता, परनिंदा करता व लोगों के ऊपर खोटे कलंक चढाता था । एक दिन किसी क्षत्रियने उसको अच्छी तरह पीटा, जिसकी पीडासे बहुत दिनों तक दुःख भोग कर मृत्यु पा कर तेरे यहां पुत्ररूपसे उत्पन्न हुआ है । वह अनसुना व अनदेखा जनापवाद बोला है, जिससे जन्मांध और बधिर हुआ है । यह जीव बहुत संसार रुलेगा । ऐसी बात गुरुमुख से श्रवण कर मातपिता धर्मकरने में प्रवृत्त हुए । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९) और अंधबधिर कष्ट सहन करता हुआ मरकर दुर्गतिमें पहुंचा । ठीकही है: असमंजस बोले घणुं, परने दिये कलंक । ते मूरख किम छूटशे, पापी हुआ निःशंक ॥१॥ अब गुनतीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैं उचिट्ठमसुंदरयं भत्तं तह पाणियं च जो देह । साहूणं जाणमाणो भुपि न जिजए तस्स ॥४४॥ अर्थात्-जो पुरुष उच्छिष्ट, झूटे, बिगडे हुए, ऐसे अशुभ आहार जो किसी भी काममें न आवे ऐसे भात पानी जान बूझ कर साधु मुनिराजको देता है, उस पुरुषको खाया हुआ अन्न हजम होता नहीं अर्थात् अजीर्णका रोग होता है (४९) जिस प्रकार श्रीवासुपूज्यस्वामीके पुत्र मघवाकी पुत्री रोहिणी थी वह पूर्वभवमें दुगधा नामसे प्रसिद्ध हुई, कुष्टादिक रोगसे पीडित हुई। अतः उसने अनेक भवके पहले कडूआ तुंबा बहराया था, उस की कथा कहते हैं: " चंपानगरीमें श्रीवासुपूज्यस्वामीका पुत्र मघवा नामक राजा राज्य करता था । उसको सदाचारिणी और सुशीला लखमणा नामा राणीथी । उसको आठ पुत्र हुए। ऊपर एक राहिणी नामा पुत्री हुइ । वह मातापिताको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) अत्यंत वल्लभाथी, अतः उसके जन्मके समय राजाने बहुत दान मान दिये । वह बडी हुई और चोसठ कलाएं सीखी। रूपवंत, लावण्यवती, सौभाग्यवती और गुणवती हुई। उसे यौवनावस्था प्राप्त हुइ देख कर राजा चिंतन करने लगा कि-इसके योग्य वर मिले तो अच्छा । अतः स्वयम्बर मंडप रचाया जाय । यह लडकी मनोज्ञ वरको पसंद कर ले तो फिर पश्चात्ताप न हो । ऐसा विचार कर स्वयंवर मंडप रचाया । कुरु, कौशल, लाट, कर्णाट, गौड, वैराट, मेदपाट, नागपुर, चौड, द्राविड, मगध, मालव, सिन्धु, नेपाल, डाहल, कोंकण, सौराष्ट्र, गुर्जर, जालंधर आदिक चारों दिशाओंमेंसे राजकुमारोंको बुलाये। सर्व राजा स्वयंवरमें आ कर बैठे । उसी समय रोहिणी राजकुमारी भी स्नान विलेपन करके, क्षीरोदक-श्वेतवस्त्र पहन कर हीरा, मोती, माणिकके आभरणसे अलंकृत हो कर मानो देवलोक मेंसेही उतर कर आइ हो ऐसी अप्सराके सदृश सुरूपा रोहिणी पालखीमें बैठ कर सखियोंके वृंदसे परिवेष्टित हो कर वहां आयी। वहां प्रतिहारी दासीने राजकुमारोंके नाम, गोत्र, गुण, बल, देश, गाम, सीम पृथक् २ वर्णन करके कह सुनाये व समझाये । अंतमें राजकुमारीने नागपुरके वीतशोक राजाके अशोक नामक कुमारके कंठमें वरमाला आरोपित की। योग्य वर पसंद करनेसे सर्व को हर्ष हुआ । पिताने विवाह किया। दूसरे सर्व राजाको हाथी, घोड़े, वस्त्र, भोजन और तंबोल दे कर सबको सम्मानित किये । सब अपने २ स्थानकको गये । तथा अशोककुमारको भी सुवर्ण मोतीके आभरण प्रमुखके दान-मान दे कर रोहिणी सहित नागपुरको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९१ ) पहुंचाया । वहां वीतशोक राजाने भी शुभ दिन को नगरमें प्रवेश करनेका महोत्सव किया । कुछ दिनोंके बाद अशोककुंवरको राज्यासन पर बैठा कर वीतशोक राजाने दीक्षा ली । अब अशोक राजाको राज्य संपदा तथा राणी समेत सुख भोगते हुए गजेन्द्रके सदृश आठ पुत्र हुए और चार पुत्रीएं हुई ! एकदिन राजा-रानी दोनों सातवें मंजल पर गोख में लोकपाल पुत्रको गोद में ले कर बैठे थे । उस अर्से में कोई एक स्त्री छाती पीटती, विलाप करती, रोती हुई और पुत्रके गुण बोलती दैवको ओलंभा देती हुइ निकली । उसे देखकर रोहिणीने राजासे पूछा कि, हे स्वामिन् ! यह किस किसमका नाटक कर रही है ? राजाने कहा, हे रानी ! तू धन, यौवन, राज्य, मंदिर, भरतार, प्रासाद, और पुत्रादिकसे पूरण हो कर अहंकार मत कर । यद्वा तद्वा मत बोल | रानी बोली, स्वामिन् ! रोस मत करो । मुझे कुछ अहंकार नहीं है । मैंने ऐसा नाटक कभी देखा न था, जिससे आपको पूछा है । राजाने कहा कि देख, तेरेको भी मैं रुदन करना सीखाता हुं । ऐसा कह कर रानीकी गोद में से बालकको ले कर दोनों हाथोंके द्वारा गवाक्षके बाहर झूलाते हुए नीचे डाल दिया । यह देख कर सर्व लोग कोलाहल करने लगे; परंतु रोहिणीके मनमें कुछ भी दुख न हुआ । पुत्रको पडते हुए नगरदेवताने पकड कर सिंहासन पर बैठाया । यह देख कर सब लोग हर्षित हुए और राजा कहने लगे कि हे रोहिणी ! तू धन्य - कृतपुण्य है । जिससे तू दुःखकी बात भी नहीं जानती है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२) एकदफे श्रीवासुपूज्यस्वामीके सुवर्णकुंभ और रूपकुंभ नामक दो शिष्य-साधु चार ज्ञानके धारक, छह, अट्ठम तप करते हुए वहां आये । राजा-राणी-पुत्र प्रमुख सर्व परिवार वंदन करनेको गये । गुरुने धर्मलाभ देकर धर्मदेशना दी। फिर राजाने पूछा, हे भगवन् ! मेरी रोहिणी राणीने क्या तप किया है, कि जिसके योगसे वह दुःखकी बात भी नहीं जानती है ?। फिर मेरा भी उसके ऊपर अत्यंत स्नेह है उसका कारण क्या है ? इसके अलावा इसके पुत्र भी बहुत गुणवंत हुए हैं उसका हेतु भी क्या है ? सो कहिये । गुरु कहने लगे कि-हे राजन् ! इसी नगर में धनमित्र सेठकी धनमित्रा स्त्री थी, उसको कुरूपिणी दुर्भागिणी ऐसी दुर्गधा नामक पुत्री हुई । वह जब यौवनावस्थाको प्राप्त हुई तब पिताने उसका विवाह करने के लिये एक कोटिद्रव्य देनेका निश्चय किया, तथापि किसी रंक जैसे मनुष्यने भी उसके साथ शादी करनेका मन नहीं किया। उस असें में एक श्रीषेण नामक चोरको मारने के लिये राजकर्मचारी लोग वधस्थल प्रति ले जाते थे, उसे छुडाया और अपने घर में रखकर उसके साथ अपनी पुत्रीकी शादी कर दी। वह चोर भी दुर्गधाके शरीरकी दुर्गंध सहन न होनेसे रात्रिके समय गुपचूप भाग गया । तब सेठ खेद करता हुआ कहने लगा कि-कर्मके आगे किसीका जोर नहीं चलता है। पुत्रीको कहा-तू घरमें रह और दान पुण्य कर । वह पुत्री दान करनेकी इच्छा करती परंतु उसके हाथका दान भी कोइ लेता नहीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९३ ) एक दिन ज्ञानी मुनिको दुर्गंधा सम्बन्धी बात पूछने से उन्होंने कहा कि - गिरिनार पर्वतके पास गिरि नगरीनें पृथ्वीपाल राजा रहता था। उसकी रानीका नाम सिद्धिमती है | एकदा राजा रानी दोनों वनमें क्रीडा करनेको गये ! उस असेंमें गुणसागर नामक एक मुनि मासखमणकर पारणाके दिन गौचरी करनेको नगर में जाते थे । उन्हें देखकर राजाने भक्तिपूर्वक वंदना नमस्कार करके रानीको कहा कि यह जंगमतीर्थ है उनको निर्दोष आहार पानी दे कर लाभ उठाओ । रानीकी इच्छा न होते हुए भी उनको वापिस लौटना पड़ा। रानी मनमें विचार करने लगी कि इस मूंडने आ कर मेरी क्रीड़ाम विघ्न डाला । जिससे क्रोधित होकर एक कडुआ तुम्बा साधुको वहराया । साधुने विचार किया कि यह आहार जहां कहीं मैं परढूंगा वहां अनेक जीव मर जायेंगे । ऐसा सोचकर खुद ही वह कटुतुंबका शाक खागये और कटु तुम्बा के विष प्रयोगसे शुभ ध्यानमें मृत्यु पाकर देवलोकमें देवता हुआ । पीछेसे राजाको यह बात अवगत हुई । राजाने रानीको घरसे बाहर निकाल दी । रानीको जंगल में भटकते हुए सातवें दिनको कुष्ट रोग निकला | जिससे अत्यंत पीडित हुई और अन्तमें मरकर छट्ठी नरकमें गई । वहांसे मरकर तिर्यचमें उत्पन्न हुई, पुन: नरक में गई । इस प्रकार सातों नर्कमें क्रमशः दुःख भोगकर सर्पिणी, ऊँटणी, मुर्धी, शृगालिनी, सूयरी, घिरोली, उंदरी ( मुशी ), जलो, चांडालिणी, रासभी प्रमुख के अवतार उसने लिए । एकदा गायके जन्म में मरते समय नवकार मंत्र सुनकर सेठ के घर में दुर्गंधा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४ ) पुत्रीरूप उत्पन्न हुई । वहां निकाचित कर्म भोगते हुए स्वल्प कर्म शेष रहे, तब ज्ञानीकी देशना सुननेसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । पूर्वके भव देखे । तब दुर्गधाने हाथ जोडकर पूछा कि-महाराज ! इस दुःखसे मुक्ति होवे ऐसा उपाय बतलाइये । गुरुने कहा कि-इस दुःखकों मिटानेवाला रोहिणी तप करो । उस तपका विधि मैं बतलाता हु सो ध्यान देकर सुनो। सात वर्ष और सात मास पर्यंत रोहिणी नक्षत्रके दिन उपवास करना। श्रीवासुपूज्यकी पूजा करना । तप तपते हुए शुभ ध्यान करना । उसके प्रभावसे अच्छा होगा। आगामी भवमें राजाकी रानी होगी। वह सुख भोग कर श्रीवासुपूज्यके तीर्थ में मोक्षमें जायगी । तप पूर्ण होने पर उजमणा करना । श्री जिनप्रासाद कराना, श्रीवासुपूज्यजीकी रत्नमयी प्रतिमा कराना । उनको सुवर्ण व मोतीके आभरण कराके चढाना । तथा स्नान, विलेपन, कुंकुम, कपूर आदि सुगंधी द्रव्यसे पूजा करना । श्रीसंघकी भक्ति करना । अमारी प्रवर्तावना । दीनजनोंको दुःखसे मुक्त करना । स्वामी वात्सल्य, संघपूजा करना, सिद्धांत लिखाना । इस तप के करनेसे सुगंध राजाके भांति सर्व दुःख नष्ट हो जायंगे । तब दुर्गंधाने पूछा कि-सुगंध राजा कौन हुआ है । उसका वृत्तांत कहिये। गुरुने कहाः-सिंहपुर नगर में सिंहसेन राजा राज्य करता था । उसकी रानीका नाम कनकप्रभा है, उसे एक पुत्र हुआ जो अत्यंतही दुर्गंधयुक्त था, जिससे वह सबको अप्रिय हुआ। एकदफे उस नगरीमें पद्मप्रभा स्वामी ममोगरे । वहां कुटुंब परिवार सह जा कर राजाने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५ ) द्विकर जोड वंदना - नमस्कार करके पृच्छा की कि हे भगवन् ! मेरा पुत्र दुर्गंध हुआ उसका कारण क्या ? उसने पूर्वभवमें कैसे २ कर्म किये होंगे ? तव भगवान. कहने लगे कि, नागपुर से बारह योजनकी दूरी पर नीळ पर्वत में एक शिला के ऊपर मासोपवासी साधु धर्मध्यान करते थे । वहां उस साधुके प्रभाव से आहेडीको शिकार नहीं मिलता था, जिससे आहेडीने साधुके ऊपर रोष करके उसको उपद्रव करनेका निश्चय किया। जब मास मण पूर्ण हुआ तब साधु गांव में एषणार्थ पधारे । पीछेसे व्याधने आकर उस शिलाके नीचे काष्ट डालकर अग्नि जलाया | साधु भी गोचरी करके फिर उस शिला पर आकर बैठे। उसको नीचे से ताप परिताप देने लगा । साधुने शुभ ध्यानारूढ होकर समभावपूर्वक उष्ण परिसह सहन किया और केवलज्ञान पा कर वे मोक्षमें गये । इधर वह व्याध दुष्ट कर्मसे कुष्ट रोगी हुआ । मरकर सातर्वी नरक में गया । फिर सर्प होकर पांचवीं तरकमें गया । पुनः सिंह हो कर चौथी नरक में गया। बाद में चित्रक हो कर तीसरी नरक में गया | फिर मार्जार हो कर दूसरी नरकमें गया । तत्पश्चात् उलूक हो कर प्रथम नरक में गया। इस प्रकार भवभ्रमण करता हुआ एकदा दरिद्री गोवाल हुआ । पशुपालनका व्यवसाय करता हुआ नाघोरी श्रावकके पाससे नवकार मंत्र सीखा | एकदा वनमें वह सो गया था उस समय दावाग्नि जलता हुआ उसके ऊपर आ गिरा । जिससे वह मर गया । मरते समय नवकार मंत्रका स्मरण किया जिसके प्रभाव से तेरा पुत्र हुआ । उसका दुर्गधी शरीर कर्मके दोषसे हुआ है । इस प्रकार पूर्वभव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) सुनतेही उस दुर्गध कुमरको जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ। दुःखकी स्मृतिं होनेसे भयभीत हुआ। तब भगवंतमो वंदन कर पूछने लगा कि-मैं इस दोषसे कैसे मुक्त होउंगा ? उसका उपाय कहिए । तब जिनेश्वरने कहा, रोहिणीका तप कर, जिससे सर्व प्रकारसे निराबाध होगा। फिर उस राजपुत्रने रोहिणी तय किया । जिससे उसका शरीर सुगंधमय हुआ । अतः हे दुर्गधा ! तू भी यह तप कर । उसके प्रभावसे सुगंध कुमरकी तरह तेरे सर्व दुःख नष्ट होंगे । ऐसा श्रवण कर उस दुर्गंधाने रोहिणी तप अंगीकार किया। विधिपूर्वक शुभ ध्यानसे तपस्या व आत्माकी निंदा करते हुए दुर्गधीको जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। जिसके योगसे पूर्वभव स्मृतिगोचर हुआ, तब तो फिर भी