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रोगी, मूर्ख और कुरूपवान् हुआ ? एवं उस पर मेरे हृदयम बहुत प्रेम आता है इसका भी क्या कारण ? वह कृपा कर मुझे कहीए ।'
मुनिने कहा कि-' इस भवसे तीसरे भवमें तू और कुमार मिलकर दोनों कुलपुत्र मित्र थे । एकका नाम आंबा व दूसरेका नाम लींबा था । तुम दोनों में परस्पर अत्यंत स्नेह था । आंवा निरन्तर गुरुकी सेवा करता था, पुण्य पाप सम्बन्धी विचार पूछता रहता था और गुरुके कहने से उसने पांच वर्ष और पांच मास पर्यंत ज्ञानपंचमी तप, विधिपूर्वक एकाग्रचित्तसे किया। उसने ज्ञान और ज्ञानवन्तकी अत्यंत भक्ति की, उस पुण्यसे आंबाका जीव मर कर देवलोक देवत्ता हुआ। वहांसे चव कर तू वेसमण सेठका पुत्र हुआ है । और लींबाका जीव तो नास्तिकवादी हो कर, जीवहिंसा करना, अच्छा खाना, अच्छा पीना, स्वेच्छानुसार घूमना, 'पढनेसे क्या होगा? धर्म करनेकी क्या जरूरत ? उसका फल कुछ भी नहीं है, जो धर्म करे सो विशेष दुःखी होवे' ऐसा ही चिंतवन करना तथा लोगोंको उपदेश भी ऐसाही करना, यही उसका काम था। यद्यपि दोनों मित्र थे, तथापि स्वभावमें एक दूसरेके बीच बडाही अन्तर था। एकही गांठमें चाहे बांधे हो, लेकिन जो काच है वह काचही कहावेगा और जो मणि होगा सो मणिही कहलावेगा । उसी प्रकार दोनों मित्र थे, तो भी आंबा धर्मका उत्थापन करता था। धर्मकी निंदा करके वह नरकमें गया। वहांसे निकल कर कुमार नामक तुम्हारा सेवक हुआ। पूर्वकृत कर्मके उदयसे वह मूक, मूर्ख, दुर्भागी और कुरूपी हुआ । जैसा नाम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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