अधिक रूपसे तप करने लगी। आयु पूर्ण होनेसे शुभध्यान पूर्वक मृत्यु पा कर देवलोकमें देवता रूपसे उत्पन्न हुई । वहांसे चव कर यहां चंपा नगरीमें मघवा राजाकी पुत्री हुई। उसका नाम रोहिणी रक्खा गया। उसके साथ तेरी शादी हुइ । उसने बहुत दान दिया है अतएव वह तुम्हारी पट्टराणी हुइ है। उसने पूर्वभवमें रोहिणी तप किया है जिसके प्रभावसे दुःख क्या चीज है ? वह भी नहीं जानती है। उसने उझमणा ( उत्सव ) किया है जिससे वह ऋद्धिवंत हुई है । फिर हे राजन : इस सिंहसेन राजाने अपने सुगंध कुमरको राज्यपाट दे कर दीक्षा ली। सुगंध राजा राज्य करता हुआ व जैनधर्मका पालन करता हुआ सम्यक्तया धर्मकृत्य करके मृत्यु पा कर देवलोकमें गया। वहांसे चव कर पुष्कलावती विजयमें पुंडरगिणी नगरीमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ९७ ) विमलकीर्ति राजाके वहां अर्ककीर्ति नामक राजा चक्रवर्तिपणे उत्पन्न हुआ । वहां राज्य पालकर व जितशत्रु साधुके पास दीक्षा लेकर यहांतू अशोक नामक राजा हुआ है । तेरी राणी और तू-दोनोंने मिल कर पूर्वभवमें एकमन हो कर यही रोहिणी तप किया था, अतः तेरा स्नेह उसके ऊपर बहुत है । पुनः राजाने पूछा कि हे स्वामिन्! मेरी स्त्रीको आठ पुत्र और चार पुत्रीएं हुई वे उसके कौनसे पुण्योदयसे हुई ? तब गुरु बोले कि-हे महाभाग्य ! उनमेंसे सात पुत्र तो पूर्वभवमें मथूरानगरीने एक अग्निशर्मा ब्राह्मण भिक्षुक रहता था, उसके वहां पुत्र रूपसे उत्पन्न हुए थे। वे दरिद्रीकुलमें उत्पन्न हुए, जिससे सातों पुत्र भिक्षा मांगनेको जातेथे, परन्तु उनको कोई अपने स्थान पर बैठने नहीं देता, जहां जाते वहां बाहर निकाल देते । इस प्रकार वे पुत्र गांवगांवमें भ्रमण करते व भीख मांगते हुए एकदा पाटलीपुरमें गये। वहां उन्होंने एक वाडीमें राजा एवं प्रधानके पुत्रको अनेक अमूल्य आभरण पहन कर खेलते हुए देखे, जिससे मनमें आश्चर्य पाये । तब बड़े भाइने कहा कि, देखो विधाताने कैसा अंतर किया है ? ये लड़के वांछित सुख भोगते हैं और हमने भिक्षा मांगते हुए घर'घरमें भटकते हैं। यह सुन कर छोटा भाई बोला कि, यह उपालम अपने किसको देवें ? उन्होंने पूर्वभवमें पुण्य किये हैं, जिसके फल वे भोगते हैं, और अपने पुण्यहीन हैं जिससे घर घर भीख मांगते फिरते हैं। वहांसे घूमते २ वनमें गये। वहां एक साधु मुनिराज काउसग्ग ध्यानमें स्थित थे । उनके पास जा कर खडे रहे । साधुने भी काउसग्ग 7 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) . पार कर व दयावंत हो कर उनको धर्मदेशना दी । यह सुन कर सातों भाइयोंने वैराग्य पा कर दीक्षा ली, चारित्र पाल कर देवलोकमें गये। वहांसे चव कर तेरे वहां पुत्ररूपसे उत्पन्न हुए हैं । और आठवां पुत्र जो वैताढय पर्वत पर भल्लक नामक विद्याधर था, वह नंदीश्वर द्वीपमें शाश्वत जिनप्रतिमाकी पूजा, यात्रा और धर्मका सेवन करता था; वह मृत्यु पा कर सौधर्म देवलोकमें देव हुआ । वहांसे चव कर तेरा लोकपाल नामक आठवां पुत्र हुआ है । जिसको सातवीं मंजलसे तूने गिराया और देवताने बचाया था । और जो तेरी चार पुत्रएं हैं, वे पूर्वभवमें वैताढय पर्वतमें विद्याधर राजाकी पुत्रियां थी। अनुक्रमसे यौवनावस्थाको प्राप्त हुई, तब एकदा बागमें क्रीडा करनेको गई, वहां साधुको देखे । साधुने उनको कहा कि-हे कुमारिकाओ! तुम धर्म करो। तब उन्होंने कहा, हमसे धर्मकरणी नहीं होती। फिर साधुने कहा, तुम्हारा आयुष्य स्वल्प रहा है, अतः धर्मकरणीमें प्रमाद मत करो। यह सुन कर उन पुत्रियोंने पूछा कि, हमारा आयुष्य कितना बाकी रहा है ? साधुने कहा, आठ प्रहर शेष रहा है । पुत्रियां कहने लगी, इतने अल्प कालमें क्या पुण्य करें ? मुनिने कहा, आजही शुक्ला पंचमी है अतः ज्ञानपंचमीका तप करो। ऐसा करनेसे तुम सुखी हो जाओगी । कहा है किः जे नाणपंचमिवयं उत्तमजीवा कुणंति भावजुया । उवभुंज अणुवमसुहं पावंति केवलं नाणं ॥ ऐसा उपदेश सुन कर उन पुत्रियोंने घरमें आ क Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९) मातपिताके आगे बात कही। आज्ञा ले कर, गुरुके दर्शनसे आजका दिन सफल मान कर देवपूजा की, पुण्यकी अनुमोदना की और पञ्चखाण लेकर अपनी आत्माको कृतार्थ माना। वे चारों पुत्रिएं एकही स्थानमें बैठीथीं। उस असेंमें विद्युत्पात हुआ, जिससे चारों पुत्रिएं मृत्यु पा कर देवता हुई। वहांसे चव कर तेरी पुत्रिएं हुई हैं। केवल एकही दिन तप करनेका यह फल हुआ। यह बात सुनतेही राजा, रानी और उनके पुत्र-पुत्रियों को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्वके भव याद आये, जिससे वैराग्य पा कर श्रावकधर्म अंगीकार किया और अपने घरको आये। फिर एकदफे वासुपूज्य भगवान् आ कर समोसरे। उनको राजा तथा रोहिणी राणी परिवार सहित वंदना करनेको गये। वहां प्रभुकी देशना सुन कर घरको आये और पुत्रको राज्यपाट देकर, सात क्षेत्रोंमें धन लगा या और चारित्र अंगीकार कर, दोनों मोक्षमें गये । कहा है : रोहिणी पंचमी तप तणां गिरुवां ए फल जाण । दुःख न होय सुख होय सदा बोले केवली वाण ॥९॥ अब तीसवीं गाथाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैं : महुघाय अग्गिदाहं अंकं वा जो करेइ पाणीणं । बालारामविणासी सो कुट्ठी जायए पुरिसो ॥ ४५ ॥ अर्थात्-जो पुरुष मध और मधपुडा गिरावे, महुपा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) लका आरंभ करे, तथा अग्निदाह यानि दावानल प्रकटावे अथवा प्राणियोंको अंकित करे लंछित करे, पशुओंको डाम दे, तथा सूक्ष्म वनस्पतिकायका विनाश करे, कूणी वनस्पतिको छेदे, भेदे, तोडे, मोडे, खूटे, चुटे, वह पुरुष भवांतरमें कुष्ट रोगी होता है । जिस प्रकार गोविंदपुत्र गोसलीया मध आदि संचित करने के हेतु पाप करके पद्म सेठका पुत्र गोरा नामक वणिक् महा कुष्टी हुआ (४५) उस गोसलकी कथा कहते है : . “पेठाणपुर नगरमें गोविंद नामक गृहस्थ रहता था। उसकी गौरी नामा स्त्री थी, उसका गोसल नामक पुत्र महा दुर्व्यसनी था। अकेला वनमें जो कर लकडीसे मधपुडेको गिराता । जहां ससलादिक जीव विशेष रहते, वहां दावानल प्रकटाता-अग्नि जलाता; बेल, गौ; व घोडेको अंकित करता, कोमल नये पौदो व कुंपलको छेदता, उन्मूलन कर डालता, ऐसे कृत्योंको करता हुआ देख कर लोगोंने उसके बापको ओलंभा दिया, तब बापने उसे शिक्षा दी, परंतु वह सब राखमें डालनेकी तरह निष्फल गइ। वह पुत्र मातपिताको भी खेदका कारण हुआ । धर्मकी तो बात भी वह नहीं जानता था । उस असेंमें उसके मातपिता देवशरण हुए। तब तो वह गोसल निरंकुश हाथीकी भांति उच्छृखल हो कर फिरने लगा। एक दिन नगरके उपवनोमें जा कर नारिंगादिकके वृक्षोंको उन्मूलन कर दिये । उसको कोटवालने देखा। बांध कर राजाके पास ले आया । राजाने उसका सर्व धन ले कर छोड दिया। फिर भी एक दिन गुप्तरीत्या राजाके बा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) गमें जा कर अनेक प्रकारकी कोमल वनस्पतिको काट डाली । उसको वनपालकने देखा, तब खूब पीट कर उसको राजाके पास ले गया और वनपालकने विज्ञप्ति को कि महाराज ! इसने तुम्हारी वाडीका विनाश किया है । राजाने उसके दोनों हाथ कटवा डाले, जिससे महा दुःखी हुआ । पुनः उसने बहुतही पश्चात्ताप किया, कहा है : माय बाप मोटा तणी शीख न माने जेह । कर्मवशे पडिया थकां पछी पस्ताये तेह ॥१॥ फिर वह गोसल आत्मनिंदा करता हुआ मृत्यु पा कर उसी नगर में पद्मसेठके वहां गोरा नामक पुत्र हुआ । वह जन्मसेही रोगी व गलतकुष्टी हुआ। उसके नख और नाक बैठे हुए, भ्रकुटीके केश सडे हुए और दांत गिरे हुए थे, निरन्तर मक्खियां गनगनाट करती हुई शरीरके ऊपर बैठीही रहती थी । दुर्गंध तो इतनी निकलती थीं कि किसीसे सहन नहीं हो सकती । पिताने अनेक औषध किये पर वह सर्व व्यर्थ गये । कष्ट नष्ट न हुआ और रोगकी शान्ति न हुई । एकदा दमसार नामक ज्ञानी मुनि उस नगरके वनमें पधारे । उनको वंदना करनेके लिये बंगरवासी जनको : जाते हुए देख कर पद्मसेठ भी उसके साथ गया । वहां साधु मुनिराजने धर्मदेशनामें कहा कि-जीव अपने किये हुए कर्मके वशीभूत हो कर दुःखी होता है । यह श्रवण कर पद्मसेठने पूछा कि हे भगवन् ! मेरे पुत्रने कौनसे पाप किये हैं ? गुरुने उसको पूर्वी गोविंदका सर्व वृत्तान्त' सुना कर कहा कि वह गोर्सले मर कर तेरा पुत्र हुआ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) है। पद्म सेठने घर आ कर अपने पुत्रको कहा कितूने पूर्वभवमें बहुत पाप किये हैं। वह सुनतेही उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ | फिर मुनिराजके पास आये । उनको वंदना करके व पापकी निंदा करके उसने अनशन किया । मृत्यु पा कर प्रथम देवलोकमें देवता हुआ।" अब एकत्तीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैं : गोमहिसखरं करहं अइभारारोवणेण पीडेइ । एएण पावकम्मेण गोयमा सो भवे खुज्जो ॥ ४६ ।। अर्थात्-बैल, भेंस और ऊंटादिके ऊपर लोभसे अतिभार आरोपण करे और उनके जो पुरुष उक्त जीवोंको पीडा करे, वह जीव निष्केवल इसी पापकर्मके उदयसे निश्चयसे हे गौतम ! खुजो यानि कूबडा होता है । जिस प्रकार धनावह सेठका पुत्र धनदत्त पूर्वभवमें अनेक जीवोंके ऊपर भार वहन करा कर कृबडा हुआ (४६) यहां धनदत्त और धनश्रीकी कथा कहते हैं। “भूमिमंडन नगरमें शत्रुदमन नामक राजा राज्य करता था। वहां धन्ना नामक सेठ रहता था, उसकी स्त्रीका नाम धीरू था। किरायेका पेशा (व्यवसाय) करके आजीविका चलाता था। उसने अपने यहां पोठ, ऊंट, रासभ और महिषोंका संग्रह किया था । वह सेठ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) लोभके वशीभूत हो कर अबोल प्राणियोंके ऊपर उनकी शक्तिसे अधिक भार भरता था और बहुत किराया ले कर निर्वाह करता था । एकदिन कोई मुनिराज गौचरीके निमित्त उसके घरको आये । उनको स्त्री भरतार दोनोंने मिल कर भावसे दान दिया । जिसके योगसे शुभकर्म उपार्जन करके वह उसी नगरीमें धनावह सेठके यहां धनदत्त नामक पुत्र हुआ । वह वणिजकला जानता था परन्तु पूर्वभवमें जीवोंके ऊपर अत्यंत भार भरता था, जिसके योगसे कूबडा हुआ । उसी नगरीमें धनसेठ रहता था, वह मर कर उसके वहां पुत्री रूपमें उत्पन्न हुआ । उसका धनश्री नाम रखा । वह कन्या बहुत रूपवंत और गुणवंत थी । यौवनवयको प्राप्त होने पर पूर्वभव के स्नेहसे वह धनदत्त कूबडाके साथ शादी करना चाहती थी । पुनः उसी धन्ना सेठको एक दूसरी पुत्री हुइ थी, परन्तु कर्मके योगसे वह कुबडी थी । एकदा उसके पिता के समक्ष किसी निमित्तियाने कहा कि जो मनुष्य तेरी पुत्री धनश्री के साथ शादी करेगा वह बडा व्यवहारी होगा । ऐसी बात सुन कर धनपाल नामक किसी सेठने धनश्रीकी याचना की । धनश्रीके पिताने उस बातको मान्य किया तथा दूसरी जो कूबडी लडकी थी वह धनदत्तको देनेका । निश्चय किया । और दोनों कन्याओंकी शादीका मुहूर्त्त एकही लग्नमें लिया । अब धनश्रीने पूर्वभव के स्नेहवशात् धनदत्त कूबडेके साथ विवाह करनेकी वांछासे मनोरथपूरक नामक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) किसी यक्षका आराधन किया। यक्षने संतुष्ट हो कर मांग, मांग,' ऐसा तीन दफे कहा । धनश्रीने कहा कि जिस प्रकार मेरा पति धनदत्त होवे ऐसा आप उपाय कीजिये । तब यक्षने कहा कि-तेरे पिताने दोनों पुत्रियोंका एकही दिन एकही लग्नमें विवाह करनेकी इच्छा की है, उस समय मैं दृष्टिबन्धन करूंगा, तूने धनदत्तके साथ पाणिग्रहण करना, फिर जब वह तेरा पाणिग्रहण करके तुझे अपने घरको ले जायगा, तब मोह दूर होगा । ऐसा कह कर यक्ष अदृष्ट हो गया। अब विवाहके दिन दोनों वर साथही व्याहने को आये । यक्षने सर्वको मोहित किया। दोनों विवाह करके अपने २ घरको आये। तब धनदत्त तो धनश्रीको अत्यंतही सुरूपा देख कर हर्षित हुआ और धनपाल अपनी परिग्रहिता स्त्रीको कुबडी देख कर उदास हो कर मनमें विचार करने लगा कि-यह कैसी इंद्रजाल हो गइ ! मतिविभ्रम कैसे हो गया ! यह बात राजाने सुनी और गांवलोगोंने भी जानी । लोगोंके समूह मिल कर बातें करने लगे। फिर दोनों वर खीके लिये परस्पर कलह करते हुए राजाके पास गये । राजाने उनको वापिस अपने २ घरको भेज दिये । और धनश्रीको बुला कर एकान्तमें पूछा कि, धनदत्त कूबडा है, वह तेरेको प्रिय न होगा, अतः सचमुच कह कि-तू किसके साथ व्याही है ? यह श्रवण कर धनश्रीने राजाके पास यथातथ्य बात कह दी कि-मैंने मोहके वश हो कर अवश्य इस धनाव हके पुत्रके साथ शादी करनेके लिये ही यक्षका आराधन किया था, वह संतुष्ट हुआ, उसके सानिध्यसे मैं धनदShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) तके साथ ब्याही हुं और मेरी कबडी बहिनको यक्षने धनपालके साथ ब्याही है। अब जैसा युक्त होवे वैसा करिए । देवताने जो किया वह अन्यथा किस तरह हो सकता है ? अतः मुझे यह कबडाही भरतार रहनेदीजिये। फिर राजाने कई सजनोंको बुला कर सर्व वृत्तांत कह सुनाया । वे भी सब समझ कर घरको चले गये । एकदिन उस नगरके वनमें धर्मरुचि नामक आचार्य चार ज्ञानके धारक आ कर समोसरे । उनको वंदना करनेके लिये सब लोक गये, उसके साथ धनदत्त भी अपनी बी सहित गया । मुनिको वंदन कर धनदसने पूछा कि हे भगवन् ! किस कर्मके योगसे मैं कवडा हुआ। और किस कर्मके योगसे मेरी स्त्री धनश्रीका मेरे ऊपर बहुतही स्नेह है ? तथा किस शुभकर्मके योगसे मुझे बहुत लक्ष्मी-सुख-सौभाग्य मिला है ? सो मेरे पर कृपावंत हो कर कहिए । गुरु बोले कि-हे धनदत्त ! तू पूर्वभवमें धन्ना था और धनश्रीका जीव धीरू नामा तेरी स्त्री थी, तूने बैल व रासभादिकके ऊपर बहुत भार भरा था, जिससे तू कुबडा हुआ, ओर भावसे साधुको दान दिया, जिप्तके योगसे लक्ष्मीका योग अखंड रहा। गतभवमें तुम दोनों स्खी भरतार थे, जिससे तुम्हारा स्नेह भी अखंड रहा है। ऐसी बात सुननेसे दोनोंका जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । पूर्वभव देखे । फिर सम्यक्त्व मूल बारह व्रत अंगीकार करके मुनिको वंदना करके घरका पहुंचे। अनुक्रमसे धर्म पालते हुए, सुपात्रको दान देते हुए आयु पूर्ण करके देवलोक देवता हुए।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६ ) अब बत्तीसवें प्रश्नका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैं। जाइमओ उमत्तमणो जीवे विकिणइ जो कयग्योय । सो इंदभूइ मरिउं दासत्तं वच्चए पुरिसो ॥ ४७ ॥ अर्थात्-जो जीव जातिमद करे, अहंकार करे यानि जाति कुलादिकके मदसे मदोन्मत्त-उन्मत्त होवे तथा जो मनुष्यादिक जीवोंको बेचे और कृतघ्न होवे अर्थात् अन्यके किये हुए उपकारोंको भूल जावे, परनिंदा करे, आत्मप्रशंसा करे, अन्य प्रशंसनीय व्यक्तिके गुणोंको प्रकट न करे किसी गुणवानकी प्रशंसा न करे, अन्यके अविद्यमान दोष कहे, वह मनुष्य नीचगोत्रकर्म उपार्जन करता है। और है इंद्रभूति ! हे गौतम ! वह पुरुष मर कर दासत्व को प्राप्त होता है, जिस प्रकार हस्तिनापुरमें सोमदत्त पुरोहित पदभ्रष्ट हो कर-मर कर डुंबपुत्र हुआ (४७) उसकी कथा कहते हैं : “ कुरु देशके हस्तिनापुर नगरमें सोमदत्त नामक पुरोहित रहता था । उसको अनेक मनोरथोंके पश्चात् एक बलभद्र नामक पुत्र हुआ। वह ब्राह्मण जातिके मदसे दूसरे लोगोंको तृण समान गिनता था । नगरमें चलते हुए रास्तेमें पानी छांट कर चलता। राजपुत्रका स्पर्श होता तो तो स्नान करता, प्रायश्चित्त कर लेता । इस प्रकार ब्राह्मणोंके अतिरिक्त इतर जातियोंके ऊपर द्वेष धारण करता और उनकी निंदा करता हुआ केवल अपनी जातिकीही प्रशंसा करता था। लोक . उसकी बहुत हांसी करते, परन्तु उसको जराभी लजा नहीं आती । इस प्रकार वर्तन पुरोहित नामक पुत्र हुभान गिनता यापुत्रका स्पर्श जाणों के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2009) करके वह पुत्र अपने मातपिताकोभी अत्यंत खेदका कारणभूत हुआ । उसके पिताने उसे कहा कि हे वत्स ! लोकव्यवहारही अच्छा है, कर्मके वश ब्राह्मण भी हीन जातिको प्राप्त करता है, अतः किसी जीवके लिये जाति शाश्वत नहीं है । इस वास्ते मद नहीं करना और यदि करना तो केवल इतनाही कि जिससे लोक हांसी न करे । इत्यादि शिक्षा उसका पिता देता था, परन्तु वह मानता नहीं । उन्मत्त हाथीकी तरह खुमारीमें जातिका अभिमान करता ही रइता । उसका पिता जब देवशरण हुआ तब राजाने, पुरोहितका पुत्र अहंकारी था इस लिये, अयोग्य जान कर उसके पिताके पद पर स्थापित नहीं किया । दूसरेको पुरोहित पद प्रदान किया । इस भांति मदके करनेसे यहांही पदभ्रष्ट हुआ और लोकमें हांसी हुई । लोगोंने उसका ब्रह्मदत्त ऐसा नाम रक्खा । पदवीके जानेसे निर्धनी हो गया । कृतघ्नी हुआ । तब गौएं, बैल आदि बेच कर उदरपूर्ति करने लगा । सब लोक उसकी निंदा करने लगे । एकदिन गौंओंको घास डालता हुआ देख कर किसी ने उसको कहा किहे ब्रह्मदत्त । ये तृण, कि जिनको तू स्वहस्तसे उठा रहा है. उन सब तृणोंको मातंगीने पैरोंके नीचे कुचले हुए है, जिससे तेरेको दोष नहीं लगता है क्या ? अनेक रीतिसे लोक उसकी हांसी करने लगे, क्रोधित हो कर गांव छोड कर चला गया । रास्ता भूल गया । वहां पर डुंबोको देख कर कर के हनने लगा, तब डुंबने कोप करके ब्रह्मदत्तके पेटमें छुरा मारा, जिससे वह मृत्यु पा कर डुंबाके वहां पुत्र इस प्रकार जिससे वह चलते हुए आक्रोश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) रूपसे उत्पन्न हुआ। वह भी काना,कुरूप, काला और दुर्भागी हुआ। वह राजालोगोंका दासत्व करता और मनुष्यको शूली 'पर चढाकर वध करनेका कार्य करता। वहांसे मृत्यु पा कर पांचवी नर्कमें नारकी हुआ। वहांसे निकल कर मत्स्य हुआ । वहांसे पुनः नरकमें गया। इस प्रकार अनेक भवभ्रमण करके जब मनुष्यगतिमें उत्पन्न होता तब भी नीच कूल में ही उत्पन्न हो कर दासत्व करता । पक समय वह अज्ञानतपके बलसे ज्योतिषी देवमें उत्पन्न हुआ। वहांसे चव कर पद्मखंड नगर में कुंददंता नामकी वेश्या के वहां पुत्र रूपसे उत्पन्न हुआ। उसका नाम मदन रक्खा । वहां बहुत्तर कला सीखा । परोपकारी, दक्ष, दयालु, लज्जालु, गंभीर, सरल, प्रियवादी और सत्यवादी हुआ । जैसे उत्तम गुण उसमें थे वैसेही गर्वभी नहीं करता । जब लोक उसे गणिकाका पुत्र कह कर बुलाते तब दुःखी हो कर सोचता कि, मैंने पूर्वभवमें पाए किये हैं, जिससे विधाताने मेरेको गणिकाके वहां जन्म दिया। जिससे मैं इतने गुणोंका धारक होने पर भी नातिहीन हुआ हुँ। अथवा अमृतमय जो चंद्रमा है वह भी कलंकित है तथा रत्नाकर जो समुद्र है वह अनेक रत्नोंसे भरपूर होने पर भी उसका पानी खारा है, इसी प्रकार जहां गुण होते हैं वहां दोष भी होते ही हैं। एकदा उस नगरमें केवली भगवान् पधारे । उनको वंदनाके लिये मदन गया । वंदन कर उसने पूंछा कि-है भगवन् ! मेरेमें कुछ उत्तम गुण होने पर भी मैं किस कर्मके उदयसे हीन जातिमें उत्पन्न हुआ हुँ ? भगवानने पीठले भवोंका स्वरूप कह सुनाया और कहा कि तूने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०९ ) जातिकुलका मद किया तथा परनिंदा की, जिसके पापसे गणिका के वहां उत्पन्न हुआ । तब मदनने कहा कि हे भगवन् ! यदि मेरेमें योग्यता हो तो मुझे दीक्षा दीजिये । केवलज्ञानीने उसे योग्य समझ कर दीक्षा प्रदान की । साधु समाचारी सीखाई। फिर दुष्कर तपकरके व अनशन करके देवता हुआ । अनुक्रमसे कर्म क्षय करके मोक्षसुखको प्राप्त किया । "" अब तेतीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथा के द्वारा कहते हैं विणयविहीणो चरित्तवज्जिओ दानगुणविकत्तो य । मणसा य दंडजुत्तो पुरिसो दरिद्दिज्जो होइ || ४८|| अर्थात् - जो पुरुष विनय करके हीन होता है तथा चारित्रवर्जित एवं दान गुणसे वियुक्त होता है यानि दानगुणरहित होता है तथा मनोदंड, वचनदंड और कायदंड इन तीन दंडों करके युक्त यानि मनसे आर्त्तध्यान रोद्रध्यान चितवे, एवं वचनसे दुर्वचन बोले, लोगोंको कुबुद्धि देवे, और कुचेष्टा करे, ऐसा पुरुष मर कर दरिद्री होता है ॥ ४८ ॥ - जैसे हस्तिनापुर में सुबंधु सेठका मनोरथ नामक पुत्र अविनीत व अविरति दशा में हुआ । इसका निष्पुण्य ऐसा नाम जिसकी कथा कहते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat मर कर दरिद्री रक्खा गया था । www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) " हस्तिनापुर नगरमें अरिमर्दन नामक राजा राज्य करता था । उस गांवमें सुबंधु नामक सेठ रहता था। उसकी बंधुमती नामक भार्या था, उसे बहुत मनोरथके पश्चात् एक पुत्र हुआ, अतएव उसका मनोरथ ऐसा नाम रक्खा । वह जब बडा हुआ तब उसका पिता उसे देवगुरूको नमस्कार करनेको कहते, परन्तु वह स्तब्ध हो खडा रहता, प्रणाम नहीं करता । उसको शालामें पठनार्थ भेजा, वहां भी एक हरफ नहीं सीखा । पिताने बडोंका विनय करनेकी शिक्षा दी तो भी किसीका विनय नहीं करता । अतः जिसका जो स्वभाव होता है वह किसी प्रकार मिटता नहीं। एकदिन उसका पिता उसे गुरुके पास ले गया । गुरुको कहा कि-इसको प्रतिबोध दीजिये । गुरुने मनोरथको कहा कि-हे वत्स! व्रत-पञ्चक्खाण-नियम करनेसे बहुत फल होता है । अतः तेरी इच्छाके अनुसार कुछ नियम ले । मनोरथने कहा कि-मेरेसे नियम पलते नहीं। गुरुने कहा कि-ऐसा है तो फिर तू दान देनेका व्यसन रख, मनोरथने कहा, मैं दान भी नहीं कर सकता। तत्पश्चात् इसका पिता मर गया। मनोरथ बडा ही कृपण था जिससे उसके घरमें कोइ भिखारी भी याचना करनेको नहीं आता। एकदिन वह एकाकी ग्रामान्तरको जा रहा था, उसे मार्गमें चोर लोगोंने मार डाला, पासमें जो कुछ धन था, वह सब चोर ले गये । मर कर दरिद्रीके कुलमें जा कर पुत्ररूपसे उत्पन्न हुआ। वहां निष्पुण्यक ऐसा नाम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९१ ) रखा । बडा हुआ, तब लोगोंके ढोरोंको चारता, हल खेडता, लोगोंकी सेवा करता, दास हो कर रहता, महिनत मजदूरी करता, और शीर पर बोज वहन करता, तो भी पेट भरना दुर्लभ होता । एकदफे धन कमानेके लिये देशान्तरको चला, वहां लक्ष्मी प्राप्त करने के अनेक उपाय किये, परंतु कर्मयोगसे दरिद्रीही रहा । अब वहां एक षण्मुख नामक देव था, उसके ऊपर लोगोंका बहुत विश्वास था, उसके समक्ष धनप्राप्तिके लिये उपवास करके बैठा । सातवें दिन देव प्रत्यक्ष हो कर बोला कि-तू उपवास किस वास्ते कर रहा है ? तब दरिद्रीने कहा कि-लक्ष्मीके लिये करता हुँ । देवताने कहा कि-लक्ष्मीका मिलना तेरे भाग्यमें नहीं है । दरिद्री बोला कि-तब तो मैं यहां ही मरना चाहता हूं। ऐसी उसकी हठ जान कर देवताने कहाप्रभातमें यहां सुवर्णका मोर नृत्य करेगा, वह नित्यप्रति एक पिच्छ सुवर्णका छोड देगा, वह तू ले लेना । ऐसा कह कर देव अदृश्य हुआ। प्रातःकालमें सुवर्णका एक पीछ मिला, इस प्रकार नित्य प्रति एक पीछ लेते २ एकदा दरिद्रीको कुबुद्धि उत्पन्न हुई और विचार किया कि, इस जंगलमें कहां तक रहे ? अतः इस मोरको पकड कर एकही साथ उसके सर्व पीछ ले लूं । ऐसा सोच करके मयूरको पकड लिया, कि शीघ्रही मयूरका काग हो गया, और देवताने आ कर दरिद्रीको लातका प्रहार किया, जिससे वह गिर गया। शुरूसे मयूर के जितने पीछ लिये थे ___Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) वे सर्व कागके पीछ हो गये । कहा है कि “ बुद्धिः कर्मानुसारिणी उतावल कीजे नही कीधे काज विणास । मोर सोनानो कागडो करी हुओ घरदास ॥१॥ फिर वह खुदही खुदकी निंदा करता हुआ झंपापात करनेके लिये पर्वतके ऊपर चढा, वहां एक साधुको देखा, तब मनमें विचार करने लगा कि मैं इनको धनप्राप्तिका उपाय पूर्छ । ऐसा चितन करके उनको वंदना की, तब 'ऋषिने कहा कि तूने देवका आराधन किया, वहां मोरका काग हुआ। जिसे अब तू यहां झंपाणत करनेको आया है । यह श्रवण कर आश्चर्य पा कर विचार किया कि देखो इस ऋषिका कैसा ज्ञान है ! फिर साधुको कहने लगा कि महाराज ! मुझे धनप्राप्तिका उपाय बतलाइये । ज्ञानीने कहा कि तूने पूर्वभवमें किसी नियमका पालन नहीं किया है, विनय नहीं किया है और किसीको दान भी नहीं दिया है, जिसके योगसे तू दरिद्रि हुआ है । एसी बात सुनते हुए जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे पूर्वके भव देखे । तब वैराग्य पा कर दीक्षा ली। फिर अच्छी तरह संयमाराधन करके देवलोकमें देवता हुआ " अब चोत्तीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते है जो पुण दाइ विणयजुओ चारित्तगुणसयाइन्नो। __ सो जणसयविरकाओ महडिओ होइ लोगंमि ॥४९॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-जो पुरुष चाइ यानि त्यागी होता है, दातार होता है, विनययुक्त होता है और चारित्रके गुणसे युक्त होता है, वह पुरुष सेंकडों सजन लोगोंमें विख्यात होता है अर्थात् महद्धिकोंमें प्रसिद्ध होता है । जिस प्रकार साकेतपुर पट्टनमें स्वल्प ऋद्धिका धारक धनमित्र सेठका पुण्यसार नामक पुत्र हुआ। उसने पूर्वकृत पुण्यके योगसे घर में चार निधान देखे, सो राजाने ले लिये और फिर उसे वापिस दे दिये । उसकी कथा कहते हैं : " साकेतपुरमें भानु मित्र राजा राज्य करता था। वहां धन मित्र नामक सेठ रहता था। उसे धन मित्रा नामा भार्या थी। दोनों सुखमय जीवन निर्गमन करते थे । एकदा धनमित्रा स्त्रीने रात्रिके समय सोते हुए स्वप्नमें रत्नोंसे भरा हुआ सुवर्णका पूर्ण कलश मुख में प्रविट होता हुआ देखा । फिर जागृत होकर पतिके समक्ष बात कही, भरतारने विचार कर कहा कि-तुझे कोइ महाभाग्यशाली पुत्र होगा । यह सुनकर स्त्री अत्यंत हर्षवंत हुई। अनुक्रमसे पूर्ण मास होने पर पुत्रका प्रसव हुआ। वधाइ देने वालोंको पारितोषिक दिया। पुत्रका पुण्यसार नाम रक्खा। वयके साथही साथ रूप और गुणकी भी वृद्धि होने लगी। सर्व कलाओंको सीखा, यौवनवयमें एक व्यवहारिकी धन्या नामक कन्याके माथ विवाह किया। एकदा पुण्यसार रात्रिके समय सुखनिद्रामें सोया हुआ था, उस समय लक्ष्मीदेवीने आ कर कहा कि-हे 8 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) पुण्यसार ! मैं तेरे घरको आउंगी। फिर स्वप्नमें घरके चारों कोने में रत्नोंसे भरे हुए सुवर्णके कलश रूप चार निधान देखे । तब पुण्यसारको मालूम हुआ किदेवीने जो कहा था वह सत्य हुआ, परन्तु यदि किसी दुर्जनके वचनसे राजाको यह हाल विदित हो जायगा तो अनर्थ होगा, अतएव पहलेसे मैं खुद ही राजाको यह हाल निवेदन करूं। ऐसा सोच करके राजाके पास निधानका स्वरूप कहा। यह देखनेके लिये राजा खुद पुण्यसारके वहां आया। भंडार देखकर विस्मित हुआ। वहांसे उठवा कर अपने भंडारमें सर्व द्रव्य भेज दिया। फिर दूसरे दिन भी प्रभातके समय पुण्यसारने चार भंडार देखे, और राजाके पास जा कर बात कही। वह भी राजाने पुण्यसारके वहांसे मंगवा कर अपने भंडारमें स्थापित किये । पुनः तीसरे दिनको भी उसी अनुसार चार भंडार देखे और राजाके समीप जा कर जाहिर किया कि महाराज! मेरे यहां उसी प्रकार और भी चार भंडार आये हुए हैं। तब राजाने उनको भी अपने भंडारमें रखवानेका हुकम किया। तब प्रधान बोला कि महाराज! आगे आपने जो दो निधान मंगवा कर भंडारमें रखवाये हैं सो यहां पर मंगवाइये। राजाने भंडार खुलवा कर देखा तो उसमें निधान नहीं थे, तब राजाने कहा कि-ये तो जिसके पुण्ययोगसे निधान आये थे उसीके वहां रहेंगे, मेरे पास रहने वाले नहीं। मैं लोभाधीन हो कर यहां लाया, मगर मेरा वह प्रयास व्यर्थ हुआ। फिर राजाने उस भंडारगत सर्वद्रव्य पुण्यसारको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९५) दे कर नगरशेठका पद प्रदान किया। वस्त्र, मुद्रिका आदि पहनाये, और बडे बाजे गाजेके साथ सपरिवार पुण्यसारको घर पहुंचाया। फिर पुण्यसारका महत्व दिनप्रतिदिन वृद्धिंगत हुआ। अपनी लक्ष्मीसे पुण्यकार्य साधता रहता था, परन्तु गांठमें नहीं बांधता था। एकदा उस नगरके उद्यानमें सुनंद नामक केवली भगवान् समोसरे। उनको राजा सपरिवार तथा पुण्यसार सेठ भी अपने माता, पिता, स्त्री और अन्य मनुष्योंके साथ वंदन करनेको गये। वंदना नमस्कार कर बैठे। केवलीने धर्मोपदेश दिया। फिर धनमित्र सेठने पूछा कि-हे भगवन् ! मेरे पुत्रने पूर्व भवमें कैसे पुण्य किये हैं कि-जिनके प्रभावसे यह लक्ष्मी, राज्यमान, सौभाग्य व महत्त्वको प्राप्त हुआ ? तब गुरुने कहा कि-पूर्व कालमें इसी नगरमें धनकुमर सेठ था, उसने गुरुके समीप जा कर बाइस अभक्ष्य और बत्तीस अनंतकायके नियम लिये, सुपात्रोंको दान दिया, देव, गुरु और वडिलोंकी भक्ति एवं विनय किये, श्रावक धर्म पालन किया, वृद्धावस्था में दीक्षा ली, सिद्धान्तोंका पठन किया, तपश्चर्या की, क्षमा उपशमादिक अनेक गुणोंको धारण किये, और प्रांते अनशन ले कर आयुष्य पूर्ण करके तीसरे देवलोकमें इंद्र सामानिक देवता हुआ। वहां देव सम्बन्धी भोग भोग कर. वहांसे चव कर पुण्यके प्रभावसे तेरा पुत्र हुआ है। पूर्व पुण्यके योगसे वह लक्ष्मी महत्त्वादिकको पाया है। यह बात सुनकर पुण्यसारको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्वके भव देखे.। फिर कुटुंब सहित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६) श्रावक धर्म अंगीकार करके अपने घरको आया। नित्य देवपूजा करता, नवकारका जाप करता, गुरुवंदन करता और दान देता । फिर एकदा अपने पुत्रको योग्य जान कर उसको घरका भार सुपुर्द किया और अपने सेठ पद पर स्थापित किया। पश्चात् पुण्यसारने सुनंद नामक गुरुके पास दीक्षा ली । निरतिचारपणे चारित्रधर्मका पालन कर देवता हुआ। वहांसे चव कर पुनः मनुष्य जन्म पा कर मोक्ष सुख संपादन करेगा।" जिण पूजे वंदे गुरु भावे दान दियंत । पुण्यसार जिम तेहने ऋद्धि अचिंति हुँत ॥१॥ अब पेंतीसवीं व छत्तीसवीं पृच्छाका उत्तर दों गाथाओंके द्वारा कहते हैं । वीसत्थघायकारी सम्ममणालोइऊण पच्छितो। जो मरइ अन्नजम्मे सो रोगी जायए पुरिसो ॥५०॥ वीसत्थ रक्खण परो आलोइअ सब पावठाणो य । जो मरइ अन्नजम्मे सो रोग विवन्जिओ होइ ॥५१॥ अर्थात्---जो मनुष्य विश्वासघात करता है और सम्यक् मनसे अर्थात् शुद्ध मनसे शुद्ध आलोयणा नहीं लेता, वह पुरुष मर कर अन्य जन्ममें यानि भवान्तरमें रोगी होता है (५०) तथा जो पुरुष विश्वासीकी रक्षा करने में अग्र होता है और अपने किये हुए पापस्थानकोंको शुद्ध मनसे आलोचता है, वह भवान्तरमें रोग विवजित होता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७) है-निरोगी होता है (५१) इन दोनोंके ऊपर अट्टणमल्लकी कथा कहते हैं। "उज्जयनी नगरीमें जितशत्रु राजा राज्य करता था । उसके पास अट्टणमल्ल नामक महामल्ल था। इधर सोपारा नगर में सिंहगिरि नामक राजा था, वह प्रतिवर्ष मल्लयुद्ध करवाता, मल्लयुद्ध में जो कोइ जीतता उसको बहुत धन देता था । अट्टणमल्ल दूसरे मल्लोको जीत कर वहांसे शिरपावमें बहुत धन ले आता था। एकदा सिंहगिरि राजाने सोचा कि-उजयनीका मल्ल आ कर प्रतिवर्ष जीत जाता है यह अच्छा नहीं है, अत: उसका कुछ उपाय करें। फिर एक बलवान् माछीको देखकर राजाने उसको अपने पास रख कर मल्लयुद्ध सीखाया। मलीदा खिला पिला कर पुष्ट किया। फिर मल्लमहोत्सवके दिन अट्टणमल्लने आ कर युद्ध किया उसको तरुण माछीने पराजित किया । राजाने माछिको द्रव्य दिया । अट्टण वापिस लौटा । उसने सोरठ देशमें एक महा बलवान् फलिह नामक कोलीको देखा, उसको कुछ धन देना निश्चित करके उज्जयनीमें ले गया। वहां उसे मल्लविद्या सीखाइ । पुनः सोपारा नगरमें परीक्षाके समय ले आया, वहां सभामें मल्लमहोत्सव सम्बन्धी वाजित्र बाजते, शंख पूरते, बंदिजन जय जय बोलते, फलिहमल्ल और माछीमल्ल ये दोनों परस्पर झूझते, नाचते, हसते, एक दूसरेको मुष्टिप्रहार देते और गिरते हुए अपने २ स्थानक प्रति गये। वहां अट्टणमल्लने फलिहमल्लको पूछा कि-तेरेको युद्ध करते हुए कहिं अंगमें पीडा हुइ हो तो कह । उसने यथार्थ कह दिया, कि अमुक २ अंगमें दर्द होता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८ ) तब अट्टणमल्लने फलिहमल्लको अभ्यंगस्नान कराके इसका शरीर ताजा कर दिया । यश विस्तराड कर मार गया, और फलियुद्ध अब राजाने माछीमल्लको पूछा कि-तेरे अंगमें कहां दर्द होता है ? मगर मारे शरमके माछीने यथार्थ बात न कहते हुए अंगमें दर्द होनेकी बात को छुपाया । फिर दूसरे दिन सभामें सब लोगोंके समक्ष दोनों मल्लयुद्ध करने लगे। वहां माछीमल्ल थक गया, और फलिहमलने उसकी ग्रीवा मरोड कर मार डाला। जिससे फलिहमल्लका यश विस्तृत हुआ, और पारितोषिक भी मिला। इस प्रकार अट्टणमल्लके आगे वह यथास्थित स्वरूप कह कर सुखी हुआ, और माछीमल्लने यथास्थित स्वरूप न कहा, जिससे दुःखी हुआ। इस दृष्टांतको श्रवण कर जो कोइ गुरुके पास सत्य कह कर आलोयणा लेता है, वह अट्टणमल्ल फलिहमल्लकी तरह सुखी नीरोगी होता है और जो कोइ गुरुके पास आलोयण लेते हुए सत्य बात नहीं कहता वह माछीमल्लकी तरह रोगी हो कर दुःखी होता है। कहा है: पाप आलोवे आपणुं गुरु आगल निःशंक । नीरोगी सुखीया हुवे निर्मल जेहवो शंख ॥ १ ॥ अब सेंतीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते है लहु हत्थयाइ धुत्तो कूडतुलाकूडमाणभंडेहिं । ववहरइ नियडि बहुलो सोहीणंगो भवे पुरिसो ॥५२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११९ ) अर्थात् जो धूर्त, हस्तादि लाघवसे झूठे तो व झूठे मापसे तथा कुंकुम कपूर मजीठ भेलसेल करके डे करियाका व्यवसाय यानि व्यापार करता है, एवं निकृतिबहुल अर्थात् मायावी हो कर बहुत पाप करता है वह पुरुष भवान्तर में यदि मनुष्य होता है तो भी हीन अंगवाला होता है । जिस प्रकार ईश्वर सेठका पुत्र दत्त नामक था, वह पूर्वभवमें कूडे तोल, कूडे माप और कूडे करियाणेका व्यापार करनेसे पापके परिणामसे हस्तादिक अंगसे होन हुआ । उसकी कथा इस प्रकार है: - CC क्षितिप्रतिष्ठित नामक नगर में पढाये, उनकी विपुल नामक सेठ रहता था । उसकी प्रेमला उसको चार पुत्र हुए, उन चारोंको शादी की। सेठ खुद वृद्ध हुआ, उसके घर में द्रव्य होने पर भी लोभके वश अनेक व्यापार करता, परन्तु लक्ष्मी किसीको देता नहीं, किसीको दान देनेका तो स्वप्नमें भी उसको विचार नहीं आता था । आदिदेव ईश्वर नामक स्त्री थी । एक दिन सेठ जिम कर गवाक्षमें बैठा था, उस समय चौथे पुत्रकी स्त्री, जो कि अत्यंत गुणवती थी और जो सुपात्र में दान देनेकी इच्छा रखती थी, वह स्त्री बर्तन धोने के लिये घर के बाहर चोकमें बैठी हुई थी; उस अर्से में आठ वर्षकी उम्रका कोइ नवदीक्षित साधु इर्यासमिति शोधते हुए गौचरीके लिये सेठके वहां आया । उन्हें देख कर खीने कहा चेला खरी सवार धर्मिणि वार न जाणीए । तुम लो अनथी आहार अम्ह घर वासी जीमीए ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) चेलाने कहा कि-मैं अन्यत्र भिक्षाके लिये जाउं ? वहूने कहा-जिस प्रकार उचित समझें वैसा करें । फिर साधु भी उस कृपणका घर छोड कर अन्य घरमें आहार लेनेके लिये गया। गवाक्षमें बैठे हुए सेठजीने यह सब बात सुन कर विचार किया कि-इन दोनोंके वचन मिलते हुए नहीं हैं । उस समय बहूको बुला कर पूछा कि-दो प्रहर हुए तिस पर भी तुमने चेलाको ऐसा क्यों कहा कि प्रातःकाल है ? फिर चेलाने कहा कि हम डरते हैं। तब तुमने कहा कि हमारे घरमें सब वासी अन्न जिमते हैं, अपने घरमें तो सर्वदा नयीही रसवती बनाइ जाती है, और सर्व कुटुंब ताजी रसवती खाते हैं, परंतु ठंडी रसोइ तो कोइ खाताही नहीं है । तिस पर भी तुमने चेलाको ऐसा कहा इसका कारण क्या ? यह श्रवण कर बहू बूंघट करके लज्जावती हो कर कहने लगी कि-हे तातजी ! सुनो, मैंने चेलाको कहा कि-तुमने सवारमें यानि बहुत शीघ्र छोटीवयमें दीक्षा क्यों ली ? तब चेलाने कहा कि 'धर्मिणि वार न जाणीए,' सो मैं डरता हुं, क्योंकि संसार असार है, आयु अस्थिर है, उसका भय लगता है, अतएव समय क्यों गुमावें ? क्योंकि जीवितव्य वीजलीके झबकारके सदृश है । फिर मैंने कहा कि-हमारे घरमें वासी जिमते हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि हमने गत भवमें दान पुण्य किये हैं जिसके योगसे ऋद्धि मिली है, परन्तु इस भवमें दान पुण्य कुछ करते नहीं है जिससे नया कुछ उपार्जन नहीं होता है, इस लिये वासी भोजन करते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१) यह बचन श्रवण कर बहूको महा बुद्धिवाली जान कर सेठ हर्षित हुआ और कहने लगा कि-मेरी यह वधू सर्व पुत्रवधुओंमें छोटी है, परंतु बुद्धिकी अपेक्षासे सर्वमें अग्रसर है, अतः उसको मैं मेरे कुटुंबमें बडी करके स्थापता हुं। अतएव आयंदा मेरे सर्व कुटुम्बी जनोंको चाहिये कि-उसको पूछ करके कामकाज करें, ऐसी मैं आज्ञा करता हुं। इसके अतिरिक्त सेठको उसी दिनसे दान देनेकी बुद्धि भी हुई। कुछ समय व्यतीत होनेके पश्चात् सेठको पांचवा पुत्र हुआ । उसका दत्त ऐसा नाम रक्खा, परन्तु उसको हाथ पैर नहीं थे, हीनांग था । उसको जब यौवन वय प्राप्त हुआ तब लोक उसकी हांसी करने लगे । वैद्योंने तेल मर्दनादि अनेक उपचार किये, परन्तु जिस प्रकार दुर्जन पर किया हुआ उपकार व्यर्थ जाता है उसी प्रकार सेठने अनेक उपचार किये, बहुत द्रव्य खर्च किया, परंतु पुत्रका कुछ भी आराम नहीं हुआ। एकदा दो मुनीश्वर भिक्षाके लिये आये, उनको वंदना कर सेठने पूछा कि-महाराज! मेरा पुत्र अच्छा होवे ऐसा कोइ औषध बतलाइये । गुरुने कहा-जीवको रोग दो प्रकारके होते हैं, एक द्रव्यरोग व दूसरा भावरोग । उनमें पहले द्रव्यरोगका प्रतीकार तो वैद्य जानता है, और दूसरे भावरोगका प्रतीकार हमारे गुरु जानते हैं। वे इस समय इसी गांवके बाहर वनमें पधारे हुए हैं, उनको पूछो । यह बात सुन कर सेठ भी वनमें गया । वहां गुरुको वंदना कर पूछने लगे कि-महाराज ! मेरा ___Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) दत्त पुत्र अंगहीन है, वह किसी प्रकार अच्छा नहीं होता है, उसका कारण क्या ? तथा द्रव्यरोग व भावरोग किसे कहते हैं? तब गुरु बोले कि-राग द्वेष करके अशुभ कर्म उपार्जन करे उसे भावरोग कहते हैं, और उन कर्मोंका उदय होता है तब जो फल विपाक भोगना पडता है उसे द्रव्यरोग कहते हैं । भावरोगके नष्ट होनेसे द्रव्यरोग भी नष्ट होता है । तप, संयम, दया कायोत्सर्गादिक क्रियाके करनेसे भावरोग मिटता है, भावरोगके जानेसे द्रव्यरोग भी जाता है। तेरे इस पुत्रने पूर्वभवमें व्यापार करते हुए लोगोंको वंचित किये थे, कृडे तोल व कूडे माप रख कर लोगोंको धोखा दिया था, सरस नीरस वस्तुओंका भेल संमेल करके बेचा था। इस प्रकार अगणित पाप किये थे; परन्तु एक दफा साधुको दान दिया था, उस पुण्यके योगसे तेरे वहां पुत्ररूपसे उत्पन्न हुआ है। उसने जान बूझ कर फूड कपट छलभेद करके मुग्ध लोगोंको वंचित किया था, जिसके योगले हाथ रहित हुआ है । ऐसी बात गुरुके मुखसे श्रवण कर सेठ और दत्त-दोनोंने मिल कर श्रावकधर्म अंगीकार किया। दत्तने नियम ले कर कपटको छोड दिया । नवकार मंत्र का स्मरण किया। मृत्यु पा कर देवलोक में गया, अतएव हे भव्यो ! किसीको भी मत ठगो अब अडतीसवीं और गुनचालीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैं : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) संजमजुआण गुणवंतयाण साहूण सीलकलिआणं । मूओ अवण्णवाए ण टुंटओ पदहियाण ॥ ५३ ॥ अर्थात् - जो जीव, संयमयुक्त क्षमादि गुणवंत, शीलयुक्त ऐसे साधु महात्माका अवर्णवाद बोलता है-निंदा करता है वह जीव भवांतर में मूक यानि अवाक होता है तथा जो जीव अपने पाऊंसे साधुओंको लात मारता है वह जीव भवांतर में लंगडा होता है (५३) जिस प्रकार विटपवासी देवशर्मा के पुत्र अग्निशर्माने महात्माकी निंदा की, जिससे वह मूक हुआ और साधुको धप्पे व लातोंके प्रहार किये जिससे उसी भवमें उसको देवताने शिक्षा दी । वहांसे मर कर नरकमें गया । भवांतर में हीनकुलमें पासड नामक ठूंठा हुआ । उसकी कथा इस प्रकार है । “बडोदे नगरमें देवशर्मा नामक ब्राह्मण, जोकि चौदह विद्याका निधान था, रहता था । उसको अग्निशर्मा नामक पुत्र हुआ, बह अनेक शास्त्रों में पारंगत हुआ । ज्यौतिषशामें भी निपुण हुआ, जिससे अपने मनमें बहुत गर्व करने लगा । धर्मवंत, गुणवंत और चारित्र्यवंतकी निंदा करता, उनके दोष बोलता । उसके पिताने शिक्षा दी कि हे वत्स ! ' जातिकुलका मद मत कर । समझदार मनुष्य गर्व नहीं करता है और किसीकी निंदा नहीं करता है । ' इत्यादि बहुतकुछ समझाया परन्तु जिस प्रकार दूधसे धोने पर भी काग उज्ज्वल नहीं होते उसी प्रकार उसने अपने स्वभावको नहीं छोडा । परिवारसे परिवेष्ठित www.umaragyanbhandar.com एकदा अनेक साधुके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४ ) ज्ञानी गुरु वहां पधारे । उनको वंदना करने के लिये नगरवासी लोग गये । उन गुरुका माहात्म्य देख व सुन कर अग्निशर्मा कुपित हुआ और लोगोंको कहने लगा कि इस पाखंडी महात्माकी पूजा भक्ति करनेसे क्या लाभ ? यह वेदत्रयीसे बाहर है। एकदा वह ब्राह्मण अनेक ब्राह्मण लोगोंके देखते हुए गुरुके साथ वाद करनेके लिये आया और कहने लगा कि-तुम क्षुद्र, अपवित्र और निर्गुण हो, तिस पर भी लोगोंके पास पूजा करवाते हो, इसका कारण क्या ? वेदके ज्ञाता ऐसे पवित्र ब्राह्मणोंको दान दे, उनकी . पूजा करे वही जीव स्वर्गमें जाता है। हम लोग यज्ञ करके छाग जैसे जानवरोंको भी स्वर्गमें भेज सकते हैं। इस प्रकार बोलने लगा । उसको एक शिष्यने कहा कि-तू पहले मेरे साथही विवाद कर। मैंही तेरे प्रश्नोंका उत्तर देता हुँ, सुन ले। प्रथम तू यह कहता है कि तुम शूद्र हो, हम ही ब्राह्मण हैं, यह तेरा कथन अयुक्त है, कहा है कि: ब्राह्मणो ब्रह्मचर्येण यथा शिल्पेन शिल्पिकः । अन्यथा नाममात्रः स्यादिंद्रगोपस्तु कीटवत् ॥ १ ॥ अर्थात्-ब्रह्मचर्य पाले उसे ब्राह्मण कहना चाहिये। जिस तरह कि शिल्पीके गुणोंसे शिल्पक कहलाता है। यदि ब्रह्मचर्य न हो तो इंद्रगोप कीटके समान नामकाही ब्राह्मण समझना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर तू कहता है कि-तुम अशौच हो, यह भी अस. त्य कहता है। पानी ढोल कर स्नान करके अपकाय जीवोंकी विराधना करनेसे कुछ शौचत्व नहीं होता है। यदि स्नान करनेसे शौचत्व होता हो तो पानी में रहनेवाले मच्छ कच्छ सर्व सदैव स्नानही करते हैं। वे सब तेरे कथनानुसार पवित्र होने चाहिये; परन्तु मनःशुद्धिके विना शौचत्व नहीं होता है, मनःशुद्धिकोही शौच कहा है । पुराणमें कहा है: चित्तमंतर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानै शुद्धयति । शतशोऽथ जलैधौतं सुराभांडमिवाशुचि ॥ १ ॥ किंच सत्यं शौचं तपः शौचं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदयाशौचं जलशौचं च पंचमम् ॥ २ ॥ चित्तं रागादिभिः क्लिष्टमलीकवचनैर्मुखं । जीवहिंसादिभिः कायो गंगा तस्य पराङ्मुखी ।।३।। अर्थात्:--जिसका अंतःकरण दुष्ट है, वह पुरुष स्नानसे शुद्ध नहीं होता। प्रथम सत्यरूप शौच, दूसरा तपरूप शौच, तीसरा इंद्रियनिग्रहरूप शौच, चौथा सर्व भूतपर दयारूप शौच और जल शौच तो अन्तिम पांचवां शौच है। तथा जिसका चित्त रागादिकसे क्लिष्ट है, असत्य वचन वोलनेसे जिसका मुख अपवित्र है, तथा जीव हिंसादिकसे काया जिसकी अपवित्र है ऐसे पुरुषको गंगा भी पवित्र नहीं कर सकती । अर्थात् गंगा भी उनसे पराङ्मुख रहती है। पुनः कहा है किShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६ ) आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा सत्यावहा शीलदयातटोर्मी । तत्राभिषेकं कुरु पांडुपुत्र! न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा ।। ___अर्थात्-श्रीकृष्ण कहते हैं कि-हे पांडुराजाके पुत्र अर्जुन! संयम और पुण्यरूप जलयुक्त और सत्यरूप जिसका प्रवाह है, तथा शील और दयारूप जिसके तट हैं ऐसी आत्मारूप नदी है, उसके भीतर तू अभिषेक कर। अर्थात् उसमें स्नान कर; परंतु जलके द्वारा अंतरात्मा कदापि शुद्ध नहीं हो सकता। पुनः तूने कहा कि-तुम निर्गुण हो, यह भी तेरा कथन अयुक्त है। क्योंकि क्षमा, दया और क्रिया प्रमुख अनेक गुण भी हमारेमें प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं, तो फिर हम निर्गुणी कैसे ? कहा है चित्तं शमादिभिः शुद्धं वदनं सत्यभाषणैः । ब्रह्मचर्यादिभिः काया शुद्धा गंगांभसा विना ॥१॥ भावार्थ:-क्षमादिकके द्वारा चित्त शुद्ध होता है. ब्रह्मचर्यादिकके द्वरा काया शुद्ध होती है। इस प्रकार गंगाके जल विनाही पूर्वोक्त सर्व शुद्ध होता है, परन्तु उनमेंसे कोई भी पदार्थ गंगा जलके द्वारा शुद्ध नहीं हो सकते। पुनः तू कहता है-तुम लोगोंके पास पूजा कराते हो, यह तेरा कथन भी असत्य है; क्योंकि कहा है कि पूजां ह्येते जनाः स्वस्य कारयंति न जातुचित । स्वयमेव जनः किंतु गुणरक्तः करोति तत् ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) भावार्थ-जो लोग हमारी पूजा करते हैं वे स्वयमेव-अपनी इच्छासेही-गुण देख करके करते है, क्योंकि जन है वह गुणरत्न युक्त है अर्थात् मनुष्य मात्र गुणोंकी पूजा करते हैं इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । और तूने नो यह कहा कि-ब्राह्मणकी पूजा करनेवाला स्वर्ग में जाता है, यह भी असत्य है, क्योंकि ब्राह्मण जो अपवित्र, अब्रह्मका सेवन करनेवाला, खेती करनेवाला, घरमें गौ, महिषी आदि पशुओंको रख कर उनका पालन करनेवाला तथा जो निर्दयी होता है उसकी पूजा करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति नहीं होती है । पुनः तूने कहा कि-हम यज्ञमें छागका वध करके उसे स्वर्गमें भेज सकते हैं-ऐसे हम पुण्यात्मा है, वह भी तेरा कथन असत्य है, क्योंकि तेरेही शास्त्रमें कहा है किः यूपं छित्वा पशून हत्त्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यथैवं गम्यते स्वर्ग नरके केन गम्यते ॥ १ ॥ अर्थात् -यूपको छेद कर, पशुओंको मार कर, भयंकर हिंसासे रुधिरका कर्दम करके मनुष्य यदि स्वर्गमें जावे तो फिर नरकमें कौन जायगा ? इस प्रकार युक्ति प्रयुक्तिके द्वारा सर्व नगरवासी लोगोंके देखते हुए शिष्यने अग्निशर्मा ब्राह्मणको पराजित किया। जिससे ब्राह्मण क्रोधायमान हो कर अपने घरको चला गया। फिर रात्रिको अकेला वनमें जा कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) इस प्रकार सर्व साधु निद्रा में थे तब लातोंके प्रहार किये, मुष्टियों के प्रहार किये, उसे वनदेवताने पीटा व पकड़ लिया । फिर उसके दोनों पैरोंको काट डाले । जिसकी व्याधि से पीडित हो कर चिल्लाता हुआ लोगोंने प्रातःकालको देखा, उसका स्वरूप सर्व लोकोंको विदित हुआ । तब सर्व उसकी निंदा करने लगे साधुओंकी अवज्ञा करके, वह पापिष्ट मर कर पहली नरक में जा कर नारकी पणे उत्पन्न हुआ। वहांसे निकल कर किसी दरिद्रीके वहां पासड नामक पुत्र हुआ। वहां पूर्वकृत कर्म के दोष से वह मूक हुआ, ठूंठा हुआ, जन्मतेही माता मर गई, और जब वह आठ वर्षका हुआ तब उसका पिता देवशरण हुआ, दासत्व करके लोगोंका उदरपोषण करने लगा । सर्व लोगोंको अप्रिय हो कर फिर भी संसार में बहुतही परिभ्रमण करेगा | अब चालीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैं जो वाह निस्संसो छाउद्यापि दुक्खियं जीअं । सीयंतगत संधि गोयम सो पंगुलो होइ ॥ ५४ ॥ अर्थात् - जो पुरुष निःशंकतया किंवा निःस्तृश यानि निर्दय हो कर वृषभादिक जीवोंके ऊपर अधिक भार भर कर उनसे काम ले, जिससे छात यानि अंग जिनके टूट गये हैं, उद्वात अर्थात् जिनका श्वास उंचाही रहता है और शरीरकी संधि जिनकी दुःखित है ऐसे दुःखी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२९ ) वृषभ कर्मकरादिक जीवोंको जो दुःखी करे, वह जीव है गौतम ! मर कर पंगु होता है । जिस प्रकार सुग्रामवासी हल्लुकर्मणीका पुत्र कर्मण नामक था, उसने पूर्वभवमें बैल और हालीको भूखे व प्यासे रक्खे, जिससे वह पंगु हुआ। जिसकी कथा यह है "सुग्राम नामक ग्राम में एक हल्लु नामक कर्षक रहता था। वह दयावंत और संतोषी था। चारा पानीका समय होता तब हल चलानेवाले हल्लुको व बैलोंको छोड़ कर चारा पानी देता, कदाच चारा पानी हाजर न होता तो खुद भी जिमता नहीं, ऐसा नियम किया हुआ था । उसकी हेमी नामक स्त्री थी, वह सरल चित्तवाली थी, उसे कर्मण नामक पुत्र हुआ, वह पूर्वकृत कर्मके उदयसे रोगी व पंगु हुआ । वह जब बड़ा हुआ, तब खेतोंकी चिंता करनेके लिये बैल पर बैठ कर खेतों में जाने लगा । वह बडाही लोभी था जिससे अपने पिताकी अपेक्षा तीनगुणी भूमिकी खेती कराता, हल्लु और बैलोंको समय हो जाने पर भी छुट्टी नहीं देता। चारा पानीकी चिंता भी करता नहीं । जिसके कारण प्रथम वर्ष में जो धान्य उत्पन्न होता था इससे आगेके वर्षोंमें कमती कमती उत्पन्न होने लगा, जिससे क्रमशः वह निर्धन हो गया । तो भी वह पापकर्म करनेसे हटा नहीं । एकदा ज्ञानी गुरु पधारे, उनको वंदना करनेके लिये नगरवासी जनों के साथ ये पिता पुत्र भी गये । पिताने गुरुको पूछा कि हे महाराज ! किस कर्मके योग से यह मेरा पुत्र रोगी, पंगु व निर्धन हुआ है ? तब गुरुने 9 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) कहा कि उसने पूर्वभव में खेती करते हुए भूखे व प्यासे बैलोंसे काम लिया है । उनकी संधि में प्रहार किये है, मारे हैं, अंतमें पश्चात्ताप करने से वह मनुष्यत्व पा कर तेरा पुत्र हुआ है । ऐसी गुरुकी बानीको श्रवण कर हलक्षेत्र के पापकी आलोचना करके पिताने दीक्षा ली और कर्मणने श्रावकधर्म अंगीकार किया, आयु पूर्ण करके दोनोंनें देवलोकके सुख प्राप्त किये " । अब एकतालीसवीं व बेयालीसवीं पृच्छाका उत्तर दो गाथाके द्वारा कहते हैं । सरलसहावो धम्मिकमाणसो जीवरक्खणपरो य । देवगुरुसंघभत्तो गोयम स सुरूवयो होइ ॥ ५५ ॥ कुडिलसहावो पावपिओ जीवाणं हिंसणपरो अ । देवगुरुपडिणीओ अच्चत्तं कुरूवओ होइ ॥ ५६ ॥ अर्थात् - जो पुरुष छत्रदंडकी भांति सरल स्वभावी होता है और धर्ममें जिसका चित्त होता है तथा जो मनुष्य जीवकी रक्षा करनेमें तत्पर होता है तथा देव गुरु व धर्मकी भक्ति करनेमें तत्पर रहता है वह जीव हे गौतम ! रूपवान् होता है ( ५५ ) तथा जो जीव स्वभावसे कुटिल होता है तथा पापप्रिय होता है अर्थात् पापकर्ममें जिसकी रूचि होती है, जीवहिंसा करने में तत्पर तथा देव और गुरुके ऊपर द्वेष रक्खे और देवगुरुका प्रत्यनीक होता है वह पुरुष मर कर अत्यंत कुरूपवंत होता है ( ५६ ) जिस प्रकार पाटण नगर में देवसिंह सेठका पुत्र जगसुंदर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१) सर्व लोगोंको प्रिय ऐसा रूपवंत हुआ, और उसीका दूसरा भाई असुंदर था वह काला, कूबडा दुर्भागी, दुःस्वर लंबकंठ, बडे उदरवाला और कुरूप हुआ। इन दोनों भाइओकी कथा कहते हैं। " पाटण नगरमें देवसिंह नामक धनवंत सेट रहता था, उसकी भार्याका नाम देवश्री था । वह सरल और स्नेहालु थी । उसने एकदिन अधिकांश रात्रि अतिक्रम हुइ तब एक आम्रवृक्षको, शाखा प्रतिशाखा व पुष्पसे भरा हुआ आकाशसे उतरता हुआ और अपने मुखमें प्रवेश करता हुआ स्वप्नमें देखा । फिर जाग्रत हो कर अपने पतिको स्वप्नकी बात कही। पतिने सुन कर स्त्रीको कहा कि तेरेको फलवंत गुणवंत आम्रवृक्षकी तरह अनेक जीवोंके आधारभूत ऐसा पुत्ररत्न होगा । यह सुनकर स्त्री हर्षवंत हुइ । अनुक्रमसे पूर्ण दिन होने पर लक्षणवंत पुत्रका जन्म हुआ। इसके पिताने उत्सव मनाया, कुटुंबको जिमाया, वस्त्रादिकका दान दिया। गुणके अनुसार जगसुंदर ऐसा उसका नाम रखा । सेठका वंछित कार्य सिद्ध हुआ। शालामें पढा, कलाएं सीखा, विनय, विवेक, चातुर्य, औदार्य, गांभीर्य, धैर्यादिक गुणवंत हुआ। वह यौवनवयको प्राप्त हुआ तब अनेक कन्याओंके साथ उसका पाणिग्रहण हुआ । जैनधर्मको अंगीकार करके वह देव-गुरू-संघकी भक्ति करने लगा, दान दे पुण्यभंडार भरने लगा। दीन दुःखीका उद्धार करने लगा। इस भांति कुमार अति गुणवंत हुआ । इ । अनुक्रमपिताने उत्सव मनाया अनुसार एकदा देवश्रीने शेषरात्रिमें दवदग्ध वृक्ष मुखमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२) प्रविष्ट होता हुआ स्वप्नमें देखा । बुरा स्वप्न जान कर भरतारको यह बात न कही । अनुक्रमसे काला, चीपडा, दंताला, तुच्छ कर्णवाला, जिसकी छाती व पेट स्थूल, बाहु छोटी, जांघ लंबी, शरीरमें रोम अधिक, दुर्भागी, दुःस्वर ऐसे पुत्रका प्रसव हुआ । लोगोंने उसका रूप देख कर असुंदर ऐसा नाम दिया । वह पुत्र मूर्ख धर्महीन हुआ । 'पापमें कूडा और कोई न कहे रूडा' ऐसा दुर्भागी हुआ। जिससे उसको कोइ कन्या देता नहीं । द्रव्य देने लगा तिसपर भी कोइ कन्या देनेको कबूल न हुआ। देख कर पापमें कूडा आराया देता नहीं । तब पिताने कहा कि हे-वत्स ! तूने पूर्वभवमें पुण्य नहीं किया है, जिससे तू ऐसा कुरूप हुआ है, और वांछित नहीं पाता है; अतः अब तू धर्मकरणी कर । ऐसी शिक्षा दी, तथापि धर्म करनेकी उसकी इच्छा नहीं हुई। एकदा उस नगरमें चार ज्ञानके धारक ऐसे सुव्रत नामक आचार्य आ कर समोसरे। उनके पास देवसिंहने पुत्र सहित जा कर वंदना की । गुरुने धर्मोपदेश दिया, यह सुनकर जिस प्रकार मेघगर्जनासे मयूर हर्षित होता है उसी प्रकार सब हर्षित हुए । देशनानंतर सेठने पूछा कि-हे भगवन् । मेरे दो पुत्र हैं, उनमें एक बडा पुत्र गुणवंत सौभागी और पुण्यशाली हुआ और दूसरा लघुपुत्र दुष्ट दुर्भागी पापरूचि बूरा हुआ । अतः उन्होंने कैसे २ पुण्य पाप किये होंगे ? सो कहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३) गुरु कहने लगे कि 'हे सेठ ! इसी नगरमें इस भवसे पूर्वके तीसरे भवमें एक जिनदत्त नामक वणिक् रहता था, वह सरल स्वभावी तथा जीवरक्षा करने में सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। इसके अलावा देव, गुरु और संघकी भक्ति करने में भी अग्रसर था जिससे सबलोग उसकी प्रशंसा करने लगे। फिर उसी नगरमें एक शिवदेव नामक वणिक् महामिथ्यात्वी रहता था, वह देव, गुरु और संघके ऊपर द्वेष रख कर उनकी हंसी करता था, मनमें कूड कपट रखता था, वह यद्यपि जिनदत्तका मित्र था, तथापि जीवहिंसा करता था। __ वह मिथ्यात्वी मर कर पहली नरकमें गया और जिनदत्त श्रावक मर कर पहले देवलोक में देवता हुआ । वहांपर देवलोकके सुख भोग कर आयुपूर्ण करके तेरा जगसुंदर नामक बडा पुत्र हुआ और शिवदत्तका जीव नरकसे निकल कर तेरा असुंदर छोटा पुत्र हुआ है। वह देवगुरुके ऊपर द्वेष रखता था, निर्दयी था, जिससे कुरूप हुआ है । अब भी धर्मद्वेषी है, अतः बहुत संसार भ्रमण करेगा।' इस प्रकार गुरुमुखसे पूर्वभव सम्बन्धी वार्ता श्रवण करनेसे जगसुंदरको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे वह हर्षित हुआ। बहुत काल पर्यंत श्रावकधर्मका आराधन कर अंतमें दीक्षा ले कर मोक्षसुखको प्राप्त हुजा ।" ____ अब तेंयालीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४ ) जो जंतुं दंडकसरज्जुखग्गकुतेहिं कुणइ वेयणाओ । सो पावइ निक्करुणो जायइ बहु वेयणा पुरिसो ॥५७॥ अर्थात-जो पुरुष यंत्र, लाठी, दंड, काश, रज्जु, खड्ग, और भाला आदिक शस्त्रके द्वारा अन्य जीवोंको वेदना करे, वह पापी निर्दयी पुरुष जन्मांतरमें अति वेदना पाता है (५७) जिस प्रकार मृग नामक गांवके विजयराजाकी मृगा राणीका लोढा नामक पुत्र था, वह पूर्व भव में अनेक गांवोंका अधिपति था तब उसने अनेक लोगोंको अत्यंत दुःखी किये, जिससे उसि भवमें इसे जलोदर, कुष्टि प्रमुख सोलह महारोग उत्पन्न हुए । मर कर पहली नरकमें गया । वहांसे लोढाके भवमें नपुंसक हुआ। पांचों इंद्रियोंसे रहित अत्यंत 'वेदनाको सहता हुआ महा दुःखी हुआ, जिसकी कथा कहते है: “ इसी भरतक्षेत्रमें मृग ग्राममें विजय नामक राजा था । उसकी मृगावती नामक राणी थी । उनको संसार सुख भोगते हुए बहुत काल व्यतीत हुआ । ___ एकदा श्रीमहावीर तीर्थकर विहार करते व भव्य जीवोंको प्रतिबोध देते हुए श्रीगौतम स्वामी प्रमुख अनेक साधुओंके परिवारसे परिवेष्टित वहां समोसरे। देवताने तीन गढकी रचना की व आगे फूल पगर भरे। बारह परिषद मिल कर परमेश्वरको बानी श्रवण करने लगी। इस समय एक जात्यंध व कुष्टरोगी पुरुष जिसके हाथ, पैर, नाक, अंगुली प्रमुख अंग सब गल गये थे, जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५ ) दुःस्वर, दुर्भग हुआ था वह पुरुष लोगोंसे निंदाता हुआ वहां समोसरणमें आया । उसे देख कर गौतमस्वामीने परमेश्वरसे पृच्छा की कि हे भगवन् ! यह जीव किस अशुभकर्मके योगसे महा दुःखी हुआ है ? भगवानने कहा, इसने पूर्वभवमें अनेक पापकर्म किये हैं जिससे दुःखी हुआ है। पुनः गौतमस्वामीने प्रश्न किया कि-हे महाराज ! इस जीवसे भी अधिक दुःखी ऐसा कोइ जीव होगा कि जिसे देख कर लोग दुगंच्छा करें, निंदा करें, निकाल देवें? भगवान बोले कि-हे गौतम ! इसी गांवके राजाका पुत्र जगतमें अत्यंत दुःखी है, क्योंकि वह बधिर, पंगु व नपुंसक है । हाथ, पैर, आंख, कान, नाक, भ्रकुटी, मुख इनमेंसे कोइ भी अवयव उनको नहीं है। उसकी आठ नाडी अंतर्गत वहती है, आठ नाडी बाहर वहती है, आठ नाडी रुधिरकी और आठ राधकी वहती है। महा दुर्गंधित उसका शरीर है, सदैव लोमके द्वारा आहार लेता है। वह यहांही नरकका दुःख भोगता है । वह श्रवण कर गौतमस्वामीको कौतुक उत्पन्न हुआ, तब उसे देखने के लिये कहने लगे कि-हे स्वामिन् ! यदि आपकी आज्ञा होवे तो मैं उसे देख आउं ? प्रभुने आज्ञा दी। गौतमस्वामी राजाके घर आये । राजा राणी दोनों हर्षित हुए। राणी बोली:-महाराज! आज हमारे ऊपर अनुग्रह किया। श्रीगौतमजी मृगावती प्रति बोले कि-मैं तुम्हारे पुत्रको देखना चाहता हूं। तब राणीने अपने चार पुत्र जो गुणवंत थे उनको बुला कर गौतमस्वामीको बतलाये, श्रीगौतमने धर्मलाभ दिया। फिर राणीने कहा कि-आज अनुग्रह किया। तब श्रीगौतमने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) मृगावतीको कहा कि तुम्हारा जो पुत्र शिलाके सदृश है उसे देखने के लिये मैं आया हुँ । राणी बोली कि-हे भगवन् ! उस पुत्रको तो कोइ न देखे उस प्रकार हमने धरतीके भीतर गुप्त रक्खा है, सो आपको कैसे मालूम हुआ ? श्रीगौतम बोले कि हमारे स्वामी श्रीमहावीर सर्वज्ञ हैं, उनके कहनेसे विदित हुआ । तब राणीने कहा कि-हे भगवन् ! क्षण भर ठहरिये, भोजनके समय वस्त्राभरणको छोड कर छोटी गाडीमें आहार डाल कर गुहामें मैं जाउंगी, तब आपको भी संग ले जा कर दिखाउंगी। तत्पश्चात् राणी गाडी ले कर श्रीगौतम स्वामीके साथ गुफामें गइ । वहां गौतम स्वामिसे कहा कि-हे भगवन् ! यहां उग्र दुर्गंध है, अतः मुहपत्तिसे मुख नाक बांध कर भीतर आइये । वहां जा कर गुफाका द्वार खोला तब वहां पर ऐसी दुर्गंध आने लगी कि खाया हुआ अन्न भी बाहर निकल जावे । राणीने दरी बिछा कर व उसके ऊपर आहार रख कर लोढाको ऊपर ले आई। उसने आहार संज्ञासे रोमके द्वारा आहार लेना शुरु किया, शीघ्रही वह आहार राध हो कर निकलने लगा। ऐसा दुःख देख कर राणीको वंदन कराके श्रीगौतमस्वामी श्रीमहावीरके पास लौट आये और कहने लगे कि-जैसा दुःख आपने कहा, वैसाही मैंने देखा, अतः अब कहिये कि उसने ऐसा कौनसा बडा पाप किया होगा कि जिससे वह उतना दुःखी हो रहा है ? प्रभु कहने लगे कि-हे गौतम ! शतद्वार नगरमें धनपति राजाको विजयवर्द्धन नामक मंत्री था, उसको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९३७) पांचसो गांव मिले, जिसकी सम्हालके लिये एक राठोडको . अधिकारी करके भेजा। वह राठोड रौद्र परिणामी, क्षुद्र बुद्धि व महा पापकर्मी था, वह पांचसो गांवकी चिंता करता अधिक कर लेता, नये कर बैठाता, लोगोंके शिर कुडे कलंक चढा कर व अन्याय करके उन्हें दंडित करता उसने लोगोंको निद्रव्य किये । कमती ज्यादा बात करके लोगोंको पीटता, बांध कर प्रहार करे, सतावे, इस प्रकार पाप कर्म करता रहा, जिससे इसी भवमे उसको कास, श्वास, ज्वर, दाह, कुखशूल, भगंदर, हरस, अजीर्ण, चक्षुवेदना, कर्णवेदना, पुंठशूल, खस (पामा), कुष्टि, जलोदर, वेग और वायु ये सोलह महारोग उत्पन्न हुये जिनके द्वारा अति उपद्रवको प्राप्त होकर आर्त रौद्र ध्यान धर कर मृत्यु पा कर पहली नरकमें गया। वहां छेदन, भेदन, ताप ताडनादि अनेक कष्ट सहन किये। फिर वहांसे निकलकर विजयराजाका पुत्र हुआ है। और वह नपुंसक, दुःखी, अति वेदनासे पीडित है । उसने पापके उदयसे एक भवमें अत्यंत दुःखका अनुभव किया है।" __अब ४४ वीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैं। जो सत्तो वियाणत्तो मोआवेइ बंधणाउ मरणाउ । कारुण्णपुण्णहियओ णो असुहा वेयणा तस्स ॥ ५८ ॥ ____ अर्थात्-जो पुरुष पीडा युक्त ऐसे जीवोंको सांकल बंधन रूप वेदनासे व मृत्युसे मुक्त कराता है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) जिसका हृदय दयासे पूर्ण है उस पुरुषको भवांतर में कोइभी असुहामणी ऐसी वेदना नहीं होती ( ५८ ). जिस प्रकार सुप्रतिष्ठित नगर में चंदन नामक सेठ. मिथ्वात्वी था, पश्चात् वह दृढ प्रतिज्ञावंत श्रावक हुआ, उसका पुत्र जिनदत्त था, वह सबको अभीष्ट वल्लभ हुआ । और अत्यंत सुखी हुआ । उस चंदन सेठ और जिनदत्तकी कथा कहते हैं " सुप्रतिष्ठित नगरमें चंदन नामक व्यवहारिया रहता था वह मिथ्यात्वी था परंतु परिणामसे भद्रक था । उसकी वाहिणी नामक स्त्री थी । एकदा शान्त, दान्त गुणोंके धारक, धर्मवन्त, क्रियावंत ऐसे दो साधु उसके घरको आये । वहां प्राशुक उपाश्रय जान वे सेठकी आज्ञा लेकर उसमें रहे। उन साधुओंकी संगतिसे सेठ तथा उसकी स्त्रीने जैनधर्म पाकर व्रत - प्रत्याख्यान - नियम लिये | तथा साधुके संसर्गसे सेठकी गोत्रदेवीभी सम्यकदृष्टि वाली हुई । अब वह साधु विहार करके अन्यत्र गये । सेठ अपनी स्त्री सहित पहले व्रतका आराधन करने लगा, परन्तु गृहस्थरूप वृक्षका फल जो पुत्र, वह सेठको नहीं था जिससे सेठ सेठानी दोनों चिंतातुर रहते थे । पुत्रके लिये कुलदेवीकी आराधना करने के लिये कंकु, कपूर, चंदन और पुष्पके द्वारा कुलदेवीको पूजे, भूमिपर शयन करता, तपस्या करता । इस प्रकार करते हुए कुलदेवी प्रसन्न हुइ | प्रत्यक्ष आकर कहने लगी कि हे सेठ ! जो तू - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३९) याचे वह मैं तुझे दूं। तब सेठने पुत्रकी याचना की। गोत्रदेवीने चिंतन किया कि प्रथम तो इस सेठने साधुके समीप पहला व्रत अंगीकार किया है उसका वह यथार्थ पालन करता है या नहीं ? धर्म में दृढ है या नहीं ? जिसकी परीक्षा करुं । ऐसा मनमें विचार करके देवी कहने लगी कि-हे सेठ! तू यदि जीनेकी इच्छा करता है तो एक जीवको मार कर मुझे बलिदान दे, तो मैं तेरेको पुत्र दूंगी। और तू ऐसा न करेगा तो स्त्री भरतार दोनोंका कुशल नहीं है। यह श्रवण कर सेठने कहा कि-तू यह क्या कह रही है ? क्योंकि जो अच्छा आदमी है वह किये हुए नियमका भंग कदापि नहीं करता, और मैंने तो प्राणातिपातका नियम लिया है। अतः पुत्रके विना काम चल जायगा, परन्तु नियमका खंडन मैं नहीं करूंगा। यह सुन कर देवी कोप करके सेठकी स्त्रीकी चोटी पकड कर उसे तलवारसे मारने लगी। स्त्री भी रुदन करती हुइ कहने लगी कि-अरे देवि ! मेरी रक्षा करो! रक्षा करो!! तो भी देवीने उस स्त्रीका मस्तक काट डाला। पुनः सेठको भी कहने लगी कि-तेरेको भी इसी प्रकार काट डालूंगी। फिर कहा कि-अरे दुष्ट ! दुर्बुद्धि ! अपने कुलक्रमागत जीवघात करनेकी व बलि देनेकी जो प्रथा चली आती है उसका तूने नियम क्योंकर लिया ? अतः अब पुत्रकी बात दूर रही, परन्तु तेरे जीवनकाभी संदेह है, इस वास्ते हठ-कदाग्रहको छोड़ और मुझे बलिदान दे! ऐसे देवीके कटु वचन सुने, तथापि सेठ क्षुभित नहीं हुआ। और देवीके प्रति कहने लगा कि-मरना तो एक दफे हैही, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) अतएव पीछे मरना इसकी अपेक्षा पहलेही मार डाल, परन्तु मैं निर्दयी हो कर जीवघात न करूंगा । ऐसी सेठकी दृढता देखकर देवी हर्षित हुई और सेठको, उसकी स्त्रीको जीवित दिखाकर कहने लगी कि-हे सेठजी! तेरेको धन्य है, तू महा साहसिक और पुण्यवंत है। तेरा पहला ब्रत शुद्ध है या नहीं, उसकी मैंने परीक्षा की। ऐसा करते हुए तेरा जो अपराध हुआ है उसकी तू क्षमा कर, तू मेरा सच्चा स्वधर्मी भाइ है, अतः में तेरे पर उपकार करूंगी । तू श्रीजिनेश्वरकी भक्ति कर, कि जिससे तेरेको योग्य पुत्रकी प्राप्ति हो । उसका जिनदत्त नाम रखमा। ऐसा कह कर गोत्रदेवी अदृश्य हो गइ। कुछ दिन व्यतीत होनेके बाद सेठकी खीने पुत्रको जन्म दिया । जिसकी वधाइ मिली, जिससे सेठने बडा महोत्सव करके उसका जिनदत्त ऐसा नाम रक्खा । शालामें पढकर सर्व कलाओंको सीखा । धर्ममें निष्णात हुआ। यौवनवय में बडे कुलकी योग्य कन्याके साथ शादी हुइ । वह जिनदत्त पिताको वल्लभ है, नीरोगी है, नित्यप्रति देवपूजा करता है। एकदा वनमें ज्ञानी गुरु पधारे, सेठने पुत्र सहित उनके पास जाकर वंदना की। धर्मोपदेश श्रवण कर चंदन सेठने पृच्छा की कि-हे भगवन् । मेरा जिनदत्त पुत्र नीरोगी, महासुखी और सर्वका प्रीतिभाजन किस कर्मके योगसे हुआ है ? सो कहिये । तब गुरु बोले किमैं जो कहु वह सावधान हो कर सुनो । इसी नगरमें धरणा नामक वणिक रहता था, उसके वहां जिनदत्तका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) जीव 'साधारण' इस नामका पुत्र था । वे पिता पुत्र दोनों दयावंत थे, उसमें साधारण तो निष्पाप व्यवसाय करता था । मृग, छाग, तित्तर, चीडियां आदिको बंधनमुक्त कराता । बंधीवान जनोकों अपने घरका द्रव्य दे कर छुडाता था, मरते हुए प्राणीको छुडाता था । देवगुरु धर्मके संसर्गमें धर्मरंगमें भींजा हुआ रहता था, श्रीशत्रुजय तीर्थकी उसने यात्रा की। आयु पूर्ण करके देवलो - कमें वह देवता हुआ । जिनमें धरणाका जीव तो तुम हो और साधारणका जीव तुम्हारे वहां जिनदत्त पुत्र हुआ है वह है । महा धनवंत, नीरोगी व सुखी हुआ, यह सर्व पूर्व पुण्यका प्रभाव जानना । ऐसे गुरुके मुखकी बानी श्रवण कर दोनोंको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । पूर्वके भव देखे । वैराग्य उत्पन्न हुआ, तब दीक्षा लेनेको तत्पर हुए। गुरुने कहा कि - अब तुम्हारा आयुष्य बहुत बाकी है, और भोगावली कर्म भी बहुत है, इसलिये तुम सविशेष श्रावकधर्म करो । यह सुन कर पिता पुत्र दोनों गुरुको वंदना करके घरको आये । अनेक प्रकारके पुण्य किये, सुकृत किये, दान दिये और व्रत ले कर दोनों देवलोकमें देवता हुए। वहांसे चव कर मनुष्य जन्म पा कर मोक्षमें जायंगे । अब पेंतालीसवीं पृच्छाका उत्तर एक माथाके द्वारा कहते हैं । जया मोहोदओ तो अन्नाणं खु महाभयं । कोमले वियणिज्जं तु तथा एगिंदियत्तणं ॥ ५९ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) भावार्थ:-जब जीवको तीव्र मोहका उदय तथा अज्ञान यानि सम्यग्ज्ञानका अभाव होता है, तब वह पंचिंद्रिय जीव हो, तो भी उसको जिसमें महाभय है ऐसा, तथा तुच्छ, असार और वेदनीयरूप ऐसा एकेंद्रियत्व प्राप्त होता है । यह निश्चय जान लेना । जिस प्रकार महीसार नगरमें मोहक नामक धनवंत था, वह अत्यंत कृपण हो कर लक्ष्मी व कुटुंब पर बहुत मूर्छा रखता था । मृत्यु पा कर वह पकेंद्रियमें उत्पन्न हुआ । दीर्घकाल पर्यंत वह संसारमें रूलेगा। यहां मोहक गृहस्थकी कथा कहते हैं: महीसार नगरमें मोहक नामक कोइ गृहस्थ रहता था । उसकी स्त्रीका नाम मोहिनी था । इसके पिताकी उपार्जित लक्ष्मी बहुत थी । लक्ष्मीका मोह • अपार था । रात्रिदिवस सावधान रहता था कि-शायद मेरा धन कोइ ले जाय ? ऐसी चिंता करता हुआ गुप्त रीत्या जमीनके अंदर निधान रक्खा । फिर वहांसे उठा कर दूसरे स्थानमें संचय किया। इस प्रकार लक्ष्मीको रखनेके लिये अनेक उपाय करता, रात्रिको सोता भी नहीं। अति कृपण हो कर सारा दिन धनके लिये चिंता ही किया करता पेटपूर्ण भोजन भी लेता नहीं । मोटे व गंदे कपडे 'पहनता। किसीको दान भी नहीं देता, किसीको धन धीरता भी नहीं । लोभके वश रिश्तेदारको व गुणवंतको भी न पिछानता। ___अब सेठकी स्त्री मोहिनीको पुत्र हुआ। उसका लक्षण ऐसा नाम दिया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब वह पुत्र पितासे विपरीत गुणवाला हुआ । जगत् में कहावत है कि "जैसा बाप वैसा बेटा होता है"। यह बात सत्य है, तथापि इस जगह तो पिता निर्विवेकी और कृपण होने पर भी पुत्र विवेकी और उदार हुआ। सात क्षेत्र में धनका सव्यय करता, यह देख कर उसका पिता बहुत दुःख पा कर दुःखी होने लगा और कहने लगा कि-हे वत्स । धन कुछ फोकट नहीं मिलता है । यह तो महा दुःखसे उपार्जन किया हुआ है । यह श्रवण कर पुत्र कहने लगा कि-हे पिताजी ! धन पुष्कल है तुम चिंता मत करो। तब पिताने कहा कि-हे वत्स ! पानीसे भरा हुआ सरोवर भी पशुओंके पी जानेसे सूक जाता है । तब पुत्रने कहा-जब तक अपना पुण्य प्रबल है, तब तक कदापि धन खूटेगा नही । उक्तं चः जइ सुपुत तो धन का संचे, जो कुपुत तो धन का संचे । अचल रिद्धि तो धन का संचे, जो चल रिद्धि तो धन का संचे ॥१॥ लच्छी सहाव चवला तत्थ चवलं च रायसम्माणं । जीवोवि तत्थ चवलो उवयारविलंबणा कीस ॥२॥ अतः जिस प्रकार कृएका पानी, उपवनके पुष्प, और गौका दूध लेते हुए बहुत होता है वैसे ही दान देते हुए लक्ष्मी वृद्धिंगत होती है । इत्यादि पुत्रने समझाया, तथापि सेठ धनका मोह छोडता नहीं और मनमें यह सोचता रहा कि-यह मेरा पुत्र मूर्ख है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४ ) एकदा कमरे मेंसे चोर लोक धन ले गये । यह सुन कर सेठको मूर्छा आ गइ, वह रोने लगा, जिमनेको भी बैठा नहीं। तब पुत्रने कहा कि-यह लक्ष्मी अलार और चपल है, अतएव तुम भोजन करलो। इस प्रकार बहुत समझा कर भोजन कराया। दूसरी साल में सेठकी स्त्री मोहिनी मर गइ । तब सेठ, स्त्रीके मोहवश जिस प्रकार वज्रके प्रहारसे मनुष्य हुःखी होता है. इसी प्रकार अत्यंत दुःखी हुआ । उसके गुणोंको याद कर करके रुदन किया करता, जिमता भी नहीं। इस दुःखसे सेठ मर गया; परन्तु पुत्र सुज्ञ था, संसारका स्वरूप जान कर शोक नहीं करता और विचार करता कि-मेरे पिताकी मृत्यु मोहके कारणसे हुइ है, अतः जो मोह है वह बिना विष मृत्यु है। यह मोह त्रिदोषके बिना सन्निपात है, यहि मोह न हो तो जीव सर्वदा सुखी ही होता है । फिर विवेक जो है वह विना सूर्य के प्रकाश है, दीपकके विना उजाला है, रत्नके बिना कांति है, पुष्पके विना फल है, अतः विवेक बडी बात है, । ऐसा विचार रखता हुआ विवेकी हो कर धर्म करने लगा। एकदा उस नगरमें श्रुतकेवली पधारे, उनको वंदना करके लक्षणने पृच्छा की कि-महाराज! मेरे पिता मर कर कहां गये होंगे ? गुरु बोले कि-हे वत्त! तेरा पिता धन कुटुम्बका मोह करके अज्ञानके वश एकेन्द्रिय पृथ्वीकायमें उत्पन्न हुआ है। फिर भी अपकाय, तेउकाय, वाउकाय और वनस्पति कायमें बहुत संसार भ्रमण करेगा । यह बात सुन कर वैराग्य पा कर लक्षणने दीक्षा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) की । दीक्षा भली भांति आराध कर स्वर्गादिक सुखोंको प्राप्त किये । "" अब छेंतालीसवीं और सेंतालीसव पृच्छाका उत्तर कहते हैं । न य धम्मो न य जीवो न य परलोगुत्ति न य कोइ । रिसिपि नो मन्नइ मूढो तस्स थिरो होइ संसारो ॥ ६० ॥ धम्मवि अत्थि लोए अत्थि अधम्मोवि अत्थि सव्वन्नू । रिसिणोवि अत्थि लोए जो मन्नइ सोप्प संसारी ॥ ६१ ॥ I अर्थात्-धर्म नहीं है, जीव है, कोई ऋषीश्वर नहीं है, इस मानता है उसके लिये संसार निकट नहीं होता (६०) नहीं है, परलोक नहीं प्रकार जो नास्तिक पुरुष अत्यंत बढ़ता है मोक्ष तथा लोकमें धर्म है, अधर्म भी है, सर्वज्ञ भी है, और लोकमें ऋषि भी है, इस प्रकार जो जीव माने वह जीव बहुल संसारी नहीं होता, अल्प संसारी हो कर शीघ्र मोक्षमें जाता है ( ६१ ) जिस प्रकार राजगृही नगरी में एक पंडितके पास शूर दूसरा वीर नावक दो शिष्योंने शिक्षा पाई । उनमें से शूर तो धर्ममार्गका उत्थापन करने से यहां भी दुःखी हुआ । और फिर भी संसार में भ्रमण करेगा। कुसंगति के कारणसे नास्तिकवादी हुआ, और वीर तो सद्गुरुकी संगतिसे जानकार हुआ । धर्ममार्गको स्थापित करता हुआ, वहीं 10 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) महत्त्व पा कर स्वल्प कालमें मोक्ष पावेगा । उनकी कथा इस प्रलारकी हैं। " राजगृही नगरी में एक शूर व दूसरा वीर, ये दो गृहस्थ रहते थे । वे दोनों शख्स छोटी वयमें एकही गुरुके पास पढे, परंतु पीछेसे शूरको नास्तिक लोगोंकी संगति हुई । मनुष्य अपने समान संगतिवाले मनुष्यके मिलनेसे आनंद पाता. है । जिससे दुःसंगसे बडाकदाग्रही हुआ, वह उद्धत हो कर धर्मका उत्थापन करने लगा, अपनी बुद्धिमत्ताके आगे दूसरोंको तृणवत् समझने लगा, लोग सुखके अर्थकी बात कहें तो उसेभी मानता नहीं। एकदफे चार ज्ञानके धारक सुदत्त नामक गुरु पधारे, उनको धर्मार्थी लोग और वीर आदि सर्व वंदन करनेको गये, और शूर महा अहंकारी हो कर गुरुका माहात्म्य सुन कर मनमें ईर्ष्या करता हुआ वहां आया । गुरुको कहने लगा कि तुम लोगोंको? फिजुल क्यों फुसलाते हो ? यदि तुम्हारेमें शक्ति होवे, तो मेरे साथ वाद करो। यह सुन कर गुरुजीका एक शिष्य उसे कहने लगा कि'अरे मूर्ख ! सर्वज्ञके समान मेरे गुरुके साथ तू वाद कैसे कर सकेगा ? मैंही तेरे अहंकारको नष्ट कर दूंगा। और तेरेको उत्तर दूंगा; परंतु सभा, सभापति, वादी, और प्रतिवादी, इन चारोंसे युक्त चतुरंग वाद कहा जाता है, अतः ऐसा चतुरंग वाद होवे तो मैं करूं ।' शूरने भी मंजूर किया । फिर दूसरे दिन प्रातःकालमें चतुरंगका स्थापन होनेसे वाद करना प्रारंभ किया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७) शुरने कहा ' शरीर में जीव ऐसी कोई चीज नहीं है, और जीव नहीं है तो धर्म भी नहीं है, धर्म नहीं तो परलोक भी नहीं। जिस प्रकार गांवके विना सीम नहीं, स्त्री विना पुत्र नहीं, उसी प्रकार जान लेना । अतः पृथ्वी, पाणी, आकाश, अग्नि और वायु इन पांच महाभूतोंके संयोगसे आत्मा होता है । जिस प्रकार धावडी, महुडे, गुड और पानीसे मदशक्ति उत्पन्न होती है वैसेही जान लेना। आकाशकुसुमवत् ओर कुछ भी नहीं है। तो फिर जीव कहां है कि जिसको सुखी बनानेकी वांछा की जावे ? वर्तमान कालके हस्तगत सुखको छोड कर संदेहयुक्त भविष्यत् कालके सुखकी वांछा कौन करे ? तथा सुख दुःख सर्व कर्मके योगसे होते हैं, यह बात भी अयुक्त है। क्योंकि एक पाषाण नित्य चंदन व पुष्यके द्वारा पूजा जाता है और एक पाषाणके ऊपर नित्य विष्ठा डाली जाती है अब कहिए कि पाषाणने कौनसा अच्छा या बुरा कर्म किया है ? इसी प्रकार प्राणीमात्रके लिये भी सुख दुःखका कारण कुछ भी नहीं है । तप जप कष्ट क्रिया जो कुछ किये जाते हैं वे सब क्लेशरूप व्यर्थही समझने चाहिए'। अब शिष्य उक्त बातका उत्तर देता है। 'हे शूर ! तू जो कहता है कि जीव नहीं है तो मैं पूछता हूं कि में सुखी हुं, मैं दुःखी हुं, इन बातोंका जानकार कौन है ? चंदन लगानेसे जैसे आनंद होता है और कंटक लगनेसे दुःख होता है और उसका जाननेवाला तो जीवही है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) यह बात तो प्रत्यक्ष देखी जाती है । यदि तेरे कथनानुसार जीवही नहीं है तो पिता प्रमुख वडिलोंके नाम कहना भी तेरे लिये व्यर्थ है । तथा कोप, प्रसाद, शोक, क्षुधा, तृषा, तृप्त पीडित आदि बातोंको अनुमानसे जानते हैं अतएव जीव है । फिर तूने कहा कि पंच महाभूत हैं वही आत्मा है यह भी असत्य है, क्योंकि पांच भूत तो जड हैं, अतः जो जड हैं वे चैतन्य कसे हो सकते हैं ? वालुको पीलनेसे उसमेंसे तेल नहीं निकल सकता तथा तूने जो शुभाशुभ कर्म कुछ भी नहीं हैं इस बात के ऊपर पाषाणका दृष्टांत दिया वह भी अयुक्त है । क्योंकि एक सुखी एक दुःखी एक चाकर एक ठाकर ॥ इत्यादि अच्छे बुरे जो द्वंद हैं वे सब कर्मके योगसे ही हैं अतएव तप संयमरूप धर्म सफल है, निष्फल नहीं । धर्म के फल यहां ही देखे जाते हैं इस वास्ते धर्म भी है परलोक भी है और सर्वज्ञ भी है । उनके कहे हुए शास्त्रके योगसे चंद्र, सूर्य ग्रहण प्रमुखको जान सकते हैं अतः तू कदाग्रह छोड । " इत्यादि अनेक उत्तर प्रत्युत्तर दे कर शूरको निरुत्तर किया। तब राजाने शिष्यकी प्रशंसा की और शूरको राजाने कहा कि 'हे पापी ! तू पिताको भी नहीं मानता है और सबको उत्थापता है, ऐसा कह कर राजाने रोष ला कर शूरको पकडा । उसको शिष्यने छुडाया । तब राजा फिर कहने लगा कि देखो इस शिष्यमें दयाका गुण कैसा है ? यह निरीह है, सच्चा सदाचार कहता है । ऐसा कह कर शूरको अपने नगर मेंसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४९) निकाल दिया और दूसरा जो वीर था वह तो सन्मागंमें चलता हुआ, धर्मकी स्थापना करता हुआ तथा पुण्य है, पाप है, वीतराग देव हैं, सुसाधु गुरु हैं इत्यादि कहता था । उसे राजाने सम्मानित किया। मर कर वह देवता होगा। अंतमें मोक्ष सुखको प्राप्त करेगा । और शूर नास्तिकवादी हो कर संसारमं बहुत कालपर्यंत भ्रमण करेगा।" अब उडतालीसवीं पृच्छाका उत्तर एक गाथाके द्वारा कहते हैःजो निम्मलनाणचरित्तदंसणेहिं विभूसिअसरीरो । सो संसारं तरि सिद्धिपुरं पावए पुरिसो ॥ ६२ ॥ ___ अर्थात्-जो पुरुष निर्मल ज्ञान, चारित्र और दर्शनके द्वारा विभूषित शरीरवाला होता है वह पुरुष संसार समुद्रका पार पा कर मोक्ष सुख पावेगा (६२) जिस प्रकार अभयकुमार ज्ञानादिकका आराधन करके मोक्ष सुख पायेंगे । उसकी कथा इस प्रकार है: __ "मगध देशमें श्रेणिक राजा राज्य करता था। उसका पुत्र एवं प्रधान अभयकुमार था । वह चार बुद्धिका निधान था, अपने पिताके राज्यको वृद्धिंगत करता था। उसे राजा राज्य देने लगा, परन्तु उसने पापके भयसे राज्यका स्वीकार नहीं किया । ___ एकदा श्रीवीरप्रभु आ कर समोसरे । उनको अभयकुमारने वंदना करके पूछा कि-हे स्वामिन् ! अंतिम राजर्षि कौन होगा ? प्रभुने कहा उदायिन राजा होगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) अब, श्रेणिक राज्यको छोड कर दीक्षा नहीं लेता था जिससे अभयकुमार सोचने लगा कि यदि मैं मेरे पिताके आग्रहसे राज्य लंगा तो मेरेसे भी दीक्षा नहीं ली जा सकेगी, अतः मेरेको राज्य से कोई मतलब नहीं है, मगर मेरे पिताने मेरेसे जो यह वचन लिया हैं कि मेरी आज्ञा के बिना अन्यत्र कहीं न जाना । उसका क्या उपाय करना उसकी चिन्ता अभयकुमार करने लगा । इस अर्से में माघ महीने के किसी दिनको संध्या के समय चेलणा राणीने सरोवर के तट पर एक साधुको काउसग्ग ध्यानमें रहा हुआ देखा । तब राणी विचार करने लगी कि यह ऋषि रात्रि के समय ठंडी कैसे सहन करेगा ? इसी विचार में घर आ कर रात्रिको शय्यामें सोगई । वहां अपना हाथ खुल्ला ( सोडके बाहर ) रह गया, और जागृत हो कर देखा तो हाथ ठंडा लगा, उस समय साधु याद आ गया । अब श्रेणिक राजा सोचने लगा कि मेरा अंतेउर मुझे अनुकूल नहीं है । शेष रात्रिको अभयकुमारने आकर जुहार किया, उसे श्रेणिकने कहा कि अंतेउरको जला दो । ऐसा कह कर स्वयं राजा श्रीवीर भगवंतको पूछने के लिये गया । पीछेसे अभयकुमारने विचार किया कि अंतेउर में तो चेलणादिक महासतियां हैं, अतः आग लगाना उचित नहीं । ऐसा विचार कर एक पुराणी हस्तीशालाको आग लगा कर अभयकुमार श्रीवीरप्रभुके समोसरण प्रति चला । वहां श्रेणिकने श्रीवीर प्रभुको पूछा कि मेरी बी चेलणा सती है किंवा असती ? प्रभुने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा कि-चेडा महाराजाकी सातों पुत्रीयां सती हैं। यह श्रवण कर श्रेणिक वापिस लौटा, गांवमें आग जलती हुई देखी। रास्ते में अभयकुमार मिला, उसे राजाने पूछा कि अंतेउरको आग लगाई ? अभयकुमारने कहा कि-हा स्वामी ! आग लगाई । तब श्रेणिकने कोप करके कहा कि-तू क्यों न जल गया ? अब तू मेरेसे दूर जा। तब अभयकुमारने कहा कि-मैं आपका यही आदेश चाहता था । शीतल आगमें प्रविष्ट हो कर मैं कार्यसाधन करूंगा। ऐसा कह कर समोसरणमें जा कर श्रीवीरप्रभुके पास दीक्षा ली । राजा श्रेणिक फिर समोसरण प्रति चला । श्रेणिकके आनेके पहले ही अभयकुमार दीक्षा ले कर साधुसमुदायमें जा कर बैठे थे। उनके पास जा कर राजाने वंदना की, अपराधकी क्षमा याची। अभयकुमार ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप पाल कर सर्वार्थसिद्ध विमानमें पहुंचे । एकावतारी हो कर मोक्षमें जायेंगे।" इस प्रकार ४८ पृच्छाके उत्तर परमेश्वरने कहे । जं गोयमेण पुढे तं कहियं जिणवरेण वीरेग। भवा भावेइ सया धम्माधम्मफलं पयर्ड ॥ ६३ ॥ अडयालीसा पुच्छो तरेहिं गाहाण होइ चउसही । संखेवेणे भणिया गोयमपुच्छा महत्थावि ॥ ६४ ॥ अर्थात्-जो कुछ पुण्यपाएके फल श्रीगौतमस्वामीने पूछे, उनके उत्तर श्रीमहावीर स्वामीने दिये। वह हे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) भव्यजनो ! तुम भावसे सदैव धर्म अधर्मके फलको प्रकट विचारो, धर्म आराधो (६३) अब इस शास्त्रमें प्रभोत्त. रकी गाथाकी संख्या कहते हैं । ४८ प्रश्नोत्तरोंकी ६४ गाथाएं हुई। ऐसा श्रीगौतमपृच्छा रूप जो ग्रंथ यद्यपि वह महा अर्थ रूप है तथापि यहां संक्षेपसे कहा (६४) ®®®®®®® @ गौतमपृच्छा समाप्ता । 0933332993 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ONA सरस्वती ग्रंथमाला के स्थायी ग्राहक नहीं हुए हैं तो कहना होगाकिआप अपूर्व अवसर खो रहे हैं। प्रत्येक पुस्तककी भाषा सरल और सबके समझने योग्य होती है। अबतक निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं: १ विवेक विलास, आचारः परमो धर्मः का पढ़ाने वाली अपूर्व पुस्तक है । मूल्य २॥ २ राष्ट्रभाषा-हिन्दी, हिन्दी भाषा के विरोधियों की दलीलों का मुँह तोड़ उत्तर दिया गया है । मूल्य । ३ सुधार, सुधारके प्रथम अंग समाज सुधार पर स्वतन्त्र रूपसे लिखी गई हिन्दी में यह सबसे पहली पुस्तक है । मू.॥ ४ किन्नरी, यह एक खेलने योग्य नाटक है। मूल्य २ ५ कल्याणी, यह एक सामाजिक उपन्यास है। उपन्यास पठनीय है । मूल्य २॥ ६ बैकिंग और करन्सी, व्यापार विषयक एक महत्व पूर्ण ग्रंथ है। मूल्य ४ ७ स्त्रिया की स्वतन्त्रता, मूल्य १ एक पैसे के पोस्टकार्ड द्वारा स्थायी ग्राहक बनने की सूचना दे देने से ग्रंथमाला के सब ग्रंथ उनकी सेवा में पौन मूल्य में भेज दिए जाएंगे और आगे भी सब ग्रंथ उन्हें तीन चौथाई मूल्य में मिलेंगे । पता: मैनेजर, सरस्वती ग्रंथमाला-बेलनगंज, आगरा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य का श्रृंगार! जागृति का द्वार!! राष्ट्रीयता का अप्रकट धर्माभ्युदय रोत्त___ सचित्र मासिक पत्र । यदि आप को हिन्दी साहित्य के ख्यात नामा लेखकों के लेखों तथा प्रतिभाशाली कवियों की मनोमुग्ध कारी कवितायें पढ़ने का भाव है, यदि आपको घर बैठे उद्योग तथा व्यापार, शिक्षा, विज्ञान, साहित्य, समाज और धर्म सम्बन्धी जागृति का हाल जानना है तो धमाभ्युदय के ग्राहक बन जाइये । इसका आलोक-विचार लहरी, मधुकर, विश्ववार्ता, और महिला मन्दिर, कौन नहीं पढ़ना चाहेगा । प्रत्येक अंकमें भाव पूर्ण चित्र होते हैं । ग्राहक बनने के लिए शीघ्रता कीजिये, वार्षिक मूल्य केवल ३) रु. है। मैनेजर-धर्माभ्युदय, बेलनगंज-आगरा। सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, बेलनगंज-आगरा । हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं में किसी तरह की पुस्तकें, समाचार पत्र, नोटिस, निमत्रंण पत्र, चिट्ठी पत्री, फोटो, आदि जो कुछ भी छपवाना हो, उसके लिये आप और कहीं न जाकर यदि हमारे ही प्रेस में आवंगे तो आपको समय पर शुद्ध और सुन्दर छपाई देकर सब तरह से सन्तुष्ट करेंगे । एकवार अनुभव कर देखिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બી થશle alcobito bike Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com